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किरणे ४]
वैध-सार
३६--बहुमूत्रे तारकेश्वररसः मृतं तारं मृतं वंगं मृतं कांताभ्रकं ससम् ॥ मर्दयेन्मधुना दिवसं रसोऽयं तारकेश्वरः ॥१॥ माषैकं लेहयेत् क्षौद्रः बहुमूननिवारणः॥
मूत्रदोषप्रशांत्यर्थ पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥ टीका-चांदी का भस्म, वंग का भस्म, कांत लौह भस्म तथा अभ्रक भस्म ये चारों बराबर बराबर लेकर मधु के साथ एक दिन भर बरावर घोंटे और एक माशे की मात्रा से प्रातःकाल मधु के साथ सेवन करे। इसका बहुमूत्र रोग की शांति के लिये पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
३७–भेदिज्वरांकुशरस रसंस्य द्विगुणं गंधं गंधसाम्यं च टंकणम् ॥ रससाम्यं विषं योज्यं मरिचं पंचभागकं ॥१॥ कट्फलं दंतिबीजं च प्रत्येकं मरिचान्वितम् ॥ गुड़ चीसुरसास्वरसैः मर्दयेद्याममात्रकम् ॥२॥ मापैकेन निहत्याशु ज्वराजीर्ण त्रिदोषजं ॥ क्षणे चोष्णं क्षणे शीतं क्षणेऽपिज्वरमुत्कटं ॥३॥ कचिद्रात्रौ दिवा कापि द्वितीयंत्र्याहिकं च तत् ॥
ज्वरचातुर्थिकं चापि• विषमज्वरनाशनः ॥४॥ टीका - शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, सुहागे का फूल २ भाग, शुद्ध विष १ भाग, काली मिर्च ५ भाग, कायफल ५ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा ५ भाग इन सबको गुर्च तथा तुलसी के रस से घोंट कर रख लेवे। एक माशा की मात्रा से अनुपानविशेष के द्वारा देने से सब प्रकार के ज्वर, अजीणं, पित्तरोग, शीतजन्य रोग तथा उत्कट ज्वर सर्व प्रकार के विषम एवं व्याहिक, व्याहिक, चातुर्थिक ज्वर आदि को शान्त करता है।
३८--क्षयकासादौ अग्निरसः शुद्धसूतं द्विधा गंधं खल्वेन कृतकज्जली ॥ तत्सम तीक्ष्णचूर्ण च मर्दयेत् कन्यकाद्रवैः॥१॥