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किरण १ ]
नीतिवाक्यात और कन्नड - कवि नेमिनाथ
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कर सन्धि विग्रह का कार्य सम्पन्न करते थे । नेमिनाथ जी ने अपने को 'बुधविनुत' भी लिखा है । सम्भव है कि बहुतेरे पण्डित इनका समादर करते हो। इसमें सन्देह नहीं है कि संस्कृत - पाण्डित्य के साथ साथ यह एक राजनीतिज्ञ भी थे ।
अब कन्नड-व्याख्या पर भी एक नज़र दौड़ाना कोई अप्रासंगिक नहीं होगा। नीतिवाक्यामृत इस मूल ग्रन्थ के रचयिता पूज्यपाद श्रीसोमदेव सूरि हैं। यह प्रन्थ संस्कृत साहित्य का एक अमूल्य रत्न हैं। राजनीति ही इस ग्रन्थ का प्रधान विषय है। इसमें राजा और राज्यशासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रायः सभी बातों पर विचार किया गया है। यह सम्पूर्ण ग्रंथ पद्यमय है। इसकी प्रतिपादन शैली सुलभ, सुन्दर, संक्षिप्त एवं गंभीर है। वस्तुतः यह ग्रंथ अपने नामानुकूल अगाध नीतिसमुद्र के मन्थन से संगृहीत सारभूत अमृत ही है। इसमें सनीति का अवलम्बन करने का ही प्रदेश है। आचार्य सोमदेव के गुरु का नाम नेमिदेव और प्रगुरु का नाम यशोदेव था । हमारे सोमदेव जी बड़े भारी तार्किक कवि, धर्माचार्य एवं राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने कई ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनका विचार बहुत ही उदार था । आप तृतीय राष्ट्रकूट राजा कृष्ण के सामन्त चालुक्यवंश के द्वितीय अरिकेशरी के सभापण्डित थे। इनका समय ईस्वी सन् ६५६ है । इस सुन्दर नीतिग्रन्थ की एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। वह टीका मूल प्रन्थ के साथ ही साथ वि० सं० १९७६ में माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बंबई में छप चुकी है। उसमें टीकाकार का नाम नहीं मिलता है, पर टीकाकार के मंगलाचरण ज्ञात होता है कि वह वैष्णव थे। इन्होंने अपनी टीका में प्रमाणरूप में पचासो ग्रन्थ कारों के श्लोकों को उद्धृत किया है। टीकाकार ने मूल ग्रन्थ का आशय विशद करने के लिये भरसक प्रयत्न किया, बल्कि वह इस कार्य में फलीभूत भी हुए हैं। इसमें शक नहीं कि टीकाकार एक बहुश्रुत सुयोग्य विद्वान् थे ।
अस्तु यह कन्नड टीका सम्पूर्ण है। इससे संस्कृत टीका का मिलान करने के लिये इस समय मेरे सामने वह कन्नडटीका समग्र मौजूद नहीं है । इसके जोश मेरे पास प्रस्तुत हैं इनसे संस्कृत टीका का मिलान करने पर मालूम होता है कि संस्कृत टीका का आश्रय लेकर ही यह टीका रची गयी है । किन्तु भेद यही है कि इन्होंने अपनी इस टीका में संस्कृत टीका में समुद्धृत अन्यान्य शास्त्रीय प्रमाणों का उद्धरण नहीं किया है । समुपस्थित कन्नड टीका के कुछ अंशों से यह भी पता चलता है कि नेमिनाथ जी ने भावार्थ की ओर ध्यान नहीं देकर शब्दार्थ ही की ओर अधिक ध्यान दिया है। हो सकता है कि यत्र तत्र इन्होंने विस्तृत व्याख्या की हो। इसका निश्चय सूक्ष्म दृष्टि से सम्पूर्ण प्रन्थ के परिशीलन से ही हो सकता है।