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किरण ३ ]
कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पार्श्वभ्युदय
प्रिय पाठक ! आप जान ही चुके हैं कि हमारे कवि को दूसरे की बन्दरी को नचाना पड़ा है। उस पर आफत यह कि जो नाच बन्दरी का अभ्यस्त है, वह नाच नहीं, बल्कि, विलकुल विपरीत और निरा नवीन। ऐसी कठिनाई का सामना कवि को करना पड़ा है। अब यदि कुछ अपकर्ष बलात्कार पा घुसे हो तो काई आश्चर्य नहीं।
....................."शुष्कवैराग्यहेतोः ।
___ स्तस्मिन्नद्रौ कतिचिदवलाविप्रयुक्तः स कामी॥" इत्यादि के द्वारा कामी कमठ में वैराग्य का प्रदर्शन प्रथम दृष्टि में विरूद्ध ही जान पड़ता परन्तु वैराग्य का यह एक 'शुष्क' विशेषण विरोध का मार्जन कर कमठ के वैराग्य को निष्फल बता काव्य को परिपुष्ट कर देता है।
"मेधैस्तावत्स्तनितमुखरैः विद्यु दुद्योतहासैः चित्तक्षोभान् द्विरदसदशैरस्य कुर्वे निकुर्वन्
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यावृत्ति चेतः इस पद्य में मेघ-गर्जन से योगी के हृदय में चित्त-क्षोभ पैदा करने का प्रयास कमठ कर रहा है। क्योंकि वह समझता है कि योगी वियुक्त है, और वियुक्त के हृदय में मेघ-दर्शन से विकार का होना स्वाभाविक है। यदि ऐसी बात सम्भव होती तो योगी की तपस्या ही कलुषित हो जाती और काव्य में महान दोष लग जाता। परन्तु यह कल्पना क्रोधान्ध कमठ की है, अतः दोष के बदले यह उत्कर्ण ही जनाती है।
"किन्ते वैरिद्विरदनघटाकुम्भसम्भेदनेषु प्राप्तस्येमा समरविजयो वीरलक्ष्म्या: करोऽयम् । नास्मत्खङ्गः द्यु तिपथमगाद्रक्तपातोत्सवानाम्
सम्भोगान्ते मम समुचितो हस्तसम्बाहनानाम् ॥ कालिदास के “सम्भोगान्ते” इत्यादि इस चरण से शृङ्गार रस अविराम प्रवाहित होता है। ऐसे भाव को भी कवि ने समस्यापूर्ति के सांचे में ढाल कर शृङ्गार रस से हटा पूर्णतया वीर रस में पहुंचा दिया है। यद्यपि इसके लिये उन्हें 'सम्भोग' इस पद्य के प्रसिद्धार्थ का परित्याग करना पड़ा है और 'अनुभव' यह अर्थ ग्रहण करना पड़ा है, तथापि इतने महान् परिवर्तन के अद्भुत चमत्कार के सामने प्रसिद्धार्थ परित्यागदोष ठहर नहीं सकता। हां,
"इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्य मेघम् बहुगुणमपदोणं कालिदासस्य काव्यम् । मलिमितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क: भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्णः" ॥