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भास्कर
[भाग २
की सेवा गुरु-वर्य की, दुरा सु-गुरु ऐश्वर्य । सूर्य-चन्द्र-कुल-चन्द्र भी, चन्द्र ! भरित आश्चर्य ॥५॥ गिरिवर पर यह है नहीं, तव पदाङ्क ऋषिराज !। यह पदाङ्क कलिराज की, प्रबल पीठ पर राज ! ॥६॥ युद्ध-वोर जैसे रहे, धर्म-वीर त्यों तात ।। बाहर-भीतर अखिल:अरि के सर रक्खी लात ॥७॥ ग्रीक-राज-दुहिता हुई, दयिता तव बल देख। ' श्रद्धा-सुरसरिता बनी, वनिता निश्छल पेख ॥८॥ जग को जीत महीप जन, करें स्वराज्य प्रसार । निज को जीत अजीत प्रभु ! किया बोध विस्तार ॥६॥ महा मही के मोह को, मार, टार जंजाल । किया स्नेह शुचि शून्य से, अकथ, अलौकिक चाल ॥१०॥ समझा स्वामी ने सकल, शुभ शरीर-विज्ञान । अवनी अवनिप अन्य जो, प्रायः परम अ-जान ॥११॥ ले मृदु जीवन को अहह ! किया सिन्धु ने क्षार । रखा रसातल में सदा, बना उसे निस्सार ॥१२॥ तुमने जीवन प्रहण कर, किया मृदुलतागार । बचा रसातल-गमन से, लहा जन्म का सार.॥१३॥ नयनानन्द-द चन्द बस, दिन में मन्द मलीन ।
आत्मानन्द-द चन्द ! तव, नित्य प्रकाश प्रवीण !॥१४॥ धन्य जनेन्द्र ! जिनेन्द्र-जन ! धन्य ज्ञान गुण-केन्द्र ।। त्यागे असु उपवास-व्रत, सकुचित किया सुरेन्द्र ॥१५॥ मौर्य ! और्ज ओ सौर्य तव, सिमटे सवानिज बीच । तुधा मार संसार में, हुए अमर अरि-मीच !॥१६॥ बाहुबली जी प्रम से, आश्रम को तव नव्य । कबसे देख रहे खड़े, गड़े भाव में भव्य !॥१७॥ इस प्रपंच के पित्त से, पीत हुआ यह चित्त । लख न सके तव शुभ्रता, व्याप विषमता-वित्त ॥१८॥ सुख-निधान नित मान हम, करें पान संसार । दो सु-दृष्टि जिसमें इसे, जानें दुख-भंडार ॥१६॥ हवा लगी न, जगी नहीं, यह मम मानस-धूर । लगे हवा ! यह जग उठे ! हे वैखानस-सूर ! ॥२०॥