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[ भाग २
है । इन पर बैठकर जैनसाधु सल्लेखना धारण करते थे । कोप्पल तथा जैनों के अन्य पवित्र स्थानों पर इस प्रकार की वेदिका याज भी सुरक्षित हैं। जो शब्द अप्रसिद्ध होते हैं उनकी व्याख्या की आवश्यकता होती है । जब हम संस्कृत में 'निषद्यका' और 'निषद्या ' तथा कड़ी में निषदि और निषीदी रूप देखते हैं तब हमें इसमें कोई सन्देह नहीं रहता कि यह शब्द 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'सद्' धातु से बना है और उसके दो रूप निषद्या और निषीदिका - - अवश्य प्रचलित होने चाहिये। जिनका अर्थ-आसन, बैठने का स्थान, विश्रामस्थल और 'कुछ धार्मिक क्रियाओं के काम में आने वाला स्थान विशेष' आदि होते हैं । आजकल जो निशियां मिलती हैं वे भी किसी न किसी साधु के वासस्थान हैं जहाँ उन्होंने मृत्यु के पूर्व अपने दिन बिताये थे या अन्तिम समाधि धारण की थी । इससे भी हमारी उक्त धारणा की पुष्टि होती है ।
भास्कर
किन्तु 'निषिधि' 'निसिधि' 'निसधिग्' और 'निसीधि' इन रूपों में आये हुए 'ध' को कैसे समझाया जाय ? इस शब्द के प्राकृत रूप पर ध्यान देने से 'घ' की समस्या सरलता से हल की जा सकती है । प्राकृत में 'निषीदिका' का 'निसीहिया' रूप बनता है । साधारणतया 'ह' 'ध' के तुल्य हो सकता है। यद्यपि 'द' का 'ह' हो जाना स्वाभाविक नहीं है। किन्तु इस प्रकार के उदाहरण पाये जाते हैं जैसे ककुद - ककुह' । जैन ग्रन्थों में जैनसाधुओं के जीवनी तथा स्मारकों के वर्णन में 'निसिधि' शब्द का प्राकृत रूप बहुधा पाया जाता है यथा", "निसेधिकी - निषीदस्थानम्, आह च जीवाभिगम मूल टीकाकृतनिसेधकी निषीदस्थानमिति" । कुछ स्थलों पर इसका अर्थ स्वाध्यायशाला भी पाया जाता है । अस्तु, इस शब्द का संस्कृत अनुवाद पूर्ण उपयुक्त नहीं है, शायद टीकाकार भी इसके विषय में संदिग्ध था और इसीलिये अपने से प्राचीन लेखक का उद्धरण देकर वह अपने उत्तरदायित्व से बच जाता है। आधुनिक कनड़ी लेखक मुख्यतया जैन, संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश के लिये सर्वदा प्राकृत व्याकरण का आश्रय लेते हैं । फलस्वरूप के प्राकृत 'मिसीहिया' रूप के साथ - जो कि उनकी दृष्टि में था - उन्होंने कनड़ी के शिलालेखों में 'घ' को स्थान दे दिया । किन्हीं किन्हीं रूपों में 'द्ध' भी पाया जाता है । निषद्या और fruttaar (प्रा० निसीहिया) इन दो रूपों की गड़बड़ी का ही यह परिणाम है। जैसा कि संस्कृत के 'सुगति' और 'सद्गति' इन दो रूपों की गड़बड़ी से 'सुगाई' रूप भी पाया
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१ हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण १ - २२५ ।
२ राब प्रसेनीयसुत्त, सूख नं० २८ में 'निसीहिय' शब्द आया है और उस पर मलयगिरि की टीका में यह वाक्य है - श्रागमोदयसमिति का संस्करण पृ० ६३ ।
३ उत्तराध्ययन] २८, ३ में सुग्गई प्रयोग पाया जाता है ।