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कवि कालिदास के मेघदूत की प्रख्याति
संस्कृत साहित्य के इतिहास में कालिदासजी के 'मेघदूत' की नवीन रचनाशैली से एक नया ही युग खड़ा हो गया ! और जनता के चित्त को भी उसने अपनी ओर आकर्षित कर लिया । सचमनोन्यथा प्रदर्शित करनेवाले अतः स्वभावतः कालिदास के इसी विशद प्रख्याति का फल
मुच मि० फाँचे साहब का यह (Elegiac) समूचे साहित्य में मेघदूत की प्रख्याति विशेषरूप था कि बाद के सच है कि इन रचना नहीं है ।
कहना बिल्कुल ठीक है कि यूरोप के मेघदूत की सानी कोई नहीं रखता । में प्राचीनकाल से हो चली थी । अनेक कवियों ने उनके इस दूतकाव्य की नकल की थी। उपरान्त के उपलब्ध दूतकाव्यों में
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किन्तु साथ ही यह भी कोई भी ईसा की १२वीं शताब्दी से पहले की पर इसका अर्थ यह नहीं होता कि इसके पहले से मेघदूत की प्रख्याति हुई ही नहीं थी। आठवीं शताब्दी में रचे हुये जिनसेनाचार्य के 'पार्श्वाभ्युदय' में' समस्यापूर्ति की अपेक्षा समूचा मेघदूत उसमें ओतप्रोत है । अब यदि जिनसेनाचार्य के समय 'मेघदूत' की प्रख्याति विशेष न हुई होती तो कोई कारण नहीं था कि वह उसका समावेश अपने काव्य में करना आवश्यक समझते । उपरान्त के कवियों ने भी अपनी कृतियों में इसी प्रकार 'मेघदूत' का समावेश किया है । अतः इससे मेघदूत की विशद प्रख्याति का होना स्पष्ट है । तिसपर सिंहलीय और तिब्बतीय माषाओं में जो इसके प्राचीन अनुवाद मिलते हैं, वह भी इसकी बहु प्रख्याति की साक्षी है । फिर एकदम पचास टीकाकारों ने अपनी लेखनी को इसका विकास करने में प्रयुक्त किया, वह भी इसी बात का द्योतक है । आश्चर्य तो यह है कि उस प्राचीनकाल से जो धवलकीर्ति मेघदूत की रही है, वह अब भी भारत एवं भारतेतर निवासियों में कम नहीं हुई है ।
भास्कर
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संस्कृत में दूतकाव्यों के विकास का इतिहास -
संस्कृत में दूतकाव्यों के विकास सम्बन्धी इतिहास के लिये हमें' कालिदास के काव्य की सर्व-प्राचीन नकल से श्रीगणेश करना चाहिये । ऐसे उपलब्ध काव्यों में धूषी का 'पवनदूत' ही सर्व प्राचीन विदित होता है; यद्यपि इसका कुछ आभास इससे भी प्राचीन ग्रंथ भवभूति के मालतीमाधव में मिलता है (अ० ) । उपलब्ध दूतकाव्यों में इनसे प्राचीन कोई ग्रंथ हो यह हमें मालूम नहीं; क्योंकि उनमें से अधिकांश का समय अनिश्चित है । तो भी यह निस्संदेह माना जा सकता है कि धो के पहले भी 'मेघदूत' को आदर्श मानकर उसी के ढंग के काव्य रचे गये थे, जो सर्वथा लुप्त हो गये या किसी ग्रंथभांडार में अन्वेषक की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सातवीं शताब्दी के अंत अथवा आठवीं के प्रारंभ में हुए कवि भामह स्पष्ट रीति से ऐसे कवियों का, उल्लेख करते हैं जो मेघ, पवन, चन्द्रमा, चक्रवाक, शुक आदि अजीब अथवा मूक व्यक्तियों से अपने काव्यों में दूत का कार्य कराते थे । ( भामहालङ्कार, १1४२ – ४४ ) अतः कवि भामह के समय दूतकाव्य ही शायद कालिदास जी के मेघदूत के प्रथम प्रतिरूपक काव्य थे, यह मानना कुछ अनुचित नहीं दीखता । प्रो० कीथ ने मेघदूत का प्रतिभास वत्सभट्टि के लेखों में और डॉ० हल्शज ने वेङ्कटाध्वरिन के विश्वगुणादर्श में जो बतलाया है, वह ठीक नहीं है ।
१। Dr. Bhan Daji's - Essay on Kalidasa, P. 7. २। Hultzsch, Preface to Meghaduta, p. VIII. ३। क्लासीकल संस्कृत लिट्र ेचर, पृष्ठ ३६ ।
[ भाग २
४। मेघदूत, भूमिका, पृष्ठ