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किरण ४
विजयनगर साम्राज्य और जैन-धर्म
प्रख्यात दानवीर कृष्णदेव राय (सन् १५०९-१५३०) के द्वारा मूडविद्री के गुरुवसदि* एवं चंगलपट्ट के प्रैलोक्यनाथ जिनालय को वृत्ति दी गयी थी।
यों तो विजयनगर साम्राज्य के स्थापनाकाल से ही दक्षिण भारत में हिन्दु संस्कृति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही है, पर इन कृष्णदेव राय के शासन-समय में तो वह हिन्दू संस्कृति अत्युन्नतावस्था को प्राप्त हो गयी थी। उत्तर भारत में विक्रमादित्य का नाम जैसी श्रद्धा के साथ लिया जाता है वैसे ही दक्षिण भारत में इन कृष्णदेव का नाम लोग बड़े आदर के साथ स्मरण करते हैं। विजयनगर राजवंश के अन्यान्य छोटे-मोटे राजाओं ने भी जैनदेव-मन्दिरों को समय समय पर वृत्ति प्रदान कर सम्मानित किया है। यही तक नहीं इस वंश के राजाओं से जैन कवियों को भी अन्यान्य साहाय्य-द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। प्रथम हरिहर (सन् १३३६–१३५३) के शासनकाल में मुगुलिपुर के स्वामी प्रथम मंगरस ने खगेन्द्रमणि-दर्पण का प्रणयन किया था। धर्मनाथ पुराण के रचयिता मधुर द्वितीय हरिहर (सन् १३७७-१४०४) के राजसभा-पण्डित थे। विलिगे. तालुक के एक शासन से विदित होता है कि शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक के गुरु भट्टाकलंक ने प्रथम श्रीरंग राय (सन् १५७३ -१५८४) की राजसभा में उनको प्रेरणा से सारत्रय एवं अलंकारनय को पढ़कर कीर्ति समर्जित की थी। इस शासन से यह भी ज्ञात है कि शब्दानुशासनकर्ता भट्टाकलङ्क प्रथम वेङ्कटपति राय (सन् १५८६-१६१७) के शासनकाल में जीवित थे।
इस दिग्दर्शन से यह बात जानने में अब जरा भी सन्देह नहीं रह जाता है कि विजयनगर के साम्राज्य-शासन-समय में जैनी सुखपूर्वक निर्वाधरूप से अपने धर्मकर्म का पालन करते थे।
बल्कि दक्षिण कन्नड़ जिले में शासन करनेवाले अजिल जैन राजवंश के एक विशेष वक्तव्य (कैफियत) से पता लगता है कि इस वंश का सम्बन्ध विजयनगर साम्राज्य से भी था। इसका विवरण यों है :
इस वंश के पूर्वज तिम्मण्ण अजिल के मरणोपरान्त इस राजवंश में केवल दो स्त्रियाँ रह गयी थीं। इनमें से एक विधवा और दूसरी कुमारी थी। ये दोनों सगी बहनें थीं। तिम्मण्ण अजिल के शत्र ओं ने इनके मर जाने पर इनकी सभी चल अथवा अचल सम्पत्तियों को लूट-खसोट कर दोनों स्त्रियों को निस्सहाय बना दिया। ऐसी दशा में इन दोनों ने विजयनगर साम्राज्य के शासक के पास जा अपना पूर्व परिचय-प्रदानपूर्वक
* उल्लिखित प्रमाणों के लिये "द० कन्नड़ जिल्लेय प्राचीन इतिहास" देखें। "कर्णाटक कविचरिते" के २व भाग की अवतरणिका देखें ।