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________________ किरण ४ ] अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश १२३ कवि ने क्रमशः (२) जलपूजा कथा वर्णन, (३) गंधपूजा - फल-कथा-वर्णन, (४) भक्षत पूजा-विधान कथा प्रकाशन, (५) पुष्पपूजा - फल- निर्णय वर्णन, (६) नैवेद्य पूजा-फल-कथावर्णन, (७) दीपक-प्रबोधन- पुण्यकथा वर्णन, (८) धूपपूजा कथा - वर्णन, और ( 8 ) फल-पूजाकथा-वर्णन, नाम दिये हैं । कथायें साधारण प्रचलित व्रत-कथाओं के समान ही हैं, पर कहीं कहीं इनमें बड़ी रोचक और मर्म की बातें कह दी गई हैं। उदाहरणार्थ अक्षत - पूजाविधान - कथा में राजा और एक शुकी की बातचीत हुई है । प्रसङ्ग ऐसा है कि राजा के बाग में एक सुन्दर आम का झाड़ था । वहीं एक शुक और शुकी का जोड़ा रहता था। शुकी के गर्भ समय उस आम के मौर खाने का दोहला उत्पन्न हुआ । यह आम बड़ी सावधानी से रखाया जा रहा था - कोई पक्षी भी उसके पास फटकने नहीं पाता था। तो भी अपनी प्रिया के प्रमवश तोता अपने जीवन को संकट में डाल रोज उस आम की मौर ले आता था । आखिर एक दिन रखवाले ने जाल डालकर इस तोते को फँसा लिया और राजा के सम्मुख उपस्थित किया। राजा मौर के नष्ट होने से बड़े रुष्ट थे, इससे तोते के उन्होंने मार डालने का विचार किया, पर इतने ही वहाँ वह शुकी प्रा गिरी और बोली 'राजन् इसने मेरे लिये वह साहस किया था, इसलिये इसकी जान छोड़िये और मुझे दण्ड दीजिये । राजा ने तोते से पूछा 'रे तोता ! तूने समझदार होकर भी ऐसी गलती क्यों की ? क्यों तूं इस मादरजात के बहकावे में आकर ऐसा अपराध कर बैठा ?' इसके उत्तर में तोता तो न बोलने पाया, शुकी बोल उठी में 'हे राजन्, लोग दूसरों पर तो बड़े जल्दी हँसने लगते हैं पर स्वयं अपनी कमजोरी पर ध्यान नहीं देते रे, स्त्री के लिये ही तो मनुष्य सब सुखों के देने वाले अपने मातापिता तक का दूर छोड़ देता है । स्त्री के लिये वह धर्म छोड़कर दिनरात कुकर्म करता है । स्त्री के लिये ही वह समरांगण में भिड़ता, दूसरों का मारता और स्वयं मरता है । स्त्री के लिये तो वह देव, गुरु व सज्जनों तक की निर्लज्ज होकर चोरी कर डालता है । स्त्री के लिये वह कुल परम्परा को छोड़कर निन्दनीय व्यसनों में पड़ जाता है, और बड़प्पन, सुहृत्ता, प्रसिद्धि, शील आदि गुणों तक का तिलाञ्जलि दे देता है । स्त्री के लिये ही वह अपने ऊपर दूसरों का ऋण चढ़ा लेता है और अपने जीवन का तृण के समान गिनने लगता है । और, हे देव ! तुम भी तो अपनी भार्या के लिये जान निछावर करने के लिये तैयार हो गये थे, फिर एक बेचारे पक्षी को आप क्या दोष देते हैं। अपनी प्रिया के मोह में तो बड़े बड़े विद्वान् भी मूढ़ हो जाते हैं'। ' ६ सा अंपेइ कीरि गिवद्द इस्थ संधु लोउ । परु उवहसइ मुगद्द हु किंपि यिय-गोहु ॥
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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