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________________ जैन-मूर्तियाँ (लेखक-कामता प्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०) "सम्मत्तरयणजुत्ता णिभरभत्तीय णिश्चमच्चंति। कम्मरकवण णिमित्तं देवा जिणणाह पडिमाउ ॥" -तिलोयपरणति । कृतज्ञता प्रकाश करने का भाव मनुष्य में स्वाभाविक है। निरीह असभ्य मनुष्य भी अपने वीर पूर्वजों का स्मरण करके इस भाव को व्यक्त करते हैं। ऐसा कोई सहृदय नहीं जो अपने उपकारी के प्रति प्रेम न करे और उस प्रेम को वह विविध प्रकार से प्रकट करने का उद्यम करता है। लन्दन के द्राफलगर स्क्वायर में प्रतिवर्ष हजारों अंग्रेज नर-नारी एक खास दिन इकटे होते हैं और वहाँ पर जो प्रसिद्ध नाविक एडमिरल नेलसन की पाषाण-मूर्ति बनी हुई है, उसके सामने नाचते-गाते और नेलसन को प्रशंसा के गीत गा-गा कर उस पाषाण मूर्ति पर ढेरों हार और फूल चढ़ा देते हैं। अंग्रेजों को यह क्रिया उस पाषाण-पत्थर की पूजा नहीं है, बल्कि उस महापुरुष के उपकार के प्रति भक्ति का प्रदर्शन हैं। भक्तजन अपने उपकारी की परोक्ष-विनय करने के लिये उसकी आकृति - को स्थापना पाषाण-काठ आदि में कर लेते हैं। यह एक स्वाभाविक नियम है। जैनधर्म में भी मूर्ति स्थापना का आधार 'यहो नियम है। श्रीविद्यानंदिस्वामी अपने पात्र.केसरी स्तोत्र' के निम्न श्लोक में यही प्रकट करते हैं : 'विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः . क्रियाबहुविधासुभृन्मरणपीडनहेतवः। त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशिताः किन्तुता स्त्वयि प्रसृतिभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ॥३६॥ अर्थात्-"विमोक्ष सुख के लिये चैत्यालयादि का निर्माण, दान का देना, पूजन का करना इत्यादि रूप से अथवा इन्हें लक्ष्य करके जितनी क्रियायें की जाती हैं और जो अनेक प्रकार से बस-स्थावर जीवों के मरण तथा पीड़न की कारणीभूत हैं, उन सब क्रियायों का, हे केवली भगवान् ! आपने उपदेश नहीं दिया; किन्तु आपके भक्तजन श्रावकों ने भक्ति से प्रेरित होकर उनका अनुष्ठान किया है।"
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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