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किरण ३]
महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और क्षेमपुरी
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जोर्ण जैन मन्दिर हैं, जिनमें भिन्न भिन्न तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ और कई शिलालेख भी मौजूद हैं। __ यह एक किम्बदन्ती है कि विजयनगर के राजाओं ने ही गेरुसोप्पे के जैनवंश को कन्नड प्रदेश में हस्तावलम्बन दे उन्नत बनाया। किन्तु पता नहीं कि इस किम्वदन्ती में कहाँ तक यथार्थता है। लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी से यहाँ का शासन-भार प्रायः महिलाओं के ही हाथ में रहा। १६वीं और १७वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल के करीब करीब सभी लेखक गेरुसोप्पे और भटकल की महारानी का नाम आदर के साथ लेते हैं । (“बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैनस्मारक" पृष्ठ १३५) भैरवदेवी ही गेरुसोप्पे की अन्तिम महारानी थीं
और वह सन् १६०८ में मरी। उत्तर कन्नड जिला प्राचीन काल से ही जैनियों का केन्द्र बन गया था। 'सोदे' में ८ वीं शताब्दी में ही जैनमठ स्थापित हो गया था। ("बंबई प्रांत के प्राचीन जैनस्मारक" पृष्ठ १३७) बल्कि 'राजावली कथा' के आधार पर श्रवण. बेल्गोल के शिलालेखों के उद्धारक 'राइस' साहेब का कहना है कि इस 'सादे' का प्राचीन, नाम 'सुधापुर' है तथा यहां की गद्दी पर भट्टाकलङ्क भी आसीन थे। इस उत्तर कन्नड
१ जीवन्धर-चम्पू, क्षत्रचूड़ामणि, जीवन्धर-चरिते के रचयिताओं ने जीवन्धर स्वामी के मुख से क्षेमपुर के सहस्रकूट चैत्यालय में भगवान् शान्तिनाथ की स्तुति निम्नलिखित रूप से करायो है :(१) 'भवभरभयदूर भावितानन्दसारं. धृतविमलशरीरं दिव्यवाणी-विचारम् । मदनमदविकारं मञ्जुकारुण्यपूर, श्रयत जिनपधीरं शान्तिनाथं गभीरम्" ॥
(जी. चं० लम्ब ६ श्लो०१७) (२) "स्वान्तशान्तिं ममैकान्तामनेकान्तैकनायकः। शान्तिनाथो जिनः कुर्यात्संसृतिक शशान्तये ॥"
(क्ष० चू० लम्ब ६ श्लोक ३५) (३) "देव निम्मालयद कदगलु । आव तेरदलि मुच्चिदाडेलो । . कार्यालय कद केत्तिहुवु शान्तीश्वरने निम्म" ॥x x x
(जी० च० सन्धि १२ पद्य १६) किन्तु उक्त क्षत्रचूड़ामणि के कर्ता वादीभसिंह ने ही अपनी "गद्यचिन्तामणि" में उसी सहस्रकूट चैत्यालय में जीवन्धर के द्वारा शान्तिनाथ जी की स्तुति न करा कर भगवान् वर्धमान की इस प्रकार स्तुति करायी है:(४) तरन्ति संसारमहाम्बुराशिं यत्पादनावं प्रतिपद्य भव्याः । अखण्डमानन्दमखण्डितश्रीः श्रीवर्धमानः कुरुताजिनो नः" ॥
(ग. चि० ० ६, पृष्ठ १५३) उल्लिखित उद्धरणों से भी पता लगता है कि उस काल में वहाँ (क्षेमपुरी में) भिन्न भिन्न जिनप्रतिमा मौजूद थीं।