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________________ भास्कर ___ [ भाग २ नैपुण्य में भिन्नता रखती हैं। उनपर द्राविड़ लोगों की संस्कृति का प्रभाव पड़ा है और वे उन्हीं की शरीर-आकृति को प्रकट करती हैं। इसी तरह पूर्व भारत अर्थात् बङ्गाल, बिहार और ओड़ीसा की जिन-मूर्तियां वहाँ के क्षेत्र मनुष्य और शिल्प का प्रभाव प्रकट करती हैं। इन देशों की जिनमूर्तियों पर एक दृष्टि डालने से यह मूर्ति-घढ़ने का भेद स्पष्ट हो जाता है। ___ उपलब्ध प्रतिमाओं में विशेष उल्लेखनीय दक्षिण भारत की गोम्मट मूर्तियां हैं। ये विशालकाय मूर्तियां संसार में अपने ढंग की एक हैं। इनमें सब से बड़ी प्रतिमा श्रवणबेलगोल में ५६६ फीट ऊँची है। कारकल और बेणूर की प्रतिमायें इससे छोटी हैं। ये दीर्घकायिक प्रतिमायें शिल्प के अपूर्व आदर्श हैं और विद्वान् इनकी गिनती जगत की आश्चर्यमय वस्तुओं में करते हैं। कुछ ऐसी जिन-प्रतिमायें भी मिलो हैं जो नितान्त विलक्षण हैं। लखनऊ के अजायब घर में एक मूर्ति ( No. J 18 ) ऐसी है, जिस में तेईस तीर्थकरों के बीच में ऋषभदेव को भव्यमूर्ति स्थापित है और उसके बाल कंधों तक विखरे हुए हैं। अलाहाबाद के किसी एक मंदिर में भी, मुझे याद पड़ता है कि मैं ने कुछ ऐसी ही प्रतिमायें देखी थीं। चौमुखी प्रतिमायें तो बहुत मिलती हैं। धरणेन्द्र-पद्मावती की मूर्ति पर के फणमण्डल पर बनी हुई जिन पँतिमायें मिलती हैं। दिल्ली के उर्दू (लाल ) मंदिर में मैं ने एक ऐसी मूर्ति के दर्शन किये हैं। किन्तु सब से विलक्षण मूर्ति वह है जो लन्दन के 'विकोरिया अलबर्ट म्यूजियम' में नं० ४५१ ( 451 I. S. ) पर रक्खी हुई है। यह मूर्ति उक्त म्यूजियम को 'ईस्ट ईडिया कम्पनी' द्वारा भेंट को गई थी। यह मूर्ति लाल पाषाण की पर्यकांसन में चन्द्र चिह्न को लिये हुई है, जिस से उसका चन्द्रप्रभ जिन की होना स्पष्ट है। वह १४१ इञ्च ऊंची और ४६ इंच चौड़ी है। उसका मुख इञ्च चौड़ा है और उस में विलक्षणता यह है कि उसके सात मुख बने हुए हैं। उस मूर्ति के सीधे हाथ की हथेली पर एक चौकोन चिह्न (1) बना हुआ है। उस पर एक लेख तीन पंक्तियों में है, जिस का अक्स डा. लक्ष्मीचन्द्र जी ने भेजने की कृपा की। उस पर से वह लेख इस प्रकार पढ़ा जाता है :“सं० १९२६ ३० सु० ( यहां पर अर्धचन्द्राकार चिह्न है ) गुरु माधो पु मू (१) भ० सुरेन्दकीर्त तदा० सं० नंदलालेन प्र० तिष्टो करापितं" इस से प्रकट है कि यह मूर्ति सन् १८६६ में किन्हीं भ० सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा माधोपुर में प्रतिष्ठित हुई थी और वह प्रतिष्ठा सिंघई नंदलाल ने करवाई थी। सं० १५४८ में सेट
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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