________________
[ माग
ग्रन्थके अन्तिम पद्य से स्पष्टतया ज्ञात होता है कि इस "दानशासन" के कर्त्ता वालुपूज्य ऋषि हैं। साथ ही साथ उक्त पद्य से यह भी विदित होता है कि यह ग्रन्थ शक सम्वत् १३४३ माघ शुक्ल दशमी का समाप्त हुआ था । ग्रन्थकर्त्ता ने अपने इस ग्रन्थ में गुरुपरम्परा, गण, गच्छ आदि की कुछ भी चर्चा नहीं की है 1 अतः इनके विषय में अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सका । दाक्षिणात्य कतिपय शिलालेखों में " वासुपूज्य" यह नाम मिलता है अवश्य । पर प्रस्तुत वासुज्पूय के गणगच्छादि के न मालूम होने से नहीं कहा जा सकता है कि अमुक वासुपूज्य ही इस दानशासन के कर्त्ता हैं । अगर किसी विद्वान् के इन वासुपूज्यऋषि के गणगच्छादि विशेष बातों का पता ज्ञात है। तो उन्हें प्रकट कर देना चाहिये ।
:―
इनकी संस्कृत रचनाशैली साधारणतया अच्छी है । प्रत्येक भाग की श्लोकसंख्या अलग अलग बता कर इस ग्रन्थ को इन्होंने निम्नलिखित भागों में विभक्त किया है :(१) अष्टविधदानलक्षण (२) उत्तमपात्रसामान्यविधि (३) अभयदानविधि (४) दानशालाविधि (५) क्रियाविधि (६) द्रव्यशोधनविधि (७) पात्रलक्षणविधि (८) करणनयलक्षिताहारदानविधि (१) भैषज्यदानविधि (१०) शास्त्रदानविधि |
(१२) ग्रन्थ नं० २१५
ख
भास्कर
लम्बाई ६॥ इञ्च
प्रारम्भिक भाग -
भव्यकण्ठाभरणपञ्चिका
कर्त्ता -अर्हास
विषय - देवगुरुशास्त्रादिलक्षण
भाषा-संस्कृत
चौड़ाई ६
-PIP POW
पत्र संख्या २३
श्रीमान् जिनेा मै श्रियमेष दिश्याद्यदीयर नोज्ज्वलपादपीठम् । करैर्नतेन्द्रोत्करमौलिरत्नैः स्वपत्तरागादिव चालितं स्वैः ॥४१॥ . सदापि सिद्धों मयि सन्निदध्यात्स सिद्धिवध्वा सह सान्द्रसौख्यम् । चर्वत्यजत्र' तनुमारुतान्तः संभोगभाविश्रमभीतवैद्यः ॥२॥