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भास्कर
[ भाग ३
तहिं णयरु अस्थि गादहय-णामु णं सग्गु विचित्तु सुरेस-धामु। पासायहं पंतिउ जहिं सहति सरयम्भहु सोहा णं वहति ।
धय-किंकिणि कलरावहिं सरिद्धि णं कहइ सुरहं पाविय पसिद्धि । घत्ता-देसागय-लायहिं जाय-पोयहिं जं णिएवि मणि मरिणयउ ।
एवहिं संकासउ लच्छि-पयासउ णयरु ण अण्णु पवरिणयउ ॥४॥ तं चालुक्क-बसि णय-जाणउ पालइ कण्ह-रिंदु पहाणउ । जो बझंतरारि-विद्धंसणु भत्तिए सम्माणिय छदसणु । णिव-वंदिग्गदेव-तणु-जायउ खत्तधम्मु णं दरिसिय-कायउ । . . सयल काल भाविय णिव-विजउ पुहविहिं...वि णत्थि तहो विजउ। धम्म-परोवयार-सुह-दाणइं णिच्च-महूसव बुद्धि समाणइं। ५ जासु रजि जणु एयह माणइ दुक्खु दुहिक्खु रोउ ण वियाणई । रिसह-जिणेस हो तहिं चेईहरु तंगु सुहा-सोहिउ णं ससहरु ।
दसणेण जसु दुरिउ विलिजइ पुण्ण-हेउ जं जणि मण्णिजइ । घत्ता-अमियगइ महामुणि, मुणिचूड़ामणि, आसि तित्थु समसीलधणु।
विरइय-बहु-सत्थउ, कित्ति-समत्थउ, सगुणाणंदिय-णिवइ-मणु ॥५॥ १०
समृद्धिशाली है। वहाँ गोदहय (गोध्रा) नाम का एक नगर है मानो वह सुरेश का निवास स्थान विचित्र स्वर्ग ही हो। जहां प्रासादों की पंक्तियाँ विराज रही हैं मानो शरत्काल के मेघों की ही शोभा को धारण किये हों। ध्वजा-किकिणिओं के कलरव द्वारा मानो वह कह रही थी कि उसने देवों की समृद्धिशाली प्रसिद्धि प्राप्त करली। उसे देखकर नाना देशों से आये हुए लोग प्रमुदित होकर अपने मन में विचारने लगते थे कि इसके समान लक्ष्मीवान नगर तो अन्य कोई नहीं वर्णन किया गया ।
उस नगर का पालन नीतिकुशल, चालुक्यवंश में प्रधान कृष्णनरेन्द्र करते थे। वे बाह्य और अभ्यन्तर शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले थे तथा षड्दर्शन का भक्ति सहित सन्मान करते थे। वे नृप वंदिगदेव के तनुज (पुत्र) थे, मानो क्षत्रिय धर्म ने ही शरीर धारण कर लिया हो। वे सदा काल राजविद्याओं का अभ्यास किया करते थे। पृथ्वीभर में उनकी तुलना करनेवाला कोई नहीं था (?) । धर्म, परोपकार, सुख, दान और नित्य-महोत्सव इन्हें ही लोग उनके राज्य में अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार मानते थे, पर दुःख, दुर्भिक्ष या रोग का उन्हें कोई अनुभव नहीं था। उसी नगर में ऋषभदेव तीर्थकर का चैत्यालय था जो ऊँचा और सुधा (चूनेकी पुताई) से शोभायमान था मानो चन्द्र ही हो। उसके दर्शन से पाप विलीन हो जाते थे। वह लोगों में पुण्य का हेतु माना जाता था। वहाँ मुनिचूड़ामणि, शम और शील को ही अपना धन समझनेवाले, अनेक शास्त्रों के रचयिता, कीर्ति में समर्थ तथा अपने गुणों द्वारा नृपति के मन को आनन्दित करनेवाले महामुनि अमितगति हुए।
उनके शिष्य शान्तिषेण गणि हुए जिन्होंने अपने चरणकमलों पर महीश को भी नमा दिया था ।