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________________ किरण २ ] विदुषी पम्पा देवी अन्तिमबे के समान विशेष प्रवीण थी। प्रतिमबे भी परम जिनभक्ता थीं। इन्होंने कन्नड कवि श्रेष्ठ राजमान्य महाकवि पोन्न के शान्ति पुराण की एक हजार प्रति लिखवा कर धर्म्मार्थ वितरण किया था तथा डेढ़ हजार सुवर्ण और रत्नमयी जिन-मूर्तियों का निर्माण कराया था | कर्नाटक प्रान्त के प्राक्तन दानवीरों की श्रेणी में इस दान- चिन्ता- मणि ति का नाम अवश्य उल्लेख योग्यं है । एक दिन ग्रीष्मकाल में यह श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबली स्वामी की सर्वाङ्गसुन्दर, लोक विख्यात मूर्ति के दर्शनार्थ वहां पर गयी थी । पर्वत पर चढ़ती हुई प्रतिमज्बे तीखी धूप से सन्तप्त हो मन में सोचने लगी कि अगर इस समय कुछ वर्षा होती तो बड़ा अच्छा होता । फलतः तत्क्षण अकस्मात् मेघ एकत्रित होकर जोरों से पानी बरसाने लगा । इस अचिन्तित आश्चर्य्यकारी घटना से अत्तिमन्बे की भक्तिद्विगुणित हुई। यह निरायास पर्वत पर चढ़ कर असीम भक्ति से बाहुबली स्वामी की पूजा कर सन्तुष्ट हुई । कन्नड-कवि रत्तत्त्रयों में अन्यतम सर्वमान्य महाकवि रन्न ने अपने अजित -पुराण में इस शुभ घटना का उल्लेख किया है । उल्लिखित हमारी पम्पा देवी ने 'अष्ट - विधार्चना - महाभिषेक' तथा 'चतुर्भक्ति' की रचना की है। यह बात पूर्वोक्त पोम्बुच्च के तोरण बागिलु के उत्तर स्तम्भ पर स्थित सन् १९४८ के शिलालेख से विदित होती है यह द्राविड़ - संघ, नन्दिगण, अरुङ्गलान्वय के अजित-सेन अथवा वादीभसिंह की शिष्या थीं। श्रीवादीभसिंह प्राचीन आदर्श जैन संस्कृत महाकवियों में अन्यतम हैं । । इनके 'गद्यचिन्तामणि' 'क्षत्रचूडामणि' काव्य सुप्रसिद्ध हैं । पूर्वोक्त इनकी ये कृतियां काव्योचित माधुर्य्यादि गुणों सेतप्रोत हैं । 'पदलालित्य, मनोहर शब्दसन्निवेश, सरल प्रतिपादनशैली, आश्चर्य्यकारी कल्पनाचातुर्य्य, चित्ताकर्षक धर्मोपदेश, धर्मानुकूल नीति, पुण्यपाप-संबन्धी स्वाभाविक शुभाशुभ फलों का वर्णन' प्रादि अनेक प्राञ्जल विशिष्ट गुणों से वादी सिंह के ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इनके अजितसेन, वादीभसिंह, ओडेयरदेव ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं। मेरा खयाल है कि इनमें से ओडेयरदेव जन्मनाम, अजितसेन दीक्षानाम और वादीभसिंह पाण्डित्योपार्जित, उपाधि है । वादीभसिंह का जन्मस्थान अज्ञात है । परन्तु इनका प्रोडेयरदेव नाम, मद्रास प्रान्त के पोलूरु ताल्लुक में स्थित समाधिस्थान, द्राविड़ संघ ये तीनों इनको तामिल प्रान्तीय प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं। इनकी प्राञ्जलकृतियों का आश्रय लेकर ही तामिल में 'जीवक - चिन्तामणि' और कन्नड में 'जीवन्धर चरिते' रचे गये हैं। पोच के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि वे वहां भी कुछ समय रहे । अतः वादीभसिंह शायद कन्नड़ भी जानते थे । *विशेष परिचय के लिये "दिगम्बर जैन" वर्ष २३ अंक १-२ देखें । + श्रवणबेलगोल का शिलालेख नं० ५४ (६७) देखें । ४७
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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