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________________ भास्कर [भाग २ कालिदास ने मन्दाक्रान्ता छन्द में अपने काव्य को लिखा है। अतः हमारे कवि को भी वही छन्द लेना पड़ा। इनकी रीति भी प्रायः कालिदास की ही रीति है, और दोनों ही काव्यों में प्रसाद गुण भी हैं। परन्तु काव्य की आत्मा रस है, इस के सम्बन्ध में दोनों ही दो विरुद्ध दिशाओं में चलने वाले हैं। कालिदास रसरज्जु की एक छोर शृङ्गार का ताने बैठे हैं, और जिनसेनाचार्य उसको दूसरी छोर की रौद्र, वीर एवं शान्त की तीन प्रधान गांठों को लिये अकड़े हैं। इसी उलझन के सुलझाने में जिनसेन जी ने अपनी अद्भुत भाव-प्रवणता का परिचय दिया है। "तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः” इस चरण में कालिदास ने वियोगी यक्ष की विरह-वेदना का सजीव चित्र खींचा है। वह यक्ष अचेतन मेघ को चेतन मान उसके आगे हाथ जोड़े खड़ा होकर अपनी मोहावस्था को प्रकटित करता है। उसकी विरह-वेदना इतनी बढ़ी है कि वह खड़ा होने में असमर्थ प्रतीत होता है। अब देखिये हमारा कवि इस चरण को लेकर कैसी रचना करता है सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशः हताशः स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फुर्जन् नवजलमुचः कालिमानं दधान "स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ॥" कितना महान् अन्तर है। सिनेमा के चित्रपट पर जिस प्रकार एक सौम्यमूर्ति सहसा विलीन हो जाती है और उसके स्थान पर तत्काल ही दूसरी भयानक रुद्रमूर्ति खड़ी हो जाती है, ठीक उसी प्रकार कालिदास का वियोगका मारा यक्ष गायब हो जाता है और क्रोध से कांपता, कुटिल, कपट की मूर्ति शम्बर रुद्ररूप में प्रकट हो जाता है। धन्यवाद ! इस अनूप परिवर्तन की कला को। जिनसेनजी का यक्ष "धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः।" । ऐसे निर्जीव मेघ के आगे नहीं, वरन् ध्यानस्थ "अन्तर्निरुन्धन्” भिक्षु पार्श्वनाथ के आगे वेरभाव से जलता खड़ा है। जरा आंकड़े लगा कर देखिये तो पता चलेगा कि जिनसेनाचार्य ने कितनी गहरी डुब्बी लगायी है। कालिदास के मेघ की अचेतनता यहां भी लायी गयी है, और उसे लाकर योगी का महान् उपकार किया गया है। मुनि को दैत्य की गालियां नहीं सुननी पड़ीं, एवं उसकी तर्जना उन्हें विचलित करने में असमर्थ हो जाती है। जिनसेन जी के विचित्र परिवर्तन के आश्चर्यकारी आयास का एक और नमूना लीजिये"कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।" (सशेष)
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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