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किरण ?
जैन-मूर्तियाँ
दूसरे शब्दों में यूं समझिये कि अरहंत भगवान ने मोक्षमार्ग का निरूपण करके जो लोक का कल्याण किया है, उस उपकार के लिये कृतज्ञता-ज्ञापन करना श्रावकों के लिये स्वाभाविक था-भक्तिभाव से प्रेरित होकर उन्होंने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर उनके प्रतिबिम्ब बनाये और वह प्रतिबिम्ब उनके लिये वीतराग भाव की शिक्षा देने में भी कार्यकारी हुए। उनकी आकृति ठीक वीतराग और समदृष्टि को लिये हुए बनाई गई। यही कारण है कि सम्यकदृष्टी जीव जिनप्रतिमा को साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् समझकर पूजता है और शुभभावों के फलरूप अपने कर्मों का तय करता है। उसके लिये वह मंगल-वस्तु है।
इस प्रकार जिन प्रतिमा की आवश्यकता प्राकृत स्पष्ट है और चूंकि मनुष्य और मनुष्यस्वभाव त्रिकाल में एक समान है, इसलिये इन प्रतिमाओं का जन्म अनन्तभूत में गर्मित है। लोक में कहीं न कहीं तत्व-रूप में उसका अस्तित्व रहेगा। यही कारण है कि जैनधर्म में मूर्तियां दो तरह की बताई गई हैं (१) कृत्रिम और (२) अकृत्रिम । अकृत्रिम प्रतिमायें सारे लोक में फैली हुई हैं। भवनवासी देवों के आवासों में, ज्योतिषी देवों के विमानों में, कल्पवासी देवों के स्वर्गों में और मनुष्यलोक के विविध स्थानों में रत्नमयी शास्वत जिन प्रतिमाओं का अस्तित्व जैनशास्त्र बतलाते हैं और उनकी ठीक ठीक गिनती भी उनमें बता दी गई है। जम्बूद्वीप में भी कई स्थलों पर ऐसी जिनप्रतिमायें हैं। उनमें मुख्य जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं पर स्थित चार द्वारों पर विराजमान हैं।' १ भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृतिमा सदा । __ वतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥४२॥६॥-धर्मसंग्रह श्रावकाचार । २ "तच्च मंगलं नाम स्थापना द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदादानंदजनक षोढा स्थापना मंगलं कृतिमाकृतिमाजिनादीनां प्रतिबिम्बं । इत्यादि ।"
-अंगोम्मटसार जीवतत्वप्रदीपिका टीका (कलकत्तो) पृष्ठ २ ३ 'कृत्वाऽकृतिमचारचैत्यनिलयान्नित्यं विलोकीगतान् । इप्यादि ।'-जिनपूजा। ४ तिलोयपएणति' में इनका विशेष वर्णन है । 'चरचाशतक' में उनकी गिनती इस प्रकार की है :
"सात किरोर बहत्तर लाख, पतालविर्षे जिनमंदिर जानौ । मध्यहि लोक में चार सौ ठावन, व्यंतर जोतिक के अधिकानौ ॥ लाख चौरासी हजार सतानबै, तेइस ऊरध लोक बखानौ ।
एकेक मैं प्रतिमा शत पाठ, नौं तिहु जोग त्रिकालु सयानौ ॥३६॥" ५ "विजयंत वैजयंत जयंत अपराजयंत णामेहिं ।
चत्तारि दुवाराई जंबूदीवे चउदिसासं ॥ सी हासणत्यत्तयभामंडलचामरादिरमणिज्जा । रवणमया जिणपडिमा गोउर दारे सोहंति ॥”–तिलोयपण्णति।