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________________ ७७ किरण २] कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पाम्युिदय जी की पौराणिकी वार्ता के सांचे में ढालने का प्रयास कवि के अद्भुत उत्कर्ष को उद्योतित करता है। यक्ष ने अपने स्वामी कुबेर की आज्ञा के पालन में अनवधानता की थी इसी कारण उसे अलकापुरी से वर्षभर के लिये निर्वासित किया गया था। आठ महीने का समय काट चुकने पर उसे आषाढ़ के प्रारम्भ में मेघ का दर्शन होता है और उसके चिरसञ्चित पत्नीप्रेम के सागर में तूफान उठ आता है। इसीलिये विवश हो प्रेम में उन्मत्त होकर वह अचेतन मेघ को चेतन समझ उसे दूत बनाकर पत्नी के पास भेजता है। मेघ को वह दीन यक्ष रामगिरि से अलकापुरी जाने का रास्ता दिखाता है और मार्ग में पड़ने वाले नगरों, वनों, पर्वतों एवं नदियों का वर्णन करने के पश्चात् उसे अपना सन्देश सुनाता है। अपने वर्णनों में महाकवि कालिदास ने अपनी स्वभावसिद्ध वैदर्भी रीति का आश्रय लिया है, एवं अपने इष्ट शृङ्गार रस का स्थान-स्थान पर इन्होंने अद्भुत प्रस्फुटित रूप दिखाया है। ___ अब हमें यह देखना है कि कविवर जिनसेनाचार्य ने किस प्रकार श्रीपार्श्वनाथ की पौराणिक कथा में शृङ्गार का समावेश किया, और किन किन स्थलों पर अपने इष्ट साधन के लिये उन्होंने उक्त कथा में घटाव, बढ़ाव या परिवर्तन किये हैं, तथा अपने महाकाव्य की रचना में साहित्यिक दृष्टि से उन्होंने कहाँ तक सफलता पायी है। परन्तु इतने बड़े कार्य को एक छोटे से लेख में समाविष्ट करना उतना ही असम्भव है जितना गागर में सागर का भरना। तथापि हम 'स्थालीपुलाक न्याय' का आश्रय लेकर कुछ न कुछ अपने प्रिय पाठकों की उत्सुकता का समाधान करना आवश्यक समझते हैं। महाराज अरविन्द के शासनकाल में कमठ और मरुभूति नामक दो सहोदर भाई राज-दरबार का अलङ्कृत करते थे। एक समय मरुभूति महाराज के साथ युद्धस्थल को गया था। इस अवसर पर बड़े भाई कमठ ने भ्रातृ-पत्नी वसुन्धरा के रूप पर आसक्त हो अपनी पत्नी के द्वारा उसे वश में कर लिया। युद्ध से लौटते ही महाराज ने इस अत्याचार का पता पा कमठ को चिरनिर्वासन का दण्ड दे नगर से निकाल दिया। कमठ इसे अपने छोटे भाई की चाल समझ वन में जाकर वैरशोध के लिये तपस्या करने लगा। शीलवान् मरुभूति का हृदय बड़े भाई की इस दुरवस्था पर पसीज गया, और वह उस से क्षमा मांगने को वन में जा उसके चरणों पर गिर पड़ा। क्रोधान्ध कमठ ने एक भारी चट्टान से उसे दे मारा। वही मरुभूति किसी दूसरे जन्म में तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ का अवतार धारण कर काशी में तपस्या कर रहा था। कमठ भी देह त्याग कर शम्बर के रूप में अवतीर्ण हुआ; इसी स्थल से पार्थ्याभ्युदय के कथानक का आरम्भ होता है। जिनसेनाचार्य ने शम्बर को मेघदूत का यक्ष बनाया है और उसके आजीवन निर्वासन को केवल वर्ष भर का दण्ड बताकर उन्होंने समस्या-पूर्ति की कठिनाइयों को सरल किया है।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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