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प्रकाशकीय वक्तव्य
सर्व-प्रसिद्ध संसार की परिवर्तनशीलता का गीत गाने को अब आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक समाज और प्राणी को नवीनता का नूतन दृश्य पल-पल दृग्गोचर हो रहा है। ऐसी दशा मे किसी देश अथवा समाज का साहित्य अथवा इतिहास इस अमिट एवं निश्चित नवीनता का शिकार बने बिना भला कैसे रह सकता है ? इसी पुरातन पद्धति के पथिक हे'कर जैन साहित्य और इतिहास को भी कई कलेवर बदलने पड़े--अनेक अठखेलियाँ खेलनी पड़ीं। पर, इतने पर भी ; ऐसे विषम समम मे भी इसने अपनी प्रकृत सत्ता रक्षित रखी अवश्य ।
एक वह भी समय था जब कि अगाध ज्ञान भाण्डार के सुचतुर संरक्षक प्रातःस्मरणीय श्रीसमन्तभद्र और आराध्यपाद अकलङ्कदेव आदि आचार्यों की निष्कलङ्क एवं प्रदीप्त साहित्यिक प्रतिभा के लोहे सब किसी को मानने पड़ते थे-नाव-धर्म के आदर्शभूत महाराज अमोघवर्ष और चामुण्ड राय आदि जैन राजाओं की डंके की चोट से समुद्घोषित शास्त्रीय घोषणा सभी साहित्यिक शूर-वीरों को कान खोल कर सुननी पड़ी थी। पर, हाय ! एक उस दुदैवग्रस्त युग की याद आये बिना नहीं रहती, जिम दिनों भारतीय सुधासरोवर की अहिंसारसाप्लुत स्वर्णमयी मछलियाँ निर्दयता की वंशी का शिकार बन कर अपने जीवन की घड़ियाँ गिन रही थीं। बल्कि उन दिनों, अथक परिश्रम से सञ्चित अपनी अमूल्य साहित्य-सम्पत्ति लुटती देखकर आचार्यों एवं ऋषि मुनियों की यही दिव्य आकाशवाणी सुन पड़ती थी कि "कोयल ! है यह पावस मौन हो, बैठ करील की डारिन प्यारी । दादुर की टिटिकारिन में तुव बोलिवे की है कहा अब वारी ?"
खैर समय ने पलटा खाया। वह समय भी परिवर्तन के पचड़े में पड़कर गुजर गया । पक्षपातरहित कुछ साहित्यिकों और ऐतिहासिकों की संख्या बढ़ी। इन्हें साहित्य-तृषा की आतुरता में जो कुछ खट्टी-मीठी, उलटी-सीधी मिली उसी से अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करने की चेष्टा करने लगे। यहाँ तक कि शीघ्रता में स्थाद्वाद-सिद्धान्त के प्रधान पृष्ठपोषक जैनधर्म को कुछ लोग क्षणिकवादी बौधर्म की शाखा भी मानने लगे। मानने ही तक नहीं लगे बल्कि स्थायी साहित्य-रूप ऐतिहासिक पुस्तकों में इस अपने भ्रान्त सिद्धान्त को आश्रय भी देने लगे। .
साहित्य एवं इतिहास-संसार में ऐसी ही गड़बड़झाला और उलझन को देखकर आज से लगभग बीस वर्ष हुए जैन साहित्य और इतिहास पर पूरा प्रभाव डालने की सदिच्छा से इस जैन-सिद्धान्त भास्कर का उदय हुआ था। जैन शिलालेख, ताम्रपत, आचार्यपट्टावली एवं प्रशस्तियाँ प्रचुर परिमाण में निकाल कर इसने अपने सुकान्त कलेवर को आकर्षक बनाने में जरा भी कोर-कसर नहीं की थी। गिने गुथे इतिहास वेत्ताओं का आदरपास भी हो ही चला था, किन्तु व्यापार पटु जैनियों के शिक्षासंघर्ष में सबसे पीछे पड़े रहने एवं तोता-मैना के किस्से और चन्द्रकान्ता सन्तति जैसे उपन्यासों के पन्ने उलाउने भर तक स्वाध्याय धर्म की इति श्री समझने के हेतु समाज की उदासीनता