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भास्कर
[ भाग २
इसमें सूत्र नं० ७१ से “न स्वभावकार्यकारणभावौ" पद की अनुवृप्ति लाकर अन्त मैं उसका संबन्ध करने से सूत्र से संगत अर्थ की प्रतीति होने लगती है । इस सूत्र में " तदुत्पत्तिविपत्तेश्व" इस अंश में विपत्ति शब्द का पाठ कर के भी ग्रन्थकार ने अर्थ को कठिन बना दिया है। यहां पर विपत्ति शब्द का अर्थ अभाव हो अभीष्ट है जिससे पूर्ण पद का अर्थ होता है - तदुत्पतिरूप संबन्ध का अभाव ! लेकिन इस अर्थ के समझने में अवश्य ही कठनाई का अनुभव होता है। परीक्षामुख में इसके स्थान में यह सूत्र पाया जाता है।
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सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥ ६४-३॥ .
षष्ठ परिच्छेद में प्रमाण और उसके फल की भेदाभेद-व्यवस्था सिद्ध करते हुए प्रमाण और फल की व्यवस्था कल्पनामात्र नहीं, किन्तु वास्तविक है इस आशय को प्रन्थकार ने इस प्रकार प्रकट किया है ।
संवृत्या प्रमाणफलव्यवहार इत्यप्रामाणिकप्रलापः परमार्थतः
स्वाभिमतसिद्धिविरोधात् ॥२१-६॥
ततः पारमार्थिक एव प्रमाणफलव्यवहारः सकलपुरुषार्थसिद्धिहेतुः स्वीकर्त्तव्यः ॥२२–६॥
इनमें नं० २२ का सूत्र बिल्कुल निरर्थक है कारण कि उसका अर्थ तो नं० २१ के सूत्र का तात्पर्य ही है। इन सब बातों के देखने से यह धारणा होती है कि यह ग्रन्थ सूत्र समुदाय नहीं किन्तु वाक्यों का ही समुदाय है ।
सप्तभंगों के उल्लेखों में भूल ।
सप्तभंगी प्रकरण में सप्तभङ्गों का उल्लेख ग्रन्थकार ने इस प्रकार किया है(१) स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः ॥१५–४॥
(२) स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः ॥ १६-४ ॥
(३) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः ॥१७- ४॥ (४) स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ॥१८-४॥
(५) स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधि
निषेधकल्पनया च पञ्चमः ॥१६४॥
(६) स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेध
कल्पनया च षष्ठः ॥२०-४॥