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________________ वैद्य-सार २-प्रमेह पर वंग-भस्म शरावे निक्षिपेत् शुद्ध बंगं पलचतुष्टयम्। दीप्यकं तु चतुःप्रस्थं द्विप्रस्थं रजनोरजः ॥१॥ विलीनवंगं तज्ज्ञात्वा. गालयेद्भस्मवद्भवेत्। विदारीकंदो मुसली गोक्षुरो भूमिशर्करा ॥२॥ सुरवल्ली सारकः साम्यमेतेषां द्विगुणा सिता। बंगभस्म पर्णकं तु योजयित्वा तु भक्षयेत् ॥३॥ चुलुकं सितोदकं पानं द्विदलैश्चाम्लवर्जितम्। सर्वप्रमेहविध्वंसि पूज्यपादनिरूपितम् ॥४॥ टीका-एक मिट्टी के गहरे सरावे में अथवा हंडी में शुद्ध बंग (रांगा) को १६ तोला लेकर डाल देवे और उसके नीचे आगी जलावे जब वह गल जावे तब उसमें ५२ छटांक जीरे का चूर्ण पीस कर डाले तथा ३२ छटांक हल्दी का चूर्ण डालता जावे इस प्रकार डालते रहने से रांगे का भस्म तैयार हो जायगी। जब वंग भस्म वारितर हो जाय (जल में तैर जावे अर्थात् नीचे नहीं डूबे ) तब नीचे लिखे अनुपान से सेवन करे। यथा विदारीकंद, मूसली, गाखुरू, भूमिशर्करा, गुर्च का सत ये पाँचो तीन तीन माशे लेकर सब का चूर्ण करे तथा सबके बराबर उत्तम मिश्री मिलाकर चूर्ण तैयार करले और फिर १ पण (५ रत्ती) वंग भस्म लेकर उसमें मिलावे तथा प्रतिदिन प्रातःकाल तथा सायंकाल मिश्री की चासनी से सेवन करे तथा उसके ऊपर एक चुल्लू मिश्री का पानी पोवे तथा खटाई और दाल की बनी चीजें नहीं सेवन करे। प्रमैहों का नाश करनेवाला यह योग श्रीपूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ है। ३-प्रमेहादि पर कर्पूररस शुद्ध सूतं पलमितं समादाय पुनस्ततः । सैन्धवं स्फाटिकं सम्यक् शुद्ध द्विचतुः पलं ॥१॥ चूर्णयित्वाथ जंवीररसेन परिमर्दयेत् । तस्योपरि रसं क्षिप्त्वा समालोड्य विमीलयेत् ॥२॥ हंडिकायां च तत्कल्कं क्षिप्त्वोपरि शरावकं । निरुभ्य संधि वघ्नीयात् दृढ़ मृण्मयकर्पटैः ॥३॥ रवियामं पचेयत्नात् ऊर्व भांडगतं भवेत् ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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