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________________ ७४ भास्कर [ भाग २ अस्तित्व कह सकते हैं। इसकी प्रधानता से जब वस्तु के कहने की इच्छा होती है तब "स्यादस्ति नास्त्येव सर्वम्" या "स्यान्नास्त्यस्त्येव सर्वम्" इस प्रकार तीसरा भंग होना चाहिये। ग्रन्थकार ने जो इसके स्थान में “स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव सर्वम्” इस प्रकार उल्लेख किया है इसमें उनका अभिप्राय क्या था सो नहीं कहा जा सकता। कारण कि इस भंग में दो जगह स्यात् और एव शब्दों का कथन करने से "स्यादस्त्येव" तथा "स्यान्नास्त्येव" इनसे अस्तित्व, नास्तित्व दोनों धर्म भिन्न भिन्न प्रतीत होने लगे हैं, लेकिन इस तरह की यह प्रतीति पहिले और दूसरे भंग से होती है इसलिये तीसरे भंग की इस अवस्था में कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। दूसरी बात यह है कि जब तृतीय भंग में क्रमापितोभय-रूप धर्म ही वाच्य रहता है तब दोनों की भिन्न भिन्न प्रतीति कराने वाला ऐसा उल्लेख हा भी नहीं सकता है इसलिये तीसरे भंग का स्वरूप “स्यादस्ति नास्त्येव सर्वम्" या 'स्यान्नास्त्यस्त्येव सर्वम्' ऐसा ही होना चाहिये। इसी प्रकार पञ्चम, षष्ठ और सप्तम धर्म भी अपने अपने रूप में एक हैं इसलिये उनमें भी एक एक ही स्यात् और एव पद होना चाहिये, अन्यथा उन भंगों का प्रयोग भी निरर्थक सिद्ध होगा, कारण इस तरह से पूर्वोक्तानुसार वे भी पुनरुक्त सिद्ध हो जाते हैं । - इसी प्रकार इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर बहुत विषय समालोच्य हैं, लेख बढ़ जाने के भय से इस समालोचना को यहीं समाप्त करता हूँ। फिर कभी दूसरे लेख-द्वारा विशेष प्रकाश डालने की चेष्टा की जायगी। ग्रन्थकार । इस ग्रन्थ के रचयिता श्वेताम्बराचार्य श्रीवादिदेव सूरि हैं। ये विक्रम की वारहवीं सदी के विद्वान् माने गये हैं इसलिये इसमें कोई संदेह नहीं कि ये परीक्षामुख के कर्ता श्रीमाणिक्यनन्दी से बहुत पीछे के विद्वान् हैं । कारण कि श्रीमाणिक्यनन्दी का समय विक्रम की आठवीं सदी माना गया है। इनके विषय में श्वेताम्बर ग्रन्थों को मान्यता यह है कि इन्होंने दिगन्वराचार्य उन कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में विजित किया था जिन्होंने ८४ शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट होता है। येनार्दितश्चतुरशीतिसुवादिलीलालब्धोल्लसजयरमामदकेलिशाली ॥ वादावहे कुमुदचन्द्रदिगम्बरेन्द्रः श्रीसिद्धभूमिपतिसंसदि पत्तनेऽस्मिन् ॥७४॥ ___ (गुर्वावल्या श्रीमुनिसुन्दरसूरयः ) अर्थात्-जिन श्रीवादिदेव सूरि ने चौरासी शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त करने वाले दिगम्बराचार्य श्रीकुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। श्रीवादिदेव सूरि के विषय में
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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