SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ भास्कर [ भाग २ ३३ के आगे सूत्रों का क्रम ग्रन्थकर्ताने इस प्रकार लिखा है। न च हेतारन्यथानुपपत्तिनिर्णीतये, यथोक्ततर्कप्रमाणादेव तदुपपत्तेः ॥ ३४-३॥ नियतकस्वभावे च दृष्टान्ते साकल्येन व्याप्तेरयोगतो विप्रतिपत्तौ तदन्तरापेक्षायामनवस्थितेर्निवारः समवतारः ॥ ३५-३॥ नाप्यविनाभावस्मृतये, प्रतिपन्नप्रतिबन्धस्य व्युत्पन्नमतेः पक्षहेतुप्रदर्शनेनैव तत्प्रसिद्धः॥३६-३॥ अन्तर्व्याप्त्या हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्तौ च बहिर्याप्तेरुद्भावनं व्यर्थम् ॥३७-३॥ पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिरन्यत्र तु बहिर्व्याप्तिः॥३८-३॥ यथानेकान्तात्मकं वस्तु सत्वस्य तथैवोपपत्तेरिति, अग्निमानयं देशो धूमवत्वात् , य एवंस एवं यथा पाकस्थानमिति च ॥ ३६ ॥ नोपनयनिगमनयोरपि परप्रतिपत्तौ सामर्थ्य पक्षहेतुप्रयोगादेव तस्याः सद्भावात् ॥४०-३॥ प्र० न० तत्वा० । ग्रन्थकार के द्वारा न० २८ पर कहे हुए सूत्र का पहिले कहे अनुसार न०३२ पर पढ़ने से सूत्र न० ३३ में भो "न दृष्टान्तववनं' इसके स्थान में "तद्धि" ऐसा ही पाठ करना चाहिये जिससे सूत्र का स्वरूप इस प्रकार हो जाता है तद्धि न परप्रतिपत्तये प्रभवति, तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव व्यापारोपलब्धेः ॥ ३३-३॥ इसके आगे सूत्र न० ३४ को इस प्रकार पढ़ना चाहिये न च दृष्टान्तवचनं हेतोरन्यथानुपपत्तिनिर्णीतये, यथोक्ततर्कप्रमाणादेव तदुपपत्तेः॥३४-३॥ इस सूत्र में "दृष्टान्तववन" यह पद इसलिये पढ़ना चाहिये कि सूत्र नं०३३ में "तद्धि" पद से सूत्र नं० ३२ में कहे हुए "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस पद का ग्रहण होता है, इसलिये सूत्र नं०३४ में यदि उसका अनुसंधान किया जायगा, तो दृष्टान्त के साथ उस सूत्र में प्रादि शब्द से ग्रहण किये गये उपनय और निगमन का भो इस में ग्रहण करना पड़ेगा,जो कि अनिष्ट है इसलिये सूत्र नं० ३४ में "दृष्टान्तवचन" इस पद का पाठ करना आवश्यक है। फिर भी इस से सूत्रों में गौरव नहीं हाता, कारण कि जो "दृष्टान्त वचनम्" यह पद सूत्र नं० ३३ में था उसीको वहां पर नहीं पढ़ कर के सूत्र नं. ३४ में पढ़ दिया गया है। आगे के सूत्रों का कम व स्वरूप जैसा है जैसा ही रहना चाहिये, केवल इस प्रकार के परिर्तन से सूत्र नं० ४० को विल्कुल आवश्यकता नहीं रह जातो है कारण की सूत्र नं. ३३ में कहे हुए "तद्धि पद से सूत्र नं० ३२ के "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस अंश का ग्रहण कर लिया गया है, जिस से उस में कहे हुए आदि शब्द से उपनय और निगमन का बोध हो जाता है, जैसा कि स्वर
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy