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________________ भास्कर [ भाग २ आइये पाठक ! अब हम अपने दुर्धर्ष महाकवि और उनकी आसुरभित कृति पार्थ्याभ्युदय की चर्चा करें। जिन दिनों राष्ट्रकूट-बंशीय महाराज प्रथम अमोघवर्ष कर्णाटक और महाराष्ट्र के संयुक्त राष्ट्र पर शासन कर रहे थे, उन्हीं दिनों महाकवि श्रीजिनसेनाचार्य ने अपने अमर काव्य श्रीपार्थ्याभ्युदय की रचना की। आचार्य वीरसेन हमारे महाकवि और उनके सहपाठी विनयसेन के गुरु थे। 'सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्। के अनुसार इन्हीं महापुरुष श्रीविनयसेनाचार्या की अभ्यर्थना एवं अनुनय-विनय से समु. त्साहित हो श्रीजिनसेन ने पार्वाभ्युदय को सङ्कलित किया। यह घटना जैन समाज के इतिहास में कोई नयी बात नहीं है। संस्कृत-साहित्य की प्रायः सारी शाखायें जैनाचार्यो को उपकृतियों के ऋणभार से लदी हैं। हेमचन्द्रादि कोष, वाग्भट्टादि अलङ्कारग्रन्थ, स्याद्वादमंजरी आदि दर्शन, अगणित काव्यग्रन्थ, शाकटायन एवं हेमचन्द्रानुशासन आदि व्याकरण ग्रन्थ, अनेक नीति एवं अगणित-शतक ग्रन्थ इत्यादि इस बात की सत्यता के ज्वलन्त उदाहरण हैं। महाराज श्रीअमोघवर्ष ने भी अपनी रचनाओं के द्वारा साहित्य की अनल्प सेवा की है। ऐसा सुषमामय वातावरण, ऐसे साहित्यसेवो कवि और काव्य के प्राण नरपति, ऐसे विद्याविनोदी बन्धु क्या कभी निष्फल जा सकते हैं ? पार्वाभ्युदय की रचना कवि ने ७३६ शकाब्द में की थी। इसमें उन्होंने महाकवि कालिदास-कृत खण्ड काव्य मेघदूत के श्लोकों के एक एक या दो दो चरणों को लेकर समस्यापूर्ति की है। इस सम्बन्ध में टीकाकार श्री योगिराट् पण्डिताचार्य का कथन है कि महाराज अमोघवर्ष की सभा में कालिदास ने अपने मेघदूत को उपस्थित किया। जिनसेनाचार्य राजपण्डित थे। उन्होंने श्लोकों को प्राचीन और पूर्व-रचित उद्घोषित किया, और अपनी बात को प्रमाणित करने के लिये ही जिनसेनाचार्य ने पार्खाभ्युदय को रच डाला। जान पड़ता है टीकाकार ने भाजप्रबन्ध में वर्णित कथाओं की छाया लेकर हो, अथवा अन्य के महत्त्व को सूचित करने के लिये ही ऐसी कोरी कल्पना कर डाली है । योगिराट् ने शकाब्द १३२१ के उपरान्त ही पाश्र्वाभ्युदय की टीका बनायी है, क्योंकि टीका में समुद्धृत नानार्थरत्नमाला का निर्माण १३२१ शकाब्द में हुआ था। जैनकवि श्रीरविकीर्ति के ५५६ शकाब्द के लेख में कालिदास का वर्णन है। अतः कालिदास और जिनसेनाचार्य की समकालीनता की टीकाकार की कल्पना सर्वथा निर्मूल है। जो हो, कवि ने कालिदास के मेघदूत को अपने समस्या-जाल में उग्रथित कर अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया है। मेघदूत का नायक यक्ष अपनी प्रोषितपतिका पत्नी के पास मेघ के द्वारा अपना सन्देश भिजवाता है, अतः उस काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार की सरिता एकाकिनी प्रवाहित होती है। शृङ्गार रस से ओतप्रोत श्लोकां के चरणों को तेइसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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