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किरण १ ]
प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
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सूत्र के पूर्व अश में से अनुसंधान हो सकता है। इसी के दृष्टान्त सूत्र नं० ३० में स्वयं ग्रन्थकारने भी "कृशानुमत्वे धूमवत्वस्य" इस अंश का “असत्यनुपपत्तेर्वा" इसमें अनुसंधान किया है। इसी तरह सूत्र नं० २८ में “द्विप्रकारः " यह पद न भी दिया जाय तो भी सूत्र का अर्थ असंगत नहीं होता है, इसलिये “द्वि प्रकार : " यह पद वहां पर निरर्थक ही है। सूत्र नं० ३२ में "पक्षहेतुव चनलक्षणमवयवद्वयमेव" की जगह "पतलत्तणमवयवद्वयमेव" यह अ ंश उपयुक्त कहा जा सकता है, कारण कि परार्थानुमान में पत्त - प्रयोग और हेतु - प्रयोग के समर्थन का ही यहां पर प्रकरण है इसलिये सूत्र नं० २३ में परार्थानुमान के लक्षण में कहे हुए "पक्ष हेतुवचनात्मकं" इस पद का " तत्" इस सर्वनाम पद से अनुसंधान हो सकता है। यदि कहा जाय कि “एतत् " पद से समीप में कहे हुए तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति दोनों हेतुओं का भी अनुसंधान हो सकता हैं इसलिये संदेह को दूर करने के लिये सूत्र में "पतत्" पद का पाठ नहीं करके "पक्षहेतुवचन" इसका पाठ किया है । तो इसका उत्तर यह है कि पक्ष को परार्थानुमान का अंग मानना चाहिये। इसका समर्थन स्वयं ग्रन्थकार ने ही पहिले कर दिया है। इसके साथ यदि हेतु के दोनों भेदों को शामिल करते हैं तो परार्थानुमान के दो अंग नहीं होंगे, तीन हो जायँगे। इससे ग्रन्थकार का दो अवयव स्वीकार करना असंगत ठहरेगा। दूसरी बात यह है कि एक अनुमान में तंथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति दोनों हेतुओं में से एक ही रहता है ऐसा ग्रन्थकार भी प्रतिपादन कर रहे हैं इसलिये फिर भी अनुमान के दो अंग नहीं सिद्ध होंगे। तीसरी यह है कि यहां पर पक्षप्रयोग और हेतुप्रयोग के वर्णन की प्रधानता है, न कि हेतु के भेदों की, इसलिये "प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीयः" (समीप की अपेक्षा प्रधान का ही अनुसंधायक पद से ग्रहण होता है) इस न्याय से पक्ष और हेतु वचन का ही "पतत्" पद से अनुसंधान होगा, हेतु के भेद तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति का नहीं होगा। चौथी बात यह है कि - ग्रन्थकार ने जो क्रम सूत्रों का रक्खा है उसमें हेतु के भेदों का कथन इस सूत्र के बाद ही किया है इसलिये उस क्रम में तो “पतत्" पद से तथेोपपत्ति अन्यथानुपपत्ति हेतुओं का अनुसंधान होना असंभव ही है इसलिये इस सूत्र में " पक्षहेतुबचनलक्षणमवयवद्वयमेव " इसके स्थान में "पलक्षणमवयवद्वयमेव" पाठ रखना उचित है । "पतल्लक्षणमवयवद्वयमेव " इसके भी स्थान में यदि "एतद्वयमेव" ऐसा पाठ कर दिया जाय तो सूत्र में और भी अधिक लघुता हो जाती है तथा अर्थप्रतीति में भो कोई बाधा नहीं पहुंचता है। लेकिन यह पद् तो परीक्षामुख का है इसलिये ग्रन्थकार अपने गन्थ में कैसे रख सकते थे; उन्होंने ता इसी के भय से "एतत् " पद तक सूत्र में नहीं आने दिया । उन के अपने सूत्रों में परीक्षामुख से भेद लाने का अधिक ध्यान था सूत्रपने का ध्यान कम था, अस्तु ! सूत्र नं०