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किरण ४ ]
ऋषभदेव भगवान की जीवनी के साधन
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इसके बनानेवाले उर्द्धरेता (महात्मा) महाज्ञानी चतुर्दश पूर्वधारी श्रीभद्रवाहु स्वामी हैं । इन्होंने#. नवमें पूर्व में से उद्धार करके दशाश्रु त स्कन्ध के आठवें अध्याय के रूप में इस कल्पसूल को बनाया है। इसके अन्दर परमात्मा महावीर का आदर्श जीवन चरित्र विस्तार से आता है। इसके सिवाय श्रीपार्श्वनाथ आदि का भी जीवनचरित्र संक्षेप से आता है " तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहाकोस लिए चउ उत्तरासाढे अभीइ पंचमे होत्था " ॥ सूत २०४ पृष्ठ २२६ से सूल २२८ पृष्ठ २४५ तक भगवान् श्रीऋषभदेव का जीवन चरित्र इसमें आता है । श्रीविनय विजयोपाध्याय जी की रचित सुबोधिका टीका + के साथ यह कल्प सूख श्रीआत्मानन्द सभा भावनगर से सन् १९१५ में प्रकाशित हुआ है। इसकी टीका में भी भगवान् श्रीऋषभदेव का जीवन चरित्र विस्तार से और सुन्दररीत्या आता है। नीचे लिखे हुए सूत्रों में और पृष्ठों में नीचे लिखा हुआ वृत्तान्त भाता है :
सूत संख्या
पृष्ठ संख्या
विषय
सूस २०४ से २०१तक पृष्ठ २२३ से २३१ तक
" २१०
” २११ से २१२
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२१३ से २२८.
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२३१ से २३२,
” २३३ से २४०
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२४० से २४५
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श्रीऋषभदेव भगवान का व्यवन (गर्भ में आना), जन्मोत्सव |
भगवान् के ऋषभादि पाँच नाम ।
कुमारावस्था, पुरुषों को ७२ और स्त्रियों को ६४ कलाओं का उपदेश, राज्याभिषेक, दीक्षोत्सव, भगवान् की चर्चा, केवलज्ञान |
भगवान् के गणधर साधु श्रावक-श्राविकादि की संख्या, कुमारावास, राज्यपरिभोगादि के काल की संख्या, मोच, युगान्तभूम्यादि, श्रीऋषभदेव और श्रीमहावीर के तथा आगम लेखन - काल में काल के अन्तर की संख्या ।
श्रीश्रावश्यक सूत्र का भाष्य (प्रथम भाग )
यह भाष्य श्रीभद्रवाहु स्वामी के पहले का होना चाहिये, पहले लिखी हुई आवश्यक निर्युक्ति से वह भिन्न है । श्रीआगमोदय समिति सूरत द्वारा यह ई० सन् १९१६ में प्रकाशित हुआ है । यह भाग्य नियुक्ति और श्रीहरिभद्रसूरी की टीका के साथ छुपा है । इनके अन्दर श्रीमहावीर स्वामी के तीसरे भव का वर्णन करते हुए "चइऊण देव लोगा इहचेव व भारहंमी वासंमी इश्खागकुले जाओ उसभसुअसुओमती" ॥ गाथा १४८ पृष्ठ १०६ से लेकर "सेसाणं उन्मुअयणं संवेगो नारा दीक्खाय ॥" गाथा ४३६ पृष्ठ १६१ तक विस्तार से श्रीऋषभदेव का चरित्र आता है ।
* संघ चतुर्दशपूर्वं विद्य गप्रधान श्रीभद्रबाहु स्वामी दशाश्रु तस्कन्धस्याष्टमाध्ययनतजा प्रत्याख्यानप्रवादाभिधान नवमपूर्वादुद्धृत्य कल्पसूत्र रचितवान् ॥ सुबोधिका टीका पृष्ट ८
+ इसके ऊपर करीब ३० टीका संस्कृत में बनी हैं। और डॉ० याकोबी, तथा शुचिंग, आदि विद्वानों ने इसका प्रङ्गरेजी तथा जर्मन आदि भाषाओं में अनुवाद भी किया है ।