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किरण ३ ]
प्रशस्ति-संग्रह
१३५० सिद्ध होता है। मुनि महाराजजी ने उसी ग्रन्थ के निम्नांकित श्लोक में भैरवराज तथा उनके पुत्र पाण्ड्यदेव का इस प्रकार उल्लेख किया है :
. "त्रिभुवनकलशोऽपि नेमिनाथः कलशमगादथ भैरवेन्द्रतो जिनेन्द्रः। तदुदयभुजि पाण्ड्यदेवनाम्नि ह्यवति चकार कलक्षिति क्षितीशे।” इन दोनों में से भैरवरस ओडेय का समय शक सम्वत् १३४० (ई० सन् १४१८) एवं पाण्ड्यरोज का समय शक सं० १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) माना जाता है।
भैरवराज का काल कवि के द्वारा उल्लिखित श्लोक में जिन नेमिनाथ तीर्थङ्कर का उल्लेख किया गया है उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर लगे हुए शिलालेख से लिया हुआ है। पाण्ड्यराज वही वीरपाण्ड्य भैरवरस ओडेय हैं जिन्होंने कार्कल में बाहुबली स्वामी की विशाल एवं मनोश मूर्ति को स्थापित कर अपने नाम को अमर कर दिया है। बाहुबली स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा शक सम्बत् १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) में हुई थी। यह बात मूर्ति की बगल में लगे हुए संस्कृत एवं कन्नड शिलालेखों से ज्ञात होती है। इस शुभावसर पर प्रसिद्ध विजयनगराधीश द्वितीय देवराय भी आमन्त्रित किये गये थे। यह प्रतिष्ठा-महोत्सव बड़े समारोह से मनाया गया था। प्रशस्तिगत इस "देवचन्द्रमुनीन्द्रार्यो दयापालः प्रसन्नधीः।” श्लोकांश से यह भी विदित होता है कि ललितकीर्तिजी को देवचन्द्र नाम के एक दूसरे शिष्य भी थे। कवि कल्याणकीर्तिजी के गुरू ललितकीर्तिजी मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के पट्ट-क्रमागत भट्टारक थे। इन भट्टारकों का मूलस्थान मैसूर राज्यान्तर्गत "हणसोगे" था । प्रशस्तिगत ४१२ वें श्लोक से ज्ञात होता है कि ललितकीतिजी के गुरु देवकीर्तिजी थे। विदित होता है कि यह ललितकीर्तिजी अन्यान्य विषयों के अच्छे मर्मज्ञ थे। क्योंकि कल्याणकीर्तिजी ने इस प्रशस्ति में दिखलाया है कि काव्य, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्तादि विषयों के शाता कई शिष्य और भी ललिलकीर्तिजी के मौजूद थे। ___ कल्याणकीर्त्तिजी ने ग्रन्थ रचना का उद्देश ग्रन्थ के अन्त में यों बतलाया है कि एक बार मेरे पूज्य गुरुदेव ललितकोर्तिजी ने बहुतेरे श्रोताओं को जिनपूजा का फलोपदेश देने के पश्चात् यह कहा कि मैंने यह पूजाफल संक्षेप में वर्णित किया है-पुराणों में इसका विस्तृत विवरण है। साथ ही साथ मुझे योग्य समझ कर उन्होंने एतद्विषयक एक ग्रन्थ-प्रणयन करने का आदेश भी दिया। उन्हीं की आज्ञा का पालन-फलस्वरूप यह जिनयक्ष फलोदय है।
निम्नलिखित श्लोक के आधार पर इस ग्रन्थ की श्लोक-संख्या दो हजार सात सौ पञ्चास (२७५०) सिद्ध होती है :
"विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्र प्रन्थप्रमाणतः। पञ्चाशदुत्तरैः सप्तशतश्लोकैश्च संगतम् ॥"