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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
उन्होंने यह भी कहा है कि उनमें प्रमाद बिलकुल नहीं था और वे दिन-रात सुन्दर काव्यों के अवलोकन में लवलीन रहा करते थे। प्रस्तुत प्रन्थ १४ संधियों में समाप्त हुआ है, उसमें कुल २१५ कडवक हैं और सम्पूर्ण ग्रन्थ २५०० श्लोक-प्रमाण है। इस भारी ग्रन्थ को कवि ने केवल एक माह के समय में ही रच डाला था। इसमें सन्देह नहीं कि कवि प्रतिभाशाली, विद्वान् और व्यासनी थे। अम्बाप्रसाद जी ने कहा था "आपने अपने सुकवित्व-द्वारा अपने गुरुकुल और तातकुल दोनों को पवित्र, शाश्वत और महान् बना दिया है। क्या हम आशा करें कि इस प्रशंसा के आधारभूत कवि के उन सब या उनमें से बहुत से ग्रन्थों के हमें कभी दर्शन प्राप्त हो सकेंगे?
षट्कर्मोपदेश के जिन अंशों के आधार पर पूर्वोक्त वृत्तान्त लिखा गया है उन्हें परिशिष्ट में देखिये। इस ग्रन्थ के विषय और काव्य का परिचय अगले लेख में कराया जायगा।
परिशिष्ट
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षट्कर्मोपदेश की पूर्वपीठिका
प्रारम्भ
परमप्पय-भायणु सुह-(गइ)-पावणु णिहणिय-जम्म-जरा-मरणु । सासय-सिरि-सुंदरु पणय-पुरंदरु रिसहु णविवि तिहुवण सरणु ॥
(संधि १, कडवक ४-८) अह गुजर-विसयहु मज्झि देलु णामेण महीयडु बहु-पपसु ।
णयरायर-वर-गामहिं णिरुद्ध, णाणा-पयार-संपइ-समिद्ध । परमात्म-पद के भाजन, शुभगति को प्राप्त करानेवाले, जन्म, जरा और मरण के विनाशक, शाश्वतलक्ष्मी से शोभायमान, इन्द्रों द्वारा पूज्य और त्रिभुवन के शरण ऋषभदेव भगवान् को नमस्कार करके (मैं कान्य रचना करता हूं)।
अथ गुर्जर (गुजरात) विषय के मध्य में महीकट (महीकांठा) नामका देश है जिसके अन्तर्गत बहुत से प्रदेश हैं। वह बड़े बड़े नगरों और उत्तम ग्रामों से भरा हुआ तथा नाना प्रकार की सम्पत्ति से
१ देखो परिशिष्ट २ (१४, १८, १० इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ) २ देखो परिशिष्ट १ (१, ७, ६ पई गुरुकुलु ताबहो कुलु पवित्तु । सुकइतें सासउ किउ महंत)।