Book Title: Astittva aur Ahimsa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा युवाचार्य महाप्रज्ञ For Private & Personal U Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति ढाई हजार वर्ष पहले उद्गीर्ण महावीर की वाणी। उसका एक छोटा सा संकलन। नाम है आचार (आयारो) कितनी दूरी। कहां वह अंतर्दृष्टि और अफ्रज्ञान से सत्य की खोज करने वाला युग और कहां वैज्ञानिक यंत्रों से सत्य को खोजने बाला युग? कितना जटिल है दोनों में सामंजस्य खोजने का प्रयत्न। महावीर का आचार आत्म-प्रधान या अध्यात्म-प्रधान था इसलिए वैज्ञानिक युग में वह अप्रासंगिक नहीं बना। यदि वह क्रियाकाण्ड प्रधान होता तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती। पर्यावरण विज्ञान अथवा सृष्टि संतुलन विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा है। आचारांग को उसका प्रतिनिधि ग्रंथ माना जा सकता है। इसमें अहिंसा के कुछ विशिष्ट सूत्र प्रतिपादित हैं- वनस्पति और मनुष्य की तुलना, छोटे जीवों के अपलाप करने का अर्थ अपने अस्तित्व को नकारना आदि आदि। प्रस्तुत पुस्तक में इन सूत्रों पर एक विमर्श प्रस्तुत किया गया है। ढाई हजार वर्ष पहले प्रतिपादित आचार पुराना नहीं हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह वर्तमान की समस्याओं के संदर्भ में लिखा हुआ ग्रन्थ है। मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि मुझे आचारांग की गहराई में निमज्जन करने का अवसर मिला। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापर्व प्रवचनमाला - ३ संदर्भ : योगक्षेम वर्ष सान्निध्य एवं प्रेरणा आचार्य श्री तुलसी आधार-सूत्र आयारो प्रवचनकार युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य-संपादक मुनि दुलहराज संपादक मुनि धनंजय कुमार Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © तुलसी अध्यात्म नीडम् जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) संस्करण : १९६० ISB No. 81-7195-008-6 संकलन सौजन्य : प्रज्ञापर्व समारोह समिति अमृत वाणी, जैन विश्व भारती मूल्य : पञ्चीस रुपये प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनं मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के अर्थ सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१ ३०६ । ASTITVA AUR AHIMSA Yuvacharya Mahaprajna - - Rs. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन योगक्षेम वर्ष का अपूर्व अवसर । प्रज्ञा जागरण और व्यक्तित्व निर्माण का महान् लक्ष्य । लक्ष्य की पूर्ति के बहुआयामी साधन--प्रवचन, प्रशिक्षण और प्रयोग । प्रवचन के प्रत्येक विषय का पूर्व निर्धारण । अध्यात्म और विज्ञान को एक साथ समझने ओर जीने की अभीप्सा । समस्या एक ही थी. प्रशिक्षु व्यक्तियों के विभिन्न स्तर । एक ओर अध्यात्म तथा विज्ञान का क,ख,ग नहीं जानने बाले दूसरी ओर अध्यात्म के गूढ रहस्यों के जिज्ञासु । दोनों प्रकार के श्रोताओं को उनकी क्षमता के अनुरूप लाभान्वित करना कठिन प्रतीत हो रहा था । चिन्तन यहीं आकर अटक रहा था कि उनको किस शैली में कैसी सामग्री परोसी जाए ? नए तथ्यों को नई रोशनी में देखने की जितनी प्रासंगिकता होती है, परम्परित मूल्यों की नए परिवेश में प्रस्तुति उतनी ही आवश्यक है। न्यायशास्त्र का अध्ययन करते समय देहली दीपक न्याय और डमरुक मणि न्याय के बारे में पढ़ा था । दहलीज पर रखा हुआ दीपक कक्ष के भीतर और बाहर को एक साथ आलोकित कर देता है। डमरु का एक ही मनका उसे दोनों ओर से बजा देता है । इसी प्रकार वक्तृत्व कला में कुशल वाग्मी अपनी प्रवचनधाराओं से जनसाधारण और विद्वान्-दोनों को अभिष्णात कर सकते हैं, यदि उनमें पूरी ग्रहणशीलता हो । ___योगक्षेम वर्ष की पहली उपलब्धि है—प्रवचन की ऐसी शैली का आविष्कार, जो न सरल है और न जटिल है । जिसमें उच्चस्तरीय ज्ञान की न्यूनता नहीं है और प्राथमिक ज्ञान का अभाव नहीं है । जो निश्चय का स्पर्श करने वाली है तो व्यवहार के शिखर को छूने वाली भी है। इस शैली को आविष्कृत या स्वीकृत करने का श्रेय है 'युवाचार्य महाप्रज्ञ' को। योगक्षेम वर्ष की प्रवचनमाला उक्त वैशिष्ट्य से अनुप्राणित है । जैन आगमों के आधार पर समायोजित यह प्रवचनमाला वैज्ञानिक व्याख्या के कारण सहज गम्य और आकर्षक बन गई है। इसमें शाश्वत और सामयिक सत्यों का अद्भुत समावेश है । इसकी उपयोमिता योगक्षेम वर्ष के बाद भी रहेगी, इस बात को ध्यान में रखकर प्रज्ञापर्व समारोह समिति ने महाप्रज्ञ के प्रवचनों को जनार्पित करने का संकल्प संजोया । 'अस्तित्व और अहिंसा' उसका तीसरा पुष्प है, जो मेक समय पर जनता के हाथों में पहुंच रहा है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ जिन लोगों ने प्रवचन सुने हैं और जिन्होंने नहीं सुने हैं, उन सबको योगक्षेम यात्रा का यह पाथेय अहिंसा के विकास की प्रेरणा देता रहेगा और उनकी चेतना के बंद द्वारों को खोलकर प्रकाश से भर देगा, ऐसा विश्वास है । १५ सितम्बर, १९८६ महावीर नगर पाली (राज० ) आचार्य तुलसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति योगक्षेम वर्ष का मध्य । वर्षावास का प्रारम्भ । वर्षा से स्निग्ध भूमि । चारों ओर बीजों की बुवाई का उपक्रम | सुहाना मौसम | मनभावना वातावरण । सुधर्मा सभा का समवसरण | आचार्य श्री तुलसी की पावन सन्निधि | साधु-साध्वियों की जिज्ञासा-भरी उपस्थिति । योगक्षेम वर्ष में भाग लेने वाले तत्त्वज्ञ और स्नातक वर्ग के शिक्षणार्थियों की लम्बी पंक्ति । हजारोंहजारों शुश्रूषु श्रोताओं का श्रद्धासिक्त समूह | ढाई हजार वर्ष पहले उद्गीर्ण महावीर की वाणी । उसका एक छोटासा संकलन । नाम है आचार (आयारो) । कितनी दूरी । कहां वह अन्तर्दृष्टि और अन्तर्ज्ञान से सत्य की खोज करने वाला युग और कहां वैज्ञानिक यंत्रों से सत्य को खोजने वाला युग ? कितना जटिल है दोनों में सामंजस्य खोजने का प्रयत्न | फिर भी कोई कठिनाई नहीं हुई । आचार्यवर की सन्निधि एक सेतु है । जिससे अतीत और वर्तमान- दोनों निकट आ जाते हैं । महावीर का आचार आत्म-प्रधान या अध्यात्म-प्रधान था इसलिए वैज्ञानिक युग में वह अप्रासंगिक नहीं बना । यदि वह क्रियाकाण्ड प्रधान होता तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती । पर्यावरण विज्ञान अथवा सृष्टि संतुलन-विज्ञान विज्ञान की एक महत्त्व - पूर्ण शाखा है । आचारांग को उसका प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जा सकता है । इसमें अहिंसा के कुछ विशिष्ट सूत्र प्रतिपादित हैं-वनस्पति और मनुष्य की तुलना, छोटे जीवों के अपलाप करने का अर्थ अपने अस्तित्व को नकारना आदि-आदि । प्रस्तुत पुस्तक में इन सूत्रों पर एक विमर्श प्रस्तुत किया गया है । ढाई हजार वर्ष पहले प्रतिपादित आचार पुराना नहीं हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह वर्तमान की समस्याओं के सन्दर्भ में लिखा हुआ ग्रन्थ है | सत्य कालिक होता है । इसका अर्थ है - वह कभी बासी नहीं होता । उसकी उपयोगिता हर काल और हर समय में बनी रहती है । मुझे आचारांग की गहराई में मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि निमज्जन करने का अवसर मिला । आचार्यवर की सन्निधि मेरे लिए एक सहज प्रेरणा है । उनकी उपस्थिति में जो स्रोत प्रवाहित होता है वह अन्यत्र प्रवाहित नहीं होता । प्रवचन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस के समय ऐसा प्रतीत होता कि मैं नहीं बोलता, कोई आंतरिक प्रेरणा बोलती है । मुनि दुलहराजजी प्रारम्भ से ही साहित्य-संपादन के कार्य में लगे हुए हैं, वे इस कार्य में दक्ष हैं । प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में मुनि धनंजयकुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है । १४ सितम्बर, १६६० महावीर नगर, पाली (राजस्थान ) युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय ० अस्तित्व एक सावभौम सचाई है। जो है, वह अस्तित्व है। जिसका अस्तित्व है, वह है। उसका होना हमारी स्वीकृति अस्वीकृति पर निर्भर नहीं है। अस्तित्व शाश्वत है। वह कल भी था, आज भी है, कल भी बना रहेगा। अस्तित्व निरन्तर अस्तित्व में परिणमन करता रहता है इसलिए उसका कभी नास्तित्व नहीं होता। इसका अर्थ है----अस्तित्व अजर-अमर है। एक मनुष्य जन्म लेता है, मर जाता है पर आत्मा का अस्तित्व बना रहता है । जन्म और मरण की शृंखला से परे है आमा का अस्तित्व । आज एक पुस्तक है। कल वह नष्ट हो सकती है किन्तु परमाणु का अस्तित्व कभी विनष्ट नहीं होता। ० हिंसा मृत्यु है, किसी को मारना हिंसा है। जो जन्म लेता है, वह मरता है। जो जन्मता ही नहीं, वह मरेगा कैसे? अस्तित्व अनादि है। जिसकी आदि नहीं है, उसका अन्त कैसे हो सकता है ? जो अमर और शाश्वत है, उसे कौन मार सकता है ? ० प्रश्न ये भी हैं क्या हिंसा अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है ? क्या हिंसा होगी तो अस्तित्व नहीं रहेगा ? क्या अहिंसा और अस्तित्व में कोई सम्बन्ध है ? यदि दोनों में सम्बन्ध है तो सम्बन्ध-सेतु क्या है ? ० हमारा अस्तित्व है लेकिन हमें अस्तित्व की अनुभूति नहीं है। हम व्यक्तित्व में उलझे हुए हैं। अस्तित्व की अभिव्यक्ति है व्यक्तित्व । एक अस्तित्व अभिव्यक्त है मनुष्य के रूप में, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह एक अस्तित्व अभिव्यक्त है पशु और पक्षी के रूप में, एक अस्तित्व अभिव्यक्त है पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के रूप में। ० अस्तित्व समान है, व्यक्तित्व समान नहीं है । अस्तित्व दृश्य नहीं है, व्यक्तित्व दृश्य है। अस्तित्व शुद्ध है, व्यक्तित्व मिलावटी है। • व्यक्तित्व मरता है, अस्तित्व नहीं । व्यक्तित्व को मारा जा सकता है, अस्तित्व को नहीं । ० महावीर के दर्शन का हृदय है-- तुम किसी व्यक्तित्व को मारते हो, यह शरीर से जुड़ी हुई हिंसा है, वध तुम किसी का अनिष्ट चिन्तन करते हो, यह मानसिक हिंसा है। तुम किसी व्यक्तित्व को दबाने के लिए किसी व्यक्तित्व को उठाते हो, किसी व्यक्तित्व के उत्थान के लिए किसी व्यक्तित्व को दबाते हो, यह भावात्मक हिंसा है। तुम किसी व्यक्तित्व को मार सकते हो, अस्तित्व को नहीं, तुम किसी व्यक्तित्व को गिरा सकते हो, अस्तित्व को नहीं । • यह सचाई है तुम किसी को मार सकते हो, मिटा नहीं सकते। किसी व्यक्तित्व का उत्थान-पतन तुम्हारे हाथ में है, यह सोचना भी सही नहीं है। सम्भव है-उत्थान पतन में बदल जाए और पतन उत्थान में। ० अहिंसा का आधार है अस्तित्व । इसका अर्थ है-अस्तित्व मरता नहीं है, मिटता नहीं है इसलिए किसी को मत मारो, मत गिराओ। ० अहिंसा का आधार व्यक्तित्व नहीं है क्योंकि वह स्थाई नहीं है, एकरूप नहीं है। आज है, कल नहीं है। • गंभीर दार्शनिक शीर्षक है अस्तित्व और अहिंसा । इसमें प्रतिबिम्बित है महाप्रज्ञ की दार्शनिक चेतना । महाप्रज्ञ स्वयं व्यक्तित्व से अस्तित्व की अनुभूति की ओर प्रस्थित हैं। प्रस्तुत पुस्तक एक अभिप्रेरणा है अस्तित्व की दिशा में प्रस्थान करने की। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरह अस्तित्व की दिशा में प्रस्थान का अर्थ है-अहिंसा का विकास, आत्मतुला का विकास, समता का विकास । ० यही ध्येय है, यही श्रेय है। ० इस ध्येय और श्रेय का बोध देने वाला ग्रन्थ है अस्तित्व और अहिंसा, जिसकी संपूर्ति में आशीर्वाद है आचार्य श्री तुलसी का, जिसकी प्रस्तुति में सहकार है मुनिश्री दुलहराजजी का, जिसके संकलन का दायित्व निभाया है प्रज्ञापर्व समारोह समिति/अमृत वाणी प्रतिष्ठान ने, जिसे जन-जन तक पहुंचाने में माध्यम बन रही है जैन विश्व भारती । मुनि धनंजयकुमार ७ अक्टूबर, १९६० महावीर नगर, पाली (राजस्थान) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. आचार-शास्त्र २. क्या सूक्ष्म जीव सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ? ३. हिंसा मृत्यु है ४. वनस्पति जगत् और हम ५. यह संसार है ६. तराजू के दो पल्ले ७. निःशस्त्रीकरण ८. सुख-दुःख अपना-अपना ६. वह जानता-देखता है १०. अपरिग्रहः परमो धर्मः ११. भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास १२. द्रष्टा का व्यवहार १३. चाहता है सुख, जाता है दुःख की दिशा में १४. लोकविचय : आत्मालोचन अपनी वृत्तियों का १५. ज्ञानी रात को जागता है १६. वह पाप कैसे करेगा ? १७. क्या अरति ? क्या आनन्द ? १८. दुःख का चक्र १६. जो सहता है, वही रहता है २०. शाश्वत धर्म २१. विलास और क्रूरता २२. समाधि का मूल्य २३. साधना की भूमिका २४. कौन भीतर : कौन बाहर २५. दोहरी मूर्खता २६. ड्योढ़ी पर खड़ी किरण २७. आओ लड़ें K WIKM KM १०४ ११० १२६ १३० १३५ १४० १४६ १५२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह १६३ १७४ २८. ब्रह्मचर्य के प्रयोग २६. वह तू ही है ३०. जहां स्वर मौन हो जाते हैं ३१. असार संसार में सार क्या है ? ३२. कछुआ फिर आकाश नहीं देख सका ३३. अणाए मामगं धम्म ३४. लघुता से प्रभुता मिले ३५. जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है ३६. अवधूत दर्शन ३७. साधना कब और कहां ? ३८. तब मौन हो जाएं ३६. आचारांग का समग्र अनुशीलन १७६ १८४ १८६ १६४ २०० २०६ २११ २१७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १ | संकलिका • सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि णो सण्णा भवइ, तंजहा-............ • से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई किरयावाई। [आयारो १/१-५] • अकरिस्सं चहं, कारवेसु चहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि । [आयारो १/६] ० अध्यात्म-चैतन्यानुभूति प्रधान साधना ० धर्म--संयम प्रधान साधना • आचार-अध्यात्म और धर्म की क्रियान्विति ० नैतिकता-धर्म की समाजाभिमुखी साधना ० स्वनिष्ठ होता है आचार • धर्म, आचार और नैतिकता ० नैतिकता का आधार ० आचार-शास्त्रः सुकरात और महावीर ० आचार : पांच प्रकार • नीतिशास्त्र का उद्देश्य-आत्मा की उपलब्धि । ० स्वतः साध्य है आत्मा • परमशुभ साधन नहीं, साध्य है ० आचार है शस्त्र न बनना ० अनाचार का मूल हेतु • बन्ध और मोक्ष का हेतु Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र जैनागमों को चार भागों में विभक्त किया गया है-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग । द्रव्यानुयोग द्रव्य की मीमांसा है, चरणकरणानुयोग आचार की मीमांसा है। गणितानुयोग उन दोनों के लिए अनिवार्य है । धर्मकथानुयोग में रूपक, कथानक, दृष्टान्त आदि के द्वारा धर्म का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। आचारांग सूत्र चरणकरणानुयोग का एक अंग है। द्वादशांगी का पहला अंग है--आचारांग । उसका नाम है-ब्रह्मचर्य-ब्रह्म की चर्या । ब्रह्मचर्य और आचार-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । हम आचार पर विचार करें। प्रश्न है-आचार क्या है ? आचार का संबंध चार शब्द बहुत प्रचलित हैं-अध्यात्म, धर्म, आचार और नैतिकता। हम अध्यात्म को परिभाषित करें। जो चैतन्य प्रधान साधना है या चैतन्यानुभूति प्रधान साधना है, वह है-अध्यात्म । उसमें आन्तरिक चैतन्य पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है, बाहर के नियम-उपनियम गौण होते हैं। धर्म है संयम प्रधान साधना । जो निग्रह प्रधान होता है, वह है धर्म । आचार का सम्बन्ध धर्म और अध्यात्म-दोनों से है। अध्यात्म की क्रियान्विति भी आचार है और धर्म की क्रियान्विति भी आचार है। किन्तु आचार स्वनिष्ठ होता है। आचार का संबंध किसी दूसरे से नहीं होता । नैतिकता आचार का ही एक प्रकार है। दूसरे के प्रति हमारा जो सम्यक् आचरण है, उसे नैतिकता कहा जाता है । दूसरों के साथ हमारा जो व्यवहार है, उससे नैतिकता जुड़ी हुई है। जो समाजाभिमुखी धर्म की साधना है, वह धर्म का आचार या नैतिकता बन जाती है। मिलावट न करना धर्म है, वह आचार भी है, नैतिकता भी है। क्योंकि वह स्वगत आचार नहीं है। मिलावट न करना, इसमें सामाजिक संदर्भ भी जुड़ा हुआ है। कटु वचन न बोलना अपना संयम है, अपना धर्म है किन्तु वह नैतिकता भी है। अपनी इन्द्रियों का संयम करना स्वनिष्ठ है । इसमें दूसरे का कोई संबंध नहीं है। एक व्यक्ति मिठाई नहीं खाता है तो यह उसका अपना संयम है, किसी दूसरे का नहीं है। अपना निग्रह और अपनी साधना अपना आचार है। किसी के प्रति संबंध का जो Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार-शास्त्र श्न है, वह नैतिकता से जुड़ा हुआ है। आचार स्वगत, स्वनिष्ठ होता है । चत्रकार का कौशल एक राजा ने कल्पना की-मुझे ऐसी चित्रशाला बनानी है, जैसी आज तक किसी ने नहीं बनाई । राजा समर्थ था। उसने मंत्री को आदेश दिया-चित्रकारों को बुलाओ। देशभर के चित्रकारों को इकट्ठा किया गया, उनकी परीक्षा ली गई । उनमें से दस श्रेष्ठ चित्रकारों को चुना गया। उनसे कहा गया---छह माह का समय है, चित्रशाला को तैयार करना है। चित्रकारों ने कहा--राजन् ! इतना विशाल कार्य इतने स्वल्प समय में कैसे संभव है ? राजा ने कहा- यह सब कर सकते हो तो करो, वरना चले जाओ। समय इससे अधिक नहीं मिलेगा । आखिर दो चित्रकार तैयार हुए। उन्होंने कहा-महाराज ! आधा-आधा कक्ष हम दोनों में बांट दीजिए। : राजा ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने दोनों चित्रकारों में आधी-आधी चित्रशाला बांट दी। बीच में एक पर्दा लगा दिया गया। दोनों में से कोई भी एक दूसरे को नहीं देख सके, ऐसी व्यवस्था हो गई। चित्रकारों ने अपना-अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। छह महीने बीत गए । राजा को सूचित किया गया ---चित्रशाला तैयार है। राजा ने सभासदों, गणमान्य व्यक्तियों को चित्रशाला देखने हेतु आमंत्रित किया। दूसरे दिन प्रातःकाल राजा सभासदों के साथ नवनिर्मित चित्रशाला देखने पहुंचा। चित्रशाला का एक दरवाजा खुला। राजा उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गया। सुन्दर, भव्य, आकर्षक और मनोरम चित्रों को देखकर राजा मुग्ध हो गया। एकएक चित्र को विस्फारित आंखों से देखा । राजा ने चित्रकार को अनेक बार साधुवाद दिया। राजा का रोष ____आधा कक्ष पूरा देखने के बाद दूसरे कक्ष की बारी आई। राजा दूसरे कक्ष में पहुंचा । उसने देखा-भीतर कुछ भी नहीं है, दीवारें खाली पड़ी हैं। राजा की आंखें फटी रह गई। राजा ने पूछा-क्या तुम्हें पता नहीं है ? छह माह बीत गए हैं ? वह बोला-पता है। एक भी चित्र नहीं बनाया ? हा ! नहीं बनाया। क्या किया ? क्या बताऊं ? मैंने बहुत कुछ किया है और कुछ भी नहीं किया । तुम जीना चाहते हो या मरना ? तुमने मेरे साथ धोख Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और ओहसा क्यों किया ? महाराज ! मैंने धोखा नहीं किया है। चित्रकार ने रहस्य को छिपाए रखा । राजा तमतमा गया। उसने कहा--महाराज ! आप चित्र देखना चाहते हैं तो इस बीच वाले पर्दे को हटाएं । जब तक पर्दा रहेगा, मेरे चित्र आपको दिखाई नहीं देंगे । पर्दा हटाया गया। राजा ने देखा-सारा कक्ष चित्रों से जगमगा उठा है। राजा को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। राजा विस्मय भरे स्वरों में बोला-चित्रकार ! क्या यह जादू है ? हां ! यह एक जादू है । राजा ने पर्दा वापस डलवाया, सारे चित्र गायब हो गए। फिर पर्दा उठाया, सारा कक्ष चित्रों से भर गया। राजा ने पूछा-यह क्या है ? उसने कहा-महाराज ! मैंने एक भी चित्र नहीं बनाया। केवल छह महीनों तक दीवारों की घुटाई की है। ये दीवारें पारदर्शी बन गई हैं। जो भी सामने होगा, वह इन दीवारों में प्रतिबिम्बित हो जाएगा। घुटाई है अध्यात्म हमारे सामने भी दो चित्रकार हैं। एक तूलिका चलाने वाला है और एक घुटाई करने वाला है। यह घुटाई हमारा अध्यात्म है। अध्यात्म भीतर का रहस्य है। जहां कोई चित्र नहीं है, केवल चैतन्य है। केवल मार्जन और शोधन है वहां । आधा कक्ष हमारा धर्म है। जिसमें नाना प्रकार के चित्र बने हुए हैं। कभी हमने सहिष्णुता का मानसिक चित्र बनाया। कभी क्षमा की साधना करके क्षमा का मानसिक चित्र बनाया। कभी विनम्रता का चित्र बनाया। क्योंकि धर्म के क्षेत्र में विकल्प का नाश करने के लिए अच्छा विकल्प लेना भी जरूरी है। यह विकल्पों का निर्माण करना हमारी धार्मिक चेतना का काम है । असत् योग, असत् प्रवृत्ति और असत् विकल्प को मिटाने के लिए सत् योग, सत् विकल्प, सत् प्रवृत्ति का चित्र बनाना, आचरण करना, हमारा धर्म है और उसको प्रतिबिम्बित करने के लिए घुटाई करना हमारा अध्यात्म है । घुटाई पूरी हो जाएगी तो धर्म उसमें अपने आप चित्रित हो जाएगा, आचरण अपने आप प्रतिबिम्बित हो जाएगा। नीति-शास्त्र का उद्देश्य अध्यात्म और धर्म आचार एवं नैतिकता-दोनों से जुड़े हुए हैं। अध्यात्म है, धर्म है तो उसका आचरण भी होगा। समाज के संदर्भ में वह नैतिकता कहलाएगा। व्यक्ति के संदर्भ में हमारा आचरण आचार बन जाएगा। अकेला आदमी होता तो नैतिकता की कोई जरूरत नहीं होती। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-ये सब व्रत सामाजिक संदर्भ में हैं। यदि व्यक्ति समाज से जुड़ा नहीं होता तो कोरा अध्यात्म होता, कोरी चेतना होती, राग और द्वेष का विलय होता, केवल आत्मानुभूति होती। व्यक्ति समाज के साथ जीता है इसलिए बहुत सारे नियम बने हुए हैं और इन सबका संबंध समाज से ही है। आचारांग सूत्र में आचार का प्रतिपादन किया गया है। जहां आचार का प्रश्न है वहां अध्यात्म की बात भी आएगी, धर्म और नैतिकता की बात भी आएगी। सुकरात ने एक प्रश्न उपस्थित किया----नीतिशास्त्र का उद्देश्य क्या है ? इस उद्देश्य की मीमांसा में सुकरात ने कहा-नीतिशास्त्र का उद्देश्य है---परम शुभ अथवा अंतिम शुभ को प्राप्त करना। परम शुभ वह होता है, जो अपने आपमें वांछनीय है, जो किसी दूसरे की अपेक्षा से नहीं है । जो साधन नहीं है किन्तु स्वतः साध्य है, वह है परम शुभ । आचार-शास्त्र का उद्देश्य जैन दृष्टि से आचार-शास्त्र का उद्देश्य है.---आत्मा को पाना । परमश्रेयसः प्राप्तिः, उद्देश्यं तस्य सम्मतम् । आत्मैव परमं श्रेयः, आचारेण स लभ्यते ॥ आत्मा ही हमारे लिए परम शुभ है। वह आचार से प्राप्त होती है। आचार शास्त्र का उद्देश्य है---आत्मा को उपलब्ध होना, आत्मा में होना, आत्मा को प्राप्त करना, अपने स्वरूप में चले जाना। आत्मा स्वतः साध्य है इसीलिए आचारांग के प्रारम्भ में आत्मा की चर्चा की गई है। भगवान महावीर ने कहा---बहत सारे लोग नहीं जानते कि आत्मा है । जब तक हम आत्मा को नहीं जानेंगे, हमारे आचार का कोई महत्त्व नहीं होगा। एक आत्मवादी का आचार और एक अनात्मवादी का आचार बिलकुल भिन्न होगा । जापान में ऐसी प्रथा रही है--जब कोई व्यक्ति बूढ़ा हो जाता तो स्वयं उसका बेटा उसे जंगल में छोड़ आता। क्योंकि वह परिवार एवं समाज के लिए उपयोगी नहीं रहता । जहां नैतिकता समाजव्यवस्था से जुड़ी रहेगी वहां उसका आधार होगा उपयोगिता किन्तु जहां नैतिकता आत्मा से जड़ी होगी वहां उसका आधार उपयोगिता नहीं होगा, उसका अर्थ बदल जाएगा। परम शुभ है आचार __ महावीर वाणी के आधार पर आचार को परिभाषित करें तो निष्कर्ष होगा--निःशस्त्रीकरण का नाम है आचार। शस्त्र-परिज्ञा-शस्त्र न बनना आचार है। प्रश्न होता है—क्या तलवार, बम, बन्दुक आदि शस्त्र हैं ? ये दो नंबर के शस्त्र हैं। पहले शस्त्र बनता है हमारे भाव या Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा मस्तिष्क में । आचारवान वह है, जो मूढ-भाव और अविरति के शस्त्र से दूर रहता है. अशस्त्रं काममाचारः, शस्त्रं भावो विमोहितः । शस्त्रं चाविरतिस्तस्माद, दूरमाचारवान् मतः ॥ सुकरात ने कहा--ज्ञान परम शुभ है। यदि जैन दृष्टिकोण से पूछा जाए----परम शुभ क्या है ? कहा जाएगा-आचार परम शुभ है। आचार के पांच प्रकार हैं--ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चारित्र आचार, तप आचार और वीर्य आचार । ज्ञान भी एक आचार है। ज्ञान है दृष्ट का अन्तर्बोध । किन्तु कोई भी ज्ञान जब तक आचरण में नहीं आएगा तब तक वह ज्ञान अपने आपमें ही प्रतिष्ठित रहेगा। ज्ञान के लिए विनम्र व्यवहार करना भी ज्ञान का आचार है। जहां ज्ञान और ज्ञानी के प्रति बहुमान नहीं है वहां ज्ञान का आचार नहीं है। सम्यग् दर्शन का भी अपना आचार है। चारित्र का भी अपना आचार है । समिति-गुप्तियां चारित्र के आचार हैं। तप और वीर्य का भी अपना आचार है। महावीर ने आचार का इतना व्यापक दर्शन दिया, जिसमें कोई भी तत्व बाकी नहीं बचा। जितना शुभ है, वह इस आचार में समाविष्ट है। सर्वांगीणदृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा, जीवन के जितने भी शुभ पक्ष हैं, वे सारे के सारे आचार में समाविष्ट होते हैं। पाप का कारण आचार के संदर्भ में अनेक प्रश्न उभरते हैं—आचार कैसा हो ? क्यों हो ? उसके हेतु क्या हैं ? अमरीकी दार्शनिक जोनेथन एडवर्ड स ने प्रश्न उठाया-पाप का कारण क्या है ? उन्होंने लिखा---मनुष्य प्रकृति से अच्छा नहीं है। वह अच्छा काम करने एवं बुराई का वर्जन करने में असमर्थ है । यह उसकी प्रकृति है। हम आचारांग के संदर्भ में विचार करें-पाप का कारण क्या है ? दुराचार और अनाचार का कारण क्या है ? आचारंग के आधार पर इसका उत्तर होगा-व्यक्ति का यह चिन्तन-मैंने किया है, मैं करता हूं और मैं करूंगा-पाप का कारण है। महावीर की भाषा में यह क्रियावाद है। आत्मा और पुद्गल का योग होना अनाचार का मूल हेतु है। अगर यह योग नहीं होता तो आदमी कोई पाप नहीं करता। अगर आत्मा आत्मा होती और पुद्गल पुद्गल होता तो कोई आश्रव नहीं होता, कर्म का बंध नहीं होता और पाप भी नहीं होता। पाप क्यों होता है ? क्योंकि आत्मा पुद्गल से मिला हुआ है इसीलिए आत्मा औपपातिक है, वह जन्म और मरण के चक्र में चल रहा है। वह पुद्गल से बंधा हुआ है । पुद्गल का योग Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र होना ही बंध का कारण है और पुद्गल का वियोग होना ही मोक्ष का कारण है। आचार्य हेमचन्द्र ने बहुत थोड़े में बंध और मोक्ष का मार्ग प्रस्तुत कर दिया-- आश्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहती दष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ कर्म का आना बंध का हेतु है, कर्म का आना रुक जाना मोक्ष का हेतु है । यही जैनदृष्टि का सार है। शेष सारा इन दो तत्त्वों का विस्तार है। इस श्लोक में पूरे आचारांग का सार सन्निहित है, आचार-शास्त्र का सार सन्निहित है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● से बेमि-अप्पेगे अंधमभे अप्पेगे अंधमच्छे | • अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए । • अप्पेगे पायमन्भे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे सीसमन्भे अप्पेगे सीसमच्छे । • संति पाणा पुढोसिया । प्रवचन २ ० o ० छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया | [ ठाणं ६/६ ] संकलिका [ आयारो १/२८-३०] [ आयारो १ / १६ ] षड् जीवनिकायः दुर्लभ विषय महावीर का मौलिक अवदान पंचभूत: षड् जीवनिकाय O • व्यक्त चेतना : अव्यक्त चेतना ० संवेदन का प्रश्न • बेकस्टर के प्रयोग • बोगेल का निष्कर्ष • पर्यावरण का सिद्धांत : जीव-संयम ० दो निदर्शन : सुख-दुःख संवेदन • मॉडर्न रिसर्च का विश्लेषण ० प्रश्न इन्द्रियातीत चेतना का इन्द्रियातीत चेतना : जागरण का सूत्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या सूक्ष्म जीव सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ? सिद्धान्त षड्जीवनिकाय का आचार का मुख्य तत्त्व है अहिंसा - किसी को मत सताओ, किसी को उत्पीड़ित मत करो, किसी को मत मारो। अहिंसा से पहले ज्ञान की बात आती है । जब तक जीव और अजीव का सम्यग् ज्ञान नहीं होता तब तक अहिंसा की चर्चा ही नहीं की जा सकती । मनुष्य और पशु को मत मा, यह एक स्थूल बात है । हमारा जगत् मनुष्य और पशु का जगत् ही नहीं है, यह प्राणियों का जगत् है । कितने प्राणी हैं ? यह ज्ञान सबसे पहले जरूरी है । इस विषय में कहा जा सकता है— पूरे तात्त्विक जगत् में भगवान महावीर ने सबसे अधिक सूक्ष्मता से जीवों का प्रतिपादन किया । षड् जीवनिकाय एक दुर्लभ विषय है । सकता है । यह किसी भी दूसरे दर्शन में प्राप्त कीड़े जैसे छोटे जीवों तक बहुत तत्वज्ञ पहुंचे हैं तक भी पहुंचे हैं, उन्होंने वनस्पति को भी जीव माना है । हो महावीर की अवधारणा के बाद ही इस तथ्य को स्वीकारा गया यह षड् जीवनिकाय का सिद्धान्त कहीं भी मान्य नहीं है, किसी मान्य नहीं है । सर्वज्ञता का प्रमाण इसे अलौकिक भी कहा जा नहीं है । मनुष्य, पशु तथा और कुछ तत्वज्ञ वनस्पति सकता हैहो । किन्तु भी दर्शन में आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है-भंते ! आपकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने के लिए एक षड् जीवनिकाय का सिद्धान्त ही पर्याप्त है । दूसरा कोई साक्ष्य देने की मुझे जरूरत ही नहीं है य एव षड्जीवनिकायविस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः स्थिताः | सर्वज्ञता के बिना षड्जीवनिकाय के सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । दूसरे दार्शनिकों ने पांच भूतों को स्वीकार किया - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । भगवान् महावीर ने इन्हें भूत नहीं माना, आकाश को छोड़कर सबको जीव मान लिया । पृथ्वीकाय जीव हैं, अध्काय, तैजसका और वायुकाय भी जीव हैं। ये चारों जीवनिकाय हैं। पांचवां, जीवनकाय है वनस्पति और छट्टा जीवनिकाय है स | जीवों की छह राशियां और छह श्रेणियां हैं । इनमें सारे जीव Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा समाहित हो जाते हैं। इनमें पांच स्थावर काय के जाव सूक्ष्म हैं। हमें आंखों से ऐसे जीव दिखाई नहीं देते। चलने फिरने वाले जीव त्रस हैं। वे स्थूल जीव हैं । उनका आंखों से पता चल जाता है। महावीर ने सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व का विस्तृत विवेचन किया है । उन्होंने सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की स्वीकृति मार्मिक भाषा में प्रस्तुत कीसे बेमि--णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोगं अब्भाइक्खइ । मैं कहता हूं----व्यक्ति न लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे । जो लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है । अपने अस्तित्व की स्वीकृति लोक की स्वीकृति है, अन्य जीवों के अस्तित्व की स्वीकृति है। लोक की अस्वीकृति सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की अस्वीकृति है, अपने अस्तित्व की अस्वीकृति है । प्रश्न मौलिकता का पश्चिमी विद्वानों ने प्रश्न उपस्थित किया-यह आदिमकाल का ज्ञान है। महावीर की स्वतन्त्र प्रस्थापना नहीं है। आदिम लोगों ने इन भूतों को माना था और महावीर ने इनको जीव के रूप में स्वीकार कर लिया । वस्तुतः यह कथन सही नहीं है । पृथ्वी हमारे सामने है, हम उसे देख सकते हैं। पानी भी हम देख सकते हैं। वायु का स्पर्श हो रहा है। आग को हम देख रहे हैं और वनस्पति को भी हम देख ही रहे हैं। इन्हें भूत मानने में कोई कठिनाई नहीं थी। इनमें जीव है, यही नहीं किन्तु ये स्वयं जीव हैं । यह महावीर की मौलिक स्वीकृति है। पानी में जीव है यह अलग बात है, पानी स्वयं जीव है, यह अलग पात है। मिट्टी में जीव होन। अलग बात है और मिट्टी स्वयं जीव है, यह अलग बात है। जैनागमों में दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं. पुढवी जीवा, पुढवीनिस्सिया जीवा । पृथ्वीकायिक जीव और पृथ्वी-नि श्रत जीव, पृथ्वी के आश्रय में रहने वाले जीव । सब जीवनिकायों के लिए ये शब्द व्यवहृत हुए हैं। इन सबको जीव मानना भगवान महावीर के अतिशय ज्ञान का एक स्वयंभू साक्ष्य है। यह अलौकिक बात है कि चारों तरफ जीव ही जीव हैं। पूछा जाएजीव कहां है ? कहा जाएगा----सारा लोक जीवों से भरा पड़ा है। व्यक्ति वे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या सूक्ष्म जीव सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ? शरीर का एक अणु जितना हिस्सा भी ऐसा नहीं है, जिसमें सूक्ष्म जीव नहीं हैं। प्रश्न पूछा गया—इस अंगुली में कितनी काय के जीव हैं ? उत्तर दिया गया-यह स्वयं तो जीव है ही परन्तु असंख्य सूक्ष्मकाय जीव भी इसमें हैं। इसमें पृथ्वीकायिक भी हैं, अकायिक भी हैं, तैजसकायिक और वायुकायिक भी हैं, वनस्पति कायिक भी हैं। कहा गया-एक सूई की नोक टिके, उतने भाग में अनंत जीव हो सकते हैं । निगोद जीवों के संदर्भ में एक दोहा सुनाया जाता था, उसमें इसी सचाई की प्रतिध्वनि है--- सूई अग्र निगोद में, श्रेणी असंख्याती जाण, असंख्याता प्रतर इक श्रेणी में, इम गोला असंख्याता प्रमाण । एक एक गोला मझे शरीर असंख्याता जाण, एक एक शरीर में, जीव अनंत प्रमाण ॥ प्रश्न संवेदन का सारा संसार जीवों से भरा पड़ा है। जब तक अहिंसा की बात करने वाला इस सचाई को न जान ले, सूक्ष्म जीवों के नियमों को न जान ले तब तक वह अहिंसा की बात को पूरा कैसे जानेगा? इसीलिए कहा गया-जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम और अहिंसा को कैसे जानेगा ? जो जीवे वि न याणाई, अजीवे वि न याणई । जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं ॥ पहले यह ज्ञान कर लेना आवश्यक है कि जीव क्या है ? अजीव क्या है ? जीव और अजीव क्या है ? यह जानने के बाद अहिंसा की बात सहज समझ में आ सकती है। ___ एक प्रश्न और उभरता है--जो सूक्ष्म जीव हैं वे संवेदनशील हैं। क्या उन्हें सुख-दुःख होता है ? सूक्ष्म जीव अत्यन्त सूक्ष्म हैं, एक मिट्टी की डली में असंख्य जीव हैं, वनस्पति के छोटे से कतरे में असंत जीव हो सकते हैं । उनकी चेतना भी व्यक्त नहीं है। क्या उन्हें सुख-दुःख का संवेदन होता है ? इस प्रश्न पर भी अहिंसा के संदर्भ में विचार किया गया। इन सूक्ष्म जीवों को सुख-दुःख का संवेदन होता है, यह समझना भी बड़ा कठिन था। भगवान महावीर ने कहा-यह सही है कि इन छोटे जीवों की चेतना अव्यक्त होती है। इनमें इन्द्रिय भी एक होता है-स्पर्शन, फिर भी इन्हें सुख और दुःख का संवेदन होता है। इनमें मन नहीं होता परन्तु अनिन्द्रिय ज्ञान होता है। अनिन्द्रिय ज्ञान : दो अर्थ अनिन्द्रिय ज्ञान के दो अर्थ हैं । उसका एक अर्थ है-मन और दूसरा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा अर्थ है-ओघ संज्ञा । आज के विज्ञान ने इस बात को कैसे पकड़ा, यह आश्चर्य का विषय है। वैज्ञानिकों ने माना है-वनस्पति में कलेक्टिव माइण्ड (ओघ संज्ञा) होता है। वनस्पति के जीव बात को इतने विचित्र ढंग से पकड़ते हैं, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। इस विषय में दो वैज्ञानिकों--डाक्टर बोगेल और डाक्टर बेकस्टर ने बहुत प्रयोग किए। बोगेल ने अपने प्रयोगों में देखा-मनुष्य और पौधे ने एक दूसरे में अपनी चेतना का आदान प्रदान करते हैं । बेकस्टर ने एक दिन पौधों पर प्रयोग शुरू किए । उसने पोलिग्राफ के संवेदनशील तार से पौधे की शाखा को जोड़ दिया। पौधे ने अपनी भावना जतानी शुरू की। गेल्वेनोमीटर की सूई घूमने लगी। उसने देखा—पौधा प्यासा है। उसने पानी डाला। पूनः सूई घूमी, पौधे ने अपना हर्ष प्रकट कर दिया। उसने सोचा--पौधों से और भी बातें करनी चाहिए । पौधों को आवेश में लाने के लिए उसने एक पत्ती को तोड़ा और उसे कॉफी में डाल दिया। कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसने सोचा-इसे जला डालू । यह चिन्तन आया और गेल्वेनोमीटर की सूई घूमने लगी। बेकस्टर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे पूरा भरोसा हो गया कि पौधा हर बात को पकड़ता है। प्रयोग साम्यवादी देशों के पौधा हमारे मस्तिष्क के भावों को भी पकड़ लेता है, हजारों प्रयोगों के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों ने बड़े विचित्र प्रयोग किए हैं। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने पौधों को अपनी पार्टी का सदस्य घोषित किया है । अन्य साम्यवादी देशों में भी परिवर्तन हुए हैं, दृष्टिकोण बदला है । जैसे-जैसे पेरासाइकोलोजी का विकास हुआ, वनस्पति जगत् के प्रयोग सामने आए, सूक्ष्म सत्यों का पता चला तो आस्थाएं हिल गई। कई बार विरोध का स्वर उभरा-इन प्रयोगों को बंद कर दिया जाए अन्यथा मार्क्सवाद की जड़ें उखड़ जाएंगी। हम जब तक इन्द्रिय जगत् में, स्थूल जगत् में रहते हैं तब तक हमारी धारणाएं चार्वाक की धारणाएं बनी रहती हैं-- हमें कोई लेना देना नहीं है, मजे में रहना है, जो चाहें करें, इसी में जीवन का सार है। किन्तु जब हम सूक्ष्म सत्यों को जानते हैं, हमारी धारणाएं बदल जाती हैं, हमारा दायरा बड़ा हो जाता है। व्यक्ति का जीवन बदल जाता है । वह सोचता है-इस दुनियां में दूसरे भी हैं, मैं अकेला ही नहीं हूं, इसलिए मुझे संयम करना चाहिए । जीव-संयम का प्रश्न महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-यह जीव-संयम और अजीव-संयम का सिद्धान्त क्यों आया ? यह जीव-संयम का सिद्धान्त पर्यावरण का सिद्धान्त है। जीव Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या सूक्ष्म जीव. सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ? के प्रति संयम करो। जीव-संयम तब आवश्यक लगा जब सूक्ष्म सचाइयों को जाना गया। आज हमारे सामने लाई डिटेक्टर, पोलीग्राफ आदि बहुत से यन्त्र हैं किन्तु उस समय सूक्ष्म बातों को जानने का कोई यन्त्र नहीं था। केवल अपनी अतीन्द्रिय चेतना से सारी बातों को पकड़ा गया। महावीर ने कहा-~-तुम देखो। वनस्पति आदि में अव्यक्त चेतना है । उनकी चेतना व्यक्त नहीं है। उन्हें कष्ट कैसे होता है ? सुख की अनुभूति कैसे होती है ? इसे स्थूल उदाहरण की भाषा में समझाया। उन्होंने कहा-एक आदमी आंख से अंधा है, वाणी से मूक है और कानों से बहरा है । आंख और कान-इन दो इन्द्रियों के न होने का मतलब है जगत् से सम्पर्क का विच्छेद । आंख से देखकर या कान से सुनकर हम अपनी भावना व्यक्त करते हैं । जीभ से बोलकर हम अपनी बात कहते हैं। जो व्यक्ति अंधा भी है, बहरा और मूक भी है, वह न बोल सकता है, न देख सकता है, न सुन सकता है। ऐसे प्राणी को अगर कोई सताता है तो क्या उसे कष्ट होता है ? हां भंते ! होता है। कैसे होता है ? भंते ! कष्ट होता ही है पर वह उसे प्रगट नहीं कर सकता। भगवान ने कहा-इसी प्रकार सूक्ष्म जीवों को चोट पहुंचाने पर कष्ट होता है किन्तु उनके पास न कान है, न आंख है और न जीभ है। उनके पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे वे अपनी वेदना को अभिव्यक्ति दे सकें । उनमें भी निरंतर प्राणधारा बह रही है, इसलिए वेदना तो होगी _ आज के वैज्ञानिकों ने प्राणधारा का नाम दिया है-कॉस्मिक रेजागतिक प्राणशक्ति । उसे सब प्राणी भोग रहे हैं। संदर्भ मूच्छित व्यक्ति का 'आयतुले पयासु'--प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझो, यह अनुभूति जिन्हें हो गई, उनके लिए हिंसा करना असंभव हो गया। हम वनस्पति की बात छोड़ दें, आज आदमी आदमी को ही मार रहा है। महावीर ने दूसरा उदाहरण दिया--एक आदमी मूच्छित हो गया। प्रश्न हैमूर्छा में उसे कष्ट होता है या नहीं ? हमें इसका पता नहीं चलता, पर अन्तःचेतना में वह कष्ट का वेदन जरूर करता है । एक ज्ञान की शक्ति होती है, जो मूच्छित अवस्था में भी बात को पकड़ लेती है। इसी आधार पर उन्होंने कहा—जैसे मूच्छित आदमी कष्ट का अनुभव करता है, उसे व्यक्त नहीं कर पाता, वैसे ही सूक्ष्म जीव कष्ट का अनुभव करते हैं, चाहे वे उसे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अस्तित्व और अहिंसा व्यक्त न कर पाएं। आचारांग सूत्र में इन उदाहरणों के द्वारा सूक्ष्म जीवों की संवेदना को व्यक्त किया गया है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग इस संवेदना के तथ्य को और स्पष्ट कर रहे हैं । इस सुख-दुःख की अनुभूति के बारे में 'मॉडर्न रिसर्च' पुस्तक में जो व्यापक विश्लेषण किया गया है, उससे यह धारणा स्पष्ट हो जाती है कि सूक्ष्म जगत् में इन्द्रिय चेतना और उससे परे अतीन्द्रिय चेतना का अस्तित्व विद्यमान है। अतीन्द्रिय चेतना : जागरण का सूत्र हमारे सामने दो जगत् हैं—सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् (दृश्य जगत) । स्थूल जगत् व्यक्त चेतना वाला जगत् है और सूक्ष्म जगत् अव्यक्त चेतना वाला जगत् है। अव्यक्त चेतना का अर्थ है—सूक्ष्म जीवों की इन्द्रियां व्यक्त नहीं हैं किन्तु उनकी अन्तर् चेतना तीव्र है। आज भी मनुष्य ने अपनी इन्द्रियों को पाकर कुछ खोया भी है। उसने अपनी अतीन्द्रिय चेतना के दरवाजे बंद कर लिए हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास इन्द्रियातीत चेतना है। हम उसे प्रातिभ-ज्ञान कहें या प्रज्ञा कहें, वह प्रत्येक मनुष्य के पास है। जरूरत है सूक्ष्म नियमों को जानने की, एकाग्र होने की और इन्द्रियों से कम काम लेने की। अतीन्द्रिय चेतना के जागरण के लिए एक संतुलन अपेक्षित है। यदि हम इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता का सूत्र सीख जाएं तो हमारी अतीन्द्रिय चेतना जाग सकती है, सूक्ष्म जगत् के सूक्ष्म प्राणियों के साथ हमारा तादात्म्य स्थापित हो सकता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३ | | संकलिका • जंबुदीवेणं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम-दुस्समाए.... समाणुभावेण य णं खर-फरुस-धूलि-मइला दुन्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिति...... समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छति । अहियं सूरिया तवइस्संति। अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा, विरसमेहा, असणिमेहाअविवणिज्जादगा वाहिरोगवेदणोदीरणा-परिणामसलिला..... "वेयड्ढगिरिवज्जे विरावेहिति, सलिलबिलगड्ढ-दुग्ग विसमनिण्णुन्नायाइं च गंगासन्धुवज्जाई समीकरेहिति । . . . . [भगवई ७/११७-१२३]] ० एस खलु गंथे, एस खलु मोहे , एस खलु मारे, एस खलु णिरए। [आयारो १/१०७] ० तं परिणाय मेहावी इयाणि नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं । [आयारो १/७०] ० सुपर ईगो है संयम ईगो है असंयम ० अहिंसा और पर्यावरण ० पर्यावरण विज्ञान : भोगोपभोग संयम ० अतिरिक्त दोहन : परिणाम ० असंतुलन : कारण है असंयम • छठे आरे-कालखंड में विश्व-स्थिति ० महत्वपूर्ण अवधारणाएं - धर्म का सूत्र : वर्तमान सन्दर्भ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा मृत्यु है हिंसा और असंयम संयम को छोड़कर अहिंसा को नहीं समझा जा सकता, असंयम को छोड़कर हिंसा को नहीं समझा जा सकता। हिंसा और अहिंसा-ये निष्पत्तियां हैं, परिणाम हैं। इनकी पृष्ठभूमि में है मनुष्य का संयम और असंयम । एक भाषा में कहा जा सकता है—संयम का अर्थ है अहिंसा और असंयम का अर्थ है-हिंसा। जितना-जितना संयम उतनी-उतनी अहिंसा, जितना-जितना असंयम उतनी-उतनी हिंसा । आज हिंसा बढ़ी है और इसलिए बढ़ी है कि असंयम बढ़ा है। हम हिंसा को पकड़ें तो वह हाथ में नहीं आएगी। हिंसा कभी भी पकड़ी नहीं जा सकती। ___आज हिंसा को रोकने के बहुत उपाय किए जा रहे हैं। दंड-संहिता बढ़ गई है, पुलिस की संख्या बढ़ गई है। सतर्कता विभाग बन गए हैं। पुलिस की शाखाएं बढ़ती जा रही हैं। पहले एक डी० आई० जी० था । आज अनेक डी. आई. जी और आई. जी.बना दिए गए । अनेक नगरों में पुलिस का जाल सा बिछा हुआ रहता है, फिर भी अपराध उससे अधिक बढ़ते चले जा रहे हैं, आतंक बढ़ता चला जा रहा है, उपाय बेअसर हो रहे हैं । इसका कारण है--जिस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है । ध्यान देने योग्य बात है—असंयम । समस्या का कारण आज मनुष्य में असंयम बढ़ रहा है। मैं एक युवक से बातचीत कर रहा था। उसने कहा- ईगो (Ego) तो होना ही चाहिए। ईगो नहीं होगा तो विकास कैसे होगा। महत्वाकांक्षा के बिना विकास कैसे हो सकता है ? इसलिए ईगो का होना जरूरी है। मैंने कहा-ईगो का होना जरूरी है तो साथ-साथ सुपर ईगो (super Ego) का होना भी जरूरी है। यदि सुपर ईगो नहीं होगा तो कोरा ईगो खतरनाक बन जाएगा। ईगो और सुपर ईगो का सन्तुलन जरूरी है। अगर ईगो को हम असंयम मानें तो सुपर ईगो को संयम माना जा सकता है। ईगो असंयम है तो सुपर ईगो संयम है। अगर ईगो है, सुपर ईगो नहीं है तो हिंसा का होना अनिवार्य है। आज असंयम के कारण समस्याएं बढ़ रही हैं। इसी असंयम को Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा मृत्यु है ध्यान में रखकर महावीर ने कहा था--हिंसा ग्रंथि है। हिंसा मोह है । हिंसा मृत्यु है । हिंसा नरक है । इसका हार्द है-जब-जब असंयम बढ़ता है, हिंसा की समस्या विकराल बन जाती है। वह मनुष्य के लिए मौत बन जाती है। हिंसा मृत्यु कैसे है ? इस तथ्य को हम विज्ञान के सन्दर्भ में समझे। आज पर्यावरण (इकोलोजी) पर बहुत चर्चा हो रही है। वैज्ञानिकों का मानना है—यदि पर्यावरण का असन्तुलन बढ़ता रहा तो एक दिन मनुष्यजाति समाप्त हो जाएगी। केवल मनुष्य ही नहीं, प्राणी जगत् भी समाप्त हो जाएगा। दो भविष्यवाणियां एक भविष्यवाणी है आज की और एक है ढाई हजार वर्ष पुरानी । अभी मैंने हिन्दुस्तान में एक लेख पढ़ा। उसमें विश्व के भविष्य की स्थिति का चित्रण था। ढाई हजार वर्ष पहले रचित भगवती सूत्र में विश्व के बारे में ऐसी ही भविष्यवाणी की गई है । फ्रांस, अमेरिका आदि देशों के भविष्यवक्ताओं की अनेक भविप्यवाणियां छपी हैं किन्तु भगवती सूत्र की यह भविष्यवाणी अभी तक प्रकाश में नहीं आई है। वैज्ञानिक जगत् द्वारा प्रलय के सन्दर्भ में की जा रही भविष्यवाणी को भगवती सूत्र के सन्दर्भ में पढ़ें तो सहज ही यह प्रश्न उभरेगा—क्या यह लेख भगवती सूत्र को देखकर लिखा गया है ? या यह विकल्प उठेगा—इस लेख में जो लिखा गया है, वह भगवती सूत्र के प्रणेता ने हजारों वर्ष पहले कैसे लिख दिया ? भाव ही नहीं, कहीं-कहीं भाषा भी समान है। भविष्य विश्व का लेख की भाषा है.---'आज पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ रहा है । इसका एक कारण है-नाभिकीय विस्फोट । वैज्ञानिक बतलाते हैं—यदि नाभिकीय युद्ध हुआ, अणुयुद्ध हुआ तो विश्वस्थिति में भारी परिवर्तन आएगा । सारी धरती और सारा आकाश धूल से भर जाएगा। कहीं तापमान कम हो जाएगा, कहीं तापमान बहुत अधिक बढ़ जाएगा । सारा जल और स्थल भूभाग विषाक्त बन जाएगा। जीव जगत् बिल्कुल नष्ट हो जाएगा। कहीं भयंकर सर्दी पड़ेगी, कहीं भयंकर गर्मी। सारे हिमखंड पिघल जाएंगे । समुद्र का जल-स्तर दो-तीन मीटर ऊंचा चला जाएगा। समुद्र तट पर बसे नगर और बस्तियां डूब जाएंगी, उसके आस-पास का स्थल भूभाग जलमय बन जाएगा। एक प्रकार से हिमयुग आएगा, केवल पानी ही पानी दिखाई देगा। यह नाभिकीय विस्फोट और अणुयुद्ध से बनने वाली स्थिति है। दूसरा कारण है—वनों की अंधाधुंध कटाई। सारे संसार में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई हो रही है। उसके कारण कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अस्तित्व और अहिंसा पचीस प्रतिशत बढ़ गई है । जितनी कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा बढ़ती है उतना ही वातावरण भयंकर हो जाता है, तापमान बढ़ जाता है । इतनी गैसें जलाई जा रही हैं कि जिनके कारण वातावरण कार्बन डाइ आक्साइड से भर गया है । ओजोन की छतरी, जो एक सुरक्षा कवच है, टूटती चली जा रही है। कुछ देशों के इन करतबों का परिणाम सारे विश्व पर पड़ रहा है । क्यों बिगड़ रहा है सन्तुलन ? यह सारी स्थिति एक प्रलय की स्थिति है । क्या इस सन्दर्भ में हम यह न कहें- हिंसा मृत्यु है ? क्या यह कहें — हिंसा मृत्यु नहीं है ? जिस स्थिति में एक आदमी का नहीं, दो-तीन-चार का नहीं किन्तु पूरे जगत् का विनाश छिपा है, क्या उसको मृत्यु कहना अतिशयोक्ति है ? एस खलु मारे हिंसा मृत्यु है - इस वाक्य को इस वैज्ञानिक संदर्भ के साथ पढ़ें तो लगेगायह कितना व्यापक सूत्र है । बिना सन्दर्भ यह सूत्र सामान्य लगता है किन्तु विज्ञान के सन्दर्भ में यह सूत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण बन जाता है । यह पर्यावरणविज्ञान का सूत्र है । पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ा और संसार के लिये मौत का निमंत्रण आ गया । प्रश्न है - यह सन्तुलन क्यों बिगड़ रहा हैं ? इसका कारण है— मनुष्य में असंयम बढ़ गया है । वह इतना धन चाहता है, इतना सुख चाहता है, इतनी सुविधा चाहता है कि उसके लिए सब कुछ करने को तैयार है । वनों की कटाई क्यों हो रही है ? पैसे के लोभ के कारण वन कट रहे हैं। बड़े-बड़े ठेकेदारों और अधिकारियों की मिलीभगत से निषिद्ध वन खुले आम काटे जा रहे हैं । कोई रोकने वाला नहीं है, कोई टोकने वाला नहीं है । इधर भी पैसे का लोभ है और उधर भी पैसे का लोभ है । यह धन का लोभ, यह असंयम, वनों को नष्ट कर रहा है। इसका परिणाम है ऑक्सीजन की कमी और कार्बन की अधिकता । पर्यावरण-विज्ञान : अहिंसा असंयम के कारण ही खनिज का अतिरिक्त दोहन हो रहा है । इस वैज्ञानिक युग में जीने वाले वैज्ञानिक और भौतिक मनुष्य क्या भविष्य की - कल्पना नहीं करते ? क्या खनिज का अतिरिक्त दोहन कर वे भावी पीढ़ियों को दरिद्र नहीं बना रहे हैं ? जो खनिज सम्पदा हजारों वर्ष तक काम आ सके, यदि वह सौ वर्षों में समाप्त हो जाए तो क्या स्थिति होगी ? आने वाली पीढ़ी रोएगी । वह कहेगी – हमारे पूर्वजों ने हमारे साथ क्या किया, हमें बिलकुल दरिद्र और निकम्मा बना दिया । पर्यावरण- विज्ञान का एक सूत्र है— लिमिटेशन | पदार्थ की सीमा है । कोई भी पदार्थ असीम नहीं है । क्या पदार्थ की सीमा का यह सूत्र संयम का सूत्र नहीं है ? पर्यावरण विज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है - पदार्थ सीमित Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा मृत्यु है १६ हैं, इसलिए उपभोग कम करो। पदार्थों का उपभोग कम हो, पानी का व्यय कम किया जाए, उपभोग का संयम किया जाए, यह सूत्र धर्म का नहीं, पर्यावरण-विज्ञान का है किन्तु सच्चाई दोनों में एक है । धर्म का आदमी कहेगाकम खर्च करो, संयम करो । पर्यावरण विज्ञानी की भाषा है-पदार्थ कम हैं, उपभोक्ता अधिक हैं, इसलिए भोग की सीमा करो। महावीर ने भोगोपभोग के संयम का जो व्रत दिया, वह पर्यावरण-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। पदार्थ ज्यादा काम में मत लो, अनावश्यक चीज को काम में मत लो, यह है संयम और इसी का नाम अहिंसा है, पर्यावरण-विज्ञान है। भविष्यवाणी भगवती की __हम भगवती का प्रकरण पढ़ें। जैन काल-गणना के अनुसार अभी पांचवां आरा चल रहा है। जब पांचवा आरा (कालखंड) पूरा होने वाला होगा, छठा आरा (कालखंड) प्रारम्भ होगा तब इस विश्व में विचित्र स्थितियां वनेंगी। उस समय की स्थिति का वर्णन लोमहर्षक है । सबसे पहले समवर्तक वायु चलेगा। वह इतना प्रलयंकारी होगा कि पहाड़ भी प्रकम्पित हो जाएंगे। इस युग में भी कभी-कभी चक्रवात आते हैं, उसमें बैलगाड़ियां, कारें उड़ जाती हैं, वृक्षों से अटक जाती हैं । वह समवर्तक वायु इतना भयंकर होगा कि पहाड़ और गांव नष्ट हो जाएंगे, उनका अस्तित्व ही विलुप्त हो जाएगा । तीव्र आंधियां चलेंगी, जिससे सारा आकाश और सारी धरती धूल से भर जाएंगे । चन्द्रमा इतना ठण्डा हो जाएगा कि रात को कोई आदमी बाहर नहीं निकल पाएगा। सूर्य इतना गर्म होगा, इतना तप्त होगा कि आदमी झुलस जाएंगे । भयंकर ठंड और भयंकर गर्मी। बारेस भी होगी पानी की नहीं, अग्नि की वर्षा होगी, अंगारे बरसेंगे। आज कहा जा रहा है-जब परमाणु विस्फोट होगा, नाभिकीय युद्ध होगा तब आकाश अग्नि की लपटों से भर जाएगा, जीवजगत् प्रायः समाप्त हो जाएगा । जो बचेंगे, वे अन्धे, बहरे और रुग्ण रहेंगे। भगवती सूत्र में कहा गया--जो मेघ बरसेंगे, वे रोग बढ़ाने वाले होंगे । उसका परिणाम होगा----मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति, कीड़े, मकोड़े नष्ट हो जाएंगे । पहाड़ों में केवल एक वैताढ्य पर्वत बचेगा, जिसे आज हिमालय कहा जाता है। शेष सारे पहाड़, अरावली और विध्याचल की घाटियां अपना अस्तित्व खो देंगी। जो कुछ लोग बचेंगे, वे हिमालय की गुफाओं में रह जाएंगे। वे दिन में बाहर निकल सकेंगे, न रात में बाहर निकल सकेंगे । केवल संधिकाल में थोड़े समय के लिए बाहर आ पाएंगे । नदियां प्रायः सूख जाएंगी। केवल गंगा और सिन्धु का थोड़ा-सा तट अवशेष रहेगा । वे बचे लोग कुछ मछलियां खाकर जैसे-तैसे अपने जीवन का यापन करेंगे। जैसे चहे Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा बिलों में पड़े रहते हैं वैसे ही मनुष्य पहाड़ का गुफाओं में दुबके रहेंगे। यह भूमि अंगारों के समान तप्त हो जाएगी। सारी भूमि तप उठेगी। अंगारों पर चलना और भमि पर चलना एक समान लगेगा। भगवती सूत्र का यह वर्णन क्या परमाणु युद्ध से पैदा होने स्थिति का वर्णन नहीं है ? उन्होंने पहले कैसे देखा कि ऐसा कुछ होने वाला है ? आज जो चल रहा है, उससे ऐसा लगता है-आदमी ठीक उसी दिशा में जा रहा है। आज का वैज्ञानिक और राजनेता हिंसा की दिशा में जा रहा है, इसका अर्थ है-वह मौत की दिशा में जा रहा है और जानबूझकर आंखमिचौनी खेल रहा है, अपने आपको धोखा दे रहा है । धोखा खा रहा है आदमी मालिक ने नौकर से कहा-यह लिफाफा ले जाओ, टिकट लगाकर पोस्ट ऑफिस में पोस्ट कर आओ। नौकर ने वापस आकर मालिक से कहायह लो टिकट । ____ मालिक ने पूछा---यह टिकट क्यों लाए ? क्या लिफाफा पोस्ट नहीं किया ? उसने कहा-मैंने लिफाफा पोस्ट कर दिया। यह टिकट कैसे लाए ? जब मैं लिफाफा पोस्ट कर रहा था तब पोस्टमास्टर की नजर दूसरी तरफ थी इसलिए मैंने टिकट नहीं लगाया। बिना टिकट लगा लिफाफा पोस्ट कर टिकट को बचा लिया। आदमी दूसरों को धोखा देना चाहता है पर वह यह नहीं सोचता है कि वह स्वयं धोखा खा रहा है। बिना टिकट लगा लिफाफा बैरंग माना जाता है। उसे छुड़ाने के लिए टिकट की कीमत से भी अधिक कीमत अदा करनी पड़ती है। प्रश्न है-धोखा किसने खाया ? मालिक ने या पोस्टमास्टर ने ? वस्तुतः आदमी स्वयं को ही धोखा देता है, दूसरों को नहीं। उसमें यह प्रवृत्ति बढ़ रही है, वह अपने आपको धोखा देता चला जा रहा है। मूर्छा इतनी प्रबल है कि आदमी समझते हुए भी समझ नहीं पा रहा है । काल की उदीरणा न हो जाए आज सारे वैज्ञानिक भविष्य के प्रति चिंतित हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के लोग अनेक बार यह घोषणा करते हैं-वनों की कटाई कम करें, पदार्थ और जल का सीमित प्रयोग करें। वैज्ञानिक स्तर पर आने वाली इन चेतावनियों के बावजूद सब कुछ वैसा ही चल रहा है । सब लोग वैसे ही कर रहे हैं, सरकारें भी वैसे ही चलती जा रही हैं। पैसे का लोभ सरकार को भी है, जनता को भी है, ठेकेदारों और अधिकारियों को भी है । इस पैसे के चक्र में, लोभ और Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ हिंसा मृत्यु है असंयम के चक्र में सब फंसे हुए हैं। पर्यावरण प्रदूषण के प्रति बहुत चिन्ता दर्शायी जा रही है, किन्तु इसकी क्रियान्विति की चिन्ता नहीं है । जब तक अहिंसा और संयम का मार्ग समझ में नहीं आएगा तब तक पर्यावरण की बात समझ में नहीं आएगी, पर्यावरण की समस्या सुलझेगी नहीं । पांचवे कालखण्ड की काल अवधि है - इक्कीस हजार वर्ष । कहीं काल की उदीरणा न हो जाए, इक्कीस हजार वर्ष बाद आने वाली स्थिति इक्कीसवीं शताब्दी में ही न आ जाए ? क्योंकि वैज्ञानिक उद्घोषणा हैइक्कीसवीं शताब्दी का मध्य दुनिया के लिए भयंकर होगा । उसमें केवल साठ वर्ष बच रहे हैं । जो पीढ़ी आज जन्म ले रही है, वह इस भयंकरता से गुजरेगी। यदि हम नहीं संभले तो सामने दिखने वाला खतरा भयंकर बन जाएगा । सम्भव है, काल की उदीरणा हो जाए । काल कर्म की उदीरणा में निमित्त बनता है तो हो सकता है, शायद कर्म भी कभी-कभी काल की उदीरणा में निमित्त बन जाए । समाधान- सूत्र इस समस्या के जो समाधान - सूत्र हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं । पुराने लोग कहा करते थे— जल को घी की तरह बरतो । यह अवधारणा थीअसंख्य जीव मरते हैं तो जल की एक बूंद काम आती है । जल की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं । धर्म का तत्व समझाते हुए बच्चों को कहा जाता था - देखो ! एक गिलास पानी में तुम्हारे कितने मां-बाप हैं । इसका मतलब होता था - अनन्तकाल से परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने कितने मां-बाप बनाए हैं। जिनकी हिंसा की जा रही है, उनमें न जाने कितने पुराने पुरखे अपने हैं । ऐसी बातें कहकर पानी का घी की तरह उपयोग करने का रहस्य समझाया जाता । रूपचन्दजी सेठिया जैसे व्यक्ति पच्चास तोला से अधिक पानी स्नान में काम नहीं लेते थे । पुरानी पीढ़ी के लोग एक-आध बाल्टी में स्नान कर लेते थे । आजकल ऐसा करना समझदारी की बात नहीं मानी जाती है । जब तक व्यक्ति नल के नीचे न बैठ जाए, दस-बीस बाल्टियां शरीर पर न ढुल जाए तब तक अच्छा स्नान नहीं होता । कितना है असंयम आज असंयम कितना बढ़ गया है। हर बात में असंयम है। बिजली का कितना अनावश्यक उपयोग हो रहा है । बत्ती जला देते हैं और वह सारी रात जलती रहती है । क्या सारी रात बत्ती का प्रकाश जरूरी होता है ? पंखा चलाते हैं और दिन-रात पंखा चलता रहता है । क्या यह असंयम नहीं है ? बिजली जले तो दिन-रात जले और पानी बहे तो दिन-रात बहे । कितना प्रबल है असंयम । इस स्थिति में ओजोन की छतरी कैसे नहीं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा टूटेगी ? कार्बन की मात्रा कैसे नहीं बढ़ेगी ? ऑक्सीजन में कभी क्यों नहीं आएगी ? पर्यावरण का सन्तुलन क्यों नहीं बिगड़ेगा ? संकल्प लें २२ हम इस सच्चाई को समझें । भगवान महावीर ने कहा - इस सच्चाई को जानकर मेधावी पुरुष यह संकल्प ले — मैंने हिंसा और असंयम बहुत किया। मैं वह अब नहीं करूंगा । मैं अब अहिंसा और संयम की साधना करूंगा । जैसे-जैसे यह संकल्प बलवान् बनता है, शक्तिशाली बनता है वैसे-वैसे व्यक्ति में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है । जैसे-जैसे संयम बढ़ेगा, असंयम कम होगा, कठिनाइयां भी कम होंगी । एक अफसर का कद बहुत नाटा था । कार्यालय में एक कर्मचारी से उसका दोस्त मिलने आया । उसने पूछा- अफसर कौन है ? कर्मचारी ने सामने बैठे व्यक्ति की ओर इशारा किया । मित्र ने कहा - अरे ! यह तो बहुत छोटा है । कर्मचारी बोला -- मुसीबत जितनी अच्छा है । छोटी हो, उतना ही वर्तमान सन्दर्भ हम जितना संयम करेंगे, समस्या उतनी ही छोटी होती चली जाएगी, वह लम्बी नहीं बनेगी, भयंकर और विकराल नहीं होगी । यदि आज सचमुच विश्वको पर्यावरण सन्तुलन की चिंता है, उससे होने वाले परिणामों की चिन्ता है तो उसके लिए धर्म का पाठ, अहिंसा और संयम का पाठ समझना सबसे ज्यादा जरूरी है । संयम की बात केवल मोक्ष के सन्दर्भ में ही नहीं कही गई है । धार्मिक लोग भी प्रायः संयम और अहिंसा की बात मोक्ष के सन्दर्भ में करते हैं । जिसे मोक्ष जाना ही नहीं है, वह क्यों इस बात को मानेगा ? मोक्ष के सन्दर्भ में धर्म की बात करना उसका एक पहलू है किन्तु जीवन के सन्दर्भ में वह बहुत मूल्यवान् है । इस सचाई को वर्तमान सन्दर्भ में समझना बहुत जरूरी है । यदि धर्म की बात को वर्तमान युग की समस्याओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जाए, अधर्म और हिंसा से उत्पन्न होने बाली परिस्थितियों और कठिनाइयों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति धर्म का मूल्यांकन करेगा, अहिंसा और संयम का मूल्यांकन करेगा, धर्म की बात बहुत व्यापक बन जाएगी। धर्म का एक सूत्र है - अतीत की भूलों को न दोहराना । प्रत्येक व्यक्ति यह संकल्प ले - मैंने अब तक जो भूलें की हैं, उन्हें पुन: नहीं करूंगा, जो प्रमादवश होगी । यह संकल्प समस्या के सघन तिमिर में समाधान का दीप बन सकता है । किया है, उसकी पुनरावृत्ति नहीं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ४/ संकलिका • मंता मइमं अभयं विदित्ता (आयारो ११६१) ० से बेमिइमंपि जाई धम्नयं, एयंपि जाईधम्मयं । इमंपि बुढियम्भयं, एयं पि बुड्ढिधम्मयं । इमंपि चित्तमंतयं, एयं पि चित्तमंतयं । इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं । इमंपि अणिच्चयं, एयपि अणिच्चयं । इमंपि असासयं, एयंपि असासयं । इमंपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमंपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं । (आयारो ११११३) ० घर के बाहर उद्यान क्यों ? ० वनस्पति जगत् : मनुष्य जगत् • मनुष्य और कल्पवृक्ष ० विडंबना ० विश्नोई समाज का बलिदान ० पेड काटने का अर्थ ० अर्थहिंसा : अनर्थहिंसा ० प्राकृतिक भूख : कृत्रिम भूख ० अर्थशास्त्र का सूत्र : पर्यावरण-संतुलन का प्रश्न ० तन की तृष्णा : मन को तृष्णा ० इच्छा : आवश्यकता ० सृष्टि-संतुलन की चिन्ता : वर्तमान अवधारणाएं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति जगत् और हम __ मनुष्य और वनस्पति—दोनों हम-साथी हैं । वनस्पति के बिना मनुष्य का जीवन सम्भव नहीं है किन्तु मनुष्य के बिना वनस्पति का जीवन सम्भव हो सकता है। हम आदिम युग को देखें, यौगलिक युग को देखें । उस समय जीवन की सारी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष पर निर्भर थीं। वह प्रत्येक कल्पना को पूरा करने वाला वृक्ष था। यौगलिक जीवों की अपेक्षाएं-भोजन, वस्त्र आदि कल्पवृक्ष से पूरी होतीं। मकान, आभूषण, मनोरंजन के साधन, शृंगार, साज-सज्जा, रहन-सहन, सब कुछ कल्पवृक्ष पर आश्रित था। कल्पवृक्ष के बिना यौगलिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यौगलिक युग के बाद मनुष्य ने साथ रहना सीखा, गांव बसाना सीखा, मकान बनाना सीखा, खेती करना सीखा । पहले कल्पवृक्ष ही उनका मकान था। यौगलिक युग के अन्तिम समय में पहला मकान बना । मकान का नाम था अगार। पहला मकान लकड़ी से बना। अग-वृक्ष से बना इसलिए मकान का नाम अगार हो गया। उस समय न ईटें थीं, न पत्थर थे। पूरा मकान लकड़ी से निर्मित हुआ। जीवन का नया दौर जीवन की आवश्यकताएं बढ़ीं । मनुष्य ने कपड़ा बनाना शुरू किया। पहला कपड़ा रुई से बना । उसका प्रणयन भी वनस्पति जगत् पर आधृत था। खाने की पूर्ति का स्रोत भी वनस्पति जगत् था। उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य ने कृषि-खेती करना प्रारम्भ कर दिया। एक अन्तर आ गया-केवल कल्पवृक्ष पर जो निर्भरता थी, वह उससे हटकर वनस्पति जगत् पर निर्भर बन गई । प्रवृत्ति का विस्तार होता चला गया। मकान और वस्त्र बनने लगे, फसलें उगने लगीं। जीवन का एक नया दौर शुरू हो गया, किन्तु सब कुछ वनस्पति जगत् पर निर्भर बना रहा। हम समाज के इतिहास को देखें। मनुष्य जगत् और वनस्पति जगत्दोनों साथ-साथ जीते रहे हैं। मनुष्य पहले जंगलों में वृक्षों के बीच रहता था। आजकल अधिकांश लोग शहरों में रहना पसन्द करते हैं। हमने देखाशहरों में बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हुई हैं, किन्तु उनके चारों ओर छोटे-छोटे उद्यान लगे हुए हैं। प्रश्न हो सकता है-कोठी के सामने बगीचा क्यों ? ऐसा लगता है—आदमी ने जंगल को छोड़ा, गांव बसाया। उसका गांव में मन नहीं लगा इसलिए उसे गांव में पुनः जंगल बनाना पड़ा। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति जगत् और हम प्राणशक्ति मुख्य आधार वस्तुतः पेड़ के बिना आदमी का मन ही नहीं जगता। एक व्यक्ति को कविता बनाना है। यदि पेड़ के नीचे बैठ जाए तो अपने आप कल्पना आने लग जाएगी। पेड़ के नीचे कागज-कलम लेकर लिखना शुरू करें, कहानी बन जाएगी। जब हरा-भरा फल-फूलों से लदा हुओं वृक्ष आंखों को दिखाई देता है तो एक सूखा आदमी भी सजल बन जाता है, सरस बन जाता है। वनस्पति हमारी प्राणशक्ति का मुख्य आधार है। किसी व्यक्ति को कुछ देर के लिए काल-कोठरी में बन्द कर दिया जाए तो उसका दम घुटने लग जाएगा। जब व्यक्ति प्रातःकाल उद्यान में भ्रमण के लिए जाता है, तब उसके तन, मन और भाव-सब स्वस्थ बन जाते हैं। मनुष्य जगत् और वनस्पति जगत् का इतना गहरा सम्बन्ध रहा है, फिर भी मनुष्य के मन में उसके प्रति करुणा का अभाव बना हुआ है। मनुष्य के मन में एक क्रूरता छिपी हुई है। जिस वनस्पति जगत् से वह इतना कुछ पा रहा है, उसके प्रति जो करुणा, कोमलता, सहृदयता, हमदर्दी और भाईचारा होना चाहिए, वह उसके मन में नहीं है। जो जीवन के साथी हैं, जीवन देने वाले हैं, उनके प्रति भी दयालुता नहीं है। यह एक विडम्बना है। आत्मतुला भगवान महावीर ने आत्मतुला के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। महावीर ने वनस्पति और मनुष्य की जो समानताएं प्रस्तुत की हैं, उन्हें आज विज्ञान प्रमाणित कर चुका है। महावीर की भाषा में मनुष्य और वनस्पति की समानता का रूप यह हैमनुष्य वनस्पति मनुष्य जन्मता है वनस्पति भी जन्मती है मनुष्य बढ़ता है वनस्पति भी बढ़ती है मनुष्य चैतन्ययुक्त है वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त । वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होता है होती है मनुष्य आहार करता है वनस्पति भी आहार करती है मनुष्य अनित्य है वनस्पति भी अनित्य है मनुष्य अशाश्वत है वनस्पति भी अशाश्वत है मनुष्य उपचित और अपचित वनस्पति भी उपचित और अपचित होता है होती है मनुष्य विविध अवस्थाओं को वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है प्राप्त होती है Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा अभय का अवदान ___ महावीर ने कहा-सब जीवों को अपने समान समझो। वनस्पति के सन्दर्भ में भी उनका यही प्रतिपादन था-'तुम देखो ! वनस्पति दूसरे जीवों की अपेक्षा तुम्हारे अधिक निकट है। पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु आदि के जीवों को समझना कुछ कठिन है किन्तु वनस्पतिकाय को समझना आसान है। तुम इसे समझो, इस पर मनन करो । मनन कर अभय-दान दो।' जिससे तुम्हें जीवन मिल रहा है, उसे भी तुम भय दे रहे हो। तुम उसे सताना छोड़ दो। यह सत्य है तुम्हारी आवश्यकताएं उस पर निर्भर है । तुम खाए बिना नहीं रह सकते किन्तु तुम कम से कम उसे अनावश्यक मत सताओ। मन में यह भावना रखो-यह हमारा उपकार करने वाला जगत् है। उसके प्रति तुम्हारा जो क्रूर व्यवहार होता है, उसके लिए क्षमा याचना करो। तुम्हें आवश्यकतावश किसी पेड़ की टहनी को काटना पड़ा है, किसी वनस्पति को खाना पड़ा है तो तुम उसके प्रति मन में क्षमा याचना करो। तुम्हारे मन में यह भाव जागे---विवशता के कारण मैं वनस्पति जगत् का उपयोग कर रहा हूं। मेरी विवशता के लिए वह मुझे क्षमा करे। यह भाव कृतज्ञता का भाव होगा।' बीमारी का कारण महावीर ने जो कहा, उसका हार्द है-वनस्पति जगत् के प्रति करुणा, सहयोग, सहृदयता, कृतज्ञता और क्षमायाचना का भाव होना चाहिए । बहुत सारे लोग पेड़ों को काटकर बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता-~यह बीमारी क्यों आई ? जापान का एक रहस्यविद् हुआ है-डा० हिरोशी मोकोयामा । उसने एक रोगी को देखा। उसकी बीमारी का कोई पता नहीं चला। मोकोयामा ने पूछा----'तुम्हारी सास की मौत 'हां।' 'तुम्हारे घर के सामने कोई पुराना पेड़ है ?' 'हां।' 'बस, यही है तुम्हारी बीमारी का कारण। कुछ लोग उस पेड़ को काटना चाहते हैं। उस पेड़ में एक पवित्र आत्मा रहती है और उसी की चेतावनी है तुम्हारी यह बीमारी ।' डॉक्टर की बात सही निकली। कुछ दिनों बाद तूफान आया और वह पेड़ उखड़ गया। उसने उसी स्थान पर एक नया पेड़ लगा दिया। उसी दिन से बामारी ठीक होने लगी और कुछ ही दिनों में वह व्यक्ति स्वस्थ हो गया। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति जगत् और हम २७ महत्त्वपूर्ण स्वीकृति कुछ मृतात्माओं के निवास स्थान भी ये पेड़ होते हैं । गुरु-धारणा करते समय एक जैन श्रावक यह नियम स्वीकार करता है-मैं बड़े वृक्ष को नहीं काढूंगा। यह बहुत महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है। विश्नोई समाज ने पेड़ों के लिए जो काम किया है, वह बहुत अद्भुत है। विश्नोई समाज में यह मान्यता प्रचलित है--एक पेड़ को काटना दस लड़कों को मारने के समान है। विश्नोई समाज के पुरखों ने पेड़ों की सुरक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। जब जोधपुर के राजा ने पेड़ कटवाने शुरू किए तब विश्नोई समाज के लोगों ने सत्याग्रह कर दया। उन्होंने कहा--पहले हम मरेंगे फिर पेड़ कटेंगे। पेड़ को विनाश से बचाने के लिए अनेक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। हम इस सचाई को समझे-जितने पेड़ कटेंगे उतना ही मनुष्य का जीवन असुरक्षित बनेगा। पेड़ काटने का अर्थ है--हिंसा और अपने सहयोगी का विनाश । पेड़ काटने में हिंसा तो होती है किन्तु उसके साथ-साथ जीवन को भी खतरा पैदा हो जाता है । वनस्पति और मनुष्य-दोनों का अस्तित्व इतना जुड़ा हुआ है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। आज मनुष्य इस सचाई को अनदेखी कर रहा है। वह लोभ के कारण बिना सोचे-समझे बनस्पति जगत् के साथ घोर अन्य य और क्रूरता का व्यवहार करता चला जा रहा है और यही उसके लिए समस्या का कारण बन रहा है । हिंसा के दो प्रकार ___ भगवान महावीर ने हिंसा के दो प्रकार बतलाए-अर्थ-हिंसा और अनर्थ-हिंसा। यह बहुत वैज्ञानिक वर्गीकरण है। ये दोनों शब्द जीवन के व्यवहार से जुड़े हुए हैं। व्यक्ति आवश्यक हिंसा को नहीं छोड़ सकता, जीवन की वास्तविक जरूरतों को कम नहीं कर सकता, किन्तु अनावश्यक हिंसा से बच सकता है, कृत्रिम जरूरतों का संयम कर सकता है। वास्तविक आवश्यकता और कृत्रिम आवश्यकता को समझना जरूरी है। प्राकृतिक चिकित्सा में दो प्रकार की भूख मानी जाती है--प्राकृतिक भूख और कृत्रिम भूख । प्राकृतिक भूख सहज लगने वाली भूख है। भस्मक रोग को कृत्रिम भूख माना गया है। जो व्यक्ति भस्मक रोग से रास्त होता है, उसकी भूख दिन में सौ-सौ रोटियां खाने पर भी नहीं मिटती। इस कृत्रिम भूख-भस्मक व्याधि का कभी अन्त नहीं आता। वह व्यक्ति एवं समाज के लिए समस्या बन जाती है। अर्थशास्त्र का सूत्र आज के समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों ने कृत्रिम भूख को Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा बढ़ाकर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया है। अर्थशास्त्र का सूत्र है-इच्छा को बढ़ाते चले जाओ। आज इस गलत सूत्र के परिणाम स्वरूप हिंसा बढ़ रही है, पर्यावरण का सन्तुलन विनष्ट हो रहा है । आवश्यकता की पूर्ति करना जरूरी है, इस बात को उचित माना जा सकता है, किन्तु कृत्रिम आवश्यकताओं को पैदा करना और उनकी पूर्ति करते चले जाना युक्ति-संगत नहीं है । आवश्यकता की उत्पत्ति और उसकी पूर्ति का एक चक्र है । उस चक्र का कहीं अन्त नहीं होता। इस सचाई से साधारण लोग भी परिचित रहे हैं। राजस्थानी का प्रसिद्ध दोहा है तन की तृष्णा तनिक है, तीन पाव के सेर । मन की तृष्णा अनन्त है, गिलै मेर का मेर ॥ प्रश्न आवश्यकता का वर्तमान जगत् में जिस सचाई का प्रतिपादन किया जा रहा है, उससे यह सचाई भिन्न है। आवश्यकता की पूर्ति को अनुचित नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रश्न है-मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं कितनी हैं ? वे बहुत सीमित हैं। यदि आवश्यकता के आधार पर चला जाता तो दुनिया के सामने पर्यावरण का संकट पैदा नहीं होता, पर्यावरण की समस्या से विश्व संत्रस्त नहीं होता । व्यक्ति ने तन की तृष्णा के स्थान पर मन की तृष्णा को बिठा दिया । जब मन की तृष्णा जाग जाती है तब आवश्यकताएं बढ़ती चली जाती हैं। तृष्णा और इच्छा का कोई अन्त नहीं है, कोई सीमा नहीं है। महावीर ने कहा-"इच्छा हु आगाससमा अंणतिया"-इच्छा आकाश के समान अनंत है। जब इच्छा अनंत और असीम बन जाती है तब विनाश अवश्यंभावी बन जाता है। विराम कहां होगा? आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है। इसका कारण है अर्थशास्त्र का अनसोचा-अनसमझा सिद्धान्त । अर्थशास्त्र का अभिमत है-जितनी इच्छा बढ़ेगी, उतना ही उत्पादन बढ़ेगा, जितना उत्पादन बढ़ेगा, उतनी ही समृद्धि बढ़ेगी। इस सिद्धान्त ने सचमुच विनाश को निमंत्रण दे दिया है। अगर अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत नहीं होता तो इकोलॉजी के विकास की जरूरत ही नहीं होती। आज सष्टि-सन्तुलन के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। लोग चाहते हैं---सृष्टि का सन्तुलन न गड़बड़ाए। किन्तु जब तक अर्थशास्त्र का यह सिद्धान्त व्यक्ति के जीवन-व्यवहार को संचालित कर रहा है तब तक सृष्टि-सन्तुलन की चिन्ता को समाधान नहीं मिलेगा। सृष्टि-सन्तुलन के लिए, पर्यावरण के लिए अर्थशास्त्र की वर्तमान अवधारणाओं को बदलना होगा। उन्हें बदले बिना इन समस्याओं को समाहित नहीं किया जा सकता। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति जगत् और हम २६ "इच्छा बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओं", इस गलत अवधारणा के कारण ही वनस्पति जगत् के साथ अन्याय हो रहा है। आज विकास के कृत्रिम साधनों ने प्रकृति के साथ अन्यायपूर्ण और क्रूर बरताव शुरू किया है । इसका विराम कहां होगा, कहा नहीं जा सकता । महावीर का अहिंसा-दर्शन हम इस सचाई को आचारांग सूत्र के संदर्भ में समझे। आचारांग सूत्र में जिन सचाईयों का उद्घाटन हुआ है, उन्हें वर्तमान में अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। यही बात आज से हजार वर्ष पूर्व कही जाती तो समझने में कुछ कठिनाई होती । आज सारा विश्व उखड़ा हुआ है, समस्या से चिन्तित बना हुआ है। यदि आधुनिक संदर्भ में महावीर वाणी को प्रस्तुत किया जाए, आचारांग सूत्र का विश्लेषण किया जाए तो लगेगा-वर्तमान समस्याओं के अद्भुत समाधान पहली बार हमारे सामने आए हैं। आज महावीर की वाणी और उनका अहिंसा-दर्शन विश्व को लुभावना लग रहा है। लोग चाहते हैं-उफनते हुए दूध पर कोई ठण्डे पानी का छींटा देने वाला मिले । आज आकांक्षा की आग प्रबल बन रही है। उसे शान्त करने के लिए अहिंसा की बात, जो बनस्पति जगत् के साथ जुड़ी हुई है, ठण्डे पानी का छींटा डालने वाली बात है। विषय : आवर्त आचारांग सूत्र का एक महत्त्वपूर्ण सूक्त है---जे आवट्टे से गुण, जे गुणे से आव?--जो विषय है, वह आवर्त है, जो आवर्त है, वह विषय है। इन अर्थशास्त्रीय आकांक्षाओं या विषयों ने इतने आवर्त पैदा कर दिए हैं, इतने भंवर बना दिए हैं कि व्यक्ति का अपनी जीवन की नौका को खेकर पार पहुंचना, कठिन हो रहा है । इस भंवर से, आवर्त से बचने वाला ही समस्याओं के चक्रव्यूह को भेदने में सफल हो सकता है। यह इतनी-सी सचाई समझ में आ जाए तो मनुष्य-जाति का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • संति मे तसा पाणा, तं जहा - अंडया, पोयया, जराउया रसया, संयया, संमुच्छिमा, उब्भिया, ओववाइया । • एस संसारेति पवुच्चत्ति ● मंदस्स अवियाणओ प्रवचन ५ • प्रेरणा है लोभ • संसार का अर्थ • प्रश्न है औचित्य का ● से बेमि- अप्पेगे अच्चाए वहंति... अप्पे अट्ठमजाए वहति, 1 अप्पे अट्ठाए वहति अप्पेगे अजट्ठाए वहति, अप्पेगे हिंसिसु मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहंति, अप्पे हिंसिस्संति मेत्ति वा बहंति । O क्रूरता : पृष्ठभूमि • एक शब्द : रुपया हिंसा : किसके लिए ? क्यों ? संकलिका ( आयारो १ / ११८-१२० ) ० o • कवि की कल्पना और सच (आयारो १ / १४० ) • लोभ की वृत्ति : भारतीय और पाश्चात्त्य मानस O संग्रह की मनोवृत्ति और हिंसा अहिंसा का मूल्यांकन करें Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह संसार है विकास का आधार मनुष्य की प्रवृत्ति के पीछे अनेक प्रेरणाएं और भावनात्मक उत्तेजनाएं हैं । उनमें सबसे बड़ी प्रेरणा है लोभ । कषाय के चार प्रकार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें लोभ का परिवार सबसे बड़ा है। दसवें गुणस्थान तक उसका अस्तित्व बना रहता है । इसका अर्थ है - वह साधना की अग्रिम भूमिका तक अपना पंजा फैलाये हुए है । क्रोध, मान, माया -- ये लोभ के ही चमचे हैं | अगर लोभ प्रबल है तो क्रोध भी ज्यादा आएगा, अहंकार भी ज्यादा बढ़ेगा, माया भी विस्तार पाएगी । जितने कषाय हैं, हमारी प्रवृत्ति की प्रेरणाएं हैं, उन्हें एक शब्द --- लोभ में समेटा जा सकता है । लोभ ने मनुष्य में बड़ी क्रूरता पैदा की है । दूसरे प्राणियों को भी इसने क्रूर बनाया है । सौंदर्य की लालसा, प्रसाधन, साज-सज्जा, आरामतलबी — इन सबके मूल में लोभ ही है । इन वृत्तियों ने इस संसार को बहुत भद्दा बना दिया है । यह संसार त्रसप्राणी है और त्रसप्राणी संसार है । कहना चाहिएइस संसार का, इस लौकिक व्यवस्था का विकास गति से हुआ है । अगर गति नहीं होती तो विकास नहीं होता । अगर द्विपद, चतुष्पद प्राणी नहीं होते, सरीसृप नहीं होते, पक्षी नहीं होते, विश्व में केवल स्थावर प्राणी ही होते, जंगल, पहाड़ और तालाब ही होते तो सृष्टि - विकास का कोई क्रम नहीं होता । जो जहां है, वह वहीं रहता । न घोड़ागाड़ी होती, न रथ होता, प्राचीन सभ्यता भी नहीं होती । वर्तमान युग में भी न वायुयान होते, न रेल और बसें होतीं । संसार पर वनस्पति जगत् का एक मात्र साम्राज्य होता । विकास की प्रक्रिया : मूल तत्त्व विकास की प्रक्रिया का मूल आधार है गति । दूसरी भाषा में सजीव विकास की प्रक्रिया के मूल तत्त्व हैं। स्थावर - सृष्टि से हम त्रस - सृष्टि पर आएं । स्थावर पेड़ बढ़ जाते हैं, वनस्पति बढ़ जाती है पर नया निर्माण कुछ भी नहीं होता । हमारी गति ही सारे नव निर्माण का आधार बनी है | पांच स्थावर के बाद छट्ठा स्थान है त्रसजगत् का । उसी को भगवान महावीर ने संसार कहा है- - एस संसारेति पवच्चई । संसार का मतलब ही गतिशील होना है। स्थिरता का नाम संसार नहीं है । हमारा यह संसार त्रसजीवी है । इसीने मकान बनाए हैं, कपड़े बनाए Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा हैं, फसलें उगाई हैं । एक जनरल स्टोर में इतने आइटम रहते हैं कि जिन्हें देखने के लिए कोई व्यक्ति चला जाए तो पूरा दिन देखने में ही बीत जाए । बाजार लोगों की भीड़ से भरे रहते हैं। साड़ियों की दुकान पर महिलाओं की भीड़ लगी रहती है । जनरल स्टोर पर रोजमर्रा के काम आने वाले पदार्थों को खरीदने के लिए लोग आतुर दिखाई देते हैं। इतने प्रकार की खाने और पहनने की चीजों का विकास हुआ है, जिनकी गिनती करना भी सहज संभव नहीं होता। गति का परिणाम प्रश्न है-क्या इतने पदार्थों की जरूरत है ? आदमी ने कृत्रिम आवश्यकता का बहुत विस्तार कर लिया है। गति का यह एक परिणाम है। इस गतिशीलता ने विकास और निर्माण की गति को आगे बढ़ाया है। साथसाथ इसने मनुष्य में लोभ और सौन्दर्य की भावना को भी आगे बढ़ाया है। इसका परिणाम है—आज आदमी स्वयं में सुन्दर नहीं रहा । वह कपड़े सुन्दर पहनना चाहता है पर स्वयं सुन्दर नहीं है। वह अपने आपमें सजा हुआ नहीं है पर अपने आपको सजाना चाहता है । अनेक व्यक्ति सेंट लगाते हैं किन्तु क्या वे यह नहीं जानते कि यह कैसे बनता है ? यदि व्यक्ति सेंट बनाने की प्रक्रिया को जान ले तो शायद उसे लगाना बंद करदे । एक जानवर होता है बिज्जु । उसकी यौनग्रंथि से जो स्राव होता है, उसमें बहुत सुगन्ध होती है। उस बिज्जु की यौन-ग्रन्थि को पीट-पीटकर स्राव कराया जाता है और उसी सवित पदार्थ से बहुत सारे सेंट बनते हैं। एक छोटासा प्राणी है बीवर । उसका चमडा बहुत मुलायम होता है । रोएंदार कोट बनाने के लिए उस बीवर को मारा जाता है। क्रूरता की पृष्ठभूमि शक्तिशाली आदमी कमजोर को मारता है, यह एक सिद्धान्त-सा बन रहा है। मनुष्य को सोचने की शक्ति मिली है किन्तु वह प्राणियों के साथ जो अन्याय कर रहा है क्या वह संगत है ? मनुष्य के शौक ने कितनी क्रूरता को जन्म दिया है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। थोड़े से आराम, बड़प्पन और सौन्दर्य के लिए कितना अन्याय किया जा रहा है। लोग कहते हैं----आतंकवाद बढ़ रहा है। आदमी को तिनके की तरह मारा जा रहा है। यदि आदमी के चरित्र को देखें तो और क्या परिणाम आ सकता है ? यह एक चक्र है । यदि हजार आदमी क्रूरता करेंगे तो लाखों आदमी क्रूर बन जाएंगे। क्रूरता के पीछे क्या है ? इस पर हम ध्यान केन्द्रित करें। उसकी पृष्ठभूमि में है-रुपया, आराम, सुन्दर दीखने की प्रवृत्ति और बड़प्पन की भावना । समाचार पत्र में पढ़ा-कस्तूरी मृग समाप्त होते चले जा रहे हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह संसार है पश्चिमी देशों में इसकी मांग बहुत बढ़ गई है। अब इसका उपयोग शस्त्रों में होने लगा है इसीलिए इसका मूल्य बढ़ गया है। मृगों को मारने वाले अवैध तरीके से मारने लगे हैं। कस्तूरी मृग का अस्तित्व ही विलुप्त सा हो गया है। शिकारी के लिए यह एक व्यवसाय है । रुपये के लोभ ने, प्रसाधन और सौन्दर्य के लोभ ने जिस क्रूरता को जन्म दिया है, वह दिल को दहलाने वाली है। जटिल है लोभ की वृत्ति मुवक्किल वकील से बोला--मेरा केस बड़ा जटिल था और झूठा भी था । पर आपने अपनी होशियारी से मुझे जिता दिया। मैं किन शब्दों में आपकी प्रशंसा करू ? मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहा है। वकील बोलाकोई शब्द ढूंढने की जरूरत नहीं है । केवल एक शब्द जान लो—रुपया। आज हाथियों को मारा जा रहा है। हाथी-दांत बेचने पर भी सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाया जा रहा है। चाम के लिए बाघों-चीतों को मारना शुरू कर दिया गया है। जिस प्राणी से भी पैसे मिलते हैं, उसे मारा जा रहा है किन्तु यह बात नई नहीं है। हम आचारांग सूत्र को पढ़ें । किन-किन कारणों से जीव मारे जाते हैं, उनका विशद वर्णन आचारांग सूत्र में है कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ लोग चर्म, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण-हस्ति दंत, दांत, दाढ, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रयोजनवश प्राणियों का वध करते हैं । कुछ व्यक्ति बिना प्रयोजन प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजन वर्ग की) हिंसा की थी, यह स्मृति कर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (ये मेरे स्वजन वर्ग की) हिंसा कर रहे हैं यह सोचकर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (ये मेरे या मेरे स्वजन वर्ग की) हिंसा करेंगे, इस संभावना से प्राणियों का वध करते हैं। क्या करुणा जागेगी ? प्रश्न है-क्या मनुष्य की वृत्तियां बदलेंगी? क्रूरता कम होगी ? क्या करुणा जागेगी? ऐसा लगता है, तब तक करुणा को जगाने का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता जब तक लोभ को कम करने का प्रयत्न सफल न हो जाए। प्रेक्षाध्यान शिविर के दौरान एक प्रश्न प्रस्तुत हुआ-क्रोध को . कम Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अस्तित्व और अहिंसा करने के लिए ज्योति केन्द्र पर ध्यान करवाया जाता है। नशा छुड़ाने के लिए अप्रमाद - केन्द्र पर ध्यान करवाया जाता है । भयवृत्ति को कम करने के लिए आनन्द- केन्द्र पर ध्यान करवाया जाता है। लोभ की वृत्ति को मिटाने के लिए किस केन्द्र पर ध्यान करवाना चाहिए ? मैंने कहा - इस विषय में मैं स्वयं उलझन में हूं । अन्य वृत्तियों को बदलने के सूत्र तो हाथ लग गए हैं पर लोभ की वृत्ति को बदलने का सूत्र अभी पकड़ में नहीं आया है । कहां है दिल और दिमाग ? सबसे ज्यादा जटिल है यह लोभ की वृत्ति । सारी समस्याएं इससे पैदा हुई हैं । कैसे बदला जाए इसे ? इसी वृत्ति के कारण आदमी मंद और अज्ञानी बन रहा है । जो आदमी लोभी है, प्रसाधन चाहता है, आराम चाहता है, वह पढ़ा हुआ व्यक्ति भी मंद है । सर्दी के दिनों में दक्षिण दिशा में प्रस्थित सूरज भी मंद बन जाता है । कवि ने बहुत सुन्दर कल्पना प्रस्तुत की है. दक्षिणाशा प्रवृत्तस्य, प्रसारितकरस्य च । तेजः तेजस्विनस्तस्य, हीयतेऽन्यस्य का कथा ॥ जो लोभ की आशा में चला गया, लोभ की दिशा में चला गया, धन लोभ की दिशा में प्रस्थित दृष्टिकोण बदल जाता है, की दिशा में चला गया, वह मंद बन गया । व्यक्ति अज्ञानी बन जाता है, उसका सोचने का दिल और दिमाग बदल जाता है । रोगी डाक्टर के पास गया, बोला- दिल और दिमाग में दर्द है । 'डाक्टर ने उसे उलटा लिटाकर पीठ देखना शुरू किया । रोगी बोला - पीठ में नहीं, दिल में दर्द है । डाक्टर ने कहा- अब भारतीय लोगों का दिल सामने कहां है ? उनका दिल और दिमाग पश्चिम की ओर है, पीछे है । विचित्र घटना ऐसा लगता है --- लोभ के कारण दिल और दिमाग बदल गया है । पश्चिम की कुछ बातें जो अच्छी हैं, उन्हें हम कम अपनाते हैं । अगर मेरा अध्ययन सही है तो यह कहा जा सकता है - लोभ और संग्रह की वृत्ति जितनी भारतीय मानस में है, पश्चिम के लोगों में उतनी नहीं है । यह सात पीढ़ी तक सोचने की बात सिर्फ हिन्दुस्तान में ही है । पश्चिम का आदमी कभी ऐसी कल्पना ही नहीं करता । उसका सोचने का प्रकार ही दूसरी तरह का है । अमेरिका में आज भी एक बड़ी विचित्र घटना घट रही है । एक व्यक्ति हुआ है, बेंजामिन फ्रेंकलिन । वह प्रेस चलाता था । उसके पास बीस डॉलर कम पड़ रहे थे । उसने मित्र से सहायता मांगी। मित्र ने उसे बीस Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह संसार है ३५ डॉलर दे दिए । उसका काम चल पड़ा। उसने मित्र के बीस डॉलर वापस देने चाहे । मित्र ने कहा- मैंने तो वापस लेने के लिए नहीं दिए थे । यदि तुम देना चाहते हो तो ऐसा करो, इन्हें अपने पास रखो, कोई जरूरतमंद आए तो उसे दे देना और उसे यह कह देना, जब तक जरूरत हो तब तक वह इन्हें काम में लें । उसके बाद वे बीस डालर किसी तीसरे जरूरतमंद को ही दे दें । संग्रह की मनोवृत्ति हिन्दुस्तान में संग्रह की मनोवृत्ति प्रबल है । मरते समय तक व्यक्ति यह सोचता रहता है -- मेरे पास इतना धन है । वह इस सन्तोष को लेकर मरता है । मानना चाहिए -- इस मनोवृत्ति से हिंसा का एक चक्र चल रहा है । हमारा सजगत् कितना सुन्दर है । पशु, पक्षी निर्विघ्न विचरते तो यह त्रसजगत्, यह संसार कितना सुन्दर होता, कृत्रिम अभयारण्य बनाने की कोई जरूरत नहीं होती । पर मनुष्य ने अपने लोभ, सौन्दर्य और लालसा की भावना के कारण भयंकर क्रूरता को जन्म दिया और संसार की सारी सुन्दरता को तहस-नहस कर दिया । आज व्यक्ति सोचता है - पर्यावरण का प्रदूषण न हो । यह उसकी कृत्रिम चिन्ता है । जब तक महावीर वाणी का मूल्यांकन नहीं किया जाएगा, अहिंसा के सिद्धान्त पर ध्यान केन्द्रित नहीं होगा तब तक न यह संसार सुन्दर रहेगा, न यह त्रससृष्टि विकास की दिशा में आगे बढ़ पाएगी और न पर्यावरण सुरक्षित रहेगा । यदि यह बात समझ में आए, मनुष्य का दृष्टिकोण बदले और लोभ की वृत्ति नियंत्रित बने तो समस्या से संत्रस्त संसार को समाधान की दिशा उपलब्ध हो सकती है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ६/ | संकलिका • एयं तुलमन्नेसि। • जे अज्झत्थं जाणई से बहिया जाणई जे बहिया जाणई से अन्झत्थं जाणई (आयारो १११४७-४८) •से सव्वे पावादुया...."एगं महं मंडलिबंधं किच्चा एगओ चिट्ठति । पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते..... "एवं वयासी-हंभो पावादुआ ! इमं.... 'गहाय मुहत्तगं मुहुत्तगं पाणिणा धरेह । तए णं ते..... 'पाणि पडिसाहरंति कम्हा णं तुम्भे पाणि पडिसाहरह ? पाणी णो डझज्जा ? दड्ढे कि भविस्सइ ? दुक्खं । दुक्खं ति मण्णमाणा पडिसाहरह, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे । पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे । (सूयगडो २:२७७) ० देखने की प्रक्रिया : तीन तत्त्व अनध्यवसाय, प्रत्यभिज्ञान, अन्वेषण ० सतत संधान का अर्थ ० कठिन है नियम की खोज ० स्वयं को पढ़ें, दूसरों को पढ़ें ० दूसरों के आलोक में स्वयं को पढ़ें ० स्वयं के आलोक में दूसरों को पढ़ें ० शोषण-परिहार का सिद्धान्त ० क्रान्ति सूत्र : आचारांग Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तराज के दो पल्ले तुला प्रतिष्ठित है। वह तोलने वाला बहुत बड़ा है, जो दूसरों को तोल सके । तराजू के साथ समता की बात जुड़ी हुई है, न्याय की बात जुड़ी हुई है। तराजू के दोनों पल्ले समान होने चाहिए। समता के लिए तराजू की उपमा प्रयुक्त हुई है और न्याय के लिए भी तराजू की उपमा प्रयुक्त होती रही है। यद्यपि हमारे कवियों ने तुला में भी दोष देखा है-हे तुला ! तुम प्रामाणिक हो, सबको ठीक मापती हो, फिर भी तुम न्याय नहीं करती, क्योंकि जो भारी है उसे नीचे ले जाती हो और जो हल्का है उसे ऊपर उठा देती हो। प्रामाणिक पद गही तुला, यह तुम करत अन्याय । अध पद देत गरिष्ठ को, लघु उन्नत पद पाय ॥ अनध्यवसाय : प्रत्यभिज्ञान आचारांग में भी तुला शब्द का प्रयोग किया गया है--'एयं तुलमन्नेसि'--इस तुला का अन्वेषण करो। तुला का संधान सफल होना चाहिए । यह नहीं कहा गया--इस तुला को देखो। हमारे देखने की प्रक्रिया का एक नाम है-अध्यवसाय । आदमी बाजार में जाता है, हजारों चीजों को देखता है। उससे पूछा जाए-अमुक दुकान में कौन-कौन सी चीजें थीं ? उसका उत्तर होगा—मुझे पता नहीं। बाजार में हजारों लोग मिलते हैं। किसी व्यक्ति से पूछा जाए--तुमने कितने लोगों को देखा ? तुम्हें कितने व्यक्ति मिले ? वह इसका सम्यक् उत्तर नहीं दे पाएगा। इस दर्शन का नाम है-अनध्यवसाय । जिसके साथ भध्यवसाय नहीं जुड़ता, उसे पहचाना नहीं जा सकता। दूसरा तत्त्व है—प्रत्यभिज्ञान । कभी कभी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का नाम, पता आदि पूछ लेता है और जब कभी वह पुनः मिलता है तब उसे पहचान भी लेता है । यह है प्रत्यभिज्ञान-पहचानने जैसा निरीक्षण । अनध्यवसाय और प्रत्यभिज्ञान—इन दोनों से कोई सार्थक निष्पलि उपलब्ध नहीं होती। अन्वेषण तीसरा तत्व है- अन्वेषण-सतत निरीक्षण। सतत निरीक्षण के बिना ज्ञान और सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है। वस्तुतः सतत निरीक्षण ही Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अस्तित्व और अहिंसा अनुसंधान है । एक, दो या पांच बार देखना सतत संधान नहीं होता। सतत संधान का अर्थ है-- जब तक किसी वस्तु के नियम का पता नहीं चले, तब तक उसे देखते चले जाना । यदि हमें एक श्लोक के हृदय को समझना है तो उसे एक-दो बार पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता। हम उस श्लोक को पढ़ें, पढ़ते चले जाएं और तब तक पढ़ते रहें जब तक कि वह श्लोक अपना अर्थ स्वयं प्रकट न कर दे। जब श्लोक अपना अर्थ प्रस्तुत करेगा तब हम उसके हृदय तक पहुंचने में सफल होंगे। बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है-तुला का अन्वेषण करो, खोजते चले जाओ। जब तक चलनी में पानी न जम जाए, नियम का पता न लग जाए तब तक खोजते चले जाओ। आज यह नियम ज्ञात है--जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि होगी। यह अकाट्य नियम है पर जहां अग्नि है, वहां धुआं होगा, यह जरूरी नहीं है। अग्नि धुएं के बिना भी हो सकती है पर धुआं अग्नि के बिना नहीं होता । यह एक सामान्य नियम लगता है लेकिन इस नियम का पता लगाने में न जाने कितनी पीढ़ियां खपी हैं, न जाने कितने विद्वानों को खपना पड़ा है। जरूरी है सतत प्रयत्न ज्ञान-प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न करना होता है। इसके बिना ज्ञान की प्राप्ति सभव नही है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए सबसे पहले निरीक्षण करना होता है। हम जैसे-जैसे निरीक्षण करेंगे, वैसे-वैसे तथ्यों का पता लगने लगेगा। तथ्यों का निरीक्षण करना बहुत जरूरी है। हम एक कपड़ा हाथ में लें और उसका निरीक्षण करते चले जाएं तो कुछ क्षणों के बाद कपड़े का रंग बदलने लगेगा। जब हमारा निरीक्षण उस पर सघन रूप से केन्द्रित होगा तब कपड़ा अपनी गाथा कहने लगेगा-मैं क्या हूं, मैं किससे बना हूं और मैं कैसा हूं, आदि आदि सारी बातें कपड़ा कह देगा, जिसे सुनकर हम आश्चर्य करेंगे । धन्वंतरि और लुकमान ने पौधों के गुण-धर्म का पता कैसे लगाया ? बे पौधे के पास जाकर बैठ जाते, उसका सघन निरीक्षण करते और उससे पूछते----बताओ ! तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गुण-धर्म क्या है ? तुम्हारा उपयोग क्या है ? निरीक्षण करते करते एक क्षण ऐसा आता, पौधा अपने आप सब कुछ कह देता-मेरा यह नाम है, मेरा यह गुण-धर्म है, मैं अमुक बीमारी के लिए उपयोगी हूं, आदि आदि। बिना प्रयोगशाला के ये सारे अन्वेषण किए गए, जो पूरी तरह सफल रहे । परीक्षण की फलश्रुति आज प्रयोगशाला में वैज्ञानिक बैठता है, परीक्षण, निरीक्षण और प्रयोग करता चला जाता है। ऐसा करते-करते वह तथ्य और नियम को Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तराजू के दो पल्ले ३६ पकड़ लेता है । गत बर्ष ही एक भारतीय वैज्ञानिक ने एक जीवाणु का पता लगाया है । आज की बड़ी समस्या है - समुद्र में तेल वाहक जहाज चलते रहते हैं । कभी-कभी वे जहाज तूफान आदि की चपेट में आकर टकराकर टूट जाते हैं। टैंकर का सारा तेल समुद्र की सतह पर फैल जाता है। समुद्र के जल के ऊपर तेल की परत जम जाती है । समुद्र का पानी काम का नहीं रहता । वह जीवों को नुकसान भी पहुंचाता है । भारतीय वैज्ञानिक ने जिस जीवाणु का पता लगाया है, यदि उसे समुद्र में छोड़ दिया जाए तो वह समुद्र के जल पर फैले हुए तेल को खा जाएगा, समुद्र का पानी पुनः स्वच्छ बन जाएगा । महत्त्वपूर्ण सूक्त की खोज का यह कार्य सतत निरीक्षण और गहन अनुसंधान से संभव बना है । एक दो बार देखने या पढ़ने मात्र से सचाई का पता नहीं चलता । जब दृढ़ संकल्प और सतत निरीक्षण का योग होता है तब नियम या सत्य का पता चलता है । बहुत कठिन होता है नियम का पता लगाना और उसे पाना । सत्य की प्राप्ति सहज नहीं हैं इसीलिए अन्वेषण का मूल्य बना हुआ है । इस वैज्ञानिक युग में वह अधिक प्रासंगिक और मूल्यवान् सिद्ध कहा गया- - तुला का अन्वेषण करें । प्रश्न होता है—तुला क्या है । उसका निरीक्षण-अन्वेषण कैसे करें ? आचारांग का महत्वपूर्ण सूक्त हैजे अज्झत्थं जाणई से बहिया जाणई । जे बहिया जाणई से अज्झत्थं जाणई || जो अपने आपको जानता है, वह दूसरे को जानता है । जो दूसरे को जानता है, वह अपने आपको जानता है । कल्पन्दा-सूत्र कल्पना करें - दो जीव हैं । एक व्यक्ति स्वयं है और एक दूसरा आदमी है । व्यक्ति पहले अपने आपको देखे । वह सोचे- मुझे किसी ने गाली तो सुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? मेरा मन कैसा बना ? मेरे मन में क्या भावना आई ? गाली की अपने भीतर क्या प्रतिक्रिया हुई ? वह उसका निरीक्षण करें । उसी व्यक्ति ने सामने वाले व्यक्ति को गाली दी । वह देखे - इस व्यक्ति के भीतर क्या प्रतिक्रिया हो रही है ? जो अपने भीतर प्रतिक्रिया हुई क्या वैसी ही दूसरे के भीतर प्रतिक्रिया हुई ? या अन्य प्रकार की प्रतिक्रिया हुई ? व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया को पढ़े और उसके संदर्भ में पुनः अपने आपको देखे, देखता चला जाए । -~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पढ़ें सुख-दुःख के संवेदन बीच बैठा है । गर्मी के मौसम में एक व्यक्ति ठंडी हवा के झौंको के ठंडी हवा से उस व्यक्ति को सुख मिला, तुम्हें कैसा लगा ? सामने वाले को ठण्डी-ठण्डी हवा लगी तो उसे कैसा लगा ? तुम्हें गर्म हवा लगी तो तुम्हें कैसा लगा? और उसे गर्म हवा लगी तो उसे कैसा लगा ? हम इस नियम को आगे बढ़ाएं। कल्पना करें – बहुत गर्मी का मौसम है । एक ही कमरा है और उसमें एक ही दरवाजा है । एक व्यक्ति उस दरवाजे में जाकर बैठ गया । उसे वहां बैठना कैसा लगेगा ? तुम्हें कैसा लगेगा ? दूसरा व्यक्ति उससे कहे - भीतर बैठ जाओ । उसे कैसा लगेगा ? तुम्हें कैसा लगेगा ? तुम इस नियम को पढ़ो, इस घटना का निरीक्षण करो | इसका अर्थ है - अपने एवं सामने वाले व्यक्ति के सुख-दुःख के संवेदन को पढ़ना । तुम पढ़ो, निरीक्षण करो, पढ़ते चले जाओ, निरीक्षण करते चले जाओ । पढ़ते-पढ़ते, निरीक्षण करते-करते एक क्षण वह भाएगा, जब तुम आत्म-तुला को साक्षात् कर लोगे । अस्तित्व और अहिंसा आत्म-तुला का सिद्धान्त महावीर को एक दिन में ही यह पता नहीं चला -- - जैसे मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सामने वाले प्राणी को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय होता है । सतत निरीक्षण और अन्वेषण से महावीर ने इस नियम का पता लगाया और आत्म-तुला के सिद्धान्त की स्थापना हो गई। महावीर ने कहा- ऐसे-ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं- "हमें दूसरों से क्या ? हमें अपना देखना है | हम किस-किस की चिन्ता करेंगे ?" वे दूसरों की चिन्ता नहीं करते, नौकरों, कर्मचारियों और शूद्रों की चिन्ता नहीं करते, पशु-पक्षी और सामान्य प्राणियों की चिन्ता नहीं करते । मध्यकाल में स्त्रियों के लिए तो ऐसे कड़े नियम बना दिए गए, जिनमें क्रूरता ही क्रूरता झलकती है । कारण यही रहा - आत्म-तुला के इस नियम को समझा नहीं गया । निदर्शन की भाषा भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त को उदाहरण की भाषा में समझाया --- पचास आदमी बैठे हैं । एक सिगड़ी में अंगारे जल रहे हैं । मुखिया व्यक्ति ने एक व्यक्ति से कहा - अंगार - पात्र उठाकर अमुक व्यक्ति के हाथ में रख दो। वह व्यक्ति संडासी से अंगार-पात्र उठाकर दूसरे व्यक्ति के हाथ में रखेगा | वह सोचता है-यदि मैं अपने हाथ से अंगार - पात्र उठाऊंगा तो मेरा हाथ जल जाएगा किन्तु वह यह नहीं सोचता - हाथ से अंगार-पात्र उठाने से मेरा हाथ जलता है तो उसका भी हाथ जल सकता है । उसका हाथ भी मेरे जैसा ही है । जिस व्यक्ति में ऐसा चिन्तन जागता है, वह दूसरे के हाथ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तराजू के दो पल्ले ४१ पर अंगार - पात्र नहीं रखा पाएगा। स्वयं संडासी से अंगार - पात्र उठाए और दूसरा उसे हाथ में ले, यह न्याय या आत्म-तुला की बात नहीं है, पक्षपात और विषमता की बात है । व्यवहार परिवर्तन का सिद्धान्त आदमी अपने लिए सुख चाहता है पर वह दूसरे की कठिनाई को नहीं समझता । वह इस नियम को नहीं जानता- मुझ पर कुछ होता है तो क्या बीतती है ? सामने वाले व्यक्ति पर भी वैसा ही बीतता होगा । हम सामने वाले प्राणी के विषय में सोचें। चाहे वह मनुष्य है, गाय है, घोड़ा है, कुत्ता है, वनस्पति या मिट्टी है । हम इस बात पर ध्यान दें-यदि मैं इस स्थान पर होता तो मुझ पर क्या बीतती ? यदि यह नियम समझ में आ जाए, आत्मसात् हो जाए तो आदमी का सारा व्यवहार बदल जाए । यह आत्म-तुला का सिद्धान्त, जिसका भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किया, हमारे समूचे व्यवहार के परिवर्तन का सिद्धान्त है । जो अपने अध्यात्म के नियम को जानता है, वह बाहर के नियम को जानता है और जो बाहर के नियम को जानता है, वह अपने अध्यात्म के नियम को जानता है। बाहर या भीतर अपना या पराया- दोनों के लिए नियम समान हैं, इस बात को जानें तो व्यवहार बदल जाएगा । कठिन है निरीक्षण करना वर्तमान समस्या यह है— व्यक्ति की दृष्टि में अपने एवं अपने परिवार के लिए नियम दूसरा होता है और दूसरे लोगों के लिए नियम कोई दूसरा होता है । आज जितना मिलावट का धंधा चलता है, वह दूसरों के लिए है, अपने लोगों के लिए नहीं है । इसका कारण है- व्यक्ति आत्म तुला के सिद्धान्त को नहीं जानता, इस तुला का अन्वेषण नहीं करता । बहुत कठिन है निरीक्षण करना, अन्वेषण करना । आदमी शॉर्टकट से जाना चाहता है । आज राजपथ इतने संकरे हो गए हैं कि उसे पगडंडी का चुनाव करना पड़ रहा है । इससे समस्या पैदा हो गई और आत्म-तुला का सिद्धान्त जटिल बन गया । दूसरों की बात छोड़ दें, धार्मिक लोग भी इस सिद्धान्त का प्रयोग नहीं करते हैं । अगर धार्मिक लोग इस तुला का प्रयोग करते तो आज मानवीय संबंधों में परिवर्तन आ जाता । वर्तमान समस्या आज की सबसे बड़ी समस्या है मानवीय संबंधों में तनाव और संघर्ष | पुरानी पीढ़ी के लोग अनपढ़ थे, सहन करना जानते थे किन्तु आज लोगों की समझ बहुत बढ़ी है इसलिए उनमें संवेदनशीलता भी बढ़ी है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अस्तित्व और अहिंसा संवेदनशीलता के कारण आपसी संबंधों में तनाव और संघर्ष के स्फुलिंग उछलते रहते हैं। भगवान महावीर ने आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यवहार के संदर्भ में प्रतिपादन किया । जैन श्रावक की आचार-संहिता आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप है। श्रावक की आचार-संहिता का एक नियम है—मैं अपने आश्रित प्राणी की आजीविका का विच्छेद नहीं करूंगा। चाहे वह नौकर है, कर्मचारी है या पशु है। जो आश्रित है, वह उसकी आजीविका का विच्छेद नहीं कर सकता ।। शोषण-परिहार का सिद्धांत आज शोषण की समस्या गंभीर है। यह स्वर उभर रहा हैशोषण नहीं होना चाहिए, श्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। यदि हम अतीत को पढ़ें तो हमारा निष्कर्ष होगा-शोषण का विरोध सबसे पहले भगवान महावीर ने किया। महावीर ने कहा—किसी के भक्तपान का विच्छेद मत करो। जो व्यक्ति जिसे पाने का हकदार है, उसे तुम मत छीनो। वह श्रम करता है और तुम उसका हक छीन लेते हो, यह न्याय नहीं है। शोषण के परिहार का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है आत्म-तुला का सिद्धान्त । किसी की आजीविका मत छीनो, किसी का शोषण मत करो। यदि इस सिद्धान्त पर अमल होता तो हड़ताले नहीं होती, मिलें बंद नहीं होती। अहिंसा के माध्यम से मानवीय चेतना को जगाने का जितना काम महावीर ने किया, उतना किसी ने किया या नहीं, यह भी अनुसंधान का विषय है । भाचारांग सूत्र में अहिंसक समाज-रचना के सूत्र भरे पड़े हैं । क्रान्ति सूत्र है आचारांग । उसका एक सूत्र है-आदमी तराजू के एक पल्ले में अपने को विठाए, दूसरे पल्ले में सामने वाले प्राणी को बिठाए और दोनों को समदृष्टि से तोले, आत्म-तुला की अन्वेषणा करे । महावीर के शब्दों में यही सच्ची खोज और अन्वेषणा है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ७ संकलिका • करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि । जावज्जीपाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं । न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । [आवश्यक सूत्र] ० स्थाई शस्त्र है भाव ० बाह्य शस्त्रः आंतरिक शस्त्र • हिंसा की जड़ • हिंसा वध या प्रमाद ? • संयम का अर्थ ० न मारने का निर्देश क्यों ? ० अहिंसा : मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ० मानसिक हिंसा और प्रमाद ० शक्तिशाली प्रश्न ० सावध योग : अठारह पाप • भविष्य की सम्भावना ० शस्त्रीकरण और यांत्रिकीकरण का परिणाम ० आचारांग : शस्त्र-परिज्ञा का सूत्र • निःशस्त्रीकरण का मूल्य आंके ० ० ० ० Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशस्त्रीकरण शस्त्र और हिंसा को पर्यायवाची माना जा सकता है। जहां-जहां शस्त्र है, वहां-वहां हिंसा है । जहां-जहां अशस्त्र है वहां-वहां अहिंसा है । जब प्रस्तरयुग था तब पाषाण के अस्त्र बने, पत्थर के शस्त्र बने। कभी मिट्टी का ढेला फेंका गया वह भी एक शस्त्र था। लोह का युग आया, लोहे के शस्त्र बने, तलवारें बनीं । बारूद का युग आया, बन्दूकें बनीं, गोलियां बनीं, तोपें बनीं। क्रमशः शस्त्र का विकास होता चला गया। विकास होते-होते अणुबम और हाइड्रोजन बम का युग भाया, अणु शस्त्र बने बनते चले जा रहे हैं । मूल शस्त्र है भाव ___ इन शस्त्रों का विकास क्रमशः हुआ है। पर एक शस्त्र स्थाई है, जो पहले भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। वही शस्त्र इन सब शस्त्रों का निर्माण कर रहा है । वह कभी बदलता नहीं है, स्थाई है और वह है असंयम । महावीर की भाषा में बह भाव-शस्त्र है । आचारांग सूत्र में षड्जीवनिकाय के लिए नाना प्रकार के शस्त्रों का निरूपण किया गया है। आज एक सामान्य भादमी शस्त्र शब्द कहते ही तलवार, बन्दुक या लाठी पर गौर करेगा किन्तु पानी एक शस्त्र है, यह कल्पना वह नहीं कर सकता। महावीर ने कहा-पानी मिट्टी का अस्त्र है। वायु अग्नि का शस्त्र है । महावीर ने बहुत गहरे में जाकर शस्त्रों का सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया। उनकी भाषा में जो शस्त्र है, उसकी मूक्ष्मता की कल्पना तक पहुंचने में दार्शनिकों को भी बहुत समय लगा है। हो सकता है, वैज्ञानिकों को उस गहराई तक पहुंचने में कई शताब्दियां और लग जाएं। वास्तविक शस्त्र है--असंयम सब शस्त्रों के मूल में जो शस्त्र है, वह है भाव-शस्त्र । मिट्टी मिट्टी का शस्त्र है, इसे बाह्य शस्त्र माना गया है। यह वारतविक शस्त्र नहीं है। वास्तविक शस्त्र है भाव-शस्त्र और वह है असंयम । प्राणी के अन्तःकरण में जो असंयम है, वही वास्तविक शस्त्र है और वही इन सारे शस्त्रों का निर्माण कर रहा है। अगर असंयम न हो तो कोई शस्त्र बनता ही नहीं। आज नि:शस्त्रीकरण का प्रश्न बलवान् बना हुआ है। शक्ति-सम्पन देश प्रक्षेपास्त्रों को कम करें, दूर या लघु मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों को कम करें, टैंकों को समाप्त करें, यह चर्चा का मुख्य विषय बना हुआ है, पर इन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशस्त्रीकरण सबके पीछे जो चर्चा होनी चाहिए, वह नहीं हो रही है। इन सबके मूल में असंयम है और उसे कम करने की चर्चा बहुत कम चलती है। केवल कुछ प्रक्षेपास्त्रों को कम करने से निःशस्त्रीकरण की बात सम्भव नहीं बनेगी। एक शासक शस्त्रों को कम करने की बात करता है तो दूसरा शासक शस्त्रों को बढ़ाने की बात करता है। जब तक असंयम को कम करने की ओर मनुष्य समाज का ध्यान आकर्षित नहीं होगा तब तक निःशस्त्रीकरण की बात सफल नहीं बन पाएगी। भगवान् महावीर ने भाव-शस्त्र पर, असंयम पर बहुत बल दिया। उन्होंने कहा--मूल जड़ को पकड़ो, असंयम को कम करो। असंयम कम होगा तो बन्दूकें, तोपें, तलवारें मनुष्य के लिए खतरनाक नहीं बनेंगी। प्रमाद हिंसा नहीं है ? एक प्रश्न उभरता है-भगवान् महावीर ने पूरे शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में छह काय के जीवों का वध न करने का उपदेश दिया पर मानसिक स्तर पर होने वाली हिंसा की कोई चर्चा नहीं की। ऐसा क्यों ? इसका कारण क्या है ? शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में यह नहीं बताया गया-कलह मत करो, निन्दा मत करो, चुगली मत करो, किसी के प्रति बुरे विचार मत लाओ ! केवल मत मारो का ही निर्देश मिलता है। कर्म का समारंभ मत करो यानी वध मत करो। उन्होंने वध को ही क्यों पकड़ा ? क्या वध ही हिंसा है ? क्या प्रमाद हिंसा नहीं है ? 'सर्वे प्राणाः न हंतव्याः अहिंसाऽसौ प्रकीर्तिताः । कि हिंसा वध एवास्ति, प्रमादो वा भवेदसौ ? इसका समाधान हैवधः कायं प्रमादश्च, कारणं नाम विद्यते । अप्रमत्तो वधार्थ नो, संतापाय न चेष्टते ॥ वध कार्य है । प्रमाद उसका कारण है। जो अप्रमत्त होता है, वह किसी के वध या संताप के लिए चेष्टा नहीं करता। प्रश्न मानसिक हिंसा का कभी-कभी यह स्वर भी सुना जाता है-जैन लोग जितना प्राणी को न मारने पर बल देते हैं, उतना मानसिक हिंसा या मानसिक अहिंसा पर बल नहीं देते। इसका कारण क्या है ? वस्तुत: यह अवधारणा सही नहीं है। महावीर की भाषा में हिंसा का अर्थ है असंयम । अहिंसा का अर्थ है संयम । हिंसा का अर्थ है प्रमाद । अहिंसा का अर्थ है अप्रमाद । जब संयम ही अहिंसा है, अप्रमाद ही अहिंसा है तब कौन-सी मानसिक हिंसा बचती है ? कौन-सी वैचारिक हिंसा बचती है ? कौन-सा बुरा भाव बचत Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा है ? संयम का अर्थ है निग्रह करना । अठारह पाप का प्रत्याख्यान करने का अर्थ है संयम। जो व्यक्ति संयम को स्वीकार करता है, वह इस संकल्प को स्वीकार करता है--भन्ते ! मैं सामायिक करता हूं और सर्व सावध योग का त्याग करता हूं। सर्व सावध योग के त्याग का मतलब है अठारह पाप का त्याग । राग-द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद आदि-आदि अठारह पाप में समाविष्ट हैं। स्थूल निर्देश क्यों ? हिंसा है असंयम । इस परिभाषा से कौन-सी हिंसा मुक्त है ? इस एक सूत्र में अहिंसा का मूल हृदय आ जाता है । जड़ को पकड़ना बहुत बड़ी बात है। आज व्यक्ति स्थूलदृष्टि वाला है। वह सूक्ष्म बात को कम पकड़ता है। इसीलिए अहिंसा के सन्दर्भ में यह निर्देश दिया गया--किसी को मारो मत । जब तुम किसी को मारते हो तो वह छटपटाता है। क्या तुम्हें दया नहीं आती ? मरते समय जब प्राण निकलते है तब बड़ी कठिनाई होती है, बड़ी छटपटाहट होती है इसलिए तुम किसी को मत सताओ। मत मारो—यह बताकर मनुष्य के मन में करुणा का भाव पैदा किया गया, अनुकम्पा पैदा की गई। जब करुणा का विकास होता है तब वह न मारने तक ही सीमित नहीं रहता, आगे बढ़ जाता है। उसमें प्रेम का भाव बढ़ता है। जिस व्यक्ति में प्रेम और मैत्री का भाव विकसित है वह मैत्री का विकास करेगा प्राणी मात्र के लिए। जब तक पराएपन का भाव होता है, शत्रुता का भाव मन में छिपा रहता है तब तक मैत्री का भाव विकसित नहीं होता। प्रश्न शस्त्रीकरण का महावीर ने मनोवैज्ञानिक ढंग से इस स्थूल बात को पकड़ा । यह व्यावहारिक बात है। बहुत साधारण लोगों में पहले सूक्ष्म बात नहीं कहनी चाहिए, इसीलिए शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में निःशस्त्रीकरण की स्थूल बात भाई गई। पहले यही बताया गया—निःशस्त्रीकरण करो, किसी को मार मत, सताओ मत । जैसे-जैसे यह संकल्प पुष्ट होगा वैसे-वैसे असंयम का भाव कम होगा । जैसे-जैसे असंयम का भाव कम होगा वैसे-वैसे मैत्री बढ़ेगी, व्यक्ति अपने आप संयम की सीमा में अपना जीवन चलाएगा। शस्त्रीकरण और निःशस्त्रीकरण-हमारे समक्ष ये दो शब्द हैं। आज भी शस्त्रीकरण एक समस्या है। सौ वर्ष पहले किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि राजनीति के लोग कभी निःशस्त्रीकरण शब्द का उच्चारण करेंगे । जनता निःशस्त्रीकरण की बात पर आन्दोलन करेगी, निःशस्त्रीकरण एक मुख्य मुद्दा बन जाएगा, पर विचार के विकास को रोका नहीं जा सकता। एक व्यक्ति ने जो विचार दिया, शताब्दियों के बाद वह विचार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशस्त्रीकरण दूसरों का अपना विचार बन जाता है । का विचार २० वीं शताब्दी में अपने आप प्रश्न शक्तिशाली बन गया है कि अगर यह रही तो न जाने क्या होगा ? ४७ महावीर का यह निःशस्त्रीकरण बलवान् बन रहा है । आज यह शस्त्रों की होड़ इसी गति से चलती जैन श्रावक की आचार संहिता : निःशस्त्रीकरण भगवान महावीर ने जैन श्रावकों के लिए जो व्रतों की आचार संहिता दी, उसका एक सूत्र है— जैन श्रावक शस्त्रों का निर्माण नहीं करेगा, शस्त्रों के पुर्जों का संयोजन भी नहीं करेगा । अनेक लोग शस्त्रों के निर्माण में लगे हुए हैं । वे पुर्जे मंगाते हैं और शस्त्र तैयार कर लेते हैं । प्रत्येक क्षेत्र में शस्त्रों का अंबार लग रहा है । निःशस्त्रीकरण का स्वर शस्त्रीकरण की परिणति के कारण शक्तिशाली होता जा रहा है । अगर अणुशस्त्रों के भण्डार पर ध्यान नहीं दिया गया तो शायद एक समय ऐसा आएगा, सारी की सारी मानव सभ्यता नष्ट हो जाएगी। संभावना की जा रही है - दुनिया वापस प्रस्तर युग में चली जाए। महाभारत के युद्ध बाद हिन्दुस्तान की सभ्यता, संस्कृति और विद्या का जैसा ह्रास हुआ है, उससे यह सम्भावना बलवती बनी है | अणु अस्त्रों के युद्ध के बाद शायद मनुष्य यह प्रार्थना करेगा – हे भगवान ! हमें वही बना दो, जो हम पहले थे । यांत्रिकीकरण का परिणाम आज विज्ञान बढ़ते-बढ़ते रॉबोट तक पहुंच गया है। जिस कृत्रिम मानव का निर्माण किया गया है, वह रोवोट - - लोहमानव खतरनाक बन रहा है । निर्माता सोच रहें हैं कि उसे नियंत्रित कैसे किया जाए ? अमेरिका और जापान ने जो रोबोट बनाए हैं, वे मनुष्य के लिए विनाश का कारण बन रहे हैं। अगर यह शस्त्रीकरण और यांत्रिकीकरण का दौर ऐसे ही चलता रहा तो हमें प्रभु से प्रार्थना करनी पड़ेगी - हे भगवान ! हमें तो वापस प्रस्तर युग में ही ले चलो । शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन को पकड़ा था । भगवान से ही निःशस्त्रीकरण हम भगवान महावीर को पढ़ें, आचारांग के पढ़ें । हमें पता चलेगा, इस सचाई को महावीर ने महावीर ने कहा-शस्त्रीकरण मनुष्य जाति के लिए संहार का कारण बन सकता है । इसलिए हम प्रारम्भ का मूल्य आंकें, उसे समझें और जीवन में अधिक से अधिक निःशस्त्रीकरण का प्रयोग करें । निःशस्त्र के प्रयोग का अर्थ संयम करने से जुड़ा हुआ है । निःशस्त्रीकरण मानव जाति के लिए कल्याण का हेतु है, विकास का हेतु है । निःशस्त्रीकरण के द्वारा ही मानव-जाति सुख और शांति से रह सकती है । इस सचाई को संयम के विकास से ही समझा जा सकता है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० जाणित दुक्खं पत्तेयं सायं (आयारो २ / २२ ) जेहि वा सद्धि संवसति ते वा णं एगया जियगा । तं पुव्वि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा ॥ • नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा ॥ O प्रवचन द तुमपि तेस नालं ताणाए वा सरणाए वा ॥ ( आयारो २ / १६-१७) • जीवन के दो पक्ष ० वैयक्तिक गुण : कर्म शास्त्रीय भाषा • वैयक्तिक हैं -- ज्ञान, इन्द्रिय-संवेदन, सुख-दुःख, आनंद, शक्ति और वेदनीय कर्म संकलिका • समाज और सामाजिकता का मूल्य • समाजवाद का दृष्टिकोण • अध्यात्म का दृष्टिकोण • मूर्च्छा को तोड़ने वाला सूत्र ० निश्चय और व्यवहार का समायोजन • सुख और स्वार्थ • स्वार्थ का उदात्तीकरण o • स्वार्थ स्वार्थ से ऊपर उठने में भी • विकार : एक के साथ प्रेम करना • पवित्र मनोभाव : सबके साथ प्रेम करना आत्मकर्तृत्व का सिद्धांत दुःख-सुख : दुःख-सुख के साधन O • स्वगत है सुख और दुःख विनिमय का प्रश्न नहीं O • साधन हैं सामाजिक : संवेदन हैं वैयक्तिक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-दःख अपना-अपना व्यक्ति और समाज-ये जीवन के दो आयाम हैं। कुछ धागे ऐ हैं जो व्यक्ति-व्यक्ति को जोड़ते चले जाते हैं और एक समाज बन जाता है। कुछ सूत्र ऐसे हैं जो व्यक्ति को बचाए रखते हैं, व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं। उसकी पृथक् सत्ता बनी रहती है। जीवन के दो पक्ष हैं—वैयक्तिक और सामाजिक । प्रश्न है-- वैयक्तिक गुण क्या हैं, जो व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं ? आचारांग सूत्र में उनका निर्देश किया गया है। हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें। जिन्हें मूल कर्म कहा जाता है, जो चार घात्यकर्म हैं, वे व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं। ज्ञान, इन्द्रिय-संवेदन, सुख-दुःख, आनंद, शक्ति और वेदनीय कर्म-ये व्यक्ति को वैयक्तिकता प्रदान करते हैं। ज्ञान अपनाअपना होता है। इन्द्रिय संवेदन अपना-अपना होता है। सुख-दुःख का संवेदन अपना-अपना होता है। आनंद भी अपना-अपना होता है और शक्ति भी अपनी अपनी-होती है। अधूरा सच : पूरा सच __ प्रश्न है समाज का । व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । जैसे मछली पानी के बिना जी नहीं सकती वैसे ही व्यक्ति समाज के बिना जी नहीं सकता, इसलिए समाज ही सर्वोपरि है । यह समाजवाद या सामाजिकता का दृष्टिकोण है । इसमें सचाई भी है। समाज के बिना साहित्य और सभ्यता का, आनंद और सुख-दुःख का, कभी विकास नहीं हो सकता। इन सबका विकास समाज के संदर्भ में हुआ है। समाज और सामाजिकता—दोनों व्यक्ति के लिए जरूरी हैं, किन्तु यह अधूरा सच है । केवल इसी को सब कुछ मानने से समस्याएं उलझती हैं। पूरे सत्य को पकड़ने के लिए सामाजिकता के साथ वैयक्तिकता को समझना जरूरी है । अध्यात्म और धर्मशास्त्र में वैयक्तिकता पर बल दिवा गया । व्यक्तिगत जीवन को देखे बिना सामाजिक जीवन अच्छा नहीं हो सकता । वैयक्तिक है सुख और दुःख अध्यात्म का महत्वपूर्ण सूत्र है---पत्तेयं सायं पत्तेयं वेयणा-सुख भी अपना है और दुःख भी अपना है। यह एकदम वैयक्तिक बात है ! व्यक्ति Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा सुख-दुःख से समाज का कोई लेना-देना नहीं होता । एक आदमी दूसरे आदमी को न सुख दे सकता है और न दुःख दे सकता है, इसलिए दूसरों पर अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए । चाहे समाज है. परिवार है, मित्र हैं, सगे-संबंधी हैं, उन पर एक सीमा तक ही भरोसा किया जा सकता है, उससे अधिक नहीं। वे सुख और दुःख से त्राण देने में समर्थ नहीं हैं। महावीर ने कहा"सगे-सबन्धी, मित्र, स्वजन आदि तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं और तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। तुम अपनी इस असमर्थता का अनुभव करो।' यह मूर्छा को तोड़ने वाला सूत्र है, एक बड़ी सचाई है। इसमें जहां समाज का अनुभव है वहां उसके साथ अपने अस्तित्व का अनुभव भी है । सामान्यतः कुछ लोग केवल अपनी ही अनुभूति में चले जाते हैं और समाज को अस्वीकार कर देते हैं। कुछ लोग अपने आपको समाज में लीन कर देते हैं और अपने अस्तित्व को भुला देते हैं। भगवान् महावीर ने निश्चय और व्यवहार-दो नयों का प्रतिपादन किया। उन्होंने समाज को अस्वीकार नहीं किया, किन्तु उसका व्यवहार की एक सीमा तक मूल्यांकन करने की बात कही। उन्होंने-वास्तविक मूल्य व्यक्ति को दिया, व्यक्ति के मूल्यांकन को दिया । इसे व्यक्ति और समाज --दोनों का समायोजन कह सकते हैं। आत्मरक्षा : आत्मतृप्ति मनुष्य में बहुत सारी इच्छाएं होती हैं । उनमें दो इच्छाएं मुख्य हैं आत्मरक्षा चात्मतृप्तिः, मुख्यमिच्छाद्वयं भवेत् । इच्छाकुले जगत्यस्मिन्, तदर्थं यतते जनः । व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है- यह है आत्मरक्षा की इच्छा। ___ व्यक्ति अधिकतम सुख पाने की इच्छा रखता है--यह है आत्मतृप्ति की इच्छा । इसी आधार पर नीतिशास्त्र में सुखवाद का सिद्धांत चला। हर आदमी सुख चाहता है, क्योंकि वह अपना है । व्यक्ति कोई भी काम करता है, सुख-प्राप्ति के लिए करता है। सुख और लाभ को पाना व्यक्ति का प्रयोजन है। अध्यात्मशास्त्र में भी इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। आदमी के 'प्रत्येक कार्य का आधार यही मिलेगा-सुख मिले, दुःख न आए। यह एक आध्यात्मिक सत्य है। सुखवाद के साथ जुड़ा है स्वार्थवाद । सुख और स्वार्थ ...--दोनों जुड़े हुए हैं । इन दोनों को अलग-अलग करना बड़ा कठिन है। यह मान लेना चाहिए—व्यक्ति प्रकृति से ही स्वार्थी है। वह अपने आपको सुख देना चाहता है, उसे और किसी की चिन्ता नहीं होती। इस सिद्धांत का एक उदात्तीकरण धर्मशास्त्र ने किया—संयम पालो, साधना करो। पूछा गया-- Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-दुःख अपना-अपना ५.१ किसलिए ? कहा गया- -आत्म-हित के लिए, अपने हित के लिए। यह भी स्वार्थ की बात है, पर यह ऐसा स्वार्थ नहीं है जिससे दूसरे के स्वार्थ का विघटन हो । जिस स्वार्थ को साधने में दूसरे का स्वार्थ विघटित हो, वह स्वार्थ अच्छा नहीं होता, निम्न स्तर का होता है । आत्मानुकंपी : परानुकंपी अध्यात्मशास्त्र का दृष्टिकोण इस सन्दर्भ में बहुत उदात्त रहा है । बौद्धों के महायान सम्प्रदाय का मुख्य सूत्र है - 'मैं अकेला सुखी नहीं बनूंगा चाहे कुछ भी हो जाए। सबको साथ लेकर चलूंगा । जो सबको होगा, वह मुझे हो जाएगा । यह महापथ है ।' जैन तीर्थंकरों का भी यह दृष्टिकोण रहा । दो प्रसिद्ध शब्द हैं - आत्मानुकम्पी और परानुकंपी । व्यक्ति आत्मानुकंपी भी बने, परानुकंपी भी बने । यह स्वार्थ से ऊपर उठने की बात है, किन्तु इसमें भी स्वार्थ की बात है । इसमें स्वार्थ को इतना विराट् बना दिया गया कि दूसरे के कल्याण में भी अपना कल्याण है, अपनी निर्जरा है, अपना हित है । लाभ किसे मिला ? परकल्याण कहां समायोजित हुआ ? वह अपने कल्याण का ही साधन बन गया । अन्तर इतना आया - सुखवाद और स्वार्थवाद विराट् बन गया । जब किसी दोष का निरसन करना होता है तो उसे विराट् रूप देना पड़ता है। एक के साथ प्रेम करो, यह विकार कहलाएगा | सबके साथ प्रेम करो, यह पवित्र मनोभाव कहलाएगा। एक के साथ प्रेम करना विकार है, सबके साथ प्रेम करना पवित्रता है । छोटी चीज को बड़ा रूप दे दो, वह पवित्र बन जाएगी । केवल अपने सुख की कामना प्रशस्त नहीं बनती । सबके सुख की कामना करो, वह विराट् बन जाएगी, उसमें अपना सुख भी संध जाएगा । -सुख और स्वार्थ को विराट् बनाएं महत्वपूर्ण सचाई है - सुख और स्वार्थ को विराट् बनाना ! सुखवाद और स्वार्थवाद की सीमा समझें । केवल अपने सुख और स्वार्थ को महत्व न दें । भ्रमवश आदमी केवल अपने दुःख को ही दूर करने की बात सोचता है । वह सुख को पाना चाहता है, दुःख को दूर भगाना चाहता है । आदमी देखता है - मैंने दुःख को दूर भगा दिया । किन्तु सचाई यह हैसुख-दुःख अपना-अपना होता है इसलिये व्यक्ति ऐसा आचरण न करे, जिससे दुःख बढ़े, सुख घटे | यह आत्मकर्तृत्व का सिद्धांत है । हम सोचें-- आज तक इस दुनियां में किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति को सुखी बनाया ? या दुःखी बनाया ? हम सत्य तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। कोई व्यक्ति किसी को सुखी या दु.खी नहीं बना सकता, यह वास्तविकता है । कहना यह चाहिए ---सुख की सामग्री जुटाई जा सकती है, सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं किन्तु सुख Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा ५२ नहीं दिया जा सकता । दुःख के साधन दिए जा सकते हैं किन्तु दुःख नहीं दिया जा सकता। अगर दुःख दिया जा सकता तो महावीर और आचार्य भिक्षु बड़े दुःखी बन जाते । महावीर को कितने दुःख दिए गए, आचार्य भिक्षु के सामने कितनी समस्याएं प्रस्तुत हुईं, किन्तु क्या महावीर कभी दुःखी बने ? आचार्य भिक्षु कभी विचलित हुए ? अपने हाथों में है दुःखी होना महावीर को कोई दुःखी नहीं बना सका इसीलिए उन्होंने कहापत्तेयं दुःखं दुःख अपना-अपना होता है । हम बहुत बार दूसरों से दुःखी बन जाते हैं । हम इस सचाई को भूल जाते हैं - दूसरा दुःख नहीं दे सकता । दुःखी होना नितान्त हमारे हाथ में है । अगर हम न चाहें तो हमें कोई दुःखी नहीं बना सकता और हम चाहें तो भी किसी को दुःखी नहीं बना सकते, सुखी नहीं बना सकते । सुख और दुःख स्वगत होता है, अपना अपना होता है । जिसमें जो क्षमता है, जिसे जो मिला है, वह उसका विकास करे, सुख को उपलब्ध करे | हम इस आत्म-कर्तृत्व के सिद्धांत का गहराई से अध्ययन करें । अध्यात्म-विज्ञान के इस सूत्र को समाजविज्ञान और मनोविज्ञान ने भी किसी अर्थ में अपनाया है । सामाजिक हैं साधन सुख-दुःख नितांत अपना और वैयक्तिक होता है । इसका अर्थ है -सुख दुःख का विनिमय नहीं किया जा सकता, उसे लिया या दिया नहीं जा सकता । पुत्र धन कमाता है तो पिता को मिल जाता है। पिता धन कमाता है तो पुत्र को मिल जाता है। एक व्यक्ति कमाता है और वह परिवार के दस सदस्यों को मिल जाता है। धन वैयक्तिक नहीं, सामाजिक है। धन को वैयक्तिक मानना मूर्खता है और सुख को सामाजिक मानना मूर्खता है । सुखदुःख का जो साधन है, वह सामाजिक है । हम इस अवधारणा को स्पष्ट करें - सुख-दुःख के साधन सामाजिक हैं किन्तु सुख-दुःख के संवेदन वैयक्तिक हैं । इसलिए न तो किसी में त्राण का आरोपण करना चाहिए और न ही किसी को अन्तिम शरण मानना चाहिए । व्यक्ति की अपनी आत्मा, व्यक्ति का अपना आचरण ही त्राण और शरण देने में समर्थ है, सुख और दुःख का कारण है । हम इस सचाई को समझें और ऐसा कोई आचरण न करें, जिससे दुःख बढ़े, सुख घटे । यह जागरूकता ही दुःख से मुक्ति दिला सकती है, सुख का मार्ग प्रशस्त कर सकती है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ९ संकलिका ० लोभं अलोभेण दुगुंछमाणे, लद्धे कामे नाभिग हेइ । .० विण इत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति । (आयारो २/३६-३७) ० सबसे बड़ा है चेतना का प्रकाश ० सकर्मा--प्रवृत्ति करने वाला ० अकर्मा---निवृत्ति करने वाला ० प्रवृत्ति का कारण है लोभ • ज्ञेय एक : ज्ञान अनेक • अकर्मा : अर्थ मीमांसा जो ज्ञानावरण कर्म रहित है, वह अकर्मा है जो ध्यानस्थ है, वह अकर्मा है जिसमें लोभ नहीं है, वह अकर्मा है ० पातंजल योग-दर्शन का अभिमत ० अलोभ की साधना और ज्ञाता-द्रष्टा में सम्बन्ध • शरीर की निष्क्रियता : चेतना की सक्रियता ० कायोत्सर्ग : निकम्मा होने की कला ० राष्ट्रकवि दिनकर का मंतव्य ० विधायक भाव : प्रशिक्षण • प्रयत्न-साध्य धर्म है निवृत्ति ० साधक तत्त्व है अलोभ ० जानाति-पश्यति का रहस्य-सूत्र Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह जानता-देखता है सूरज का प्रकाश, चन्द्रमा का प्रकाश, दीपक और बिजली का प्रकाश, रत्नों का प्रकाश और कुछ वनस्पतियों का प्रकाश । प्रकाश करने वाले द्रव्य बहुत हैं पर सबसे बड़ा प्रकाश है चेतना का प्रकाश, ज्ञान का प्रकाश । वह प्रकाश है तो सारे प्रकाश हैं और वह नहीं है तो कुछ भी नहीं है । चेतना का आलोक होता है तो दूसरे आलोक भी काम देते हैं। यदि आंख ठीक है तो सूर्य का प्रकाश तथा अन्यान्य प्रकाश उपयोगी बनते हैं। यदि आंख न हो तो ? न सूर्य का प्रकाश काम आएगा, न अन्य पदार्थों का प्रकाश काम आएगा, न किसी वस्तु का दर्शन सम्भव बन पाएगा । संस्कृत भाषा का सूक्त हैलोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति आंख नहीं है तो दर्पण क्या करेगा ? सकर्मा : अकर्मा भगवान महावीर ने मनुष्य को दो भागों में बांट दिया-सकर्मा और अकर्मा । सकर्मा यानी प्रवृत्ति करने वाला। जो शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति करने वाला है, वह सकर्मा है । अकर्मा वह है, जो शरीर, वाणी और मन–तीनों को शांत रखता है । प्रश्न है--आदमी अकर्मा कब हो सकता है ? बहुत गहरे में उतरकर अध्यात्म ने इस तथ्य को प्रस्तुत किया-लोभ आदर्म को चलाता है। जितना लोभ, उतनी ही प्रवत्ति । जब तक लोभ है तब तक व्यक्ति अकर्मा नहीं बन सकता, ज्ञाता-द्रष्टा नहीं बन सकता, जानने वाला देखने वाला नहीं बन सकता । प्रश्न होता है—देखता कौन है ? इस संदर्भ में ज्ञान को भी समझना होगा। एक है बौद्धिक ज्ञान । उसे जानना-देखना मान ही नहीं गया । जानना-देखना वह होता है, जिसमें कोई पढ़ाई नहीं होती व्यक्ति सीधा देख लेता है। तत्त्वार्थ भाष्य की वृत्ति में कहा गया-ज्ञेय एक है और ज्ञान अनेक उदाहरण की भाषा में समझे । हमें एक ज्ञेय को—मनुष्य को जानना है मतिज्ञानी उसे जानेगा इन्द्रियज्ञान के द्वारा। वह जान लेगा कि यह मनुष पर्याय है। श्रुतज्ञानी उसे इन्द्रियों से नहीं जानेगा। वह शब्द के सहा जानेगा । वह सम्बन्ध जोड़ेगा-यह मनुष्य शब्द है और यह मनुष्य नाम वस्तु है । यह इसका वाचक है और यह इसका वाच्य है। जिसमें मनन कर की शक्ति होती है, वह मनुष्य होता है। अवधिज्ञानी अतीन्द्रिय शक्ति से जान Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह जानता-देखता है ५५ लेगा कि यह मनुष्य है। केवलज्ञानी उसे साक्षात् जान लेगा। एक ज्ञेय और ज्ञान पांच। इंद्रियज्ञान : श्रुतज्ञान इन्द्रिय के द्वारा हम सन्निकट को जानते हैं, दूर की बात को नहीं जानते । जो आंख के सामने है, उसे देख लेते हैं किंतु दीवार से परे क्या है, उसे हम नहीं देख पाते । हमारे इन्द्रियज्ञान की सीमा है। श्रुतज्ञान का काम है—विप्रकृष्ट को जानना। स्वर्ग है, सिद्धशिला या नरक है आदि आदि । पारलौकिक बातों को छोड़ दें किन्तु दिल्ली है, कलकत्ता है, बम्बई है, यह हम किस आधार पर जानते हैं ? श्रुतज्ञान के आधार पर, आप्तोपदेश या अनुमान के आधार पर । एक विश्वस्त व्यक्ति ने बताया—इतने किलोमीटर चले जाओ, अमुक शहर या गांव आ जाएगा। व्यक्ति उस दिशा में चल पड़ता है, वह शहर में पहुंच जाता है । दूरवर्ती वस्तु को श्रुतज्ञान के द्वारा जान लिया जाता है । जानने के अनेक प्रकार होते हैं। अकर्मा का जो ज्ञान है, वह है साक्षात् ज्ञान । प्रश्न है-अकर्मा । कैसे जानता देखता है ? अकर्मा का एक अर्थ किया जा सकता है--ज्ञानावरण-कर्मरहित । ध्यानस्थ को भी अकर्मा कहा जा सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में अकर्मा का तात्पर्य होना चाहिए—अलोभ । जिसमें लोभ नहीं है, वह अकर्मा है । प्रश्न हो सकता है--लोभ का और जानने-देखने का क्या सम्बन्ध है ? महत्त्वपूर्ण सूत्र पातंजल योग का एक महत्वपूर्ण सूत्र है-अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकर्थता संबोधः---अपरिग्रह महाव्रत सिद्ध होता है तो पूर्वजन्म और भावी-जन्म का ज्ञान होता है । अपरिग्रह महाव्रत और पूर्वजन्म-पुनर्जन्म के ज्ञान में कहां का संबंध है ? हम इसका रहस्य समझे। इसका बहुत महत्त्वपूर्ण कारण है-जब तक शरीर का लोभ है, भेद-विज्ञान स्पष्ट नहीं है तब तक पूर्वोत्तर ज्ञान पर प्रतिबंधक रहेगा । जब तक लोभ रहेगा तब तक वह न पूर्व जन्म को जानने देगा, न भावी जन्म को जानने देगा । जब शरीर के प्रति लोभ समाप्त होता है, व्यक्ति कायोत्सर्ग की गहरी स्थिति में चला जाता है, शरीर से चैतन्य के भेद का स्पष्ट अनुभव हो जाता है, उस समय शरीर की प्रवृत्ति मंद होती चली जाती है और चेतना अति सक्रिय बन जाती है। मनोविज्ञान में माना जाता हैनींद में प्रायः चेतन-मन निष्क्रिय हो जाता है और अचेतन-मन सक्रिय हो जाता है । ठीक वही बात है--अलोभ की स्थिति में शरीर निष्क्रिय-सा हो जाता है, चेतना अति सक्रिय हो जाती है । इसी संदर्भ में यह तथ्य समझा जा सकता Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा है-जो अकर्मा है, वह जानता-देखता है । अकर्मा होने की साधना अलोभ और अपरिग्रह की साधना है। कायोत्सर्ग : मूल सूत्र कायोत्सर्ग का मूल सूत्र है-निर्ममत्व, शरीर की ममता को छोड़ना, भेद-विज्ञान का अनुभव करना । 'मैं चेतना हूं, शरीर नहीं हूं'। 'शरीर अलग है, आत्मा अलग है।' यह पार्थक्य-बोध जितना साफ होता है उतना ही अच्छा कायोत्सर्ग माना जाता है । इसी निर्ममत्व चेतना का नाम है अकर्मा और इसी अवस्था में आंतरिक ज्ञान का या साक्षात् ज्ञान का विकास होता है। इसके बिना प्रत्यक्ष जानने की स्थिति बनती नहीं, क्योंकि शरीर के प्रति प्रगाढ़ मूर्छा बनी रहती है, ममत्व बना रहता है। शरीर के प्रति आदमी इतना जागरूक रहता है कि कहीं उसको आंच न आ जाए। प्रवृत्त : निवृत्ति एक समस्या यह भी है---धर्म करने के लिए, आत्म निरीक्षण करने या अपने बारे में सोचने के लिए व्यक्ति को अवकाश नहीं होता । अक्सर लोग कहते हैं---महाराज क्या करें, समय नहीं मिलता। यह एक बड़ी उलझन भरी समस्या है । क्या कायोत्सर्ग निकम्मा काम है ? व्यक्ति सचाई को नहीं समझ पा रहा है इसीलिए वह समय न होने का बहाना बना लेता है । जैसे काम करना एक बड़ी कला है वैसे हो निकम्मा होना भी एक बड़ी कला है पर बहुत से लोग इस निकम्मा होने की कला को जानते नहीं हैं। जब तक आदमी निकम्मा नहीं होता तब तक यह सिकम्मापन--सक्रिय जीवन भी ज्यादा चलता नहीं है । अच्छा जीवन जीने के लिए निकम्मा होने की कला को भी सीखना जरूरी है। जरदर्शन : निवृत्तिवाद प्रवृत्तिवाद और निवृत्तिवाद----ये दो बहुत महत्वपूर्ण सूत्र हैं। जीवन चलाने के लिए प्रवृत्ति का चक्र आवश्यक है पर निवृत्ति भी कम मूल्यवान् नहीं है । जितना प्रवृत्ति का चक्र आवश्यक है उतना ही आवश्यक है निवृत्ति का चक्र । आचार्यश्री पटना विश्वविद्यालय में पधारे। स्वागतकर्ता थे राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' । श्री दिनकर ने कहा---'आचार्यजी ! जैन दर्शन ने एक बड़ा तत्त्व-दर्शन दिया है निवृत्तिवाद का। आज के इस प्रवृत्तिबहल युग में आदमी मानसिक तनाव और संक्लेश से पिसा जा रहा है। इसी प्रवृत्ति चक्र ने अणु-युग को जन्म दिया है। अब यदि आदमी पीछे नहीं लौटेगा तो सर्वनाश उसके सामने खड़ा है। उन्होंने प्रार्थना के स्वर में कहाआवार्य जी ! आप लोगों को अब निवृत्ति का मार्ग दिखाएं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभाविक है प्रवृत्ति ? जैन धर्म का मुख्य तत्त्व है संवर, निवृत्ति । प्रवृत्ति में तो आदमी जीता ही है । शरीर को स्थिर कैसे किया जाए, यह सीखना होगा । कैसे मौन रहें, कैसे मन को एकाग्र करें, यह सीखना होगा । हमें यह मान लेना चाहिए, प्रवृत्ति जीवन का स्वाभाविक धर्म है किन्तु निवृत्ति प्रयत्न और अभ्याससाध्य धर्म है | क्या क्रोध करना सीखने का कोई विद्यालय है ? क्या क्रोध का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षण केन्द्र है उसके लिए कोई प्रशिक्षण केन्द्र नहीं है किन्तु क्रोध करना सब जानते हैं, क्षमा करना नहीं । क्षमा का विकास प्रशिक्षण के बिना सम्भव नहीं है जितने विधायक भाव हैं, उनके लिए प्रशिक्षण जरूरी है । जितने निषेधात्मक भाव हैं, वे प्रकृति से अपने आप प्रस्फुटित हो जाते हैं। गेहूं, चावल, मक्का, बाजरा आदि को पाने के लिए बीज बोना पड़ता है । ये सब बिना बीज बोए उपलब्ध नहीं होते । घास का बीज नहीं बोया जाता । फिर भी उससे खेत भर जाता है । विधायक भाव और निषेधात्मक भाव के सम्बन्ध में यही बात है । विधायक भावों के विकास के लिए तपना होता है किन्तु निषेधात्मक भाव स्वतः उभर पाते हैं । उनके लिए सोचना ही नहीं पड़ता । । साधक तत्त्व है अलोभ इस सारे संदर्भ में एस अकम्मा जागति-पासति इस सूत्र का मूल्यांकन करें। हम मात्र बौद्धिक ज्ञान तक ही सीमित न रहें, साक्षात्कार का अभ्यास करें | महावीर कहते हैं—जानो-देखो। हम जानें, देखें पर आंख से नहीं, मस्तिष्क से नहीं । चेतना से जाने, चेतना से देखें । भगवान ने अलोभ के लिए जो सूत्र दिया, उसका निष्कर्ष है—अगर ज्ञाता द्रष्टा होना है तो अलोभ बनना होगा। सबसे कठिन काम है अलोभ होना । जब तक व्यक्ति अलोभ नहीं बनेगा, केवलज्ञान के निकट नहीं पहुंच पाएगा । क्रोध, मान, माया-ये सब मिट गए पर लोभ नहीं मिटा तो बाधा बनी रहती है । अन्तिम बाधा है। लोभ | सबसे बड़ा साधक तत्त्व है अलोभ । अलोभ की साधना तभी सध सकती है जब शरीर के प्रति निर्ममत्व की भावना जागे । अकर्मा की साधना महत्त्वपूर्ण साधना है । हम यत्किंचित् मात्रा में शरीर के लोभ को कम करने का प्रयत्न करें, भेद-विज्ञान के विकास का प्रयत्न करें, अपने आप 'जानाति -- पश्यति' का रहस्य हमारे सामने स्पष्ट उभर आएगा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o ● प्राचीन घोष : अहिंसा परमो धर्मः • नया घोष : अपरिग्रहः परमो धर्मः हिंसा किसलिए ? • इच्छा, हिंसा और परिग्रह • आर्थिक समानता का प्रश्न : मार्क्स और गांधी ● गांधी की प्रणाली : मार्क्स की प्रणाली ० प्रवचन १० • समानता का अर्थ • परिणाम व्यक्तिगत स्वामित्व की समाप्ति का ० संकलिका अपरिग्रह गृहस्थ और मुनि का ० इच्छा, परिग्रह और आरंभ इच्छा - समीकरण का सूत्र ० प्रश्न अहिंसक समाज रचना का • समाधान हैं दो व्रत इच्छा-परिमाण भोगोपभोग - परिमाण ० हिंसक क्रान्तियां क्यों ? • रस्किन और गांधी का मत ● समस्या का समाधान : दो सूत्र आर्थिक-संयम इच्छा - संयम ० ज्वलन्त प्रश्न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रहः परमो धर्मः आकाश को गुंजाने वाला यह स्वर बहुत बार सुना गया है-'अहिंसा परमो धर्मः' । 'अपरिग्रहः परमो धर्म:' का स्वर बहुत कम सुना गया है। 'अहिंसा परमो धर्मः' का उल्लेख दशवकालिक चूर्णि में मिलता है। महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है-'अहिंसा परमो दमः, अहिंसा परमं दानम्' यह घोष बहुत पुराना है । आज एक नए घोष की जरूरत हैअपरिग्रहः परमो धर्मः । आचार्य तुलसी की उदयपुर यात्रा के दौरान यह घोष पहली बार मुखरित हुगा । प्रश्न होगा----यह घोष क्यों ? आश्चर्य तो यह है कि यह घोष पहले मुखर क्यों नहीं हुआ ? जब 'अहिंसा परमो धर्मः' का स्वर उच्चरित हुआ था तब उसके साथ साथ 'अपरिग्रहः परमो धर्मः' का स्वर भी उच्चरित होना चाहिए था। हिंसा का कारण : आर्थिक विषमता अहिंसा और अपरिग्रह-दोनों को अलग अलग देखेंगे तो पूरी बात समझ में नहीं आएगी। अपरिग्रह के बिना अहिंसा को नहीं समझा जा सकता । अहिंसा को समझने के लिए अपरिग्रह को समझना जरूरी है और अपरिग्रह को समझने के लिए अहिंसा को समझना जरूरी है। आदमी हिंसा किसलिए करता है ? शरीर के लिए, परिवार के लिए, भूमि और धन के लिए, सत्ता के लिए। ये सब क्या हैं ? ये सारे परिग्रह हैं । हिंसा का मुख्य कारण है--परिग्रह । कोई अहिंसा करना चाहे और अपरिग्रह करना न चाहे, यह कभी संभव नहीं है । इच्छा, हिंसा और परिग्रहतीनों में परस्पर संबंध है, तीनों साथ-साथ चलते हैं। एक व्यक्ति धन कमाना चाहता है । क्या हिंसा के बिना धन का अर्जन संभव है ? आज अपरिग्रह को एक नया संदर्भ मिला है। इस शताब्दी में दुनिया के अनेक विचारकों ने देखा, हिंसा बहुत है, समाज में असंतोष बहुत है। क्रांतियां और रक्तपात हो रहा है। चिन्तन के बाद उन्हें लगा, इसका कारण परिग्रह है । आर्थिक विषमता के कारण ये स्थितियां बन रही हैं। मार्क्स और गांधी __ आज अहिंसा हमारे चिन्तन का गौण विषय हो गया, परिग्रह मुख्य विषय बन गया। आज चिन्तन की सारी धारा आर्थिक समानता और आर्थिक विषमता-इन दो बिन्दुओं पर टिकी हुई है । आर्थिक विषमता रहेगी तो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अस्तित्व और अहिंसा समाज में हिंसा बढ़ेगी । आर्थिक समानता रहेगी तो समाज में हिंसा कम होगी, अहिंसा का विकास होगा। एक ओर साम्यवादी विचारधारा के प्रवर्तक मार्क्स ने इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित किया तो दूसरी ओर अहिंसा के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी ने भी इस विषय पर चिन्तन-मंथन किया । मासं अहिंसा की दृष्टि से मुख्य चिन्तन-धारा में नहीं थे। गांधी के पास अहिंसा के चिन्तन के अलावा कोई विकल्प नहीं था किन्तु दोनों का चिन्तनबिन्दु एक रहा और वह है आर्थिक समानता । इस बिन्दु पर गांधी और मार्क्स-दोनों ने विचार किया, आर्थिक समानता की दो प्रणालियां प्रस्तुत हो गईं। प्रश्न आर्थिक समानता का गांधी की प्रणाली रही ट्रस्टी शप की और मार्क्स की प्रणाली का आधार था–व्यक्तिगत स्वामित्व की समाप्ति । साम्यवाद ने प्रयोग किया व्यक्तिगत स्वामित्व को समाप्त करने का और गांधी ने प्रयोग किया ट्रस्टीशिप का। किन्तु लगता है, दोनों ही प्रयोग सफल नहीं हुए। आर्थिक समानता का प्रश्न बड़ा जटिल है। यदि हम विधायक रूप में चलें तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है । समानता का अर्थ क्या है ? यांत्रिक समानता या आर्थिक समानता ? समानता का आधार क्या हो ? एक परिवार में दो लड़के हैं और एक परिवार में आठ लड़के हैं। समानता क्या काम आएगी? समानता का अर्थ है--सबके पास समान धन और समान साधन । एक परिवार में केवल पति-पत्नी-दो ही सदस्य हैं और एक परिवार में दस से अधिक सदस्य हैं। इस स्थिति में आर्थिक समानता का प्रश्न कहां टिकेगा ? इस प्रणाली के सामने इतनी उलझनें आई कि व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमाकरण की बात सफल नहीं हो पाई। व्यक्तिगत स्वामित्व को बंद करने का परिणाम आया- अर्थ की प्रेरणा कम हो गई, कमाने की प्रेरणा कम हो गई। आज उसे भी बदलना पड़ रहा है। ट्रस्टीशिप वाली बात जनता के गले ही नहीं उतरी। जो बने, मालिक बने, संरक्षक कोई बना ही नहीं । बड़े-बड़े उद्योगपति तथा जो गांधीजी के निकट रहने वाले थे, उन्होंने अपने लिए इसका उपयोग किया। उद्योग चले, मिले चलीं। ऐसे मालिक और संरक्षक बने कि अपने लिए लाखों-करोड़ों की लागत के गेस्ट हाऊस और बंगले बना लिए, मजदूरों के लिए झोंपड़ियां भी पूरी नहीं बनीं । आर्थिक समानता के संदर्भ में ट्रस्टीशिप की बात भी सफल नहीं हुई। अपरिग्रह : इच्छा-परिमाण हमें मूल बिन्दु को पकड़ना होगा । भगवान् महावीर की वाणी में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रहः परमो धर्मः ६१ वह बिन्दु उपलब्ध होता है। यदि हम विधायक रूप में आर्थिक समानता की बात करेंगे तो इस समस्या का समाधान नहीं होगा। हम निषेध के द्वारा इस समस्या को समाधान दे सकते हैं। कहीं-कहीं निषेध बहुत काम का होता है। सब जगह विधायक बात सफल नहीं होती। अहिंसा की व्याख्या विधायक रूप में करें तो बड़ी उलझने हैं। अपरिग्रह की व्याख्या भी विधायक रूप में करें तो उलझने कम नहीं हैं। हमें निषेध से चलना होगा। किसी को मत मारो', एक गृहस्थ के लिए यह अहिंसा को सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। 'इच्छा का परिमाण करो', एक गृहस्थ के लिये यह अपरिग्रह की सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। गृहस्थ का अपरिग्रह मुनि का अपरिग्रह नहीं है । गृहस्थ के लिए है-इच्छा-परिमाण । इच्छा. परिग्रह और आरंभ . महावीर बहुत गहराई में जाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने यह नहीं कहा---पदार्थ का परिमाण करो, पदार्थ की सीमा करो। उन्होंने यह भी नहीं कहा-इतना धन मत रखो। महावीर ने कहा-इच्छा का परिमाण करो। इच्छा, परिग्रह और आरंभ का एक चक्र है । इच्छा अल्प होगी तो प.रेग्रह और आरंभ अल्प होगा। जब तक इच्छा को नहीं पकड़ेंगे तब तक न व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमाकरण की बात सफल होगी, न ट्रस्टी शप की बात सफल होगी। इन दोनों सूत्रों की सफलता तभी संभव है, जब इनकी पृष्ठभूमे में इच्छा के सीमाकरण का सूत्र हो । इच्छा को ज्यादा बढ़ाना अच्छा नहीं है, यह बात समझ में आने पर ही अमरग्रह का सिद्धान्त समझ में आ सकता है । भीतर में इच्छा प्रबल है तो बाहर का उपदेश बहुत काम नहीं देगा। भीतर इच्छा का ऐसा ज्वार उठता है, बाहरी उपदेश कहीं धरा रह जात है, आदमी ज्यादा परिग्रह जुटाने में लग जाता है। जब तक यह द्वन्द्व नह मिटेगा, तब तक समस्या का समाधान नहीं होगा। महावीर ने कहाइच्छा कम नहीं है, परिग्रह और संग्रह ज्यादा है। इस अवस्था में न तप है सकता है, न संयम हो सकता है । इच्छा तप, नियम और संयम-सबकं समाप्त कर देती है। उलझा हुआ प्रश्न आज भी परिग्रह और अपरिग्रह का प्रश्न, आर्थिक समानता औ विषमता का प्रश्न बहुत उलझा हुआ है। यदि धर्म इस समस्या का समाधा नहीं दे सकता है तो शायद दूसरा कोई भी इस समस्या का समाधान देने । समर्थ नहीं है। यदि धर्म इस समस्या का समाधान नहीं देता है तो व अपने कर्तव्य कहां तक निर्वाह करता है, यह भी एक प्रश्न है। आर्थि समस्या को समाधान देना बहुत जटिल है। अहिंसक समाज रचना का प्रश् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अस्तित्व और अहिंसा लम्बे समय से चल रहा है किन्तु अहिंसक समाज रचना अपरिग्रह की समाज रचना के बिना कभी संभव नहीं है । हम एक बिन्दु को पकड़ें। भगवान् महावीर के दो सूत्र – इच्छापरिमाण और भोगोपभोग परिमाण - आर्थिक समस्या को समाधान दे सकते हैं । जब तक इच्छा और भोग का संयम नहीं होगा, तब तक न अहिंसक समाज संरचना का सपना साकार होगा और न ही आर्थिक समस्या सुलभ पाएगी। वर्ग संघर्ष की क्रान्तियां, हिंसक क्रान्तिया इसीलिए होती हैं कि व्यक्ति लोभी और स्वार्थी बन जाता है, केवल अपने भोगोपभोग की ही चिन्ता करता है, संग्रही और परिग्रही बन जाता है । वह अपने आस-पास की ओर ध्यान ही नहीं देता । यह स्थिति ही क्रान्ति को जन्म देती है । आर्थिक विकास : आर्थिक संयम आर्थिक व्यवस्था का सबसे बड़ा सूत्र हो सकता है— पूरे समाज की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो जाएं। रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और शिक्षा के साधन प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ हो जाएं। आर्थिक समानता की बात छोड़ दें । सब व्यक्तियों का कमाने का अलग-अलग ढंग होता है, व्यावसायिक कौशल होता है । कोई अधिक कमाता है और कोई कम । आर्थिक समानता का यांत्रिकीकरण नहीं हो सकता । सब लखपति हों, यह कभी संभव नहीं है | इतना हो सकता है— जीवन की प्रारंभिक और मौलिक आवश्यकताएं सबको समान रूप से मिले । अपनी-अपनी विशेष योग्यता से व्यक्ति लाभ कमाए, उसमें दूसरों को आपत्ति न हो । रस्किन और गांधी का मत था -- एक न्यायाधिकारी को जितना मिले, उतना ही एक वकील को मिले । इसका मतलब है, जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, उतना तो अवश्य मिले। यह बात भी तब तक सफल नहीं हो सकेगी, जब तक आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक संयम और भोगोपभोग के संयम की बात नहीं जुड़ेगी । दो बातें और जुड़े समस्या यह हुई, आर्थिक विकास पर बहुत बल दिया गया, अधिक उत्पादन, अधिक आय और समान वितरण - इन पर बहुत ध्यान दिया गया, किन्तु इनके साथ दो बातों को जोड़ना चाहिए था – आर्थिक संयम और इच्छा का संयम । इनको नहीं जोड़ा गया । परिणाम यह आया, आर्थिक समस्या सुलझ नहीं पाई । इस बिन्दु पर कहा जा सकता है, धर्म के बिना समाज की व्यवस्था लड़खड़ा जाती है । अगर इन दोनों का योग होता, आज के अर्थशास्त्री आर्थिक विकास के साथ संयम की बात को जोड़ देते तो एक नया समीकरण बनता । इच्छा-संयम और भोग-संयम के साथ आर्थिक विकास Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रहः परमो धर्मः ६३ का प्रश्न जुड़ा होता तो गरीब और अमीर के बीच इतना अंतर नहीं होता, समाज को नए ढंग से सोचने का मौका मिलता, अर्थ और परिग्रह की समस्या भयंकर नहीं बनती । हम भारत के बड़े शहरों को देखें । एक ओर आसमान को छूती अट्टालिकाएं खड़ी हैं तो दूसरी ओर ऐसी झुग्गी-झोंपड़ियों की कतारें लगी हैं, जिनको देखकर आदमी का मन वितृष्णा से भर जाता है । जटिल है परिग्रह की समस्या क्या यह अंतर मिट सकता है ? क्या इस स्थिति में आर्थिक समानता की बात सफल हो सकती है ? हम देखते हैं, एक ओर अनेक संभ्रांत व्यक्ति शादी-ब्याह में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर देते हैं, दूसरी ओर लाखों-करोड़ों लोग भूख से पीड़ित हैं । यह कितनी भयानक स्थिति है । कहां इच्छापरिमाण की बात और कहां अपरिग्रह की बात । अपरिग्रह की बात करने में भी संकोच होता है । हिन्दुस्तान में सैकड़ों उद्योगपति हैं, हजारों-लाखों व्यापारी हैं । उनमें बहुत सारे ऐसे हैं, जिन्होंने अपने जीवन में इच्छा-परिमाण या भोगोपभोग के संयम का स्वर सुना ही नहीं होगा । वे एक ही बात जानते हैं -- खूब कमाना, खूब भोगना और शादी-ब्याह में खुले हाथ लुटाना । हिंसा से भी अधिक जटिल है परिग्रह की समस्या । वर्तमान समस्या को देखते हुए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है । 'अहिंसा परमो धर्मः' के साथ-साथ 'अपरिग्रह: परमो धर्म:' इस घोष का प्रबल होना जरूरी है । अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया । उसे वापस जोड़कर ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं । जिस दिन 'अहिंसा परमो धर्म:' के साथ 'अपरिग्रह परमो धर्मः' का स्वर बुलन्द होगा, आर्थिक समस्या को एक समाधान उपलब्ध हो जाएगा । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ११ • भोगामेव अणुसोयंति ० तओ से एगया रोग - समुप्पाया समुप्पज्जंति • जेण सिया तेण णो सिया • एवं पास मुणी ! महब्भयं । • चिन्तन भोग का • तनाव कामना का • भोगवादी युग क्यों ? ● अवस्था अभोग की • भोग : तीन चिन्तन संकलिका • उन्मुक्त भोग : परिणाम • बीमार ही बीमार होता है। स्वस्थ कभी बीमार नहीं होता • बीमारी : कारण • भोग : रोग • अपेक्षित है सन्तुलन आसक्ति कितनी है ? भोग की मात्रा कितनी है दृष्टिकोण कैसा है ? • खतरनाक है उच्छृंखल भोगवाद • भोग : दो तत्त्व--- (आयारो ३ / ७६, ७५, ८८, ६ अनासक्ति का भाव मात्रा का विवेक । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास मन का काम है सोचना, चिन्तन करना । वह अपना काम करता है । हमें अपना सर्वे करना चाहिए, अपना आत्मावलोकन करना चाहिए। हम आत्म-निरीक्षण करें-चौबीस घंटों में मन किस विषय पर ज्यादा सोचता है ? जागृत अवस्था में किस विषय पर ज्यादा सोचता है ? नींद की अवस्था में किस विषय पर ज्यादा सोचता है? सामान्यतः एक व्यक्ति छहः-सात घंटे सोता है। वह सतरह-अठारह घंटे जागृत अवस्था में रहता है। हम नींद की बात छोड़ भी दें, जागृत अवस्था का सर्वेक्षण करें---मन मुख्यतः किस विषय पर केन्द्रित रहता है ? यह प्रश्न अपने आपको जगाने वाला प्रश्न हो सकता है। यह प्रश्न व्यक्ति को यह बोध दे सकता है कि वह किस दिशा में जा चिन्तन : केन्द्र और परिधि महावीर ने कहा-मनुष्य भोग के बारे में सबसे अधिक चिन्तन करता है। व्यक्ति ऑफिस में बैठा है। चाय पीने का समय होता है। उसका मन चाय में उलझ जाता है। भोजन का समय होता है, मन भोजन में उलझ जाता है । कभी टी.वी. देखने का समय हो जाता है और कभी अखबार पढ़ने का समय । व्यक्ति इन सबमें अपने आपको उलझाता चला जाता है। पांचों इन्द्रियों के विषय उसके सामने घूमते रहते हैं। जब वह इन्द्रियों की दौड़ से थक जाता है तब मन की दौड़ शुरू हो जाती है। 'भोगामेव अणुसोयंति' यह कितनी अनुभव भरी वाणी है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य में सबसे ज्यादा तनाव है कामना का। इसका निष्कर्ष भी यही है-मनुष्य सबसे ज्यादा चिन्तन भोग का करता है । वह पैसा कमाता है भोग के लिए। और भी जो कुछ करता है, भोग के लिए करता है। केन्द्र में है भोग । केन्द्र में है काम और कामना । उसकी परिधि में हमारा सारा चिन्तन चलता है । ऐसा लगता है---भोग मनुष्य की एक प्रकृति बन गया है। भोग : प्राचीन अवधारणा ____ आज के युग को भोगवादी युग कहा जाता है। क्या अतीत बहुत त्यागवादी रहा है ? यह कहना बड़ा मुश्किल है कि अतीत के युग में भोग नहीं था, भोग करने वाले नहीं थे, कोरा वैराग्य था, त्याग था। ऐसा होना सम्भव भी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा ६६ नहीं है । यह सचाई है, अतीत में भोग रहा है, प्रबल भोगवाद रहा है । प्रश्न है- आज के युग को ही यह दोष क्यों दिया जा रहा है ? क्यों आरोपण किया जा रहा है कि यह भोगवादी युग है ? इसका कारण क्या है ? इसका भी एक कारण है । शब्द का कोई भी प्रयोग अकारण नहीं होता । प्राचीन काल में भी भोग था । जब से मनुष्य है तब से भोग है । पहले भोग था. किन्तु युग भोगवादी नहीं था । उस समय पर्याप्त अंकुश था, नियंत्रण था । 'धारणाएं भिन्न 'थीं । संयम का वातावरण था । इन दो शताब्दियों में, मुख्यतः इस शताब्दी M में भोग के बारे में धारणाएं बदल गई । जब धारणा बदलती है, दृष्टिकोण - बदलता है, युग का नाम भी बदल जाता है । पुराना युग भोग का होने पर भी भोगवादी नहीं कहलाया, क्योंकि भोग को एक विवशता माना गया, अनावरणीय माना गया । भोग : अभोग भोग के संदर्भ में एक स्थिति है अभोग की । कोई आदमी उसका प्रयोग ही नहीं करता । व्यक्ति ने उपवास किया, अभोग हो गया । खाया ही नहीं, त्याग हो गया । भोग के संदर्भ में तीन बातों पर बार-बार ध्यान देना चाहिए। पहली बात है—भोग के पीछे आसक्ति की मात्रा कितनी है ? दूसरी बात है—भोग की मात्रा कितनी है ? तीसरी बात है— आदमी जो 'भोग करता है, शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करता है, उसके पीछे धारणा क्या है ? दृष्टिकोण कैसा है ? आसक्तेः कियती मात्रा, मात्रा भोगस्य कीदृशी । दृष्टिकोणः किंप्रकारः, भोगे चिन्त्यमिदं मुहुः ॥ भोगवाद परिणाम भोग के साथ जो आज भोग के बारे में दृष्टिकोण बदल गया । 'भोगातीत चेतना की एक अवधारणा थी, वह आज नहीं है। जहां भोग है वहां उसके साथ भोगातीत चेतना भी होनी चाहिए। आज यह दृष्टिकोण ही बदल गया, मूल दृष्टि ही नहीं रही, केवल भोगवाद चल रहा है । उच्छृंखल 'भोगवाद, उन्मुक्त भोगवाद के सिवाय कुछ लगता ही नहीं है । इसका परिणाम है, आज बीमारियां बहुत बढ़ गई हैं। अगर भोग के साथ भोगातीत चेतन का विकास होता तो इतनी बीमारियां नहीं बढ़तीं । यह आज का एक विकल प्रश्न है । बहुत बार डॉक्टर भी कहते हैं, इतने अस्पताल बढ़ते जा रहे हैं उन सब में मरीजों की भीड़ है । कहीं भी स्थान खाली नहीं है दवाइयां बनाने वाली इतनी बड़ी-बड़ी कम्पनियां बन गईं फिर भी न डॉक्ट को फुरसत है, न दवा देने वालों को फुरसत है, न दवा लेने वालों को फुरस है । चारों और रोग का एक चक्का चल रहा है । इसका कारण क्या है ? 1 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास सीमा के अतिक्रमण का अर्थ ___ हम महावीर की वाणी को पढ़ें। महावीर ने कहा--भोग काल में रोग पैदा होते हैं। संस्कृत कवि ने भी यही कह दिया--भोगा रोगफला भोग का फल है रोग। इस बात को बहुत कम पकड़ा गया---इन्द्रियों का भोग एक सीमा तक ही उचित हो सकता है। सीमा के अतिक्रमण का अर्थ है रोग को खुला निमन्त्रण । बहुत सारे शारीरिक और मानसिक रोग इसी कारण से पैदा होते हैं । यदि राग या द्वेष भीतर छिपा है तो बीमारियों को पनपने का मौका मिलेगा । यदि राग और द्वेष नहीं है तो बीमारियों को पनपने का मौका सहज नहीं मिलेगा। चलते समय पत्थर की चोट लग गई, कांटा चुभ गया, हम उसे रोग न मानें । यह कोई मुख्य बीमारी नहीं है। वर्षा हुई, जुकाम लग गया, यह कोई खास बीमारी नहीं है। बीमारी वह होती है, जो सताने वाली होती है। जो बीमारी घर जमा कर बैठ जाती है, वह बीमारी है । हृदय रोग, कैंसर, अल्सर आदि-आदि जो बीमारियां हैं, वे हमारे राग एवं द्वेष से उत्पन्न हुई बीमारियां हैं, भोग के कारण उपजी हुई बीमारियां हैं । पहले डॉक्टर बीमार को सीधे देखकर जान लेते थे कि कौनसा रोग है लेकिन अब यह सोचा जाता है.-कौन व्यक्ति किस बीमारी से बीमार है । लय बिगड़ने से बीमारी बिगड़ती है। लय को संवारना बड़ा कठिन होता है। जितनी मोहकर्म की प्रकृतियां हैं, वे हमारे मस्तिष्क की स्वाभाविक लय में बाधा पहुंचाती हैं । मन में कोई भी विचार की तरंग उठती है, मस्तिष्क की लय बिगड़ जाती है, उसमें बाधा आ जाती है । कौन होता है बीमार ? यह एक तथ्य है, जो बीमार होता है, उसे बीमारी होती है। पूछा गया-नारकी में कौन पैदा होता है ? मनुष्य पैदा होता है या तिर्यञ्च ? कहा गया—नारकी में न मनुष्य पैदा होता है, न तिर्यञ्च पैदा होता है। नारकी में मनुष्य कभी जाता ही नहीं, देवता पैदा होता ही नहीं। नारकी में नैरेयिक ही पैदा होता है। प्रश्न है--बीमारी किसको पकड़ती है ? कहा गया, बीमार को ही बीमारी पकड़ती है। स्वस्थ को बीमारी कभी नहीं पकड़ती। यह बात बहुत वैज्ञानिक है। हम इस दृष्टि से देखें। एक जैविक रासायनिक शृंखला होती है, रोग-प्रतिरोधक शक्ति होती है, वह रोग से बचाती है । जिस व्यक्ति की रोग-निरोधक शक्ति कमजोर हो जाती है, उसे रोग घेर लेते हैं। जो व्यक्ति जितना भोग करेगा, उसकी उतनी ही रोग-निरोधकता कम होती चली जाएगी। कौनसी बीमारी के कीटाणु हैं, जो हमारे भीतर नहीं हैं ? सब बीमारियों के कीटाणु आदमी के भीतर घम रहे हैं किन्तु उसकी रोग-निरोधक शक्ति प्रबल है इसलिए वे कीटाण आक्रमण Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा नहीं कर पा रहे हैं । रोग-निरोधक शक्ति इतनी तेज है कि वह सारे कीटाणुओं को समाप्त कर देती है। भोग और रोग बन्धन किसके होता है ? जो बंधा हुआ है, उसके बन्धन होता है। जो मुक्त हो गया, उसके बन्धन नहीं होता। रोग उसी के पास जाते हैं, जो रोगी होता है । जो अरोगी है, उसे रोग नहीं होता । बद्ध कर्माणि बध्नति, रोगो गच्छति रोगिणाम् । अबद्धो न भवेद् बद्धः, विरागो नामयास्पदम ॥ रोग पैदा होते हैं क्योंकि भोग का रोग भीतर बैठा है। अगर भोग का रोग नहीं है तो रोग नहीं होगा। यदि व्यक्ति भोगी है तो वह रोगी है। अगर व्यक्ति भोगी नहीं है तो वह रोगी नहीं है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि जहां भी रोग है वहां निश्चित रूप से किंचित् मात्रा में भोग भी योग दे रहा है, अपना काम कर रहा है। अगर भोग नहीं होता तो रोग होता ही नहीं । रोगी ही बार-बार रोगी होता है लेकिन जो रोगी नहीं है, उसे रोगी बनाया ही नहीं जा सकता । प्रलय का सूत्र हमारा भोगवाद के प्रति दृष्टिकोण बदले । हमारे लिए भोग अनिवार्य है, ओवश्यक है, हम खुले दिल से भोग करें, यह धारणा जिस दिन बन जाती है, रोग को निमंत्रण मिल जाता है। आज भोगातीत चेतना के विकास की जरूरत है और वह इसलिए है कि आदमी अच्छा जीवन जीना चाहता है । मैं यह नहीं मानता कि दुनिया में भोग मिट जाएगा, भोग नहीं चलेगा किन्तु भोग के साथ भोगातीत चेतना का विकास भी चले, यह अपेक्षित है। यानी त्याग की चेतना, भोग-संयम की चेतना का विकास भी होना चाहिए । यदि कोरा भोग चलता रहा तो खतरा बढ़ जाएगा। अणुबम से ज्यादा प्रलयंकारी बन जाएगा यह उच्छृखल भोगवाद । अणुबम न जाने कब प्रलय करेगा किन्तु यह भोगवाद अपने आप प्रलय का सूत्र बन जाएगा। आवश्यक है अंकुश हम वर्तमान स्थिति को देखें। आज हिन्दुस्तान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। विदेशों की स्थिति इससे भी ज्यादा खराब है। इतनी समस्याएं, इतनी जटिलताएं और इतना मानसिक संताप बढ़ रहा है कि व्यक्ति को कहीं कुछ सूझ नहीं रहा है, उसे कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है। इसका कारण है भोगवाद को सब कुछ मान लेना। ऐसा लगता है संयम करने की बात जैसे सिखाई ही नहीं गई है। इस संदर्भ में हम महावीर वाणी का मूल्यांकन करें। समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है—भोग की अति न Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास हो । प्रत्येक चीज की सीमा होनी चाहिए, अंकुश होना चाहिए, नियन्त्रण होना चाहिए । जहां कहीं अति होती है शायद खराबी पैदा हो जाती है । कुछ लोग तर्क देते हैं--त्याग की भी अति नहीं होनी चाहिए। प्रश्न है---अति कहां होती है ? इन्द्रियों का भोग कौन नहीं करता? क्या एक मुनि इन्द्रियों का भोग नहीं करता ? एक मुनि खाता भी है, देखता भी है, सुनता भी है, सूंघता भी है, छूता भी है । इन्द्रियों का भोग होता है किन्तु उसके पीछे दो बातें जुड़ी हुई हैं-एक है अनासक्ति का भाव और दूसरी है मात्रा का विवेक । यदि भोग के साथ में ये दो बातें जुड़ जाएं तो भोग खतरनाक नहीं बनेगा । वह अपनी प्रकृति से चलेगा, व्यक्ति के लिए खतरा पैदा नहीं करेगा। त्याग करना भी सीखें आज भोगवाद की कोई सीमा-रेखा नहीं है इसीलिए इस युग को भोगवादी युग कहा जा रहा है। आज यह धारणा मिट गई कि भोग के साथ त्याग की भावना होनी चाहिए। पांच इन्द्रियों के विषय का सेवन करें तो साथ में उनका त्याग करना भी सीखें । भोग की अति न हो। भोग का संयम करें। भोग के साथ भोगातीत चेतना का अनुभव करें, यह आवश्यक है । हमारी जो चेतना है, वह स्वभाव से भोगातीत है, हम उसका अनुभव करें, उसे देखें । यदि हम भोग-चेतना और भोगातीत चेतना-इन दोनों का संतुलन बना पाए तो जीवन की स्थिति लय-बद्ध बन जाएगी, जीवन की लय टूट नहीं पाएगी। इस सन्तुलन से जीवन की सरसता भी समाप्त नहीं होगी, जीवन स्वस्थ बना रहेगा। इस पूरे दृष्टिकोण को समग्रता से समझा जाए, भोगनियन्त्रण एवं भोग-संयम की आवश्यकता का अनुभव किया जाए तो स्वस्थ समाज की रचना का सपना सच बन जाए । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० लाभो त्ति ण मज्जेज्जा • अलाभो त्ति ण सोयए बहु पि लद्ध णं निहे परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा • अण्णहा णं पासह परिहरेज्जा ० o प्रवचन- १२ o • व्यक्तित्व के तीन वर्ग • जैसी घटना, वैसा भाव, ० चलने की पद्धति • अज्ञानी भोगता है: ज्ञानी जानता है उद्देश्य ज्ञाता और भोक्ता का o जानो, बहो मत • भोक्ता भाव : धर्म • मनोविज्ञान प्रवृत्ति का स्रोत- वंशानुक्रम परिवेश ० धर्म प्रवृत्ति का स्रोत संकलिका (आयारो २ / ११४-११८ ) वंशानुक्रम परिवेश वैसा रस • द्रष्टा बनें, भोक्ता नहीं • व्यवहार लोकोत्तर बन जाए • निर्णय का आधार आत्मिक या कार्मिक योग्यता Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टा का व्यवहार घटना एक और अनुभूतियां अनेक । एक ही प्रकार की घटना में भौतिकदृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता किन्तु आंतरिक या आध्यवसायिक दृष्टि से बहुत अन्तर होता है। स्थूल दृष्टि वाला व्यक्ति घटना को देखता है, अध्यवसाय को नहीं देख पाता। अध्यवसाय आंतरिक है इसलिए उसका पता नहीं चलता । घटना स्थूल होती है, वह हमें दिख जाती है । बहुत सारे निर्णय घटना के आधार पर लिए जाते हैं, आंतरिकता के आधार पर नहीं । मनोवैज्ञानिकों ने व्यवहार का बहुत विश्लेषण किया पर वे मन के स्तर तक ही पहुंच पाए। इससे आगे बहुत नहीं पहुंच पाए । मनोविज्ञान में चित्त कों भी पकड़ा गया है किन्तु चेतना के गहरे स्तरों की चर्चा धर्म के क्षेत्र में ही अधिक हुई है। भोक्ता : द्रष्टा मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के तीन वर्ग किए जाते हैं—सामान्य, असामान्य और विशिष्ट । अध्यात्म में एक दुसरा वर्ग भी है भोक्ता और द्रष्टा का। भोक्ता होता है घटना को भोगने वाला और द्रष्टा होता है घटना को जानने वाला । मनुष्य की सामान्य प्रकृति है घटना को भोगना । सामने दयनीय घटना घटती है, करुणा का भाव जाग जाता है। भयानक घटना घटती है, डर लगने लग जाता है। रौद्र घटना घटती है तो घणा का भाव पैदा हो जाता है। पौरुष की घटना होती है तो पराक्रम का भाव जाग जाता है। जैसी घटना घटती है, वैसा ही हमारा भाव बन जाता है और वैसा ही रस बन जाता है। इसी आधार पर श्रृंगाररस, वीररस, करुणरस, हास्यरस आदि-आदि रस बने। भावों के उद्दीपन से उनकी अभिव्यक्ति हुई । द्रष्टा का व्यवहार __आदमी घटना को देखता है और उसमें बह जाता है। यह सब मन का खेल है । जब तक आदमी मन के स्तर पर जिएगा तब तक यही होगा। हमारा एक स्तर है-मनोतीत, जहां मन के सारे खेल समाप्त हो जाते हैं। जब आदमी मन को पार कर चेतना की भूमिका में पहुंच जाता है तब ये सारी स्थितियां समाप्त हो जाती हैं। किसी को देखकर वीतराग को रोना नहीं आता। प्रश्न हो सकता है क्या वे क्रूर और निष्करुण हैं ? उनमें अहिंसा और मैत्री का अगाध प्रवाह बह रहा है पर मन के खेल समाप्त हो Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अस्तित्व और अहिंसा गए हैं इसीलिए मन के स्तर पर घटना का कोई प्रभाव नहीं होता। भगवान महावीर ने इस सचाई को एक सूत्र में व्यक्त किया-अण्णहा णं पासह परिहरेज्जा-जो पश्यक है, द्रष्टा है, वह भोग करेगा, सारे व्यवहार करेगा पर उसका व्यवहार दूसरों से भिन्न प्रकार का होगा। भोक्ता का व्यवहार एक व्यक्ति द्रष्टा नहीं है, भोक्ता है, वह मन के स्तर पर जिएगा । वह चल रहा है, सामने गाना सुनाई दिया, उसका दिमाग उसमें उलझ जाएगा, वह चलते-चलते ठोकर भी खा लेगा। कोई दुकान देखेगा, उसमें ठहर जाएगा। यदि कहीं लड़ाई हो रही है तो उसे देखने लग जाएगा, लड़ाई में भी भाग ले लेगा । जो घटना सामने आएगी, मन उसके साथ जुड़ जाएगा क्योंकि वह मन के स्तर पर जीता है किन्तु जो द्रष्टा है, वह इस प्रकार नहीं चलेगा। द्रष्टा के चलने की पद्धति यह है इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ति तप्पुरक्कारे, उवउत्ते ईरियं रिए । द्रष्टा इन्द्रियों के विषय तथा स्वाध्याय का वर्जन कर गति में तन्मय हो, उसे ही प्रमुख बनाकर चले । अंतर है दृष्टिकोण का द्रष्टा चलते समय पांचों इन्द्रियों से काम नहीं लेगा, केवल रास्ता देखने भर के लिए आंख से काम लेगा । वह चलते समय चिन्तन नहीं करेगा, स्मृति नहीं करेगा, कल्पना का अंबार नहीं लगाएगा। उसे जहां पहुंचना है, वहीं पहुंचेगा, किन्तु पूरे मार्ग में पूर्ण जागरूक बना रहेगा। द्रष्टा बोलता भी है, देखता भी है, खाता भी है, सोता भी है किन्तु उसके ये सारे कार्य वैसे नहीं होते जैसे मन के खेल खेलने वाला करता है। एक सामान्य आदमी भी वस्त्र पहनता है और एक द्रष्टा भी किन्तु दोनों की दृष्टि में अन्तर रहेगा। एक प्रसिद्ध वाक्य है--अज्ञानी आदमी भोगता है, ज्ञानी आदमी जानता है, देखता है । अज्ञानी आदमी कपड़ा पहनता है इसलिए कि अच्छा लगे । वह अपने आपको सुन्दर दिखाने के लिए, सजाने के लिए कपड़े पहनता है । ज्ञानी व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होगा। वह कपड़े पहनेगा लज्जानिवारण के लिए, सर्दी और गर्मी के निवारण के लिए। जो व्यक्ति थोड़ा ऊपर उठ जाता है, वह कपड़ों पर बहुत ध्यान नहीं देता। भोक्ता की सारी शक्ति भोग की बातों को प्राप्त करने में ही खप जाती है । चेतना का विकास करने का उसे अवकाश ही नहीं मिलता। जो व्यक्ति भोग से परे की चेतना में चला जाता हैं, मन के खेल से परे चला जाता है उसका दृष्टिकोण और व्यवहार बदल जाता है। साधारण आदमी सोचता है-मैं कैसा दिख रहा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टा का व्यवहार ७३ हूं ? कैसा लग रहा हूं ? लोग मुझे क्या कहेंगे? द्रष्टा की भूमिका पर पहुंच जाने पर ये सारी बातें समाप्त हो जाती हैं। अध्यात्म का सूत्र सामान्यतः हम मन की बहुत चिन्ता करते हैं इसीलिए द्रष्टा नहीं बन पाते । वस्तुतः मन की उतनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए जितनी कि हम कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य होना चाहिये द्रष्टा बनने का। कौन व्यक्ति क्या कहेगा ? अमुक व्यक्ति मेरे बारे में क्या सोचेगा? दुनिया क्या कहेगी ? आदि आदि कल्पनाएं द्रष्टा की भूमिका उपलब्ध होने पर कमजोर पड़ जाएंगी। अनेक व्यक्ति इस डर से अच्छा कार्य नहीं करते । वे सोचते हैंइस कार्य को करेंगे तो दूसरे व्यक्ति क्या कहेंगे? इस आशंका से अच्छे कार्य का प्रारम्भ ही नहीं कर पाते। भोक्ता या भोगने वाला व्यक्ति ही इस मनोवृत्ति से ग्रस्त होता है । अध्यात्म द्रष्टा होने का सूत्र है । अध्यात्म का सूत्र है-घटनाओं, परिस्थितियों को जानों किन्तु उनमें मत बहो, उन्हें मत भोगो। जितना भोक्ता-भाव कम होगा उतना ही ज्यादा धर्म जीवन में उतरेगा। जितना भोक्ता-भाव ज्यादा होगा, उतना ही जीवन में धर्म कम उतरेगा। व्यवहार का स्रोत बहुत कठिन है मन से परे होना। सामान्य आदमी मन को बहुत मानकर चलता है। वह ध्यान करेगा तो भी मन के स्तर पर करेगा। ध्यान का प्रारम्भ मन के स्तर पर हो सकता है किन्तु आखिर मन से परे पहुंचना है । जब तक व्यक्ति मन को साथ लिए चलेगा तब तक वह परिस्थितियों को भोगता रहेगा। मनोविज्ञान के अनुसार हमारी प्रवृत्ति और व्यवहार का एक स्रोत है--वंशानुक्रम । जैसा वंशानुक्रम होता है, जैसी शरीर की रचना होती है, मनुष्य का आचरण और व्यवहार भी वैसा ही होता है। बड़ा कारण है जीन । जैसा जीन होता है, वैसी ही शारीरिक और मस्तिष्कीय रचना होती है और वैसा ही व्यवहार होता है। व्यवहार का दूसरा स्रोत है परिवेश । जैसा वातावरण या परिवेश मिलता है, व्यक्ति वैसा बन जाता है । मनोविज्ञान में इन दो तत्त्वों के सन्दर्भ में ही मनुष्य के व्यवहार की व्याख्या की गई। तीसरी बात, जो मुख्य थी, उसे छोड़ दिया गया । वंशानुक्रम भी कारण बनता है, परिवेश भी कारण बनता है किन्तु व्यक्ति के अस्तित्व को बिलकुल नकार दिया गया। यदि आत्मवादी दर्शन होता तो तीन बाते सामने आतीं—आत्मा की अपनी क्षमता, वंशानुक्रम और परिवेश । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अस्तित्व और अहिंसा व्यवहार : कारक-तत्त्व हमारे व्यवहार के ये तीन कारक-तत्त्व हैं-आत्मिक या कामिक योग्यता, वंशानुक्रम और परिवेश । मनोविज्ञान को पढ़ने वाला दो कारणों को जानता है किन्तु तीसरे कारण को नहीं जानता। एक ही घटना या परिवेश पर दो प्रकार की व्यवहार की प्रणालियां मिलती हैं । उसका कारण आंतरिकता से जुड़ा हुआ है। एक आदमी घटना पर एक प्रकार का व्यवहार करता है, दूसरा आदमी दूसरे प्रकार का व्यवहार करता है। इसका कारण क्या है ? किसी व्यक्ति ने गाली दी। एक आदमी उसे सुनकर क्रोध में आ जाता है, उत्तेजित हो जाता है। दूसरा व्यक्ति गाली सुनकर भी प्रसन्न बना रहता है। परिवेश और घटना एक है पर व्यवहार अलग-अलग है। ये हमारी चेतना की अलग अलग भूमिकाएं हैं। एक आदमी बहुत छोटी बात में उलझ जाता है, द्रष्टा नहीं रह पाता या वह पर-दूसरे को देखकर चलता है । जहां व्यक्ति द्रष्टा बन जाता है, वहां पर या दूसरा जैसी बात समाप्त हो जाती हैं। संदर्भ भोजन का एक साधु भी खाता है और एक गृहस्थ भी खाता है। पारिभाषिक शब्दावली से हटकर कहें—एक भोक्ता भी खाता है, एक द्रष्टा भी खाता है । घटना एक है पर दृष्टिकोण अलग अलग हैं। द्रष्टा खाएगा जीवन-यापन के लिए, प्राण-धारण के लिए और संयम का निर्वाह करने के लिए। उसके खाने के पीछे मनोवृत्ति होगी-शरीर को पोषण देना है, गाड़ी को खंजन लगाना है, जिससे यह गाड़ी चल सके। खाने का दृष्टिकोण बदल गया, अध्यवसाय बदल गया । भीतर में खाना नहीं है, कुछ और है। बाहर घटना है खाने की और भीतर घटना है संयम की। एक सामान्य आदमी खाता है स्वाद के लिए, हृष्ट-पुष्ट बनने के लिए । खाने के पीछे उसका दृष्टिकोण होता है-मैं अच्छा दिखाई दूं, रंग गोरा लगे, शरीर अच्छा लगे । वह इन सारी बातों की परवाह करता है किन्तु वह यह नहीं सोचतो-खाने का परिणाम क्या होगा ? यह भोजन उत्तेजना तो नहीं बढ़ाएगा? कार्टिजोन की मात्रा तो ज्यादा नहीं बढ़ेगी ? हमारा एक संबन्ध है-हाइपोथेलेमस, पिच्युटरी, एड्रीनल और एड्रीनल से कार्टिजोन-यह एक शृंखला है । कार्टिजोन की मात्रा बढेगी, तो कामवासना तीव्र हो जाएगी। इसकी मात्रा कम होगी तो कामउत्तेजना कम हो जाएगी। निर्देश का अर्थ ___ महावीर ने मुनि के लिए विधान किया—वर्ण को विशिष्ट करने और सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए मुनि भोजन न करे, दवा न ले। वह बीमारी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टा का व्यवहार ७५ मिटाने के लिए दवा ले सकता है किन्तु वर्ण और कांति बढ़ाने के लिए नहीं । यह मुनि के लिए निर्देश है । इसका अर्थ है-वह द्रष्टा रहे, भोक्ता न बने । यह एक भेद-रेखा खींचने वाला सूत्र है । महावीर ने यह कभी नहीं कहातुम कपड़े मत पहनो । साधना में जैसे सुविधा हो, चाहो तो कपडा पहनो, न चाहो तो मत पहनो । मुनि चाहे तो भोजन करे, चाहे तो उपवास करे । अनिवार्य है एक दिन उपवास करना, संवत्सरी को उपवास करना, और कोई अनिवार्यता नहीं, किंतु वह जो करे, उसे द्रष्टा-भाव से करे, जागरूकता से करे। आत्मा की भूमिका का स्पर्श करें द्रष्टा होने का मतलब है-व्यवहार अलौकिक बन जाए, लोकोत्तर बन जाए । लोकोत्तर व्यवहार होगा तो अध्यवसाय शुद्ध होगा, जागरूकता से परिपूर्ण होगा । लौकिक व्यवहार के साथ अध्यवसाय नहीं जुड़ेगा, केवल घटना जुड़ेगी। जहां घटना मुख्य बन जाती है, वहां द्रष्टा-भाव नहीं रहता । मूल बात है हमारी दृष्टि सही बने, ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाये, हम केवल घटना पर न अटकें। घटना के आधार पर निर्णय लेना लौकिक चेतना का कार्य है । हम उससे आगे बढ़ें, लोकोत्तर चेतनो को जगाएं, जहां सामान्य, असामान्य और विशिष्ट--तीनों व्यक्तित्व नीचे रह जाते हैं । ज्ञाता-द्रष्टा का व्यवहार आत्मा की भूमिका पर चला जाता है। इस सारी चर्चा का निष्कर्ष है-केवल वंशानुक्रम या सामाजिक वातावरण के आधार पर ही सारे निर्णय न लें, इन दोनों के साथ आत्मा को जोड़ें । आत्मा को जानकर निर्णय लें। आत्मा क्या कहती है ? आत्मा का निर्णय क्या है ? भीतर का अध्यवसाय क्या है ? इन अध्यवसायों के साथ चलें तो अध्यात्म को एक नया आलोक मिलेगा, नई दष्टि मिलेगी। व्यवहार बदलेगा, व्यवहार जीवित होगा, व्यवहार में जितना असामंजस्य का क्रम चलता है, वह सारा समाप्त होगा। भोक्ता-भाव से द्रष्टा-भाव की दिशा में प्रस्थान सम्भव बन जाएगा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १३ | संकलिका • सुहछी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति । (आयारो २/१५१) • मज्झत्थो निज्जरापेही (आयारो ८/८/५) ० सुख : परिभाषाएं दुःख का अभाव सुख है वांछनीयता की अनुभूति सुख है अनुकूल वेदनीय सुख है अमूच्र्छा सूख है ० सुख : इन्द्रिय-संवेदन ० मूर्छा है भावात्मक अवरोध • दुःख पाता है दुःखी व्यक्ति ० भोग, पदार्थ और सुख ० नया ब्रह्मचर्य ० सुख का सूत्र ० अध्यात्म की निष्पत्ति मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ्य ० सुखी कौन ? ० अर्थ निर्जरापेक्षी का ० अनुभूत सत्य Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता है सुख, जाता है दुःख की दिशा में मनुष्य जो चाहे वह मिल जाए, यह संवादिता है, यथार्थ है । चाहे कुछ और मिले कुछ, यह विसंवादिता है, विपर्यास है। प्रत्येक प्राणी सुखार्थी है, वह केवल सुख चाहता है । सुख चाहे और सुख मिल जाए, यह संवादिता है। जैसी चाह वैसी प्राप्ति । सुख चाहे और दुःख मिल जाए, यह विसंवादिता है, विपर्यास है किन्तु ऐसा होता है । प्रश्न है—ऐसा क्यों होता है ? सुख और दुःख का प्रश्न शिष्य ने यही प्रश्न आचार्य से पूछा सुखं वांछति सर्वोऽपि, दुःखं कोऽपि न वांछति । सुखार्थ यतते लोको, दुःखं तथाऽपि जायते ।। सब प्राणी सुख चाहते है, दु:ख कोई नहीं चाहता। व्यक्ति सुख के लिए प्रयत्न करता है फिर भी उसे दुःख मिल जाता है। इसका कारण क्या आचार्य ने कहादुःखं मूर्छा मनुष्याणां, अमूर्छा वर्तते सुखम् । मूढो दुःखमवाप्नोति, अमूढः सुखमेधते ॥ मूर्छा दुःख है । सुख है अमूर्छ । मूढ व्यक्ति दुःख को प्राप्त करता है । जो मूढ नहीं है, वह सुख को प्राप्त करता है। सुख : अभावात्मक परिभाषा सुख और दुःख की एक परिभाषा है—मूळ दुःख है, अमूर्छा सुख है। सुख-दुःख की अनेक परिभाषाएं गढी गई। पश्चिम के नीति शास्त्रियों और भारत के अध्यात्मवेत्ताओं ने सुख-दुःख के सन्दर्भ में अनेक परिभाषाएं दी । एपीक्यूरस की एक परिभाषा है-दुःख का अभाव ही सुख है। यह अभावात्मक परिभाषा है । व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक पीड़ा नहीं है, वह कहता है-मैं मजे में हूं, बड़ा सुख है। यह दुःख के अभाव से उत्पन्न स्थिति है । किसी प्रकार का दुःख नहीं है इसलिए आदमी उसे सुख मानता है। वस्तुतः यह सुख की एक अपूर्ण परिभाषा है। क्या सुख अभावात्मक ही है ? क्या दुःख का न होना ही सुख है ? किसी व्यक्ति ने बगीचे में सुन्दर फूल देखा, उसका मन उल्लास से भर गया। वहां क्या दुःख का अभाव ही है ? वहां विधायक है सुख । अच्छा संगीत सुना, सुख मिला। यह क्या है ? क्या यह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा दुःख का अभाव है ? दुःख का अभाव सुख है, यह आंशिक सचाई ही हो सकती है । ७८ सुख : भावात्मक परिभाषा नीतिशास्त्री सिजविक ने सुख की परिभाषा की - वांछनीयता की अनुभूति का नाम सुख है । जो अनुभूति वांछनीय है, वह सुख हैं । यह भावात्मक परिभाषा है । हमें जो जो वांछनीय अनुभूतियां होती हैं, उन्हीं के बारे में हम चाहते हैं— पुनः ऐसा ही हो । यह हमारा सुख पक्ष है । ऐसी ही परिभाषा नैयायिक और वैशेषिक दर्शन में प्राप्त होती है - ' अनुकूल वेदनीयं सुखम्, प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्' जो अनुकूल वेदनीय है, वह सुख है । जो प्रतिकूल वेदनीय है, वह दुःख है । वस्तुतः सुख-दुःख की परिभाषा करते समय हमें चेतना को अनेक स्तरों में बांट लेना चाहिए। ऐसा किए बिना सुख को समग्रता से परिभाषित नहीं किया जा सकता । एक सुख है इन्द्रिय संवेदना का पांच इन्द्रियां हैं । उनके अनुकूल विषय मिलते हैं तो सुख होता है । इन्द्रिय संवेदन के आधार पर—अनुकूलं वेदनीयं सुखं – यह परिभाषा घटित हो सकती है किन्तु मानसिक एवं भावात्मक स्तर पर यह परिभाषा घटित नहीं हो सकती । सुखदुःख की बहुत सारी परिभाषाएं इन्द्रिय और मन के स्तर पर की गई, भावनात्मक स्तर पर उसकी बहुत कम परिभाषाएं की गई । इंद्रिय संवेदन और सुख हम इन्द्रिय स्तर की बात करें । एक आदमी अपने वातानुकूलित मकान में बैठा है । वह भोजन कर रहा है । उसकी थाली में रुचिकर पदार्थ परोसे हुए हैं । पत्नी पंखा झल रही है । सारा वातावरण अनुकूल है । खाते समय अनुकूल इन्द्रिय संवेदन हो रहा है, बड़े सुख का अनुभव हो रहा है । उसी समय एक फोन आया-पच्चास लाख का घाटा लग गया है । अव क्या होगा ? वे ही रुचिकर पदार्थ सामने हैं, सुख-सुविधा के साधन भी वे ही हैं, किन्तु इन्द्रिय संवेदन का सुख समाप्त हो गया । मन पर एक गहरा आघात लगा । जो पदार्थ, जो खाना सुख दे रहा था, वह जहर के समान लगने लगा । यह कैसे हुआ ? । जिस स्तर पर सुख का संवेदन था, दूसरा स्तर आते ही वह संवेदन समाप्त हो गया, दुःख का स्रोत फूट पड़ा व्यक्ति अपने दुःख से मूढ बन गया । घाटा कहीं लगा था किन्तु अपने भीतर मूर्च्छा थी, दुःख था । प्रकट हुआ, व्यक्ति अपने ही दुःख से मूढ बना, सुख के स्थान पर दुःख का साम्राज्य हो गया । वह Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता है सुख, जाता है दुःख की दिशा में ७६ महावीर की परिभाषा महावीर ने कहा---आदमी चाहता है सुख और जाता है दुःख की दिशा में । वह मूढ व्यक्ति अपने द्वारा कृत कर्म से विपर्यास को प्राप्त होता है, सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त करता है सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । हम इस आधार पर सुख और दुःख की परिभाषा करें। महावीर की वाणी के अनुसार सुख और दुःख की परिभाषा होगी-मूर्छा दुःखम्, अमूर्छा सुखम् । मूर्छा है दुःख, अमूर्छा है सुख । जहां मूर्छा प्रबल बनती है, इन्द्रिय का अनुकूल संवेदन भी दुःख में बदल जाता है, मानसिक संवेदन भी दुःख में बदल जाता है। मूर्छा है भावात्मक अवरोध । क्रोध, भय, ईर्ष्या, अहंकार--ये सब मूच्र्छा के प्रकार हैं। जहां-जहां मूर्छ आती है, आदमी दुःखी बन जाता है। मूर्छा के कारण आदमी दुःख का संवेदन करता है। दुःख का सबसे बड़ा कारण है मूर्छा । सुख का सबसे बड़ा कारण है अमूर्छा । मूर्छा और मोह मिटता है तो कभी विपर्यास नहीं होता। सुख-दुःख का सेतु आदमी चलता है सुख के लिए और दुःखी बन जाता है। प्रश्न हैऐसा क्यों होता है ? सुख और दुःख के बीच एक सेतु है, उसे पकड़ा नहीं गया । महावीर ने बहुत अच्छा सेतु बता दिया। एक ओर व्यक्ति सुखार्थी है, दूसरी ओर दुःख है । इसका कारण है—व्यक्ति अपने ही दुःख से मूढ बना हुआ है । अबद्ध को कोई बांध नहीं सकता, अदु:खी कोई दुःखी नहीं बना सकता । दु:खी व्यक्ति ही दु:ख को पाता है । व्यक्ति दुःखी है इसीलिए वह दुःख पाता है । व्यक्ति में सुख की लालसा जागती है दुःख को मिटाने के लिए किन्तु भीतर दुःख भरा हुआ है, वह सुख की ओर कैसे जा पाएगा ? हम इस सचाई को समझें । जब तक मूर्छा रहेगी, व्यक्ति दुःखी बना रहेगा । एक भाई ने कहा--मुझे डर बहुत लगता है। मोटर से यात्रा करता हूं, ट्रेन से यात्रा करता हूं तो लगता है—कहीं दुर्घटना न हो जाए। पुल पर चढ़ता हूं तो यह भय जागता है--कहीं पुल टूट न जाए, मैं गिर न जाऊं । वस्तुतः हम अपने ही डर से दुःखी बने हुए हैं, मूढ बने हुए हैं। नया ब्रह्मचर्य ___ जब तक मूर्छा को मिटाने या कम करने की बात नहीं सोची जाएगी तव तक हजारों-हजारों साधनों को पा लेने के बाद भी आदमी दुःखी बना रहेगा । यदि पदार्थों की उपलब्धि और भोग से व्यक्ति सुखी होता तो सबसे ज्यादा मुखी होते पश्चिमी देशों के नागरिक । अमेरिका, जापान, जर्मनी आदि देशों के नागरिक बहुत सुखी होते, जहां पदार्थों की कोई कमी नहीं है, धन की Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसाः नदियां बह रही हैं। अमेरिका में सेक्स के बारे में बहुत साहित्य प्रकाशित किया गया, काम-सुख के लिए अन्धाधुंध प्रचार किया गया किन्तु उसका परिणाम सुखद नहीं रहा। एक पुस्तक निकली-नया ब्रह्मचर्य । इसने अमेरिका में हलचल मचा दी। उसमें लिखा गया था-ब्रह्मचर्य से प्रसन्नता रहती है, शांति मिलती है। लोग उस पुस्तक को पाने के लिए बेचैन बन गए। उन्होंने केवल इन्द्रिय-संवेदन के आधार पर ही सुख को समझा था । इन्द्रियसंवेदन से परे भी सुख है, यह उनके लिए एक नई बात थी । अमूर्छा के स्तर पर, वीतरागता के स्तर पर, रागातीत चेतना के स्तर पर जो सुख होता है, उसके बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसी बात उन्हें सुनने को मिली, ऐसा लगा, आग की ज्वाला पर जल का अभिसिंचन हुआ है। व्यापक परिभाषा हमारे दार्शनिकों ने सुख की परिभाषा बहुत हल्के स्तर पर कर दी-- अनुकूलवेदनीयं सुखम् । यह भी कोई सुख है क्या ? अनुकूल वेदन के साथसाथ प्रतिकूल वेदन तैयार रहता है । प्रायः देखा गया है-अनुकूलता आती है तो साथ-साथ प्रतिकूलता भी प्रस्तुत रहती है। घर में धन बहुत है, पत्नी अनुकूल है, सब ठीक है किन्तु एक लड़का ऐसा पैदा हो गया, जिससे सब सुखों पर पानी फिर गया । मां-बाप का सुख गायब हो गया, वे चिन्तित बन गए। वे सोचते है-यह पैदा ही नहीं होता तो अच्छा था। जिनके पुत्र नहीं हैं, वे पुत्र के लिए रोते हैं और जिनके पुत्र हैं, वे भी रोते हैं। सुख-दुःख की व्यापक परिभाषा यही हो सकती है--अमूर्छा सुख है। मूर्छा दुःख है । इन्द्रिय-संवेदन भी तब तक होता है, जब तक मूळ गहरी नहीं होती। जब मूर्छा गहरी होती है, इन्द्रिय-संवेदन भी समाप्त हो जाता है। जो व्यक्ति खाने का ज्यादा लोलुप होता है, उसे खाने का स्वाद कभी नहीं आता। खाने का स्वाद उसी व्यक्ति को आता है, जो तटस्थ रहना जानता है । जागरूकता के बिना इन्द्रिय-संवेदन का सुख भी नहीं होता, मानसिक सुख भी नहीं होता । सुख का सूत्र सुख का सूत्र है-अपने आप में अदुःखी होना । अगर यह बात समझ में आए तो हम कह सकते है-जो मध्यस्थ है, निर्जरापेक्षी है, वह सुखी है, निर्जरापेक्षी होने का मतलब हैं—निषेधात्मक संस्कारों को मिटाना, विधायक भावों का विकास करना । तटस्थ आदमी जो अनुभूति कर सकता है, वह कीचड़ में लिप्त आदमी कभी नहीं कर सकता । अध्यात्म के ग्रन्थों में सुख के चार सूत्र बतलाए गए—मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ । ये सुख के चार मूलस्रोत हैं। इनमें से चाहे जितना सुख निकाला जा सकता है। एक आदमी शांत Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता है सुख, जाता है दुःख की दिशा में ८१ बैठा है, सामने से वह व्यक्ति गुजरा, जिसके साथ मुकदमा चला रहा है। व्यक्ति की शांति गायब हो जाएगी। इसका कारण है-उसमें मैत्री का विकास नहीं है । यदि मैत्री और प्रमोद का भाव प्रबल है तो कोई व्यक्ति उसे दुःखी नहीं बना सकता। व्यक्ति में करुणा है तो वह दुःखी नहीं बनेगा। क्रूरता है तो दुःखी बन जाएगा। चौथा तत्त्व है-उपेक्षा—मध्यस्थता । लड़ाई कहीं चल रही है, व्यक्ति उसमें फंस जाएगा, दुःखी बन जाएगा। इस दुनियां में ऐसे लोग भी हैं, जो मुकदमें खरीदकर लड़ते हैं । व्यक्ति कहता है--तुम पच्चास हजार रुपये दो, मैं तुम्हारा मुकदमा लड़गा। यह भी एक धंधा है, व्यवसाय है। दूसरे की लड़ाई का भार स्वयं पर ले लेते हैं और स्वयं के दुःख से दुःखी बन जाते हैं। जहां मध्यस्थता होती है, वहां ये सब बातें नहीं होती, व्यक्ति सुखी बन जाता हैं। साधना की कसौटी ___ मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा—ये अध्यात्म साधना की चार निष्पत्तियां हैं। अगर जीवन में मंत्री का विकास नहीं है, प्रमोद और करुणा का विकास नहीं है, तटस्थता का विकास नहीं है तो मानना चाहिए---अध्यात्म को समझा नहीं गया है। ये चार अध्यात्म साधना की कसौटियां हैं और यही है अमूर्छा । अगर आत्म-विश्लेषण के साथ सम्यक् अनुभूति करें, अपने आपको देखें तो अपने भीतर से यह परिभाषा प्रस्फुटित होगी-जहां-जहां मेरी अमूर्छा होती है, वहां-वहां मुझे सुख मिलता है। जहां-जहां मूर्छा-मोह होता है, वहां-वहां मुझे दुःख मिलता है । यह प्रत्येक व्यक्ति का अनुभूत सत्य है। जो सुख की कामना करता है, कामना का बोझ बना लेता है, वही कामना उसके लिए पीड़ा बन जाती है, व्यथा बन जाती है । व्यथा और पीड़ा से मुक्ति के लिए मूर्छा को तोड़ना जरूरी है। जैसे-जैसे मूर्छा कम होगी, दुःख कम होता चला जाएगा, व्यक्ति सहज ही सुख की दिशा को उपलब्ध हो जाएगा। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पंडिए पडिलेहाए । ० जे ममाइयमत जहाति से जहाति ममाइयं । प्रवचन १४ ० माला क्यों कुम्हलाई ? .0 अन्वेषण का निष्कर्ष → स्वयं से पूछें - ० णाति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति ॥ संकलिका O (आयारो २/१३१) 10 लोक - एक शब्द : अनेक अर्थ • शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ • आलोचना : महत्त्वपूर्ण सूत्र .0 (आयारो १ / १५६ ) (आयारो २ / १६० ) • सफलता का सूत्र : आत्म-निरीक्षण ० रेचन करें, रति का भी, अरति का भी विकास का आधार : आत्म-प्रतिलेखन मुझे सुख क्यों भोगना है ? दुःख क्यों भोगना है ? क्या मैं भोगने के लिए ही जन्मा हूं ? क्या मुझे और कुछ करना है ? ० उत्थान का उपाय .0 दूसरों के बारे में सोचने का परिणाम ० विचय की प्रक्रिया : शरीर प्रेक्षा और कायोत्सर्ग व्यक्तित्व - विश्लेषण की परम्परा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकविचय : आत्मालोचन अपनी वत्तियों का अपनी वृत्तियों को देखने की प्रवृत्ति बहुत कम होती है। वृत्तियों को अपना काम करने का मौका तब मिलता है, जब मालिक जागृत नहीं होता है । मालिक सोया रहता है तो चोर को भी चोरी करने का अच्छा मौका मिल जाता है । वृत्तियों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। मालिक उन्हें देखता नहीं है, उनकी ओर ध्यान नहीं दे पाता है इसलिए वे समय-असमय आ जाती हैं । व्यक्ति कभी नहीं पूछता-तुम कौन हो ? कहां से आई हो ? क्यों आई हो ? क्या करना चाहती हो ? व्यक्ति उनसे कभी संपर्क करना ही नहीं चाहता । उसने वृत्तियों को खुली छूट दे रखी है और वे उसका पूरा उपयोग कर लेती हैं। यह समस्या का कारण है इसीलिए एक शब्द के द्वारा यह निर्देश दिया गया-लोक का विचय करो। लोक यानी शरीर । लोक यानी कषाय । अपनी काषायिक वृत्तियों का विचय करो, आलोचन करो, उन्हें देखो, उपेक्षा मत करो। आलोचना के बिना सचाई का पता नहीं चलता । जो आलोचना करता है, वह हर बात को खोज लेता है। विचित्र विषय . अभी कुछ दिनों पूर्व गुजरात समाचार में एक लेख छपा। लेखक है सुधीर देसाई । प्रसंग बना-शंकराचार्य की बारहवीं शताब्दी मनाई जा रही थी । इस सन्दर्भ में अहमदाबाद में एक आयोजन था, जिसमें श्री देसाई को अपना शोध पत्र पढना था , विषय बड़ा विचित्र था। आद्य शंकराचार्य और मंडनमिश्र के बीच शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ की मध्यस्थता कर रही थी मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती । श्रीमती मिश्र ने एक तरीका निकाला। उसने शंकराचार्य और मंडनमिश्र-दोनों के गले में फूलों की माला पहना दी। कसौटी थी-जसकी माला पहले कुम्हला जाएगी, वह हारा हुआ माना जाएगा। जिसकी माला नहीं कुम्हलाएगी, उसे जीता हुआ माना जाएगा। शास्त्रार्थ शुरू हो गया । परिणाम यह आया-मंडनमिश्र की माला कुम्हला गई । शंकराचार्य जीत गए, मंडनमिश्र हार गए । शोधप्रबंध का विषय था'क्या यह कोई चमत्कार है ?' सामान्य व्यक्ति कहेगा-शंकराचार्य तांत्रिक थे, मांत्रिक थे, ज्ञानी थे। उन्होंने चमत्कार किया इसलिए माला नहीं कुम्हलाई किन्तु जो नियम को जानता है, आलोचक है, वह तथ्य की खोज करता है, कभी चमत्कार को नहीं मानता। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और हिसा दो प्रमाण श्री देसाई के अन्वेषण का निष्कर्ष था--मंडनमिश्र घबरा गए, उनके श्वास छोटे हो गए, शरीर की गर्मी बढ़ गई। शरीर की गर्मी बढ़ने से माला कुम्हला गई । अपनी इस स्थापना के समर्थन में श्री देसाई ने दो प्रमाण प्रस्तुत किए । पहला स्वयं से संबद्ध था। उन्होंने लिखा- मुझे हार्ट अटैक हुआ था। उस समय मैंने आत्मालोचन किया। मुझे यह निष्कर्ष प्राप्त हुआआदमी हार्ट अटैक से नहीं मरता। आदमी मरता है घबराहट के कारण । घबराहट के कारण उसका श्वास छोटा हो जाता है, शरीर में गर्मी आ जाती है । उन्होंने दूसरा प्रमाण प्रस्तुत किया---इस घटना के बाद मेरे मन में भावना जगी-मुझे श्वास के बारे में कुछ जानकारी करनी चाहिए। संयोगवश मुझे प्रेक्षाध्यान का कुछ साहित्य उपलब्ध हो गया। उसमें एक पुस्तक थी, श्वास प्रेक्षा । मैंने उसमें पढ़ा-~-श्वास की गति बढ़ने से शरीर की गर्मी बढ़ जाती है । इस कथन से मेरी स्थापना को सुदृढ़ आधार मिल गया। अपना अनुभव और श्वास प्रेक्षा-पुस्तक से प्राप्त अनुभव-इन दो प्रमाणों के आधार पर मैं इस सिद्धान्त का समर्थन करता हूं कि मंडनमिश्र की माला का मुरझाना कोई चमत्कार नहीं था, वह छोटे श्वास का परिणाम था । धी देसाई की इस युक्ति-संगत प्रस्थापना को विद्वानों का व्यापक समर्थन मिला। महत्त्वपूर्ण सूत्र इसका नाम है अनुसंधान और आलोचन । जो आलोचना करता है, वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। बिना आलोचना और अन्वेषण के किसी सही निष्कर्ष की उपलब्धि नहीं होती। जो घटना घटती है, व्यक्ति उसे भोग लेता है, उसका आलोचन नहीं करता इसीलिए वह घटना के कारणों से अनभिज्ञ बना रहता है । सुख आता है तो सुख भोग लेता है। दुःख आता है तो दुःख भोग लेता है । वह भोगता ही चला जाता है किन्तु यह आलोचना नहीं करता-सुख मुझे क्यों भोगना है ? मुझे दुःख क्यों भोगना है ? क्या मैं भोगने के लिए ही जन्मा हूं ? या और भी कुछ करना है ? आत्मालोचन किए बिना, अपनी वृत्तियों की आलोचना किए बिना कोई भी व्यक्ति सचाई तक नहीं पहुंच सकता । भगवान् महावीर ने आलोचना का महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया-पंडिए पडिलेहाए-तुम प्रतिलेखना करो, देखो। जब व्यक्ति प्रतिलेखना करता है, तब वृत्तियों का रेचन करना सहज हो जाता है। रेचन करना सीखें महावीर ने कहा--जो वीर होता है, वह न अरति को सहन करता है, न रति को सहन करता है। मन में कभी अरति आती है तो कभी रति Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकविचय : आत्मालोचन अपनी वृत्तियों को आती है। कभी मन में उद्वेग, आवेश और दुःख पैदा हो जाता है तो कभी रति और सुख पैदा हो जाता है। अरति और रति-दोनों के बीच में जीवन की नौका को खेया जा रहा है परन्तु जो वीर होता है, वह अरति और रति--दोनों को नहीं सहता, उनका रेचन कर देता है। महत्वपूर्ण बात है रेचन करना । जो दुःख या सुख आए, उसका आलोचन करें और तत्काल रेचन कर दें । मन में कोई बात आए, उसे तत्काल निकाल दें। मन में कोई बात आ सकती है क्योंकि सब दरवाजे-आंख, कान, नाक आदि खुले हैं किन्तु उसे मन में जमा लेना समस्या है। अतिथि को भोजन करके वापस जाना होता है । अतिथि आ सकता है किन्तु लंबे समय तक ठहर नहीं सकता। इसी प्रकार जो बात आए, उसे टिकाएं नहीं, उसका रेचन करते चले जाएं । रति और अरति-दोनों का रेचन करें, आत्मालोचन के द्वारा, आत्मनिरीक्षण के द्वारा। विकास का सूत्र जो व्यक्ति आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण करना नहीं जानता, वह बुराइयों के लिए अपने घर के सारे दरवाजे खोल देता है, अपने घर को कबाड़खाना बना देता है । होना यह चाहिये ---हम संग्रह न करें, काम में लें और रेचन कर दें। आज संग्रह की वृत्ति इतनी प्रबल है कि आदमी वृत्तियों का संग्रह भी क्यों नहीं करेगा ? सबसे अच्छी वृत्ति है रेचन की वृत्ति । लोगों ने अपने मन में भी एक कबाड़खाना बना रखा है। दस वर्ष पूर्व की बात को भी वे मन से नहीं निकाल पाते, उसकी गांठ बनाए रखते हैं । व्यक्ति के मन में अनेक मनोग्रन्थियां बनी हुई हैं। वह उन्हें भूल नहीं पाता, उनका रेचन नहीं कर पाता इसीलिए वह दुःखी बना हुआ है। __हम अपनी आलोचना करना सीखें, प्रतिलेखना करना सीखें। मेरा एक भी दिन ऐसा न जाता होगा, जिस दिन मैंने अपना प्रतिलेखन न किया हो । मेरे त्रिकोस में जो सुविधा है, उसे मैं आत्म-प्रतिलेखन का ही परिणाम मानता हूं। विकास के लिए आत्मालोचन करना बहुत जरूरी है। जो आत्मालोचन करना नहीं जानते, वे रूढ़ परंपरा को ही निभाते चले जाते हैं, नया कुछ नहीं कर पाते । विकास का सूत्र है आत्मालोचन की वृत्ति का होना । अगर यह एक वृत्ति आ जाए तो शायद लोक विचय की वृत्ति का विकास हो जाए। लोकविचय की वृत्ति के विकास से अनेक समस्याओं का समाधान सहज संभव बन जाता है । खतरनाक वृत्ति समस्या यह है, हमारा अधिकांश समय दूसरों के बारे में सोचने में ही बीतता है। हम अपने बारे में सोचते ही नहीं हैं। महावीर ने कहा--जो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अस्तित्व और अहिंसा दूसरों के बारे में सोचता है वह आतंक को नहीं देखता। हम यह नहीं सोचते कि केवल दूसरों के बारे में सोचने का परिणाम क्या होगा ? दूसरों के बारे में सोचना अपना अहित करने का, अपने आपको गिराने का सबसे सरल उपाय है । अपने बारे में सोचना, आत्मालोचन करना, यह अपने आपको उठाने का सबसे सरल उपाय है । यह कोरी अध्यात्म की बात नहीं है, जीवन की सफलता का सूत्र है । जो व्यक्ति जीवन में सफलता चाहता है, उसे आत्मनिरीक्षण या आत्मालोचन का मार्ग अपनाना ही होगा। जो इस मार्ग को नहीं अपनाता, उसकी मानसिक क्षमताओं का विकास नहीं होता, उसके जीवन में बार-बार मार्गावरोधक आते रहते हैं। दूसरों के बारे में सोचना बहुत खतरनाक वृत्ति है । विकास के लिए इससे बचना आवश्यक है । विचय की प्रक्रिया आचारांग का दूसरा अध्ययन है-लोकविचय । विचय शब्द अतिप्राचीन है । आधुनिक शब्द हैं-अन्वेषण, रिसर्च, इन्वेस्टीगेसन, अनुसंधान । प्राचीन शब्द है विचय । लोक का विचय करो, इसका अर्थ हैशरीर के एक भाग को देखो। शरीर-प्रक्षा और कायोत्सर्ग क्या है ? ये दोनों ही विचय की प्रक्रियाएं हैं। वैसे ही मन का विचय करो। भीतर जमे हुए संस्कारों को देखो। कषाय का विचय करो, अपने कषायों को देखो। उसके बाद जो अंतिम सचाई है-चेतना-आत्मा, उस तक हम पहुंच जाते हैं । यदि हम केवल ऊपरी संस्कारों, कषाय की परतों तक ही रह जाते हैं, उसी व्यक्तित्व को अपना व्यक्तित्व मान लेते हैं तो असली और मौलिक व्यक्तित्व हमसे छिपा रह जाता है। महत्त्वपूर्ण परंपरा लोकविचय और व्यक्तित्व के विश्लेषण की एक परंपरा रही है। वह बहुत महत्त्वपूर्ण परंपरा है। इसने वाल्मीकि का कल्याण किया है, अर्जुनमालाकार का कल्याण किया है । धर्म के क्षेत्र में जिन साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं ने विचय की पद्धति को अपनाया है, उन्होंने अपने जीवन को आलोक से भरा है । विचय के बिना आगे बढ़ने का रास्ता साफ नहीं होगा, हम इस सच्चाई को समझें, अपनी वृत्तियों और संस्कारों की आलोचना करने का संकल्प लें। जिस दिन यह संकल्प आकार लेगा, हमें देखने की एक नई दृष्टि मिलेगी और वह दृष्टि कल्याण की ऐसी सृष्टि करेगी, जिसके लिए मानव सदा तरसता रहता है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १५ • सुत्ता अमुणिणो सया मुणिणो सया जागरंति • लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं (आयारो ३/१-२ ) ० छविहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा - मज्जपमाए, हिपमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूतपमाए, पडिले हणा ( ठाणं ६ / ४४ ) पमाए ● जागरण : अध्यात्म की भाषा • वह सोया हुआ हैजो मद्यपी है जो विषयलोलुप है जो विकथा में रत है जिसके कषाय प्रबल है ● जागरण का अर्थ o महासती सीता : जागरूकता का निदर्शन • नींद के लिए उत्तरदायी रसायनसेराटोनिन, मेलाटोनिन • द्रव्य नींद : भाव नींद • अनिद्रा के हेतु - शारीरिक पीड़ा मानसिक पीड़ा आध्यात्मिक पीड़ा • दुःखवाद का महत्त्व • दर्शन की दो धाराएं संकलिका • जागरण के सूत्र - दुःख की उत्पत्ति / अनुभूति चिन्ता, विचय-ध्यान ० जागरूक क्यों बनें ? Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी रात को जागता है जीवन की अनेक क्रियाओं के चक्र में एक चक्र है सोना और जागना । आदमी रात में सोता है, दिन में जागता है। वह दिन में भी सोता है, रात में भी जागता है किन्तु सामान्यतः सोने का समय है रात्रि का और जागने का समय है दिन का । सोना और जागना-अलग-अलग भूमिका में अलग-अलग भाषा बन गई । आंखे बन्द हुई और आदमी सो गया, आंखे खुली, आदमी जाग गया, यह व्यवहार की भाषा है। अध्यात्म की भाषा में सोना और जागना एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । एक व्यक्ति ऐसा है, जो चौबीस घण्टे सोता है और एक व्यक्ति ऐसा है, जो चौबीस घण्टे जागता है । भगवान् महावीर ने कहा-जो अज्ञानी है, वह चौबीस घण्टे सोता है। जो मुनि है, ज्ञानी है, वह चौबीस घण्टे जागता है। सुप्त की परिभाषा ___ अज्ञान का मतलब है सोना। ज्ञान का मतलब है जागना। अज्ञानी सदा सोता है। दिन में भी उसे पता नहीं चलता--प्रकाश है या सूरज है । सोने की परमार्थ की भाषा है-जो प्रमादी है, यह सदा सोता है। जो अप्रमत्त है, वह सदा जागता है। भय, विषय, कषाय, विकथा—ये सब प्रमाद के प्रकार हैं। जो व्यक्ति इन में रत रहता है, वह दिन रात सोया रहता है। ___ क्या शराबी कभी जागता है ? वह नशे में धुत रहता है। मद्यपी हमेशा सोया ही रहता है। उसकी चेतना अलग प्रकार की बन जाती है, सोचने ढंग भी अलग तरह का हो जाता है। वह उसीमें अपनी चेतना को गंवा बैठता है। इसी प्रकार जो आदमी विषय-लोलुप होता है, इन्द्रियों के विषय में आसक्त होता है, वह निरन्तर सोया रहता है। उसे दिन में भी इन्द्रिय जगत् के स्वप्न आते रहते हैं। इन्द्रिय जगत् से परे की सचाइयों को जानने का उसे अवकाश ही नहीं मिलता। कषायी व्यक्ति भी जागृत नहीं होता । वह कभी क्रोध में होता है, कभी लोभ और कपट का जीवन जीता है। ऐसे भावों में जीने वाले व्यक्ति को जागृत नहीं कहा जा सकता। उसे कभी सत्य का पता नहीं चलता । अध्यात्म की भाषा जो विकथा में रहता है, वह भी जागा हुआ नहीं है । जो कभी कामकथा में रत रहता है, कभी भोजन की कथा और कभी राज-कथा में डूबा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी रात को जागता है ८६ रहता है, वह जागृत नहीं होता। इसका मतलब है-वह व्यक्ति सार की बात नहीं करता, जिन बातों का जीवन निर्माण में कोई महत्त्व नहीं होता, उन्हीं में लगा रहता है। ऐसा आदमी कभी जीवन की सचाई तक नहीं पहुंच अध्यात्म की भाषा में यह अनुभव किया गया-जो सत्य को प्राप्त नहीं होता, वह सोया हुआ है । जागा हुआ वही है, जिसने सत्य को देखा है, जाना है और जो सत्य के साथ जीता है । ___ एक वह व्यक्ति सोया हुआ है, जो नींद लेता है लेकिन वह दिन रात नींद नहीं लेता। निद्रा और अनिद्रा-दोनों साथ-साथ चलते हैं किन्तु जो विषय, कषाय आदि प्रवृत्तियों का जीवन जीता है, वह चौबीस घण्टे सोया रहता है । इसीलिए कहा गया-'सुत्ता अमुणिणो सया, मुणिणो सया जागरंति' अज्ञानी आदमी जागते हुए भी सोता है, ज्ञानी आदमी सोते हुए भी जागता है । ज्ञानी आदमी की आन्तरिक चेतना हमेशा जागरूक रहती है। जागरूकता का निदर्शन ___ मुनि के लिए कहा गया---मुनि नींद ले तो जागत नींद ले, सोता हुआ भी बराबर जागरूक बना रहे। जागरूक वह होता है, जिसे कोई बुरा स्वप्न नहीं आता, बुरी कल्पना नहीं आती। जागरूक व्यक्ति का लक्षण है स्वप्न में भी बुरे विचार का न आना । जब महासती सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए ले जाया गया, तब अग्निकुंड के समीप खड़ी होकर उसने कहा--- मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, यदि ममपतिभावो राघवादन्यसि । तदिह दह शरीरं पावकं मामकेद, विकृतसुकृतमाजां येन साक्षी त्वमेव ।। हे अग्नि ! जागत या स्वप्न अवस्था में मन, वचन और काया में, राम के सिवाय किसी अन्य के प्रति पति-भाव आया हो तो तुम मुझे जला देना क्योंकि तुम मेरे विकृत और सुकृत आचरण के साक्षी हो। यह बात कौन कह सकता है ? जो सदा जागृत रहता है, सोते हुए भी जागृत रहता है, वही यह बात कह सकता है । शरीरशास्त्र का अभिमत जागरण के लिए आंतरिक चेतना को जगाना बहुत जरूरी है। आज का शरीर-शास्त्री दो रसायनों के आधार पर नींद और जागरण की व्याख्या करता है। एक है सेराटोनिन, दूसरा है मेलाटोनिन । जब सेराटोनिन बनता है और उसमें कोई अवरोध आ जाता है तो अनिद्रा की बीमारी पैदा हो जाती है। जागने में हेतु बनता है मेलाटोनिन रसायन । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अस्तित्व और अहिंसा सामान्यत: पूर्वरात्रि में सेराटोनिन के बनने का समय होता है और चार बजे लगभग मेलाटोनिन के बनने का समय होता है । उस समय आदमी जागने की स्थिति में आता है। ये दो रसायन हमारे शरीर की नींद के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। वैसे ही हमारी आंतरिक चेतना के जागरण के लिए भी कुछ रसायन हैं। एक मोहनीय कर्म को पैदा करता है, एक उसे उत्तेजित करता है, एक उसे उपशांत करता है । उत्तेजित करने वाले रसायन जब-जब प्रबल बनते हैं, आदमी भाव-नींद में चला जाता है। अध्यात्म की भाषा में आंखों को बन्द कर देने वाली नींद को द्रव्यनींद कहा गया और चेतना को सुलाने वाली नींद को भाव-नींद कहा गया । आंख खुली होती है किन्तु मूर्छा का ऐसा घेरा आता है कि व्यक्ति को अपना भान नहीं रहता, कर्त्तव्य और अकर्तव्य का बोध नहीं रहता, सभी बोध समाप्त हो जाते हैं । अध्यात्म में इस भाव निद्रा पर बहुत विचार किया गया, चेतना को जगाए रखने पर बल दिया गया । नींद न आने का आध्यात्मिक हेतु किसी के शरीर में दर्द होता है तो उसे नींद नहीं आती है । दर्द और पीड़ा अनिद्रा की स्थिति उत्पन्न करते हैं। मानसिक तनाव की भी यही परिणति है । तनाव में व्यक्ति को नींद नहीं आती । मानसिक चिन्ता है तो भी नींद नहीं आती। यह जागरण है पर अनिद्रा की बीमारी का परिणाम है । प्रश्न होता है क्या अध्यात्म में भी ऐसी कोई पीड़ा है, जो चौबीस घण्टे आदमी को जागृत रख सके ? जब मन में यह बेचैनी, यह पीड़ा प्रबल बनती है—यह संसार कैसा है ? यहां दुःख ही दुःख है। जन्म का दुःख है, मौत का दुःख है, रोग और बुढ़ापे का दुःख है। इस दुःखमय संसार में जीव क्लेश पाता जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाय मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति जन्तवो ॥ जब यह दुःख की अनुभूति होने लगती है, व्यक्ति की नींद उड़ जाती है। जब तक इस दुःख का अनुभव नहीं होता, तब तक चौबीस घंटा जागने वाली स्थिति बनती नहीं है । इसीलिए अनेक भारतीय दर्शनों ने दुःखवाद को महत्त्व दिया। दुःखवाद दर्शन के क्षेत्र में सुखवादी और दुःखवादी-दोनों धाराएं रही । जैन, बौद्ध और सांख्य—ये दुःखवादी दर्शन हैं । सांख्य दर्शन का सूत्र है-जब व्यक्ति आधिदैविक, आधिभौतिक, और आध्यात्मिक-इन तीन तापों से तप्त होता है तब उसमें सम्यग् दर्शन जागता है। जागने की स्थिति बेचैनी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी रात को जागता है ६१ से ही पैदा होती है । जैन दर्शन में यही बात कही गई---जब तक यह अनुभूति नहीं होती—यह संसार दुःख बहुल है, मैं जिसे सुख मान रहा हूं वह वस्तुतः दुःख है-तब तक आदमी जागता नहीं है। शायद इसीलिए कहा गया---सुख सापेक्षवाद नहीं है। जिन लोगों में जागने की चाह प्रबल बनी, उन्होंने दुःख को निमंत्रण दिया। जागने के लिए दु:ख जरूरी है । अगर कष्ट नहीं होता तो दुनिया इतनी अन्धी हो जाती कि वह किसी की चिन्ता नहीं करती । आज भी जो धनी व्यक्ति हैं, सत्ताधीश हैं, यदि उन्हें दुःख नहीं होता तो वे किसी की परवाह नहीं करते पर प्रकृति के इस सार्वभौम नियम का कोई अपवाद नहीं है—प्रत्येक दु:ख के साथ सुख जुड़ा हुआ है और प्रत्येक सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ है। सम्भवतः यह इसलिए है कि सन्तुलन बना जागरण का सूत्र सुख और दुःख का एक द्वन्द्व है और वह एक नियम के साथ बराबर चलता है । निरन्तर जागृत रहने के लिए, ज्ञानी और जागरूक बनने के लिए दुःख का उत्पन्न होना, उसकी अनुभूति होना जरूरी है । जागरण का एक सूत्र है—जो भी वेदना हो रही है, उसका अनुभव करते रहना । जागरण का दूसरा सूत्र है-चिन्ता। अध्यात्म की दिशा में भी ऐसी कोई चिन्ता होनी चाहिए, जो नींद न आने दे । अध्यात्म के पास नींद को उड़ाने का जो सूत्र है, वह है चिन्तन--विचय-ध्यान । जो कभी विचय नहीं करता, सोचता नहीं, वह जाग नहीं पाता । जो जागना चाहता है, उसे चिन्तन का सहारा लेना होगा। नींद और जागरण की चर्चा में एक प्रश्न उभरता है-हम जागरूक क्यों बनें ? महावीर ने कहा-लोयंसि जाण अहियाय दुःखं यह जो नींद है, अज्ञान है, वह अहित के लिए है। यदि हमें हित पाना है तो जागना होगा, जागने का प्रयत्न करना होगा। अपना हित और जागरूकता--दोनों जुड़े हुए हैं, इस सचाई को जानकर ही हम जागृति का जीवन जी सकते हैं । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १६ संकलिका • तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा सम्मत्तदंसी ण करेइ पानं । (आयारो ३/२८) ० सफलता का सूत्र ० जीवन की विसंगति ० तीन विद्याएं न्म का ज्ञान जन्म-मरण के रहस्य का ज्ञान चित्त-मल के क्षय का ज्ञान ० परम है आत्मा : परमात्मा . पारिणामिक भाव ० आदमी मानता है अदृष्ट को, भोगता है दृष्ट को ० पाप का कारण ० कलम : कदम ० संयम का मूल रूप ० अलग है देखने और पढ़ने की शक्ति ० दर्शन की स्थिति ० समत्व को जीए बिना समत्व का दर्शन नहीं ० ऐकात्म्य साधे ० मनुष्य तोता नहीं है, ० समत्व का पाठ नहीं, दर्शन करें Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह पाप कैसे करेगा? धर्म का एक महाप्रश्न है, जीवन की सफलता का एक महान् सूत्र हैआदमी पाप न करे, पाप से बचे । पाप शब्द बहुत रूखा, कड़वा, कांटे जैसा चुभने वाला शब्द है। कोई पापी बनना नहीं चाहता, पाप करने वाला भी पापी कहलाना नहीं चाहता । धर्म के क्षेत्र में यह शब्द जितना गर्हणीय और अवांछनीय बना है, उतना दूसरा नहीं। विकट प्रश्न __ कठिनाई यह है-आदमी पाप नहीं चाहता, उसका फल नहीं चाहता किन्तु पाप करता है। फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति मानवाः । फलं धर्मस्य वाञ्छति, न धर्म विहितादराः ॥ व्यक्ति पुण्य का फल चाहता है किन्तु पुण्य नहीं करता। पाप का फल नहीं चाहता किन्तु पाप को करता चला जाता है । एक विकट प्रश्न रहा है-- पाप कौन नहीं करता ? पाप को कैसे छोड़ा जा सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर ने दिया-जो त्रिविद्य है, जो परम-ज्ञानी और परमदर्शी है, जो समत्वदर्शी है, वह आदमी पाप नहीं करता । इन तीनों गुणों का विकास होने पर व्यक्ति पाप से बचता है । त्रिविध कौन ? त्रिविद्य वही है, जो तीन विद्याओं को जानता है । तीन विद्याएं हैं० पूर्वजन्म का ज्ञान ० जन्म और मरण के रहस्य का ज्ञान ० चित्तमल के क्षय का ज्ञान-चित्त पर मल कैसे, जमता है और उसका क्षय कैसे होता है, इसका ज्ञान । जो इन तीन विद्याओं को जान लेता है, वह पाप नहीं कर पाता। जब-जब' पूर्वजन्म की स्मृति होती है, आदमी के जीवन की धारा बदल जाती है। जैन आगम साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। मेघ कुमार के जीवन को देखें । मृगापुत्र का जीवन पढ़ें। उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हुई और जीवन की धारा बदल गई। पाप का कारण जो व्यक्ति परम को देखता है, जानता है, वह पाप नहीं करता। जब Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अस्तित्व और अहिंसा तक व्यक्ति अपरम को देखता है, छोटे को देखता है तब तक वह पाप करता है । जब परम का साक्षात्कार होता है, आत्मा या परमात्मा का साक्षात्कार होता है, व्यक्ति पाप नहीं कर पाता। परम है आत्मा, परम है परमात्मा । गीता में कहा गया—परं दृष्ट्वा निवर्तते-व्यक्ति परम को देखकर पाप से निवृत्त हो जाता है। परम का एक अर्थ है-पारिणामिक भाव । जो पारिणामिक भाव का अनुभव करता है, वह पाप नहीं करता । पाप का कारण है औदयिक भाव--मोह, ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उदय । व्यक्ति औदयिक भावावस्था में जीता है तो पाप की स्थिति आती है। जब व्यक्ति पारिणामिक भाव की स्थिति में चला जाता है, शुद्ध आत्मा की अनुभूति में चला जाता है वहां पाप की बात समाप्त हो जाती है। दृष्ट : अदृष्ट हमारे सामने दो प्रकार के तत्त्व हैं-दृश्य और अदृश्य । हमारी सारी शक्ति दृष्ट में लगी हुई है । आत्मा अदृष्ट है। आदमी कितना विचित्र है ! जो अदृप्ट है, उसे मानकर चलता है और जो दृष्ट है, उसे भोगता है। जब तक अदृष्ट दृष्ट नहीं बन जाता, अदृष्ट आत्मा का साक्षात्कार नहीं हो जाता, तब तक पाप के प्रति मन में जितनी ग्लानि होनी चाहिए, उतनी नहीं होती । व्यक्ति का ध्यान दूसरी तरफ अटका रहता है, व्यक्ति मूल बात को पकड़ कर अपनी भूल का सुधार नहीं कर पाता । जिस दिन अदृष्ट का साक्षात्कार हो जाएगा, सारी गलतियां एक साथ निकल जाएंगी। गलत और सही में ज्यादा अंतर नहीं होता। एक कोमा, एक बिन्दु, एक मात्रा बदलती है, गलत सही हो जाता है, सही गलत हो जाता है। जब तक व्यक्ति अदृष्ट को नहीं जान लेता, गलतियां बनी रहती हैं, दृष्ट की भ्रान्ति मिटती नहीं है। जो सामने दिखता है, व्यक्ति उसे ही सब कुछ मान लेता है, उसीमें उलझ जाता है । दिशा बदली, अदृष्ट दिखा, सारी स्थिति बदल जाएगी, पाप के प्रति रुझान नहीं होगा। कलम और कदम एक बने तीसरी बात है समत्व दर्शन । पाप करने की अधिकांश प्रवत्ति विषमता के कारण होती है। 'सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझे, षड्जीवनिकाय को अपने समान समझे—हम इस बात को पढ़ते रहे हैं किन्तु व्यवहार में नहीं ला पा रहे हैं । कलम और कदम-दोनों साथ-साथ नहीं चल रहे हैं । यदि ये दोनों साथ-साथ चलते तो दिन ही दिन होता, रात का प्रश्न ही नहीं होता । भगवान् महावीर की वाणी में संयम का जो मूल रूप है, वह यथाख्यात चारित्र है। शेष सारे पड़ाव हैं। सामायिक चारित्र एक पड़ाव है, छेदोपस्थापनीय चारित्र एक पड़ाव है। मूल है यथाख्यात Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह पाप कैसे करेगा? चारित्र, जहां कलम और कदम-दो नहीं, एक बन जाते हैं । समत्वदर्शी बनो सब जीव समान हैं, इस बात को दोहराया जाता है। भगवान् महावीर ने कहा-समत्वपाठी नहीं, समत्वदर्शी बनो। आचारांग सूत्र में पढ़ने की बात को नहीं, देखने की बात को महत्व दिया गया है। पढ़ना और देखना-दो बात है, एक नहीं । आचारांग सूत्र में बार-बार यह उल्लेख मिलता है—पश्य ! पश्य ! देखो ! देखो ! हमारी आंख खुली है पर दिखता नहीं है । देखने और पढ़ने की शक्ति बिलकुल अलग-अलग है। हमारे मस्तिष्क में अरबों कोशिकाएं हैं, वे सब अलग-अलग काम करती हैं इसीलिए दृकशक्ति–देखने की शक्ति पर बल दिया गया—देखना सीखो, समत्वदर्शी बनो। विषमता का लक्षण महाभारत का एक श्लोक है योन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते । किं तेन न कृतं पापं, चौरेणात्मापहारिणा ॥ जो जैसा है, वह अपने आपको वैसा नहीं दिखाता, दूसरे प्रकार का दिखाता है । ऐसे अपनी आत्मा का अपहरण करने वाले चोर ने कौनसा पाप नहीं किया ? हम जैसे हैं, वैसा ही अपने आपको दिखाएं । जो है, उसे न दिखाना, जो नहीं है, उसे दिखाना विषमता का लक्षण है। समता को न देखना, विषमता को देखना सबसे बड़ा पाप है। जहां समत्वदर्शिता नहीं आती है, वहां कितने ही पाप होते रहते हैं। यदि सब जीवों के प्रति समानता की अनुभूति नहीं हुई, दूसरे प्राणी को कष्ट देने में अपने कष्ट की अनुभूति नहीं हुई तो व्यक्ति पाप से बच नहीं सकता। जब व्यक्ति समत्व की अनुभूति कर लेता है, पाप के बारे में सोच ही नहीं सकता । दर्शन की स्थिति दर्शन का मतलब है साक्षात्कार, अनुभूति । जब एकाग्रता का बिन्दु बहुत गहरा होता है तब दर्शन, अनुभूति या साक्षात्कार की बात होती है। जब तक मन चंचल है तब तक दर्शन नहीं होता। जब दर्शन या साक्षात्कार होता है तब अनुभूति में तादात्म्य हो जाता है, द्वैत नहीं रहता। अद्वैत का होना, तादात्म्य की अनुभूति का होना महत्वपूर्ण घटना है। इस स्थिति में समरसता आएगी, ध्याता और ध्येय-दोनों में एकात्मता आ जाएगी। यह है दर्शन की स्थिति । अधूरे मन से कोई काम नहीं बनता। वही चित्रकार मुर्गे का जीवन्त चित्र बना सकता है, जिसने मुर्गे के साथ ऐकात्म्य साधा है। मुर्गे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तत्व आर आहसा के साथ तादात्म्य बनाए बिना जीवित मुर्गे का चित्र नहीं बनाया जा सकता। समत्व का जीवन जिए बिना कोई समत्वदर्शी नहीं बन सकता। समत्व का पाठ नहीं, दर्शन करें ___ समत्वदर्शी और समत्वपाठी-ये दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। तोता पाठ करता है पर मनुष्य तोता नहीं है। उसे समत्व का पाठ नहीं, समत्व का दर्शन करना चाहिए । महावीर ने कहा-जो समत्व का दर्शन या अनुभूति कर लेता है, वह समत्व का पाठ नहीं कर सकता। जब दर्शन और अनुभूति का क्षण उपलब्ध होता है, सारी स्थिति बदल जाती है। हम त्रिविद्य, परमदर्शी और समत्वदर्शी-इन तीनों तत्त्वों को समझे, इनको साक्षात् करने का प्रयत्न करें। इन तत्त्वों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करने वाला व्यक्ति पाप कर्म से बचने का प्रयास करता रहेगा और एक दिन उस स्थिति तक पहुंच जाएगा, जहां पाप के बारे में सोचने का कोई अवकाश ही नहीं होगा। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० णातीतमट्ठ ण य आगमिस्सं, अट्ठं नियच्छंति तहागया उ एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवंगे महेसी ॥ विधूतकप्पे • का अरई ? के आणंदे, एत्थंपि अग्गहे चरे । सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीणगुत्तो परिव्वए ॥ ० प्रवचन १७ अट्टे भाणे चउविहे पण्णत्ते ० संयोग-वियोग का चक्र O • सुख-दुःख का अग्रहण • जो पकड़ता है, वह दुःखी होता है • हम अनजान हैं पकड़ से ० मानसिक तनाव का कारण है पकड़ • प्रश्न है आदत का • समस्या है ग्रहण • अग्रहण की आदत डालें अग्रहण की साधना-पद्धति ग्रहण करें, निकाल दें कल्पना का भेदन करें वर्तमान की अनुपश्यना करें ० • उदाहरण की भाषा श्वास : निश्वास अर्जन : विसर्जन संकलिका आहार : नीहार ग्रहण : रेचन • आर्त्तध्यान : मानसिक तनाव (आयारो ३ / ६०-६१ ) ( ठाणं ४ / ६१ ) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या अरति ? क्या आनन्द ? यह जगत् द्वन्द्वात्मक है। अकेला कोई नहीं है, सब कुछ जोड़ा ही जोड़ा है । एक जोड़ा है सुख और दुःख का। आदमी सुख चाहता है पर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसे दुःख न मिले । समस्या है--जिएं कैसे ? चतुष्पदी शरीर और मन को दुःख अनुकूल नहीं लगता। उसे कोई नहीं चाहता “पर वह आ धमकता है। जहां संयोग और वियोग का नियम है वहां उसके साथ सुख और दुःख का भी एक नियम है । संयोग और वियोग न हो तो सुख और दुःख भी नहीं हो सकता । जो संयोगातीत हो गया, उसके लिए न सुख और न दुःख । जो संयोगों में रमता है, संबन्धों का जीवन जीता है, उसके लिए सुख और दु:ख-दोनों का होना अनिवार्य है। आर्तध्यान के सन्दर्भ में कहा गयाप्रिय का संयोग होता है तो सुख होता है, अप्रिय का संयोग होता है तो दुःख होता है । अप्रिय का वियोग होता है तो सुख होता है। प्रिय का वियोग होता है तो दुःख होता है। समस्या है पकड़ की इस चतुष्पदी में हमारी सारी मानसिकता बन्धी हुई है। यह एक ऐसा अनुबन्ध है, जिसके भंवर में पूरा जगत् निमज्जन करता है। हम कैसे कल्पना करें—दुःख न हो ? शादी हुई, एक संयोग हो गया। दो-चार 'महीने बीते, पति चल बसा। संयोग वियोग में बदल गया । संयोग से सुख मिला और वियोग से दुःख । थोड़े दिन का सुख जीवन भर के दुःख में बदल गया । ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। जहां संयोग और वियोग--दोनों मान्य बने हुए है, वहां सुख और दुःख क्यों नहीं होगा ? सुख और दुःख से वह बच सकता है, जो संयोग और वियोग की पकड़ से बचता है। इस सारे सन्दर्भ में भगवान महावीर ने कहा—साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह इनका ग्रहण न करे। यदि व्यक्ति अरति को ग्रहण करेगा तो दुःख होगा। यदि उसका ग्रहण नहीं होगा तो वह आएगी और चली जाएगी । सुख और आनन्द आए तो उसे भी मत पकड़ो, ग्रहण मत करो। यदि सुख को पकड़कर जीना चाहते हैं तो दुःख से क्यों डरें ? अगर पकड़ने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या अरति ? क्या आनन्द ? की आदत बन गई तो सुख के साथ-साथ दुःख को भी पकड़ लेंगे। जैसे सुख पकड़ में आएगा वैसे ही दुःख भी पकड़ में आएगा। हम अपनी आदत धोबी जैसी बनाएं, सुख और दुःख को पकड़ने की आदत बदल जायेगी। धोबी का कार्य __ एक ब्राह्मण किसी अनजाने गांव में पहुंच गया। उसने एक व्यक्ति से पूछा-नगर में बड़ा आदमी कौन है ? व्यक्ति का उत्तर था—ताड़ के वृक्ष । ब्राह्मण का दूसरा प्रश्न था—दाता कौन है ? दाता है धोबी । वह सुबह कपड़े ले जाता है और शाम को लौटा देता है दक्ष और चतुर कौन है ? दूसरों के धन का हरण करने में सभी दक्ष और चतुर हैं । तुम ऐसे नगर में क्यों रह रहे हो ? नीम का कीड़ा नीम को छोड़कर कहां जाए ? ब्राह्मण यह सुनकर स्तब्ध रह गयाविप्रास्मिन् नगरे महान वसति कः तालद्रुमाणां गणः । को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्ग हीत्वा निशि। को दक्षः परकीयवित्तहरणे सर्वेऽपि पौराः जनाः, त्वं किं जीवसि भो सखे ! कृमि कुलन्यायेन जीवाम्यहम् ॥ दुःख का कारण है पकड़ धोबी सुबह कपड़े लाता है, शाम को लौटा देता है । हम भी ऐसी ही आदत बनाएं, सुख दुःख आए, उसे पकड़ें नहीं, ग्रहण न करें। ऐसा करने वाला व्यक्ति सुखी हो सकता है किन्तु जो रखना जानता है, पकड़ना जानता है, जो आता है उसे भोग लेता है, उसका दुःखी होना अनिवार्य है । महावीर ने कहा-दुःख को भी मत पकड़ो, आनन्द या सुख को भी मत पकड़ो। जो सुख और शांति से जीना चाहते हैं, उन सबके लिए यह बहुत काम की बात है । केवल काम में लेना और देखना बहुत दुःख का कारण नहीं बनता किन्तु जहां बन्धन और पकड बन जाती है, वहां द:ख होता है। जो भी सामने आता है, व्यक्ति उसे पकड़ लेता है। वह यह नहीं सोचता-उसका परिणाम क्या होगा ? समस्या यह भी है --- वह पकड़ता चला जा रहा है किन्तु अपनी पकड़ से अनजान बना हुआ है । मानसिक तनाव का कारण एक संन्यासी ने राजा जनक से कहा----महाराज ! वासना छुट नहीं रही है । जनक ने एक खंभे को पकड़ लिया और जोर से चिल्लाए---खम्भे ने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आस्तत्व आर आहता मुझे पकड़ लिया । संन्यासी हंस पड़ा। वह बोला-महाराज ! आप आत्मज्ञानी हैं । यह कैसा आत्मज्ञान ? क्या खम्भा कभी पकड़ता है ? आपने स्वयं खंभे को पकड़ रखा है। जनक बोले- मुझ पर ही हंसते हो या अपने पर भी हंसना जानते हो ? वासना ने तुम्हें पकड़ा है या तुमने वासना को पकड़ा है ? संन्यासी को बोध-पाठ मिल गया। __यह सचाई हमारी आंखों के सामने है पर ऐसा सघन कुहासा छाया हुआ है कि हम उसे देख नहीं पा रहे हैं। यदि अग्रहण की बात समझ में आए, पकड़ को मजबूत न बनाएं तो सुख का रहस्य उपलब्ध हो जाए। जितना मानसिक तनाव है, वह पकड़ के कारण है । मानसिक तनाव आज की बीमारी नहीं है। पकड़ने की आदत प्राचीनकाल से ही चल रही है। यदि पकड़ न हो तो ग्रन्थि न बने । कोई बात होती है, व्यक्ति उसे पकड़ लेता है, बार बार उसी बात पर चिन्तन चलता है, वह ग्रन्थि बन जाती है। वह सोचता है-अमुक व्यक्ति ने मुझे दुष्ट और बेवकफ कहा है, मैं इसका बदला लेकर रहूंगा। मन में एक गहरी गांठ बन जाती है। वह खुलती नहीं, घुलती चली जाती है। दुष्ट और बेवकूफ कहने वाला मर जाए तो भी बात मन से निकलती नहीं है । यह पकड़ की समस्या है । अग्रही बनो महावीर ने कहा-अग्रही बनो । ग्रहणशील होना भी अच्छा है किन्तु सब जगह ग्रहणशील होना अच्छा नहीं है। मनुष्य सोचता है--दुःख का अग्रहण करें पर सुख का अग्रहण क्यों करें ? यदि सुख का ग्रहण न करें तो संसार में जीने का मतलब ही क्या है ? वह यह नहीं सोचता--यदि सुख को पकड़ने की आदत मजबूत बन गई तो क्या वह एक ही जगह काम आएगी ? जो औजार ऑपरेशन करने के काम आता है क्या वह दूसरे कार्य में काम नहीं आ सकता? बौद्ध भिक्षु बबूल के बड़े-बड़े दतौन रखते थे। एक दिन दो भिक्षुओं में झगड़ा हो गया । उन्होंने एक दूसरे पर दतौन का प्रयोग कर लिया। यह बात बुद्ध तक पहुंची । बुद्ध को एक नया विधान बनाना पड़ा-कोई भी भिक्षु एक बिस्ता से बड़ा दातुन नहीं रखेगा। दतौन का नियम बनाया जा सकता है पर हथेली को उठाने का नियम नहीं बनाया जा सकता। वह सबके पास है, उसे नियम के घेरे में कैसे बांधा जा सकता है ? जब हमारी आदत ग्रहण करने की बन जाती है तब किसी भी चीज का उपयोग हो सकता है। हम अच्छी बात को ग्रहण करेंगे तो बुरी बात को भी रोक नहीं पाएंगे । सुख को ग्रहण करने की आदत है तो दुःख को ग्रहण करने की आदत भी बन जाएगी। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या अरति ? क्या आनन्द ? ग्रहण से जुड़ी है समस्या । मानसिक तनाव से मुक्त रहने का महत्त्वपूर्ण उपाय है—अग्रहण की आदत डालना, अग्रहण का अभ्यास करना यह अध्यात्म की बहुत ऊंची बात है किन्तु इससे व्यवहार नहीं चल पाता । व्यवहार में ग्रहण करना होता है । व्यक्ति सोचता है जो सामने आए और उसे ग्रहण न करें, यह कैसे सम्भव है, किन्तु वह यह कभी नहीं देखता कि ग्रहण करने में कितनी समस्याएं हैं । आदमी आंख से देखता है और सामने वाले पदार्थ को पकड़ लेता है । दुनिया में कितने लोग हैं, स्त्रियां हैं, पदार्थ हैं । यदि आदमी उन्हें देखता चला जाए, पकड़ता चला जाए तो आंख की क्या स्थिति होगी ? मन की क्या स्थिति होगी ? क्या आदमी देखते-देखते पागल नहीं हो जाएगा ? वह देखतेदेखते भीतर से दुःखी बन जाता है। एक-दो से बन्धने वाला भी दुःख भोगता है तो हजारों-हजारों से बन्धने वाला क्या तनाव से नहीं भरेगा ? वह इतना तनावयुक्त जीवन जिएगा कि जीवन में कुछ भी नहीं कर पाएगा । रेचन करना सीखें ग्रहण मत करो -- यह महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है किन्तु यह सबके लिए सम्भव नहीं बन पाता । ग्रहण की सीमा करो - यह सबके लिए सम्भव बन सकता है | हम अग्रहण की बात तक एक साथ नहीं पहुंच सकते । उसके लिए क्रमशः अभ्यास करना होता है। हम ग्रहण करने की आदत को कमजोर बनाएं, कमजोर बनाते चले जाएं, एक दिन हम अग्रहण की स्थिति में पहुंच जाएंगे । अभ्यास का पहला सूत्र है— छोड़ने की आदत डालें, रेचन करना सीखें । ग्रहण करें और निकाल दें । श्वास की प्रक्रिया इसका एक उदाहरण है | श्वास केवल लिया ही लिया जाता, छोड़ा नहीं जाता तो आदमी जी नहीं पाता । निश्चित नियम है- श्वास लेने के साथ छोड़ना जरूरी है । यही नियम भोजन का है । व्यक्ति भोजन करता ही चला जाए, उत्सर्ग न करे तो कब तक जी पाएगा । अर्जन के साथ विसर्जन का सम्बन्ध है । व्यक्ति अर्जन करता चला जाए, विसर्जन न करे, संग्रह की सीमा न करें तो तनाव से भर जाएगा । हमारे सामने ये तीन नियम हैं श्वास और निःश्वास का, आहार और नीहार का, अर्जन और विसर्जन का । ठीक उसी प्रकार एक नियम है ग्रहण और रेचन का । १०१ हमारे भीतर यह शक्ति जागनी चाहिए - दुःख आए, ग्रहण करें और उसका रेचन कर दें । सुख आए, ग्रहण करें और उसका रेचन कर दें । हम किसी चीज को पकड़ कर न रखें। यह छोड़ने की प्रक्रिया भगवान महावीर के अग्रहण सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण सूत्र बन सकती है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अस्तित्व और अहिंसा सर्वोत्तम समाधान अभ्यास का एक सूत्र है-कल्पनाओं का भेदन । आचारांग का महत्त्वपूर्ण सूत्र है--बिधूतकप्पे-कल्पना का भेदन करो, कल्पनाओं का जीवन मत जीओ, व्यर्थ की कल्पनाएं मत करो। दुःख और मानसिक तनाव कल्पना के सहारे पलता है । कल्पना से मुक्त होने का सूत्र है-वर्तमान की अनुपश्यना, वर्तमान का दर्शन । वर्तमान को देखने वाला व्यक्ति अग्रहण का जीवन जी सकता है । यदि वर्तमान को छोड़कर व्यक्ति अतीत की स्मृति में उलझ जाता है, भविष्य की कल्पना में उलझ जाता है तो वह सुख-दुःख के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो पाता। सुख या दुःख की कभी कोई घटना घट जाती है। व्यक्ति उसकी स्मृति से दयनीय बन जाता है, पागल बन जाता है। स्मृति और कल्पना से बचने वाला ही अग्रहण की दिशा में बढ़ सकता है। यदि हम ग्रहण न करने का अभ्यास करें, जो ग्रहण हो जाए, उसका रेचन कर दें, उसकी गांठ न बनाएं तो हम द्रष्टा बन सकते हैं, अरति और आनन्द-दोनों से परे जा सकते हैं, दुःख और तनाव से बच सकते हैं। धर्म का शब्द है--आर्तध्यान और आधुनिक शब्द है-मानसिक तनाव । अग्रहण की साधना, ग्रहण न करने का अभ्यास और गृहीत का रेचन करने की वृत्ति का विकास-इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान है। इस उपाय को काम में न लेने वाला आर्त्तध्यान या मानसिक तनाव से नहीं बच सकता, अरति और आनंद से ऊपर नहीं उठ सकता। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १८ संकलिका • जे कोहदंसी से माणदंसी...... जे तिरियदंसी से दुःखदंसी। (आयारो ३३८३) • से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्ज च, दोसं च, मोहं च, गम्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च। (आयारो ३८४) ० दुःख : चार प्रकार सहज-भूख-प्यास आदि से होने वाला दुःख नैमित्तिक-सर्दी, गर्मी आदि से होने वाला दुःख देहज-रोग आदि से होने वाला दुःख मानसिक-संयोग-वियोग से होने वाला दुःख ० लौकिक आदमी की पहुंच ० पहुंच आत्मविद् की ० दुःख का एक चक्र जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु ० चिकित्सालक्षण की नहीं, लक्ष्य की रोग की नहीं, रोगी की ० शरीर-केन्द्रित है दुःख की परिभाषा ० दुःख के मूल चक्र को पकड़े • रोटी-पानी की समस्या जटिल क्यों है ? • समस्या का मूल है लोभ । ० ० ० Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख का चक्र संसार में दुःख का चक्र चलता है । दुःख का कोई एक रूप नहीं होता । लौकिक आदमी का दुःख पदार्थ के अभाव से जुड़ा होता है। रोटी, कपड़ा, मकान, धन, परिवार, जायदाद आदि के अभाव या कमी को व्यक्ति कष्ट मानता है। शरीर को कोई कष्ट होता है तो व्यक्ति मानता है-दुःख है। शरीर और पदार्थ के आस-पास दुःख का एक चक्र चल रहा है। जो आत्मविद् है, आत्मा और धर्म के मर्म को जानता है, उसे शरीर का दुःख दुःख लगता ही नहीं । उसे शरीर का दुःख दुःखरूप लगता तो तपस्या की सूची इतनी लंबी नहीं होती। भोजन न करना एक लौकिक आदमी के लिए दुःख हो सकता है लेकिन एक आत्मविद् के लिए वह दुःख नहीं है। दुःख के प्रकार नयचक्र में दुःख के चार भेद बतलाए गए हैं--- सहजं खुधाईजाद, गहमित्तं सीदवादमादीहि । रोगादिया अ देहज, अणिट्ठजोए तु माणसियं ॥ सहज दुःख---भूख, प्यास आदि से होने वाला दुःख । नैमित्तिक दुःख–सर्दी, गर्मी, हवा आदि से होने वाला दुःख । देहज दुःख---रोग आदि से होने वाला दुःख । मानसिक दुःख-इष्ट-अनिष्ट के वियोग-संयोग से होने वाला दुःख । लौकिक आदमी की पहुंच शारीरिक और मानसिक दुःख से आगे नही है । उसकी दृष्टि में शारीरिक दुःख ही प्रधान होता है लेकिन आत्मविद् के दृष्टि में यह दुःख नहीं है। उसकी दृष्टि में मुख्य दुःख है क्रोध आदि कषायों क समुद्भव लोकानां देहजं दुःखं, प्रधानं दृश्यते मतम् । दुःखमात्मविदां मुख्यं, क्रोधादीनां समुद्भवः ॥ इलाज किसका आज की चिकित्सा पद्धति भी शारीरिक और मानसिक चिकित्सा पर केन्द्रित है । जो आत्मज्ञ है, वह शारीरिक और मानसिक दुःख को दुःख नह मानता । उसकी दृष्टि में दुःख का चक्र कोई दूसरा है। एक आदमी के पैर में कांटा चुभ गया, वह डॉक्टर के पास गया । डॉक्टर ने पैर के इलाज के बजार आंख' में दवा डाली । रोगी ने इसका रहस्य जानना चाहा। डॉक्टर ने कहा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख का चक्र १०५ तुम्हारी आंख की ज्योति कम है, ठीक से दिखाई नहीं देता इसलिए कांटा चुभ गया । आंखें ठीक होंगी, देखकर चलोगे तो कांटा नहीं चुभेगा। हम इसे इस भाषा में समझे । लौकिक आदमी कांटे का इलाज करेगा, आंख का इलाज नहीं करेगा। आत्मविद् आंख का इलाज करेगा, कांटे चुभने के मूल कारण को मिटाएगा । आंख ठीक है तो कांटे कम चुभेंगे । आंख ठीक नहीं है तो कांटे चुभते ही रहेंगे । लक्षण की नहीं, लक्ष्य की चिकित्सा व्यक्ति क्रोध करता है। आत्मविद् सोचेगा-क्रोध उत्पन्न हुआ है इसका अर्थ है-----मैं बीमार हो गया। जैसे रोग होने पर चिन्ता हो जाती है, व्यक्ति दवाओं का अंबार लगा लेता है वैसे ही क्रोध आने पर जो व्यक्ति चिन्तित हो जाए और उसका मन क्रोध का शमन करने वाली दवाओं का प्रयोग करने लग जाए तो मानना चाहिए-उस व्यक्ति ने धर्म को समझा है, आत्मा को समझा है। उसके लिए क्रोध का आना दुःख है। उसके लिए शेष सारे दुःख कुछ नहीं हैं। सर्दी आती है, कष्ट होता है। सर्दी चली जाती है, शीतजन्य कष्ट समाप्त हो जाता है । यह ऋतुचक्र से उत्पन्न होने वाला कष्ट है किन्तु दुःख का जो शाश्वत चक्र है, वह कभी नहीं बदलता। महावीर ने दुःख का एक चक्र बतलाया-जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु । वस्तुतः यह दुःख चक्र का मूल बिन्दु नहीं है। इसीलिए इस बात पर बल दिया गया—कांटे पर ध्यान मत दो, कांटा क्यों चुभा, इस पर ध्यान दो । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की तरह लक्षण की चिकित्सा मत करो, लक्ष्य की चिकित्सा करो । घुटने में दर्द है तो घुटने की चिकित्सा मत करो। जिस शरीर में घटना है, उस शरीर की चिकित्सा करें, इसका तात्पर्य हैरोग की नहीं, रोगी की चिकित्सा करें। अगर रोगी ठीक है तो रोग अपने आप ठीक हो जाएगा । अगर रोगी ठीक नहीं है तो चिकित्सा करने पर घुटने का दर्द तो समाप्त हो सकता है किन्तु उसके साथ दूसरा दर्द उभर भी सकता है । इसीलिए कहा गया---रोगी चिकित्सा का केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए । दुःखचक्र : मूल स्वरूप भगवान महावीर ने दुःखचक्र का मूल स्वरूप प्रस्तुत कियाजे कोहदंसी से माणदंसी जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है । जो माणदंसी से मायदंसी जो मान को देखता है, वह माया को देखता है। ने मायदंसी से लोभदंसी जो माया को देखता है, वह लोभ को देखता है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अस्तित्व और अहिंसा जे लोभदंसी से ज्जदंसी जो लोभ को देखता है, वह प्रेम को देखता है। जे पेज्जदंसी से दोसदंसी जो प्रेम को देखता है, वह द्वेष को देखता है । जे दोसदंसी से मोहदंसी जो द्वेष को देखता है, वह मोह को देखता है। जे मोहदंसी से गब्भदंसी जो मोह को देखता है, वह गर्भ को देखता है । जे गब्भदंसी से जम्मदंसी जो गर्भ को देखता है, वह जन्म को देखता है। जे जम्मदंसी से मारदंसी जो जन्म को देखता है, वह मृत्यु को देखता है । जे मारदंसी से निरयदंसी जो मृत्यु को देखता है, वह नरक को देखता है । जे निरयदंसी से दुक्खदंसी जो नरक को देखता है, वह दुःख को देखता है । अन्तहीन चक्र दुःख-चक्र का आदि-बिन्दु है--क्रोध और अन्तिम बिन्दु है दुःख । कहा जाता है----चौरासी लाख जीवयोनि का एक चक्र है, जिसमें प्राणी निरन्तर घूमता रहता है । उसमें एक ही दरवाजा है। उसमें से निकल पाना बड़ा कठिन है। कहीं दरवाजा मिल जाए, भाग्य साथ दे और व्यक्ति आंख न मूंदे तो इस भ्रमण से छुटकारा मिल जाता है। किन्तु जब भाग्य साथ नहीं देता है तो यह बात समझने में भी कठिनाई होती है । जहां कुछ रास्ता मिलने का प्रसंग आता है, वहां आंख मूंद लेने की बात आ जाती है । हम इस भाषा में सोचें-क्रोध और दुःख का एक अन्तहीन चक्र है । उससे निकल पाना बहुत कठिन है । अज्ञान का एक ऐसा आवरण छाया हुआ है कि आदमी आंख मूंदकर चल रहा है । आंख खुली होने पर भी वह आवरण देखने में एक अवरोध बना रहता है । कभी-कभी आदमी जानबूझकर भी आंख मूंद लेता है । यही कारण है--व्यक्ति दु:ख के मूल की ओर ध्यान नहीं देता। वह दुःख के स्थूल रूप को मिटाने में ही अपनी शक्ति का नियोजन करता है । चिन्तन का कोण ___ शरीर में ज्वर आता है, जुकाम लग जाती है। व्यक्ति सोचता हैदुःख पैदा हो गया। वह उसके इलाज की चिन्ता करने लग जाता है। परिचारक भी कहते हैं-इसका जल्दी इलाज कराओ। व्यक्ति को क्रोध भी आता Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख का चक्र १०७ है । क्या वह सोचता है-दुःख पैदा हो गया ? इसका इलाज करवान' है ? क्या आस-पास के परिजन सोचते हैं---इसे डॉक्टर को दिखाएं, क्रोध को मिटाने का उपाय करें ? हम यह मानते ही नहीं हैं कि क्रोध आना कोई दुःख है ? अहंकार और लोभ का होना कोई दुःख है ? क्रोध दिखाई देता है, अहंकार और लोभ छिपे रहते हैं। एक पुत्र संतोषी है। वह पिता से कहता हैपिताजी ! मैं दहेज नहीं लूंगा। पिता का उत्तर होगा--तू जानता क्या है ? पंचायती मत कर । पुत्र कहता है—पिताजी ! हम बेईमानी नहीं करेंगे । पिता उसे डांट पिला देता है---तुम्हें कमाने का अनुभव ही नहीं है । शरीर-केन्द्रित है दुःख की परिभाषा . ___ दुःख की परिभाषा शरीर के आसपास केन्द्रित है। क्रोध, अहंकार और लोभ दु:ख नहीं हैं, इस मान्यता के कारण दुःख की परिभाषा शरीर के साथ जुड़ गई, दुःख-चक्र का मूल स्वरूप उपेक्षित हो गया। आज राजतंत्र और चुनाव-तंत्र भी शारीरिक दुःख को मिटाने के प्रयत्न कर रहे हैं। राजनीति में जो नारे दिए जाते हैं, आश्वासन दिए जाते हैं, वे शरीर से जुड़ी हुई समस्याओं के समाधान के लिए होते हैं । हम लौकिक समस्याओं में ही उलझे हुए हैं । हमने इस तथ्य को भुला दिया--जब तक दुःख के मूल कारण को नहीं मिटाया जाएगा तब तक लौकिक दुःख भी नहीं मिट पाएगा। जनता की शिकायत है—रिश्वतखोरी बहुत चल रही है, न्याय नहीं मिल रहा है । प्रश्न है--रिश्वत क्यों चल रही है ? क्या वह रोटी के लिए चल रही है ? वह रोटी के लिए नहीं, लोभ के लिए चल रही है। अहंकार की बीमारी है तो अन्याय क्यों नहीं होगा ? राग-द्वेष आदि प्रबल हैं तो अपराध क्यों नहीं होंगे ? समस्या का मूल महावीर ने इस बात पर बल दिया--दुःख के मूल चक्र को पकड़ो। यदि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का इलाज किया जाता है तो क्या अन्याय, अपराध, अतिक्रमण, बलात्कार और लूट-खसोट समाप्त नहीं हो जाएंगे ? इन सबकी समाप्ति होने पर भी क्या जेलें भरी रहेंगी ? क्या बलप्रयोग और पुलिस की आवश्यकता रहेगी ? आज ये सारी समस्याएं इसीलिए प्रबल बनी हुई हैं कि दुःख के मूल को मिटाने की दिशा में कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है । यदि इस दुःख-चक्र को समझ लिया जाए तो अनेक समस्याएं स्वतः हल हो जाए । रोटी, पानी की समस्या भी इस दुःखचक्र के कारण जटिल बनी हुई है । यदि लोभ की प्रबलता का इलाज किया जाता, लोभ-शमन की दवाओं का आविष्कार और प्रयोग होता तो रोटी-पानी की समस्या नहीं रहती । संसार में इतने पशु-पक्षी हैं । क्या कोई भूख से मरता है ? भूख से मरने वालों की Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अस्तित्व और अहिंसा संख्या कितनी है ? पृथ्वी कितना उगलती है ! थोड़ी-सी वर्षा होती है, हरियाली फूट पड़ती है। फिर भूख की समस्या क्यों है ? यह समस्या उन लोगों ने पैदा की है, जो स्वार्थी हैं, लोभी हैं। कहीं-कहीं धन और अनाज का ढेर लगा हुआ है और कहीं-कहीं खाने को भी पूरा अन्न नहीं है। वास्तव में इस समस्या का मूल है लोभ । हम महावीर के इस वचन को समझ कर ही समस्या मुक्त जीवन जी सकते हैं। यदि वास्तविक दुःख चक्र मिटता है, तो लौकिक दुःखचक्र अपने आप मिट जाएगा। इस सचाई के आलोक में ही दुःखमुक्ति का स्वप्न सार्थक बन सकता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १६ | संकलिका ( ० सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइरइसहे फरुसियं णो वेदेति । (आयारो ३/७) ० सच्चंसि धिति कुव्वह। (आयारो ३/४०) ० पुरिसा ! तुममेव तुमंमित्तं किं बहिया मित्त मिच्छसि । ० पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिझ एवं दुक्खा पमोक्खसि । (आयारो ३/६२,६४) • आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि, (आयारो ३/८६) ० उत्साहस्य ऊर्ध्वलोकवस्तुचित्ता, पराक्रमस्य अधोलोक-चिन्ता। चेष्टायाः तिर्यग्लोकचिन्तनम् । शक्तेः सत्व-परमतत्व-चिन्ता । सामर्थ्यस्य सिद्धायतन-सिद्धस्वरूप-चिन्तालम्बनम् । (ध्यान-विचार पृ० ३६) ० उत्पत्तिवाद : विकासवाद ० आनन्द का केन्द्र : दुःख का केन्द्र ० शक्ति के स्रोत सत्य में धृति स्वयं का निग्रह स्वयं से मित्रता आदान का निषेध ० विक्रमादित्य : पुरुषार्थ पर विश्वास ० शक्ति : अनेक रूप : उत्साह-ऊर्ध्व लोक वस्तु चिन्ता पराक्रम-अधोलोक चिन्ता चेष्टा—तिर्यग्लोक चिन्ता शक्ति--परमतत्त्व चिन्ता सामर्थ्य-सिद्धस्थान एवं सिद्धस्वरूप की चिन्ता Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो सहता है, वही रहता है सिद्धांत विकासवाद का आधुनिक युग को प्रभावित करने वाले दो-चार प्रमुख व्यक्तियों में एक हैं-चार्ल्स डार्विन । उन्होंने इवोल्यूशन का सिद्धान्त, विकासवाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया। प्रश्न है—इस दुनिया का विकास कैसे हुआ ? दो सिद्धान्त हैंउत्पत्तिवाद और विकासवाद । इस दुनियां की उत्पत्ति कैसे हुई ? और उसक विकास कैसे हुआ ? इस सन्दर्भ में अनेक दार्शनिकों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए किन्तु उन सबमें आअ वैज्ञानिक दृष्टि ने चार्ल्स डाविन मुख्य माने जाते हैं। डार्विन आदि का विकासवाद का सिद्धान्त है---जींस विकास करते-करते यहां तक पहुंचे हैं और वे ही जातियां-प्रजातियां बची हैं, जो अपने आपको फिट करने में सक्षम हुई हैं। जो फिट करने में असक्षम हुई, वे समाप्त हो गई । इस दुनिया में वही व्यक्ति जीवित रहता है, जो सक्षम और शक्तिशाली होता है । जो शक्तिहीन होता है, वह समाप्त हो जाता है, यह विकासवाद की मुख्य अवधारणा है । प्रश्न है शक्ति का ___ शक्ति के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता । मारने वालों का कहीं अन्त ही नहीं है । एक जीव दूसरे जीव को मार रहा है । एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार रहा है। अपने भोजन के लिए भी और बिना मतलव के भी । आक्रामकता, क्रूरता और विनोद के दृष्टिकोण के कारण प्राणी मारे जा रहे हैं । इस स्थिति में अपने अस्तित्व को वही बनाए रख सकता है, जो सक्षम है। जैसे यह बात सृष्टि के विषय में लागू होती है वैसे ही यह नियम आध्यात्मिक जगत् में भी लागू होता है। आध्यात्मिक जीवन में वही व्यक्ति टिकता है, जो सहता है, जो शक्तिशाली होता है। जिसमें शक्ति नहीं होगी वह क्या सहन करेगा ? सहन करना हमारी क्रिया है और उसके पीछे जो सूत्र है, वह है शक्ति । कमजोर आदमी कभी सहन नहीं कर सकता। शक्ति और सहिष्णुता __ शक्ति और सहिष्णुता—दोनों साथ-साथ जुड़े हुए हैं । हमें खोजना हैशक्ति के स्रोत कहा हैं ? कितने हैं ? 'सहन करो', यह उपदेश बहुत अच्छा है पर कहने मात्र से सहन करने की शक्ति उपलब्ध नहीं होती। जब तक शक्ति के स्रोत नहीं खुल जाते, तब तक सहन करने की बात सम्भव नहीं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो रहता है, वही रहता है १११ बनती । हम शक्ति स्रोतों की खोज करें। हमारे अध्यात्म के आचार्यों ने बहुत खोजें की थीं, वे चाबिर्या आज भी प्राप्त हो सकती हैं पर हम भूल गए हैं कि वे कहां पड़ी हैं ? कहां है शक्ति का स्रोत आजकल मस्तिष्क के बारे में बहुत खोजें चल रही हैं । वैज्ञानिकों द्वारा मस्तिष्क के दो केन्द्र खोजें गए हैं। एक है सुख का केन्द्र और दूसरा है - दुःख - विषाद का केन्द्र । बन्दरों पर प्रयोग किया गया। एक बंदर के आनन्द के केन्द्र पर इलेक्ट्रॉड लगा दिया गया । कि वह स्वयं बार-बार अपने आप इलेक्ट्रॉड लगाने बन्दर के दुःख के केन्द्र पर इलेक्ट्रांड लगाया गया, वह उदास - निराश रहने लगा | वैज्ञानिकों ने आनन्द का केन्द्र भी खोज लिया, दुःख का केन्द्र भी खोज लिया । शक्ति के केन्द्र की खोज अभी शेष है । उसे इतना आनन्द आया लगा । इसी प्रकार दूसरे शक्ति : अनेक रूप हमारे भीतर शक्ति के बहुत सारे केन्द्र हैं । एक आदमी शरीर से बहुत समर्थ होता है और एक आदमी मनोबल से बहुत समर्थ होता है । ध्यान विचार में एक सुन्दर मीमांसा की गई है— उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य – ये सब शक्ति के ही स्वरूप हैं । शक्ति के अनेक रूप बनते हैं, ये सब उसके वाचक शब्द हैं । · उत्साह - ऊर्ध्व लोक वस्तु चिन्ता | हमारी एक शक्ति का रूप है उत्साह । जब ऊपर की बातों को जानना होता है और उसके लिए शक्ति का जो प्रयोग किया जाता है, उस शक्ति का नाम है— उत्साह पराक्रम - अधोलोक चिन्ता | एक व्यक्ति जिस स्थान पर बैठा है, उसे आस-पास की चीजों को जानना है, उसके लिए शक्ति का जो प्रयोग होता है, वह है पराक्रम । • चेष्टा - तिर्यग् लोक चिन्ता । जब नीचे की चीजों को जानना होता है तब शक्ति का स्वरूप होता है चेष्टा । जहां अन्धकारमय स्थान है, वहां चेष्टा का प्रयोग होता है । • शक्ति परम तत्त्व चिन्ता । ऊपर को जानना, तिरछी चीज को जानना सरल है किन्तु परम तत्त्व का ज्ञान कठिन है । एक स्थान पर बैठे-बैठे परम तत्त्व को जानना है और उसके लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह है हमारी शक्ति । • सामर्थ्य -- सिद्धायतन एवं सिद्धस्वरूप चिन्ता | निर्णीत स्थान से बैठे-बैठे सिद्धों के साथ सम्पर्क स्थापित करना है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अस्तित्व और अहिंसा और उसके लिए हम जो प्रयत्न करते हैं, वह है हमारा सामर्थ्य । कौन होता है निग्रंथ अनेक लोग प्रश्न पूछते हैं—क्या महावीर और देवद्धिगणि के साथ सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है ? कुन्दकुन्द के साथ सम्पर्क सम्भव बन सकता है ? क्यों नहीं हो सकता ? हमारे भीतर प्रचुर शक्ति है । हमारे भीतर वैक्रिय की एक शक्ति है, आहारक की एक शक्ति है। हमारे मन की शक्ति भी कम नहीं है । मनोवर्गणा के पुद्गल पूरे लोक में फैल जाते हैं पर हम अपनी शक्ति को पहचानते नहीं हैं। शक्ति का होना जितना कठिन नहीं है उतना कठिन है शक्ति को पहचानना, शक्ति के स्रोतों को जानना, शक्ति के स्रोतों का उपयोग करना। प्रश्न पूछा गया-निर्ग्रन्थ कौन होता है ? कहा गया-जो सर्दी और गर्मी-दोनों सहन करता है, वह निग्रंन्थ होता है, मुनि होता है। सर्दी का मतलब है अनुकूलता और गर्मी का मतलब है प्रतिकूलता । मुनि वह होता है, जो प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों को सहन करता है। सहन करने के लिए भी शक्ति चाहिए। पहला स्रोत शक्तिशाली ही सहिष्णु बन सकता है। जो सहिष्णु होता है, सहना जानता है वही अपने अस्तित्व को बनाए रख सकता है। अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सहना जरूरी है, सहने के लिए शक्तिशाली होना जरूरी है। और शक्तिशाली होने के लिए शक्ति स्रोत को जानना एवं उसका उपयोग होना जरूरी है । शक्ति-स्रोत का रहस्य इन सूत्रों में सहज उपलब्ध होता है सत्ये यस्य धृतिः सिद्धा, मित्रमात्मा निजो ध्रुवम् । निग्रहः स्वात्मना स्वस्य, तस्यास्तित्वं सनातनम् ॥ जिसकी सत्य में धृति सिद्ध हो गई, जिसका आत्मा ही अपना मित्र है, जो अपने द्वारा अपना निग्रह करना जानता है, उसका अस्तित्व शाश्वत है । महावीर ने कहा-शक्ति का एक स्रोत है--सत्य में धृति करना । शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है सत्य में धृति करना । हम नियम को नहीं जानते इसीलिए हमारा सत्य में भरोसा नहीं होता, सत्य के प्रति आस्था ही नहीं जमती । जहां सत्य में धैर्य नहीं होता वहां सहिष्णुता की बात ही सम्भव नहीं होती। कभी-कभी कुछ कार्य नियति के भरोसे छोड़ने पड़ते हैं । यह भी शक्ति का एक स्रोत है। जो आदमी केवल बुद्धि पर ही भरोसा करता है, वह लड़खड़ा जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जहां यह सोचना पड़ता हैचलो, जैसा होना है, वैसा होगा । इस चिन्तन से व्यक्ति में ताकत आ जाती है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो सहता है, वही रहता है ११३. दूसरा स्रोत शक्ति का दूसरा स्रोत है-स्वयं को स्वयं का मित्र मानना । जो अपने आपको अपना मित्र नहीं मानता, वह आदमी हमेशा कमजोर रहता है । जो केवल दूसरों को मित्र या शत्रु मानता है, वह हमेशा कमजोर बना रहता है । 'मैं ही मेरा मित्र हूं और मैं ही मेरा शत्रु हूं' यह शक्त-स्रोत के जागरण का सिद्धान्त है। तीसरा स्रोत शक्ति का तीसरा स्रोत है-स्वयं का निग्रह करना। जो अपनी इन्द्रियों का, आवेशों का, मन की चंचलता का निग्रह करना जानता है, उसमें अपने आप शक्ति का स्रोत फूट पड़ता है। दूसरों को आदेश देना, ताड़ना देना, उलाहना देना-ये काम कोई भी व्यक्ति कर सकता है । इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ा कार्य वह करता है, जो अपना अधिक से अधिक निग्रह करता है और उसके द्वारा ही दूसरों का अनुग्रह या निग्रह करता है। यह बड़ी बात है । महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया गया—पहले अपना निग्रह करो, इससे एक बड़ी ताकत पैदा होगी, समस्याओं का समाधान मिलेगा। चौथा स्रोत शक्ति का चौथा स्रोत है-आदान का निषेध । महत्त्वपूर्ण सूत्र है.----- प्रत्येक बात को सहसा मत स्वीकारो । पहले सोचो----यह क्या है ? क्या मैं इसे स्वीकार करूं ? क्या इसे स्वीकार करना उचित है ? हितकर है ? यह सब सोचकर जो अयोग्य लगे, उसे अस्वीकार कर दो। ___सम्राट विक्रमादित्य एक बार बहुत गरीबी का जीवन जी रहे थे, समस्या से ग्रस्त थे। विक्रमादित्य का मित्र था भट्टमात्र ।"दोनों ने निश्चय किया-हम देशाटन करें, कहीं ऐसा शक्ति का स्रोत खोजें, जिससे निर्धनता मिट जाए। वे एक गांव में कुम्हार के घर पर ठहरे । कुम्हार को उनकी गरीबी पर दया आ गई । कुम्हार ने कहा-हमारे यहां एक रोहणाचल पर्वत है वहां जाकर कोई व्यक्ति सिर पर हाथ रखकर, दीन स्वर में यह कहता है-'हा देव ! हा देव !' और यह कहकर उस पर्वत पर कुदाली की चोट करता है तो मालामाल हो जाता है । मित्र भट्टमात्र ने सोचा--विक्रमादित्य ऐसा करे, यह लगता नहीं है । उसने एक प्लान बनाया । वह विक्रमादित्य से थोड़ा पीछे रह गया । ज्योंहि विक्रमादित्य पर्वत के पास पहुंचे, मित्र ने कहा-विक्रम ! तुम्हारी मां का देहान्त हो गया है। शोक विह्वल विक्रमादित्य ने सिर पर हाथ रखक र कहा--हा देव ! हा देव ! यह कहते हुए उन्होंने कुदाली पत्थर पर गिरा दी। पत्थर टूट गया। पत्थर टूटते ही एक रत्न निकला। विक्रमादित्य यह देखकर स्तब्ध रह गए। भट्टमात्र से रत्न-प्राप्ति का रहस्य Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४. अस्तित्व और अहिंसा सुनकर विक्रमादित्य ने तत्काल वह रत्न जंगल में ऐसे फेंक दिया, मानो कुछ मिला ही नहीं था । विक्रमादित्य ने भट्टमात्र से कहा—विक्रम गरीब रह सकता है पर कभी दीन नहीं बन सकता। सार्थकता का अनुभव जिस व्यक्ति में यह पराक्रम होता है वह हर किसी बात को जैसे-तैसे स्वीकार नहीं करता। हम दरवाजे को हमेशा खुला न रखें। हर किसी को 'प्रवेश न दें, अपने आप शक्ति का स्रोत उपलब्ध हो जाएगा। महावीर ने केवल यही नहीं कहा-'निर्ग्रन्थ वह होता है, जो अनुकूलप्रतिकूल बात को सहन करता है किन्तु सहन करने के लिए जो शक्ति का स्रोत चाहिए, उसकी प्राप्ति के सूत्र भी बतलाए । जब आत्मा के अन्दर से शक्ति का स्रोत फूट जाता है, एकाग्रता और संकल्प की शक्ति जाग जाती है तब आदमी सचमुच अपनी अनन्त शक्ति का अनुभव करने लग जाता है, उसमें सहन करने की शक्ति प्रस्फुटित हो जाती है। इसी आधार पर “जो सहता है, वही रहता है" इस सूत्र की सार्थकता का अनुभव किया जा सकता है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २० | संकलिका • से बेमि-जे अईया, जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परुति-सव्वे पाणा सव्वे भूता सम्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । • एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयणेहिं पवेयए। .० तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सि चेयं पवुच्चई (आयारो ४।१-२, ४) ० प्रश्न शाश्वत और अशाश्वत का • अनुत्तरित प्रश्न ० अहिंसा धर्म शाश्वत है ० जहां बुद्धि है, वहां भेद अनिवार्य है ० जहां अनुभव है, वहां भेद नहा है ० परोक्ष है इन्द्रिय-ज्ञान ० प्रत्यक्ष है अतीन्द्रिय-ज्ञान ० आत्म-साक्षात्कार से निकला स्वर ० मूल्य नए और पुराने का ० शाश्वत धर्म है आत्म-साक्षात्कार ० धर्म की सरल परिभाषा ० धर्म है त्याग ० शाश्वत है पारिणामिक भाव .० शाश्वत है अस्तित्व • अस्तित्व की अनुभूति : व्यावहारिक तथ्य Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत धर्म शाश्वत और अशाश्वत का प्रश्न बहुत चर्चित रहा है। धर्म कब से है ? यह एक प्रश्न है। कुछ लोग कहते हैं-वैदिक धर्म सबसे पुराना है । कुछ लोग कहते हैं- जैन धर्म बहुत पुराना है। प्रत्येक धर्म का अनुयायी अपने धर्म की प्राचीनता को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । इतिहास का एक विषय बन गया-कौनसा धर्म पुराना है ? जहां इतिहास की बात समाप्त होती है वहां प्रागैतिहासिक काल की बात प्रस्तुत हो जाती है। वह अनंत काल पीछे चला जाता है । इसका अर्थ है-धर्म अनादि है । प्रश्न वही आता है----कौन सा धर्म ? यदि हम किसी धर्म को लाख या करोड़ वर्ष पुराना माने तो भी काल का आदि-बिन्दु पकड़ में नहीं आएगा। जब से कालचक्र चल रहा है, तब से धर्म चल रहा है। इसलिए कौनसा धर्म पुराना है ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता। हम जिस धर्म को अधिक प्राचीन मानेंगे, उसकी एक सीमा अवश्य आएगी। शाश्वत है अहिंसा धर्म भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का बहुत युक्तिसंगत उत्तर दिया । उन्होंने यह नहीं कहा-श्रमण धर्म, अर्हत् या निर्ग्रन्थ धर्म पुराना है अथवा वैदिक धर्म पुराना है । उन्होंने अजीब उत्तर दिया-जो धर्म सब सम्प्रदायों से ऊपर है, देशातीत और कालातीत है, जो सार्वभौम है, सबको मान्य है, वह धर्म शाश्वत है। महावीर ने कहा-जितने अर्हत् अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी अर्हतों ने इस शाश्वत धर्म का निरूपण किया--किसी भी प्राणी को मत मारो। यह अहिंसा धर्म शुद्ध धर्म है, शाश्वत है । इसमें कोई दोष नहीं निकाल सकता, मतभेद प्रदर्शित नहीं कर सकता । पूरे जगत् को देखने और परखने के बाद इस धर्म का प्रतिपादन किया गया । सब जीवों के खेद को जानकर इस धर्म का प्रतिपादन किया गया । जो आत्मज्ञ थे, आत्मतुला को जानने वाले थे, उन्होंने आत्मा का साक्षात्कार कर इस सचाई को अभिव्यक्ति दी। समान होता है अनुभव हमारे पास जानने के दो साधन हैं-बुद्धि और अनुभव । बुद्धि से हम बहुत बातें जानते हैं, उन्हें महत्व भी देते हैं किन्तु जहां बुद्धि का प्रश्न है वहां भेद का होना भी अनिवार्य है । दस बुद्धिमानों को एक स्थान पर बिठा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत धर्म ११७ दिया जाए और एक ही विषय पर उनके विचार को जाना जाए तो दस प्रकार के विचार प्रस्तुत हो जाते हैं । भेद का होना, यह बुद्धि का धर्म है, प्रकृति है । जहां बौद्धिकता है, वहां भेद हुए बिना नहीं रहता । अनुभव में कोई भेद नहीं होता। यदि हजार व्यक्तियों को अलग-अलग स्थानों पर बिठा दिया जाए तो भी अनुभव के क्षेत्र में वे सब समान होंगे। एक लाडनूं में है, एक लंदन में है, एक मास्को और वाशिंगटन में है, एक मेरूपर्वत पर है और एक देवलोक में है । स्थान-भेद होने पर भी इनके अनुभव में कोई भेद नहीं होगा । अनुभव का ज्ञान सबका एक समान, एक जैसा होगा। आत्म-साक्षात्कार का स्वर हम दूसरा संदर्भ लें। ज्ञान दो प्रकार का होता है—प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष ज्ञान भिन्न-भिन्न होता है किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति का एक समान होगा। जैन आचार्यों ने इन्द्रियों को बहुत महत्त्व नहीं दिया क्योंकि वे परोक्ष हैं । हम इन्द्रियों का बहुत भरोसा करते हैं, आंख का बहुत भरोसा करते हैं कि तु वे प्रत्यक्ष नहीं हैं, परोक्ष हैं । इसीलिए बहुत बार धोखा हो जाता है। परोक्ष आखिर परोक्ष ही है। उसका अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष है आत्मज्ञान–अतीन्द्रिय ज्ञान । इस सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन उन व्यक्तियों ने किया, जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त था, जिनकी अतीन्द्रिय चेतना जागत थी। उन्होंने अपने साक्षात् ज्ञान के द्वारा पूरे जगत् को जाना, जीव और अजीव को जाना, सूक्ष्म और स्थूल-सब पदार्थों को जाना । सबके स्वभाव का अनुभव किया। अपनी आत्मा को जाना और आत्म-तुला से सब प्राणियों को तौला । अपने अनुभव को इस भाषा में अभिव्यक्ति दी-'सव्वे पाणा ण हंतव्वा' । यह बुद्धि का स्वर नहीं है, आत्म-साक्षात्कार से निकला हुआ स्वर है-किसी प्राणी को मत मारो। यह शाश्वत धर्म है, देश और काल से प्रतिबद्ध नहीं है। आत्मा और धर्म ___सम्प्रदाय देश और काल से प्रतिबद्ध होता है। प्राचीनता और नवीनता का जो प्रश्न आज प्रस्तुत है, वह धर्म के साथ नहीं, संप्रदाय के साथ जुड़ा हुआ है । कौनसा संप्रदाय पुराना है और कौनसा नया ? प्रश्न यह भी है-नए और पुराने का मूल्य क्या है ? जो इस शाश्वत स्वर का उच्चारण करने वाला है, वह नया भी अच्छा है, पुराना भी अच्छा है। हम धर्म और सम्प्रदाय के बारे में नए-पुराने की चर्चा करते हैं, यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। ___ शाश्वत धर्म है आत्म-साक्षात्कार । आत्मा को छोड़कर धर्म की बात नहीं की जा सकती। आत्मा है तो धर्म है। आत्मा नहीं है तो धर्म नहीं है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा आत्मा और धर्म में शाश्वतवादिता है। धर्म है आत्मा का अनुभव, शुद्ध चेतना का अनुभव । धर्म का अर्थ इतना ही है, वह जटिल नहीं है किन्तु संप्रदायों ने धर्म को जटिल बना दिया। शाश्वत है पारिणामिक भाव एक विदेशी भाई ने प्रश्न किया-धर्म क्या है? उसकी सरल परिभाषा क्या है ? महावीर वाणी के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर होगा, धर्म है अपने स्वभाव में रहना । आत्मा का जो स्वभाव है, वह अपने उस स्वभाव में रहना चाहती है । उसमें निरन्तर एक आन्दोलन चल रहा है, जिसका नाम है पारिणामिक भाव-मुझे अपने अस्तित्व में रहना है, अपने घर में रहना है। इसी आन्दोलन का नाम है धर्म । वह अपने घर को किराएदारों से खाली करवाने के लिए सतत संघर्षरत रहता है। राग और द्वेष-ये दो ऐसे किराएदार हैं, जो जबरदस्ती अपना अड्डा जमा कर बैठ गए हैं । राग और द्वेष का रहना अधर्म है और इनसे अपने को मुक्त करना धर्म है। शुद्ध अस्तित्व का प्रश्न योग के आचार्यों ने बार-बार इस बात पर बल दिया-उपादेय कुछ भी नहीं है, लेना कुछ भी नहीं है, सब कुछ छोड़ना ही छोड़ना है। जं विजातीय तत्व भीतर भरे हैं, उन्हें निकालो, निकालते चले जाओ। बचेग केवल शुद्ध अस्तित्व । आचार्य भिक्षु ने कहा-त्याग धर्म है। जैन आचार्य ने लेने की बात को धर्म नहीं कहा। इसका अर्थ है-शाश्वत हमारे भीत बैठा है, जीव का पारिणामिक भाव हमारे भीतर है। कर्म कभी भी उ प्रभावित नहीं कर सकता। पारिणामिक भाव कर्म के अधीन नहीं है, व स्वतंत्र है । यदि पारिणामिक भाव नहीं होता तो कर्म के पुद्गल जीव क अजीव बना डालते । आत्मा आत्मा नहीं रहती, जीव जीव नहीं रहता। उ पुद्गलों ने आत्मा पर कितना ही आक्रमण किया है पर वे कभी आत्मा व अनात्मा नहीं बना पाए । शक्तिशाली तत्त्व ____ कहा जाता है---हिन्दुस्तान पर इतने आक्रमण हुए पर हिन्दु जाति अपने अस्तित्व को बनाए रखा। बहुत लोग आश्चर्य करते हैं हम पर बह आक्रमण किए गए पर हमारी हस्ती को कोई मिटा नहीं सका। इस कारण क्या है ? हिन्दू जाति का अस्तित्व सनातन है या नहीं, यह प्रश्न सकता है किन्तु आत्मा का अस्तित्व शाश्वत है, इसमें कोई संदेह नहीं है इस पर कबसे आक्रमण चल रहा है, इसका कोई पता नहीं है। अनादिका से आत्मा पर पुद्गलों के आक्रमण चल रहे हैं किन्तु इसके अस्तित्व पर के Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत धर्म ११६ आंच नहीं आई । आत्मा और पुद्गल-दोनों के संग्राम में अस्तित्व का दीप सदा निष्प्रकंप बना रहा । पारिणामिक भाव ऐसा शक्तिशाली तत्व है, जो अस्तित्व को बनाए हुए है। धर्म है अस्तित्व की अनुभूति अस्तित्व शाश्वत है। उसकी अनुभूति का नाम है धर्म । धर्म भी शाश्वत है । अस्तित्व की अनुभूति से एक व्यावहारिक बात निकली—यदि तुम्हारा अस्तित्व तुम्हें प्रिय है, उसे तुम बनाए रखना चाहते हो तो दूसरों के अस्तित्व में भी दखल मत दो। इस महान् भावना को समेटे हुए यह स्वर प्रस्फुटित हुआ है-सव्वे पाणा ण हंतव्वा । इस स्वर के पीछे सनातन अस्तित्व की भावना है। इसमें कोई सांप्रदायिक संकीर्णता नहीं है। महावीर ने कहा-संप्रदायवाद अच्छा नहीं है, सांप्रदायिक कट्टरता अच्छी नहीं है। संप्रदाय बुरा नहीं है, बुरी है सांप्रदायिक कट्टरता। महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, उसमें सांप्रदायिक कट्टरता को कोई स्थान नहीं है। सांप्रदायिक कट्टरता न हो, इसका आदिस्वर महावीर वाणी में खोजा जा सकता है । उन्होंने जिन शाश्वत सत्यों का प्रतिपादन किया, वे आज भी हमारे लिए अनुकरणीय बने हुए हैं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २१ । | संकलिका ० अट्टा वि सता अदुवा पमत्ता • अहा सच्चमिणं ति बेमि __(आयारो ४/१४-१५) .0 कष्ट है असंतोष • सुख है संतोष .0 संतोष है स्वयं से प्रीति .० असंतोष है पदार्थ में तृप्ति की खोज .० स्त्री की एक विशेषता है विलास .० सुन्दर दिखाई देने की प्रवत्ति क्यों ? ० विलास पैदा करता है असंतोष .. लक्षण चंचलता का • संतोष अपने ही भीतर है ० भीतर की पीड़ा है असंतोष .० आर्त के दो अर्थ अभावग्रस्त पीड़ित ० क्रूरता की पृष्ठभूमि : विलास ० शोषण की समस्या : करता o आर्त और प्रमत्त न बनें • स्वयं से प्रीति करना सीखें । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास और क्रूरता असंतोष की मनोवृत्ति असंतोष सबसे बड़ा कष्ट है । असंतोष की मनोवृत्ति ही अनेक अपराध और समस्याओं को जन्म दे रही है । मनुष्य को कितना ही मिल जाए किन्तु तृप्ति नहीं मिलती । आज तक कोई तृप्त हुआ नहीं और होने वाला भी नहीं है । बड़े-बड़े सम्राट् और धनपति भी कभी तृप्त नहीं बन सके । आज तक का इतिहास साक्षी है, दुनिया में पदार्थ के साथ जीने वाला एक भी आदमी तृप्त नहीं बना । इस तथ्य का एक भी व्यक्ति अपवाद नहीं मिलता । असंतोष विलास की भावना को पैदा करता है । आदमी विलासी इसीलिए है कि उसके भीतर में तृप्ति नहीं है । संतोष का मतलब है तृप्त होना, प्रीति करना । तृप्त होने का एक ही रास्ता है—अपने आपसे प्रीति करना । जिसने अपने आपसे प्रीति नहीं की है, वह कभी संतुष्ट हुआ ही नहीं है । आग की तृप्ति कभी नहीं होती क्योंकि वह ईंधन पर जीती है । उसे हमेशा ईंधन की जरूरत रहती है । विलास का अर्थ काव्यशास्त्र में स्त्री की दस विशेषताएं मानी गई हैं । उनमें एक है विलास । एक विशेष प्रकार की अनुभूति करना या कराना, एक विशेष प्रकार की प्रवृत्ति करना विलास है। प्रत्येक आदमी में यह भावना रहती है वह थोड़ा अलग दिखाई दे, विशिष्ट दिखाई दे, इसीलिए वह साज-सज्जा, प्रसाधन सामग्री आदि का उपयोग करता है। महिलाएं होठ और नाखून रंगती हैं, अनेक प्रकार की प्रसाधन सामग्री का उपयोग करती हैं । प्रश्न होता हैक्यों ? यह विलास और सुन्दर दिखाई देने की प्रवृत्ति क्यों हैं ? इसका कारण है—भीतर में अतृप्ति ज्यादा है, असंतोष ज्यादा है । जो व्यक्ति भीतर में संतुष्ट है, उसके मन में दिखाने की बात कभी नहीं आएगी। महावीर ने कभी नहीं सोचा - मैं कैसा लग रहा हूं ? यदि महावीर ऐसा सोचते तो कभी अचेल नहीं बन पाते । जो अपने आपमें परिपूर्ण बन जाता है, समर्थ और तृप्त बन जाता है, रहती । उसे बाहरी साज-सज्जा की जरूरत ही नहीं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अतृप्ति : उत्सुकता विलास असंतोष को पैदा करता है और असंतोष को उभारने में बाहरी बातें बहुत काम करती हैं । हमारी दुनिया में इतना कोलाहल है कि वह आदमी को विचलित कर देता है। जो अपने आपसे प्रेम नहीं करता, बाहरी कोलाहल में जीता है, वह कभी तृप्त नहीं हो पाता । कोई भी घटना घटती है, व्यक्ति का ध्यान उस ओर चला जाता है । यह चंचलता का एक लक्षण है । व्यक्ति की अतृप्ति हो उत्सुकता पैदा करती है। बाहरी घटना या कोलाहल उसका एक कारण बन जाता है । जिस व्यक्ति में अतृप्ति नहीं मिटती, जो कोलाहल सुनता रहता है, वह विलास और प्रदर्शन से मुक्ति नहीं पा सकता, अपने आपसे प्रेम नहीं कर सकता । संतोष है स्वयं से प्रीति धर्म को जीना है तो दो बातें अपनानी M सीखें, बाहरी कोलाहल को सुनना बंद उपजना चाहिए। संतोष यदि है तो वह । यदि हमें सुख पाना है, होंगी -- हम अपने साथ प्रेम करना करें । यह निर्णय अपने भीतर से अपने भीतर ही है, और कहीं नहीं है । जिस दिन संतोष प्रकट होता है, विलास की भावना समाप्त हो जाती है बहुत लोग जिज्ञासा करते हैंसंतोष क्या है ? किसे कहते हैं संतोष ? संतोष का मतलब है - अपने आपसे प्रेम करना । हम अपने साथ प्रीति करें, सम्पूर्ण प्रोति करें सम्यक् प्रीति करें, अपने ही इष्ट के साथ प्रीति करें । अर्हत्, मुनि, आचार्य – ये सब अपने ही भीतर हैं, इसलिए अपने आपसे प्रेम करना सीखें। वह संतोषी व्यक्ति है, जो अपने आप से प्रेम करता है । वह कभी संतुष्ट नहीं होता, जो बाहरी पदार्थों से संतुष्ट होने का प्रयत्न करता है । संतोष ही परम सुख है और वह है अपने आपसे प्रीति । असंतोष परम दुःख है और वह है बाह्य पदार्थों में तृप्ति की खोज अस्तित्व और अहिंसा असंतोष : अन्तर की पीड़ा असंतोषः बहिः कक्षा, संतोषः प्रीतिरात्मनि । संतोषः परमं सौख्यं, असंतोषोऽसुखं परम् ॥ भगवान् महावीर ने कहा- दो प्रकार के आदमी धर्म का आचरण नहीं कर सकते । एक वे, जो आर्त्त हैं, दूसरे वे जो प्रमत्त हैं । आर्त्त यानी पीड़ित । असंतोष अपने अन्तर की पीड़ा है, जिसे हम अनुभव नहीं कर रहे हैं । असंतोष एक ज्वाला है, एक आग है, जो अपने भीतर सुलग रही है । वह एक वेदना है, एक व्यथा है, जो अपने भीतर है। आर्त्त का एक अर्थ है पीड़ित । अभावग्रस्त उसका दूसरा अर्थ हो सकता है । जितनी भीतर में पीड़ा अधिक है, उतना ही अभाव अधिक होला है । जितनी भीतर में पीड़ा कम है, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास और क्रूरता १२३ उतना ही अभाव कम होता है । आदमी में अभाव का घड़ा कभी भरता ही नहीं है । क्योंकि उसके भीतर की पीड़ा को मिटाने के लिए दुनिया के सारे पदार्थ भी पर्याप्त नहीं हैं । कौन कर सकता है धर्म ? प्रमत्त व्यक्ति भी धर्म का आचरण नहीं कर सकता । जो विलासी है, प्रमादी और आलसी है, नशेबाज है, मादक वस्तुओं का सेवन करता है, वह धर्म का आचरण नहीं कर सकता । यदि नशे की आदत एक बार लग जाती है तो उसका छूटना मुश्किल हो जाता है, वह स्नायविक विकृति बन जाती है । हम हीरोइन जैसे बड़े नशे की बात छोड़ दें, जर्दा खाने का नशा भी छूट नहीं पाता । भीतर में ऐसी मांग उठती है, आदमी अपने को रोक नहीं पाता । महावीर ने इस सचाई को प्रस्तुत किया— जो धर्म का आचरण नहीं कर रहे हैं, पीड़ा को भोग रहे हैं, वे निश्चित ही आर्त और प्रमत्त हैं । यह एक तथ्य है- जब जीवन में धर्म नहीं होगा तब विलास बढ़ेगा और उसके साथ क्रूरता भी बढ़ेगी । विलास के साथ जुड़ी है क्रूरता आन्दोलन चल रहे हैं । प्रसाधन सामग्री जुटाने आज दुनिया में क्रूरता को लेकर कई अनेक देशों में प्राणियों को बुरी तरह मारा जाता है । के उद्देश्य से प्राणियों का संहार होता है । हिन्दुस्तान जैसा धर्म प्रधान देश भी इस समस्या से अछूता नहीं है । विलास की भावना की पूर्ति की पृष्ठभूमि में कितने प्राणियों की आह और करुण चीत्कार होती है ? जितना ऐश्वर्य, विलास और भोग है, उसके साथ क्रूरता जुड़ी हुई है। विलास, ऐश्वर्य और भोग की प्रवृत्ति ने क्रूरता को बढ़ावा दिया है । आज दुनिया में करुणाशील लोगों की संख्या कम है, क्रूर लोगों की संख्या बढ़ रही है । इसका एक मुख्य कारण है- विलास की भावना का प्रबल बनना । बढ़ते हुए विलास के साधनों से भी यह समस्या उग्र बनी है । शोषण का कारण आजकल शोषण पर बहुत चर्चा होती है । क्रूरता के बिना दूसरे का शोषण करना भी संभव नहीं है । जब से साम्यवाद और समाजवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत हुआ है तब से यह स्वर बहुत बार उद्घोषित होता रहा है-गरीबों का शोषण मत करो। ऐसा लगता है, आज भी यह स्वर प्रभावी नहीं बन पाया है, शोषण का चक्र बैसा का वैसा चल रहा है। मनुष्य की क्रूरता शोषण की समस्या गंभीर बनी है। जिसमें धर्म का संस्कार नहीं है, उसमें उतना ही ज्यादा असंतोष है, क्रूरता का भाव है । आज भी धन के लिए एक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अस्तित्व और अहिंसा आदमी दूसरे आदमी की हत्या कर देता है। आदमी आदमी के प्रति संवेदनशील नहीं है, करुणाशील नहीं है। इसे हम विलास और क्रूरता कहें, भीतर की अतृप्ति या असंतोष कहें। जब तक भीतर से तृप्त होने की बात समझ में नहीं आएगी, विलास और क्रूरता की समस्या समाहित नहीं हो पाएगी। विराट से प्रीति व्यक्ति के भीतर एक अतृप्त चाह बनी रहती है। वह सोचता हैआज यह नहीं हुआ, आज अमुक चीज नहीं मिली, ऐसा नहीं हुआ, वैसा नहीं हुआ। इन बातों का मन पर जो एक बोझ बन जाता है, उसका उतरना जरूरी है । हम इस चिन्ता का भार न ढोएं, प्रमत्त और आर्त न बनें, अपनी चेतना और अपनी आत्मा से प्रीति करना सीखें। जिस व्यक्ति में यह प्रीति जागती है, उसके जीवन में धर्म उतरता है, असंतोष संतोष में बदल जाता है, विलास और क्रूरता के भाव विलीन हो जाते हैं। वह व्यक्ति सदा आनन्द का जीवन जीता है। राजस्थान की प्रसिद्ध कहावत है.---'सदा दीवाली संत के, आठों पहर आनन्द ।' अपने आपसे प्रीति करने वाला आठों पहर आनन्द का जीवन जीता है, उसे कोई अपेक्षा नहीं रहती। अपने आपसे प्रेम करने वाला व्यक्ति ही प्रेम को विराट रूप दे सकता है। अपने आपसे प्रीति ही विराट से प्रीति है और यही अपने कल्याण का, मनुष्य मात्र के कल्याण का भार्ग है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २२ | संकलिका • जहा जुण्णाई कट्ठाई, हव्ववाहो पमत्थति एवं अत्तसमाहिए अणिहे । (आयारो ४/३३) ० कुछ अबूझे प्रश्न ० प्रश्न आत्मा की खोज का ० धार्मिक का गंतव्य ० लम्बी है यात्रा ० उपाय है निविकल्प समाधि ० समाधि : वर्तमान प्रयोग ० आत्म-समाधि का स्वरूप ० शुक्लध्यान का परिणाम ० शुक्लध्यानी व्यक्ति की क्षमता ० महावीर की प्रेरणा ० आत्म-ज्ञान : भेद-विज्ञान ० मौलिक मनोवृत्तियां : परिष्कार का मार्य ० साइक-+लोगस : साइकोलॉजी. साइक—आत्मा लोगस-विज्ञान ० पदार्थ-निरपेक्ष सुख ० निर्विचारता का मूल्य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि का मूल्य क्या संस्कारों को क्षीण किया जा सकता है ? वत्तियों को क्षीण किया जा सकता है ? मौलिक मनोवृत्तियों का परिष्कार किया जा सकता है ? ये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर मनोविज्ञान के पास नहीं है। मनोविज्ञान ने मन का अध्ययन किया किन्तु मन से परे जो आत्मा है, वह कभी उसके अध्ययन का विषय नहीं बना, इसीलिए कुछ प्रश्न उसके लिए अबूझे बने हुए हैं। प्राचीन काल के दार्शनिकों ने मन और बुद्धि से परे जाकर आत्मा की खोज की, आत्मा का अध्ययन किया। अरस्तु, सुकरात, प्लेटो आदि-आदि यूनानी दार्शनिकों ने आत्मा पर गहरा अनुशीलन किया। हिन्दुस्तान में महावीर, सांख्य तथा वेदान्त के आचार्यों ने आत्मा पर बहुत काम किया । मंजिल है आत्मा ___ हमारी अन्तिम मंजिल है आत्मा । जो धार्मिक है, आत्मवादी है उसका गंतव्य है आत्मा को जानना, आत्मा को उपलब्ध होना। किन्तु उस तक पहुंचने की यात्रा बहुत लम्बी है । पहले हम शरीर को पार करें, उसके बाद मन और बुद्धि को पार करें । इतना होने के बाद कहीं आत्मा की बात समझ में आती है । आत्मा को समझने के बाद जीवन का दर्शन बदलता है, दृष्टिकोण बदलता है । यह बात समझ में आती है जो पुराने संस्कार हैं, वृत्तियां हैं, उनका उन्मूलन किया जा सकता है । महावीर ने कहा-आग लकड़ियों को जलाती है । लकड़ी गीली होती है तो जलने में थोड़ा समय लगता है और लकड़ी सूखी होती है तो वे तत्काल जल जाती हैं । जो व्यक्ति आत्म-समाधि को प्राप्त हो गया, वह अनासक्त है, उसके कहीं भी स्नेह का लेप अवशेष नहीं है । ऐसा व्यक्ति कर्म को जला डालता है, संस्कारों को समाप्त कर देता है। संस्कारों को वही व्यक्ति समाप्त कर सकता है, जो आत्म-समाधि में चला जाता है। निर्विकल्प समाधि __ आदतों को बदलने का, मौलिक मनोवृत्तियों के परिष्कार का सबसे अधिक विश्वसनीय और महत्त्वपूर्ण उपाय है--निर्विकल्प समाधि । जब आदमी शुक्लध्यान की अवस्था में पहुंचता है, एक साथ वृत्तियों का जलना शुरू हो जाता है । शुक्लध्यान की अवस्था निर्विकल्प समाधि की अवस्था है। जब तक चिन्तन और विचार चलता है, तब तक साधना में जितना तेज आना Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि का मूल्य १२७ चाहिए उतना तेज नहीं आ पाता । मानसिक विचार की भूमिका में बहुत कुछ प्राप्त होता है, पर बहुत सारी बातें छूट जाती हैं । इस अवस्था में कुछ उपलब्ध होता है किन्तु मूल बात प्राप्त नहीं होती । मानसिक विचार की अवस्था में निर्मूल नाश की स्थिति प्राप्त नहीं होती । निर्विचार अवस्था में ही संस्कारों का जड़ से उन्मूलन होता है, कोई आदत बच नहीं पाती, वृत्तियों का सफाया हो जाता है। आत्म-समाधि आजकल समाधि के प्रयोग चलते हैं । योगी कहलाने वाले कुछ लोग समाधि लेते हैं, भूमि-समाधि, जल-समाधि आदि का संकल्प करते हैं। यह एक प्रदर्शन जैसा बन गया है । यद्यपि इसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है, नाड़ी और हृदय पर भी नियंत्रण किया जाना है। डॉक्टरों के लिये यह आश्चर्य की बात है-स्वतःचालित नाड़ी-संस्थान पर किस प्रकार नियंत्रण किया जा सकता है किन्तु योग के द्वारा वैसी समाधि का प्रयोग किया जाता रहा है। महावीर ने जिस आत्म-समाधि की चर्चा की है, वह एक अलग समाधि है । वह इन सबसे आगे की भूमिका है। आत्म-समाधि में व्यक्ति आत्मस्थ हो जाता है, जो चेतना बाहर खेलती है, उसे बाहर से हटाकर, उसका प्रत्याहार कर उसे बिलकुल भीतर में ले जाता है। वह चेतना को भीतर ही केन्द्रित किए रहता है, बाहर नहीं जाने देता। यह साधना की उच्च भूमिका की एक अवस्था है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर संस्कारों का जलना शुरू हो जाता है, आग को उद्दीप्त बनाने वाले इंधन समाप्त हो जाते हैं । शुक्लध्यान : क्षमता का निदर्शन शुक्लध्यान की अवस्था में कर्मों को नष्ट करने की शक्ति कितनी बढ़ जाती है, इसका उल्लेख जैन आगम साहित्य में उपलब्ध है। धर्मध्यान में कर्मों का नाश होता है पर वह शुक्लध्यान के सामने कुछ भी नहीं है। जैसे आग सूखे काठ को जलाती है वैसे ही शुक्लध्यान में पहुंचा हुमा व्यक्ति कर्मों को जला डालता है, आदतों को धुन डालता है। शुक्लध्यान की आंच इतनी तीव्र होती है कि उसको सहने के लिए फायर प्रूफ भट्टियां भी काम नहीं करतीं। आचार्य उमास्वाति ने लिखा-शुक्लध्यान में चढ़ा हुआ व्यक्ति इतना शक्तिशाली बन जाता है कि यदि वह चाहे तो संसार के समस्त प्राणियों के कर्मों को अकेला खपा सकता है। ऐसा होता नहीं है, क्योंकि कोई किसी के कर्म को क्षीण नहीं कर सकता किन्तु यह उसकी क्षमता का निदर्शन है। संस्कारों का दबाव __ भगवान महावीर ने मुनि को प्रेरणा दी- तुम आत्म-समाधि में जाओ, आत्मा में रहो। हम जानते हैं-चैतन्यमय पदार्थ का नाम है आत्मा किन्तु Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मस्थित्व और अहिंसा कठिनाई यह है हम उसमें रह नहीं पाते । समाधितंत्र कहा गया जानन्नप्यात्मनस्तत्वं, विविक्तं भावयन्नपि । पूर्वविभ्रमसंस्कारात, भ्रान्ति भूयोपि गच्छति ॥ हम इस बात को जानते हैं—शरीर अलग है और आत्मा अलग है। हम ऐसी भावना भी करते हैं-शरीर और आत्मा के भेदज्ञान की अनुभूति हो, किन्तु पुराने संस्कार बहुत जटिल होते हैं। उनके दबाव से व्यक्ति भ्रम में पड़ जाता है । आत्म-समाधि में जाने के लिए इस भ्रान्ति को मिटाना जरूरी है। साइकोलोजी का अर्थ प्रश्न है जो पुराने संस्कार हैं, पुरानी आदते हैं, उन्हें कैसे बदला जाए ? मनोवैज्ञानिकों ने मानस-चिकित्सा का क्रम शुरू किया, मन की बीमारियों की चिकित्सा करना शुरू कर दिया । मन की बीमारी का इलाज मनोविज्ञान के पास है किन्तु इस प्रश्न का समाधान मनोविज्ञान के पास नहीं है--क्या मौलिक मनोवृत्तियों-भूख, संघर्ष, काम (Sex) आदि का परिष्कार किया जा सकता है ? आत्म-विज्ञान की भूमिका पर रहने वाले लोगों ने इनके परिष्कार का मार्ग खोजा । वे मन की सीमा में बन्धे हुए नहीं थे। उन्होंने मन से परे बुद्धि को समझने का प्रयत्न किया, चित्त को समझने का प्रयत्न किया । वे माइण्ड तक ही नहीं अटके रहे, साइक तक पहुंच गये । वास्तव में साइकोलोजी का अर्थ आत्म-विज्ञान ही होता है । इसमें दो शब्द प्रयुक्त हैं—साइक और लोगस । साइक यानी आत्मा-चित्त । लोगस यानी विज्ञान । हालांकि मनोवैज्ञानिक मन से आगे नहीं बढ़ पाए किन्तु जो आत्मवादी हैं, उन्हें मन से आगे जाना चाहिए। पदार्थ-निरपेक्ष सुख आत्मा तक पहुंचने के लिए आवश्यक है-प्रतिदिन कुछ क्षण निर्विचार अवस्था में बीते । एक सुख ऐसा होता है, जो पदार्थ-निरपेक्ष होता है, भीतर से टपकता है । निविचारता का जीवन जीने वाला व्यक्ति इस सुख को सहज प्राप्त कर लेता है । जब तक हम निर्विचार क्षण को नहीं जिएंगे तब तक पदार्थ-निरपेक्ष सुख का अर्थ समझ में नहीं आएगा, आत्म-समाधि की बात समझ में नहीं आएगी । निविचारता की अनुभूति ऐसी अनुभूति है, जो दुनिया की सारी अनुभूतियों से परे है, कोई पदार्थजन्य अनुभूति उस तक पहुंच नहीं सकती । जिस दिन हम इस भूमिका पर पहुंचेंगे, वह दिन हमारे लिए सबसे बड़ा सौभाग्य का दिन होगा। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २३ | संकलिका • आवोलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं । (आयारो ४/४०) ० जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं शरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपव्वेणं अभिनिटवुडच्चे । (आयारो ८/१०५) ० मुनि जीवन : तीन भूमिकाएं • आपीड़न-चौबीस वर्ष प्रपीड़न--बारह वर्ष निष्पीड़न-बारह वर्ष • आपीड़न : अल्प पीड़न ० पहली भूमिका श्रुत ज्यादा : तप कम • दूसरी भूमिका देशाटन, धर्मप्रचार, अध्यापन आदि ० ऋण-मुक्ति का समय ० तीसरी भूमिका तपस्या-साधना मुख्य, श्रुत गौण ० भूमिका निर्धारण का उद्देश्य ज्ञान की साधना संघ की सेवा अपनी साधना, अपना कल्याण ० गृहस्थ जीवन : तीन भूमिकाएं-- विद्यार्थी जीवन की भूमिका गृहस्थ जीवन की भूमिका गृहत्याग की भूमिका ० नई जीवन पद्धति का दर्शन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की भूमिका मनुष्य का जीवन अमूल्य है, दुर्लभ है और जीवन जीना एक कला है। प्रश्न है—जो अमूल्य है, उसका उपयोग कैसे करें ? जो दुर्लभ है, उसका मूल्य कैसे चुकाएं ? जो कला है, उसे कैसे जिएं ? इस प्रश्न पर बहुत पहले सोचा गया, जीवन जीने के लिए अनेक व्यवस्थाएं दी गई । वैदिक धर्म में व्यक्ति को शतायु मानकर जीवन को चार भागों में बांट दिया गया । पचीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पचीस वर्ष गृहस्थ आश्रम, पचीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम और पचीस वर्ष संन्यास आश्रम । मुनि जीवन : तीन भूमिकाएं जैनधर्म में भी व्यवस्था दी गई, यद्यपि श्रावक समाज में यह क्रम नहीं चला । मुनि के लिए भी व्यवस्थाओं का निर्देश किया गया । मुनि जीवन को तीन भूमिकाओं में बांट दिया गया० आपीड़न ० प्रपीड़न • निष्पीड़न __ अड़चास वर्ष का मुनि जीवन मानकर इन भूमिकाओं का निर्माण किया गया। पहली भूमिका की अवधि चौबीस वर्ष है, दूसरी भूमिका की अवधि बारह वर्ष है, तीसरी भूमिका की अवधि भी बारह वर्ष है। प्रश्न है-ये भूमिकाएं क्यों? इनका निर्माण किसलिए किया गया ? कहा गया-~-शरीर को साधना है, कर्म शरीर का पीड़न करना है। स्थूल शरीर का पीड़न और कर्म शरीर का प्रकम्पन । इसीलिए आपीड़न शब्द क चुनाव किया गया । आपीड़न है अल्प पीड़न । यदि पहले ही कड़ी साधन बता दी जाए तो वह सम्भव नहीं बन पाती। आदमी सहते-सहते साधना के भूमिका पर आगे बढ़ता है। पहले वह सहन करना शुरू करता है और एक दिन सहिष्णुता के चरम बिन्दु पर पहुंच जाता है । साधना का पहला चरण आपीड़न साधना का पहला चरण है। तेरापंथ की परम्परा हैनया व्यक्ति साधु बनता है, उसे सोने का स्थान पहले मिलता है, आहा पहले मिलता है, और भी काफी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं । ताकि वह सह करना सीख जाए, साधु जीवन में आने वाले कष्टों को सहने की भूमिका बन Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की भूमिका १३१ जाए। आपीड़न की भूमिका को साधने के दो उपाय हैं--श्रुत और तप । जो मुनि बनता है, वह बारह वर्ष श्रुत का अध्ययन करता हैं। ज्ञान कंठस्थ करना, स्वाध्याय करना आदि कार्यों में वह अपनी शक्ति का नियोजन करता है । उसके बाद बारह वर्ष तक उसे अर्थ का ज्ञान करवाया जाता है। अध्ययन के साथ-साथ उसके अनुरूप तपस्या का क्रम भी चलता है । अध्ययन के लिए जितनी तपस्या आवश्यक है, उतनी तपस्या करता रहे । तपस्या से अध्ययन में बाधा न आए, इसका ध्यान अवश्य रहना चाहिए । प्रपीड़न की भूमिका चौबीस वर्ष की पहली भूमिका में साधक निष्पन्न हो जाता है, परिपक्व बन जाता है । बारह वर्ष की दूसरी भूमिका के कार्य हैं-देशाटन और देश भ्रमण करना, धर्म प्रचार करना, शिष्यों को दीक्षित करना, अध्यापन करना. तपस्या का आचरण करना आदि । प्रश्न हो सकता है-यह सब क्यों? किसलिए? संघ की परम्परा का विच्छेद न हो, संघ की परम्परा बराबर चले इसलिए बारह वर्ष संघ की सेवा करने का निर्देश दिया गया। बारह वर्ष का समय संघ को सेवा देने का समय होता है। यह ऋण-मोक्ष का समय होता है। प्रत्येक साधु-साध्वी पर संघ का ऋण होता है, यदि वह ऋण नहीं चुकाए तो कर्जदार रह जाए। जैसे मातृऋण, पितृऋण, और गुरुऋण होता है वैसे ही संघ का ऋण होता है। अध्यापन कार्य, लोगों को समझाना, प्रचार करना-इनके लिए बारह वर्ष का मुक्त समय निश्चित किया गया । निष्पीड़न की भूमिका छत्तीस वर्ष के साधनाकाल में मुनि दो भूमिकाओं---आपीड़न की भूमिका और प्रपीड़न की भूमिका को पार कर लेता है। तीसरी भूमिका है निष्पीड़न की। निशीथ-चणि में इस भूमिका के सन्दर्भ में स्पष्ट संकेत मिलते हैं । कहा गया—यदि मुनि को लगे कि आयु दीर्घ है तो वह विशिष्ट साधना का कोई विकल्प स्वीकार कर ले। जिन कल्प की साधना करे, एकल-विहारी बने, यथालंदक की साधना, प्रतिमा की धारणा अथवा परिहार-विशुद्धि चारित्र को स्वीकार करे। इनमें से किसी एक विशिष्ट साधना को स्वीकार कर उसकी अनुपालना में समर्पित हो जाए। यदि मुनि को लगे, आयुष्य ज्यादा नहीं हैं, शरीर कमजोर हो गया है तो वह संलेखनापूर्वक मरण के वरण की तैयारी करे । संलेखना का काल बारह वर्ष का होता है। कलापूर्ण जीवन की पद्धति मुनि जीवन की इन तीन भूमिकाओं को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अस्तित्व और अहिंसा आपीड़न----श्रुत का अध्ययन ज्यादा, तप कम । प्रपीड़न-कष्ट सहन, प्रचार आदि ज्यादा, तप स्वल्प । निष्पीड़न-तपस्या-प्रधान, साधना-प्रधाम । अध्ययन, अध्यापन और श्रृत गौण । ___ यह कला-पूर्ण मुनि जीवन जीने की पद्धति है। साधु-संस्था में लम्बे समय तक यह परम्परा चलती रही । कालान्तर में यह व्यवस्था विच्छिन्न हो गई । एक सुन्दर क्रम प्रस्तुत किया गया-पहले ज्ञान की साधना करें, फिर संघ की सेवा करें, संघ की परम्परा का विच्छेद न होने दें, उसे आगे बढ़ाएं। पहले अपना करें, फिर संघ का करें और फिर भगवान् का करें, परमार्थ में लग जाएं, साधना में लग जाएं। जिसके लिए मुनिव्रत स्वीकार किया, उसके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएं। इसका तात्पर्य है--एकान्तवास, मौन, केवल तपस्या, संघ की चिन्ता से भी एक प्रकार से मुक्त हो जाता । सुन्दर व्यवस्था यह एक बहुत सुन्दर व्यवस्था है। इसमें किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सोचना पड़ता-मैंने क्या किया ? इसी व्यवस्था के कारण ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रही है। आजकल पुस्तकें छप जाती हैं। यह एक माध्यम बन गया है ज्ञान को अविच्छिन्न बनाए रखने का। किन्तु हजारों वर्षों तक बिना पुस्तकों के ज्ञान का प्रवाह निरन्तर चलता रहा है। उसका कारण यह व्यवस्था ही रही है। आज बड़ा खतरा पैदा हो गया है। पूस्तकें छपने लगी हैं किन्तु छपी हुई पुस्तकों को संभालना मुश्किल हो गया है, छपा हुई पुस्तकों का मिलना मुश्किल हो गया है। ऐसा लगता है बहुत सारे ग्रन्थ समाप्त हो जाएगे । आज सौ वर्ष पहले छपी हुई पुस्तक का मिलना दुर्लभ है जबकि पांच सौ वर्ष पूर्व लिखी गई हस्तलिखित प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं । ज्ञान की जो परम्परा रही है, वह कंठस्थ ज्ञान के आधार पर चली है । व्यक्ति को ही कम्प्यूटर मान लिया गया। प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क कम्प्यूटर है, इस धारणा से ज्ञान की परम्परा अव्युच्छिन्न बनी रही। सहज प्रश्न यह मुनि जीवन की भूमिका का विश्लेषण है। इससे एक प्रश्न सहज उभरता है--क्या गृहस्थ जीवन के लिए ऐसी भूमिकाओं का निर्माण जरूरी नहीं है ? आचार्यश्री ने धवल समारोह के प्रसंग पर कहा था---एक श्रावक को लाठ वर्ष पूरे होने पर धंधा-व्यवसाय छोड़कर गृहकार्य से मुक्त हो जाना चाहिए । आज एक व्यक्ति २०-२५ वर्ष तक पढ़ता है और उसके बाद पैतीस वर्ष तक गृहस्थ के दायित्व को निभाता है। साठ वर्ष के बाद घर से मुक्त होकर उसे स्वार्थ को छोड़कर परार्थ या परमार्थ की भूमिका में जीना Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की भूमिकाएं १३३ चाहिए, संघ और शासन की सेवा में लग जाना चाहिए। इसका तात्पर्य हैवह छोटे परिवार से संन्यास ले ले, अपने परिवार को बड़ा बना ले । यह एक अलग प्रकार का जीवन है । गृहस्थ : तीन भूमिकाएं। यदि हम इस दृष्टि से सोचें तो सहज ही एक गृहस्थ की तीन भूमिकाएं निर्मित हो जाती हैं—विद्यार्थी जीवन की भूमिका, गृहस्थ जीवन की भूमिका, गृह-त्याग की भूमिका । तीसरी भूमिका का अर्थ है.---स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या, शासन-सेवा---इनमें व्यक्ति अपने शेष जीवन का नियोजन करे । जीवन का ऐसा नियोजन ही उत्तम हो सकता है। जो जीवन को इस रूप में नियोजित नहीं करता, उसकी गति अच्छी नहीं होती। शास्त्रकार कहते हैंमरते समय तक जिसका मन घर में अटका रह जाता है, मोह-माया में अटका रह जाता है, वह भूत बनता है, प्रेत बनता है, अथवा सांप, मेंढक आ दे बनता है । मोह में न रहना, लोभ, वासना और परिग्रह में न रहना गृहत्याग की भूमिका के बिना सम्भव नहीं बनता। आजकल गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोग भी हॉस्पिटल में पड़े रहते हैं, उनके सूई-इन्जेक्शन लगे रहते हैं । इस अवस्था में मरना क्या मरना है ? जैसे जीवन जीना एक कला है, वैसे ही मरना भी एक बड़ी कला है । इसे समझने वाला गृहस्थ तीसरी भूमिका पर आरोहण की बात सोच सकता है । आज भी हमारे सामने यह प्रश्न है-गृहस्थ और मुनि की इन भूमिकाओं का कैसे विकास हो ? कैसे जीवन जीने की कलापूर्ण पद्धति विकसित हो ? इस दिशा में हमारा संकल्प और गति तीव्र बने तो एक नई जीवन पद्धति का दर्शन इस युग में सम्भव बन जाए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २४ । संकलिका • पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि (आयारो ४/११) • आरंभ दुक्खमिणं ति नच्चा एवमाह सम्मत्तदंसिणो (आयारो ४/२६) • दिठेहि निग्वेयं गच्छेज्जा (आयारो ४/६) • तम्हा तिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि (आयारो ४/३६) • तं आइइत्तु ण णिहे ण णिक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा। (आयारो ४/५) ० सम्यक्त्व : समत्व ० मूल्यांकन की दृष्टि ० दुःख संचय का कारण : आरंभ • अदृष्ट है आत्मा, दृष्ट है जगत् ० वैराग्य की उपलब्धि : तीन प्रकार दुःखगर्भ-दुःख आने पर मोहगर्भ-प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग होने पर ज्ञानगर्भ—आन्तरिक ज्ञान प्रस्फुटित होने पर • भीतर वह है जो अप्रमत्त है, अवंचक है, दृष्ट में अनासक्त है, उपशान्त है, जो दुःख को आरंभ मूलक मानता है। ० बाहर वह है-- नो प्रमत्त है, वंचक है, दृष्ट में आसक्त है, प्रज्वलित कषाय वाला है, दुःख को परकृत मानता है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन भीतर। कौन बाहर शिष्य ने भगवान से पूछा-भंते ! बाहर कौन ? भीतर कौन ? भगवान् ने कहा—जो प्रमत्त है, वह बाहर है । जो अप्रमत्त है, वह भीतर है। जब-जब जीवन में प्रमाद आता है, वह व्यक्ति को बाहर ले जाता है । जब-जब अप्रमाद आता है, व्यक्ति अपने घर में लौट आता है। प्रमत्त : अप्रमत्त एक व्यक्ति मुनि बनता है, दीक्षा लेता है । हम देखते हैं—वह वैरागी है, दीक्षा लेने मंच पर खड़ा है, साधु-वेश पहने हुए हैं, आचार्य उसे दीक्षित कर रहे हैं। हम इन सब बातों को देखते हैं किन्तु इस सचाई की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता-जब तक व्यक्ति सातवें गुणस्थान में नहीं पहुंचता तब तक उसकी दीक्षा पूर्ण नहीं होती। दीक्षा की सारी औपचारिकताएं तभी सार्थक होती हैं, जब व्यक्ति सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। इसका अर्थ है-व्यक्ति तभी दीक्षित होता है जब वह अपने घर में चला जाता है, अप्रमत्त बनता है। माना जाता है-मुनि छठे गुणस्थान में रहता है पर वह छठे गुण स्थान में कभी मुनि बनता ही नहीं है । मुनि जीवन में प्रवेश तब संभव है, जब व्यक्ति अपने घर में रहे, अप्रमत्त रहे। छठे गुणस्थान-प्रमत्त गुणस्थान में व्यक्ति पर घर में भी चला जाता है। अप्रमत्त अपने घर में ही रहता है। यह एक निश्चित परिभाषा है-जो-जो प्रमत्त है, वह घर से बाहर है । जो-जो अप्रमत्त है, वह घर के भीतर है। मूल्यांकन की दृष्टि आचारांग सूत्र का चौथा अध्ययन है-सम्यक्त्व अध्ययन । इस पूरे अध्ययन में सम्यक्त्व का निरूपण किया गया है। सम्यक्त्व और समत्वदोनों पर्यायवाची शब्द हैं। दोनों के तात्पर्य में कोई अंतर नहीं है। यदि समत्व की दृष्टि नहीं जागती है तो सम्यक्त्व कहां से आएगा ? समत्व आ जाए, सम्यक् दृष्टि न जागे, यह संभव नहीं है। जब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं बनता, पूरी बात समझ में नहीं आती। जो बाहर रहता है, वह पूरी बात समझ नहीं पाता । सम्यक्त्व आते ही व्यक्ति भीतर चला जाता है। जो भीतर चला जाता है, उसे पूरी बात समझ में आ जाती है। जब तक दृष्टिकोण सही नहीं होता तब तक मूल्यांकन सही नहीं होता। सम्यक्त्व अध्ययन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अस्तित्व और अहिंसा में मूल्यांकन की दृष्टियां उपलब्ध हैं । हम सही मूल्यांकन करें । मूल्यांकन सही होगा तो अपने घर के भीतर रहने का सूत्र हस्तगत हो जाएगा । दुःख का कारण भीतर कौन ? बाहर कौन ? इस प्रश्न को अनेक कोणों से समझा जा सकता है। इस एक प्रश्न के अनेक उत्तर हैं। एक उत्तर दिया गया- -जो व्यक्ति दुःख को आरंभ मूलक मानता है, वह अपने घर के भीतर है । जो व्यक्ति दुःख को दूसरों द्वारा दिया हुआ मानता है, परकृत मानता है, वह अपने घर के बाहर है । दुःख का मूल कारण है— आरम्भ । दूसरा आदमी दुःख नहीं देता, अपना किया हुआ आरंभ दुःख देता है । आजकल आरंभ का अर्थ किया जाता है— काम को शुरू करना, प्रवृत्ति करना किन्तु आरंभ का अर्थ हैजितना हिंसा मूलक काम है, घरेलू काम है, वह आरंभ है । व्यक्ति जब-जब आरंभ करता है, दुःख को बांध लेता है, दुख: के विपाक को निमन्त्रण दे देता है । दोष से घिरे हुए हैं आरंभ गीता में भी यही कहा गया है सर्वारंभाः हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः । जितने आरंभ है, वे सब दोष से घिरे हुए हैं। आग जली, धुआ पैदा हुआ, दोष शुरू हो गया । यदि आग नहीं जलती तो धुंआ नहीं होता । यदि आरंभ नहीं होता तो दुःख नहीं होता । दुःख के संचय के कारण है आरंभ | यह बात समझ में आए तो व्यक्ति अपने भीतर चला जाए। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बनता है, दुःख की खोज बाहर ही बाहर चलती है, व्यक्ति भीतर नहीं आ पाता, बाहर ही बाहर "भटकता रहता है । जो केवल बाहर रहता है, वह बाहर में ही फंसता चला जाता है । एक समाधान है— जो वंचना करता है, ठगाई करता है, वह बाहर --ही बाहर रहता है, भीतर नहीं जा सकता । वही व्यक्ति भीतर जा सकता है, जो अवंचक है, ऋजु है, जो ठगाई और वंचना नहीं करता । निर्वेद समाधान का एक सूत्र है - जो दृष्ट में आसक्त होता है, वह बाहर रहता है । जो दृष्ट में आसक्त नहीं बनता, वह भीतर चला जाता है । जो अदृष्ट के पास चला जाता है, वह भीतर रहता है । महत्वपूर्ण सूत्र है — दृष्ट से वैराग्य करो । निर्वेद है पदार्थ को काम में लेना किन्तु पदार्थ के साथ नहीं जुड़ना । पदार्थ को जान लेना किन्तु भोगना Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोन भीतर : कौन बाहर १३७ नहीं, यह है निर्वेद । जो दृष्ट है, दिखाई दे रहा है, उसके साथ संबंध स्थापित न करना निर्वेद है । इसका अर्थ है-पदार्थ में आसक्त न बनें। जो व्यक्ति दृष्ट के साथ निर्वेद करता है, वह भीतर चला जाता है। जो दृष्ट से जुड़ जाता है, वह बाहर ही बाहर रहता है ।। अदृष्ट के प्रति आस्था जागे समस्या यह है-अदृष्ट के प्रति विश्वास पैदा नहीं होता, आस्था नहीं जगती । धार्मिक लोगों की आस्था अदृष्ट के साथ जुड़ी हुई है, यह कहना भी बहुत कठिन है । ऐसे व्यक्ति विरल हैं, जिनकी अदृष्ट के साथ आस्था जुड़ी हुई है। यदि अदृष्ट के साथ आस्था जुड़ जाए तो सारा जीवन बदल जाए। व्यक्ति की आस्था पदार्थ के साथ जुड़ी हुई है। अनेक व्यक्ति इसलिए धर्म करते हैं कि धन मिले, परिवार में सुख-शान्ति रहे, वैभव मिले, पुत्र मिले। धर्म की धारणा भी पदार्थ के साथ जुड़ गई। किसी व्यक्ति को यह पता चल जाए--अमुक मुनि महाराज वचन सिद्ध हैं, उनका हर वचन सत्य बनता है। लोग उनके पीछे लग जाते हैं। वे यह नहीं सोचते--- उनका धर्म क्या है ? तत्त्व क्या है ? परम्परा क्या है ? ये सारी बातें गौण हो जाती हैं। जिससे कुछ भौतिक आंकाक्षा ही पूति की संभावना दिखाई देती है, उसके प्रति श्रद्धा जुड़ जाती है। व्यक्ति को धन क्या मिलता है, परमात्मा मिल जाता है । यह एक तथ्य है----आत्मा और परमात्मा के प्रति आस्था रखने वाले लोग ढूंढने पर भी मुश्किल से मिलेंगे किन्तु धन को परमात्मा मानकर आस्था रखने वाले लोगों की कमी नहीं हैं। कभी-कभी प्रश्न उठता है--परमात्मा धन है या कोई और ? अदृष्ट है आत्मा और परमात्मा, दृष्ट है सारा जगत् । जो दिखाई दे रहा है, वह बड़ा है या जो दिखाई नहीं दे रहा, वह बड़ा है ? अदृष्ट के प्रति आस्था कैसे जागे ? यह एक गंभीर प्रश्न है। वैराग्य : उपलब्धि के हेतु ___ इस समस्या के संदर्भ में महावीर ने कहा-दिठेहि निव्वयं गच्छेज्जा दृष्ट में निर्वेद करो। निर्वेद करने वाला व्यक्ति ही भीतर प्रवेश पा सकता है। जब तक दृष्ट के प्रति निर्वेद नहीं होता तब तक व्यक्ति समुद्र के किनारे बैठा लहरों को गिन सकता है, समुद्र की गहराई में छिपे रत्नों को नहीं पा सकता। जो दृष्ट के साथ जुड़ा हुआ है, वह प्रवंचना करना भी जानता है, ठगाई करना भी जानता है। उसका लक्ष्य होता है-जैसे तैसे पदार्थ को बटोरा जाए। वह अपने भीतर कैसे जा सकता है ? अपने घर में जाने का अर्थ है--निर्वेद को पाना, वैराग्य को उपलब्ध होना। वैराग्य तीन प्रकार से उपलब्ध होता है दुःखगर्भ-दुःख के पैदा होने पर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अस्तित्व और अहिंसा मोहगर्भ-जिसके प्रति गहन आसक्ति है, उसका वियोग होने पर ज्ञानगर्भ-आंतरिक ज्ञान का प्रस्फुटन होने पर दुःखगभं मोहगभं, ज्ञानगर्भमनुत्तरं । वैराग्यं त्रिविधं प्रोक्तं, ज्ञानिभिः परमषिभिः ॥ अकवाय भीतर वह है, जो उपशान्त है। जो कषाय से प्रज्वलित है वह बाहर है । महावीर ने कहा--जो त्रिविद्य है, तीन विद्याओं को जानने वाला है, वह कषाय की अग्नि से प्रज्वलित न बने । वह उस आग को बुझाता रहे, शान्त करता रहे । जो कषाय से प्रज्वलित होता है, वह बाहर चला जाता है। गुस्से में आए हुए व्यक्ति के लिये कहा जाता है---यह अपना आपा खोया हुआ है। अभी इससे बात मत करो। इसे होश नहीं है, अपना भान नहीं है। जब शान्ति हो जाए, तब बात करना । भीतर जाने का अर्थ है कषाय का उपशान्त होना। निष्कर्ष की भाषा ___ भीतर-बाहर की इस चर्चा को हम संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं प्रमत्तो वंचको दृष्टासक्तः प्रज्वलिताशयः । दुःखं परकृतं जान् बहिस्तिष्ठति मानवः ।। अप्रमत्तोऽवञ्चकश्च, दृष्टासक्तः शमं गतः। दुःख आरंभजं जानन् अंतस्तिष्ठति मानवः ॥ जो मनुष्य प्रमत्त है, वंचक है, दृष्ट में आसक्त है, जिसके कषाय प्रज्वलित हैं, जो दुःख को परकृत मानता है, वह बाहर रहता है। जो अप्रमत्त है, अवंचक है, दृष्ट में आसक्त नहीं है, जिसके कषाय उपशान्त हैं, जो दुःख को आरंभ-मूलक मानता है, वह अपने भीतर रहता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २५ संकलिका ० ० ० जे छेए से सागारियं ण सेवए । ० कट्ट एवं अविजाणओ, बितिया मंवस्स बालया ॥ (आयारो ५/१०-११) ० महत्त्वपूर्ण प्रश्न ० दृष्टान्त की भाषा ० मूर्ख : समझदार ० बंधन मुक्ति : मार्मिक कथन ० मस्तिष्क प्रशिक्षण का सूत्र ० पहली मूर्खता : अनाचार का सेवन ० दूसरी मूर्खता : अनाचार की अस्वीकृति • व्यक्ति की मनोवृत्ति ० मूर्खता का कारण : बालपन ० बालपन : दो कारणमूर्छा की प्रबलता समझदारी का अभाव ० ज्यादा हैं समझदार-मूर्ख ० बाल-भाव से मुक्ति : चार उपाय संयम-- इन्द्रिय निग्रह का अभ्यास चित्तशुद्धि-चित्त की पवित्रता बंध के प्रति जागरूकता बंध-विपाक के प्रति जागरूकता • अपनी स्मृति : आत्मा की स्मृति Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहरी मूर्खता आचार्य भिक्षु से किसी ने पूछा---गुरुदेव ! आदमी नीचे क्यों जाता है ? डूबता क्यों है ? आचार्य भिक्षु ने कहा-वह भारी है इसलिए नीचे जाता है, डूबता है। जो हल्का होता है, वह ऊपर आता है। जो भारी होता है, वह नीचे जाता है। आचार्य भिक्षु ने उदाहरण की भाषा में कहा-पैसा पानी में डालो, वह डूब जाएगा। पैसे की कटोरी बनाओ, उसमें पैसा डाल दो, वह तर जाएगा। पैसे को नया आयाम मिला, उसकी कटोरी बन गई, वही पैसा तर गया। जैसे-जैसे चित्त भारी होता है वैसे-वैसे वह नीचे जाता है। चित्त को नया आयाम दें, उसे हल्का बना दें, चित्त ऊपर आ जाएगा, तर जाएगा। केवल वही नहीं, वह अपने साथ दूसरों को भी तार देगा। जरूरत है पैसे को कटोरी के रूप में बदलने की, जरूरत है चित्त और चेतना को नया आयाम देने की। बुद्धि और आचरण आदमी के प्रत्येक आचरण के पीछे उसकी बुद्धि होती है। जैसी बुद्धि होती है वैसा ही आचरण होता है। समस्या यह है—बुद्धि एक समान नहीं रहती इसीलिए आदमी कभी समझदारी का काम करता है तो कभी-कभी मूर्खता का काम भी कर देता है। ऐसा भी कोई नहीं है, जिसे समझदार कहा जा सके और ऐसा भी कोई नहीं है, जिसे मूर्ख कहा जा सके। समझदार अपने जीवन में मूर्खता का और मूर्ख अपने जीवन में समझदारी का काम करता रहता है । इसका कारण है बुद्धि और मति का परिवर्तित होते रहना। एक संस्कृत कवि ने लिखा पुराणान्ते श्मशाने च, मैथुनान्ते च या मतिः। सा मतिः सर्वदा चेत् स्यात्, को न मुच्येत बंधनात् ॥ धर्मकथा के बाद, शमशान में और मैथुन के बाद जो मति रहती है यदि वह मति सदा बनी रहे तो कौन व्यक्ति बंधन से मुक्त न हो जाए ? मार्मिक बात मुक्ति के संदर्भ में कवि ने बहुत मार्मिक बात कही है। जब व्यक्ति प्रवचन सुनता है तब प्रवचन के अंत में जो मति बनती है, पवित्र बुद्धि जागती है. उससे व्यक्ति के मन में वैगग्य आ जाता है। वह सोचता हैअब Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहरी मूर्खता १४१ कोई अकरणीय कार्य नहीं करूगा। श्मशान में जाने वाला आदमी सोचता है-व्यक्ति इस संसार में, मोह-जाल में फंसा हुआ है, कब मृत्यु आ जाए, कोई विश्वास नहीं है । एक दिन इस संसार से चले जाना है। ऐसी मति का निर्माण होता है कि मन वैराग्य से भर जाता है। मैथुन के अन्त में, काम भोग के अन्त में शक्ति का जो क्षय होता है, उस समय व्यक्ति की मति बनती है--अब कभी नहीं करूगा। इन तीन अवस्थाओं में जो मति बनती है, यदि वह निरन्तर बनी रहे तो कौन ऐसा व्यक्ति है जो मुक्त न हो जाए ? प्रवचन श्रवण के समय जो मति बनती है, प्रवचन समाप्त होने के बाद घर या दुकान जाने पर वह मति नीचे दब जाती है। एक प्रज्वलित ज्योति राख के ढेर के नीचे दब जाती है। श्मशान में जो वैराग्य जागता है, वह घर पर स्नान करने के साथ-साथ धुल जाता है। काम-भोग के बाद एक ग्लानि का भाव जागता है, मन में एक बार विरक्ति आ जाती है। व्यक्ति कुछ खा-पी लेता है, शक्ति का अर्जन कर लेता है, काम-भोग या मोह का भाव प्रबल बन जाता है, वैराग्य का भाव दब जाता है । स्थायित्व का उपाय हम धर्म की दृष्टि से विचार करें तो इस मति को स्थायी बनाना जरूरी है। स्थायी बनाने का एक उपाय है-अनुप्रेक्षा, चिन्तन और आत्म निरीक्षण । सतत स्मृति की जो बात कही गई, स्मृति प्रस्थान या भावक्रिया की जो बात कही गई, उसका अर्थ है--उस बात को बार-बार दोहराओ, निरन्तर उस बात को ध्यान में रखो, जागरूकता और अप्रमाद में रहो । अप्रमाद का अर्थ है सतत स्मृति । प्रमाद का शाब्दिक अर्थ है विस्मृति । जो बात स्मृति में थी, वह स्मृति से उतर गई, इसका नाम है प्रमाद। स्वयं को एक क्षण भी भूलो मत, यह अप्रमाद है। जिस बात को निरन्तर याद रखेंगे, वह आत्मसात् हो जाएगी। व्यक्ति की मनोवृत्ति __ आदमी गलती से कब बच सकता है ? महावीर ने कहा-व्यक्ति से गलती हो जाती है। व्यक्ति एक बार गलती करता है, यह मूर्खता है किन्तु वह उसे छिपाने के लिए दूसरी बार गलती करता है, यह दोहरी मूर्खता है। कहा गया-अनाचार का सेवन मत करो । व्यक्ति अनाचार का सेवन कर लेता है, यह उसकी पहली मूर्खता है और कोई इस बारे में पूछता है, तो वह अस्वीकार कर देता है, यह उसकी दूसरी मूर्खती है। आचार्य भिक्षु ने नवबाड़ में व्यक्ति की इस मनोवृत्ति का सुन्दर चित्रण किया है—किसी व्यक्ति के पेट में दर्द हो गया। उसने वैद्य को दिखलाया। वैद्य ने पूछा-क्या भोजन ज्यादा किया ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिसा क्या गरिष्ठ भोजन अधिक किया ? उसने कहा-नहीं, नहीं ! ऐसी बात नहीं है। पेट का दर्द हुआ है ज्यादा खाने के कारण किन्तु वह इस सचाई को स्वीकार नहीं करता। वह पचास विकल्प प्रस्तुत कर देता है पर इस बात को स्वीकार नहीं करता-मैंने ज्यादा खाया है। यह है दोहरी मूर्खता--ज्यादा खाना और उसे स्वीकार न करना। खतरनाक है मूर्छा ___व्यक्ति अपने बालपन के कारण दोहरी मूर्खताएं करता रहता है । जब तक जीवन में असंयम है, चित्तशुद्धि के प्रति अजागरूकता है तब तक दोहरी मूर्खता को मिटाया नहीं जा सकता। जो बाल होता है, उसमें समझदारी नहीं होती। एक बालपन होता है समझदारी के अभाव में और एक बालपन होता है मूर्छा के कारण । बच्चा जो नादानी करता है, वही नादानी एक आदमी नासमझी या मूर्छा के कारण करता है। एक बच्चा नादानी करता है समझ की अपरिपक्वता के कारण। एक मूर्ख आदमी नादानी करता है मूर्खता के कारण। जिसमें ज्ञान नहीं होता, समझ नहीं होती, वह मूर्ख होता है। एक समझदार आदमी नादानी करता है मूर्छा के कारण । एक व्यक्ति में समझ की परिपक्वता है, ज्ञान भी है किन्तु मूर्छा का ऐसा आवरण आता है कि वह बाल बन जाता है, अज्ञानी बन जाता है। महावीर ने "बाल" शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया है, उसका संबंध व्यक्ति की मूर्छा से है । एक व्यक्ति सब कुछ जानता है, किन्तु उसमें इतना मोह है, इतनी मूर्छा है कि वह जानता हुआ भी बचपन करता चला जाता है। यह सबसे खतरनाक स्थिति है। चार उपाय ___बच्चा हमेशा बच्चा नहीं रहता। वह बड़ा होता है तो समझदार बन जाता है। अज्ञानी भी पढ़ लिखकर ज्ञानी बन जाता है। सबसे जटिल है मूर्छा के बचपन को मिटाना । आज दुनिया में अज्ञानी लोगों की संख्या कम है, समझदार मूों की संख्या ज्यादा है। यह कहा जा सकता है - बीस प्रतिशत अज्ञानी हैं, मूर्छामय बचपन जीने वाले अस्सी प्रतिशत हैं। महावीर ने मूर्छामय बचपन को दोहरी मूर्खता कहा है। प्रश्न है-इस बचपन या बालभाव को कैसे मिटाएं ? संयमः चित्तशुद्धि श्च, बंधः कर्मरसो मतः। प्रथमं बालभावं यः, त्यजेत् त्यजति सोऽपरम् ॥ संयम, चित्तशुद्धि, बंध और बंध-विपाक के प्रति जागरूकता-बालभाव से मुक्त होने के ये चार उपाय हैं। जो प्रथम बालभाव-मूर्खता को छोड़ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहरी मूर्खता १४३ देता है, वह दूसरी मूर्खता को भी छोड़ देता है । नरूरी है निग्रह पहली बात है संयम, आत्मनियंत्रण का अभ्यास, इन्द्रिय-निग्रह का अभ्यास जो व्यक्ति संयम, नियंत्रण या निग्रह का अभ्यास नहीं करता, उसकी मूर्खता कभी मिटती नहीं है । अत्यन्त आवश्यक है निग्रह । इसमें हठयोग बहत उपयोगी बनता है। हमारे योग के आचार्यों ने योग को कई भागों में बांट दिया-हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग, लययोग, कर्मयोग आदि । कई बातों में जिद्दी होना भी जरूरी है। जो आदमी थोड़ा जिद्दी नहीं होता, वह जीवन में कभी सफल नहीं होता। आग्रह का होना भी जरूरी है। हम किसी भी बात को ऐकान्तिक दृष्टि से न लें। महावीर चरम कोटि के अनाग्रही थे तो परम कोटि के आग्रही थे। अनेकान्त को हम सत्याग्रही कह सकते हैं। जब आचार्य भिक्षु ने सत्य एवं साधना के लिए अभिनिष्क्रमण किया तब अनेक व्यक्तियों ने कहा-भीखणजी ! ऐसा मत करो। रोटी-पानी नहीं मिलेगा, स्थान नहीं मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने अपना निश्चय नहीं बदला। वे अपने आग्रह पर अड़े रहे। जिसमें संयम का, आत्म नियंत्रण का आग्रह नहीं होता, वह कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। जिसका शरीर के प्रति मोह नहीं है, इन्द्रियों के प्रति मोह नहीं है, जो दुःखों से नहीं डरता, वही व्यक्ति सत्य या संयम का आग्रह रख सकता है। जिसमें संयम का आग्रह होता है, वही व्यक्ति अच्छा और नया काम कर सकता है। संयम का अर्थ है-कष्ट सहन करने का आग्रह । जिसमें यह तितिक्षा है, द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता है, वह बाल-भाव से मुक्त हो सकता है। चित्तशुद्धि : बंध दूसरी बात है--चित्तशुद्धि । हम चित्त को पवित्र बनाएं। कोई भी अच्छा कार्य चित्तशुद्धि के बिना संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का चित्त कलुषित रहता है, मलिन रहता है, वह बड़ा काम नहीं कर सकता। तीसरी बात है, बंध । जो व्यक्ति यह जानता है—मैं बंध रहा हूं, बेड़ियां डाली जा रही है, वह बाल-भाव से बच सकता है। मोह-माया की बेड़ियां प्रतिदिन हमारे हाथों में डल रही है, इस बंधन के प्रति जागरूक बनें तो मूर्खता की दिशा में हमारे चरण नहीं बढ़ेंगे। चौथी बात है कर्म रस । बंधन के विपाक के प्रति जागरूक बनें । दुःख आए, कष्ट आए तो यह चिन्तन करना चाहिए—मैंने किसी को दुःख दिया होगा, संकट में डाला होगा, जिसके कारण कर्म का यह विपाक आया है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : बंधन को याद करें हम कर्म करते समय सिंह की तरह होते हैं किन्तु उसे भोगते समय सियार से भी नीचे की श्रेणी में चले जाते हैं । हमें अपने कृत पर भी ध्यान देना चाहिए | उसने ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, यह हो गया, वह हो गया -- इन सब बातों को याद करते हैं किन्तु इसके साथ-साथ यह भी याद करें – मैंने भी कुछ किया होगा, किसी को सताया होगा, किसी का धन चुराया होगा, किसी को पुत्र का वियोग कराया होगा । महावीर ने कितना सुन्दर दर्शन दिया- कर्म का विपाक आए तो बंधन को याद करो — ये बेड़ियां मैंने स्वयं डाली हैं । आस्तत्व और आहसा संयम, चित्तशुद्धि, बंध और बंध-विपाक ये चार बातें निरन्तर सामने रहे तो हमारी पहली मूर्खता मिटेगी और पहली मूर्खता मिटेगी तो दूसरी मूर्खता अपने आप मिट जाएगी । महावीर ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया - हम मूर्खता को मिटाने के लिए मूर्च्छा से बचें, मूर्च्छा को मिटाने के लिए अधिकतम अप्रमाद का जीवन जीएं। हमारा यह संकल्प दृढ़ बने — मुझे अप्रमाद - सतत स्मृति का जीवन जीना है। जहां अपनी स्मृति है, आत्मा की स्मृति है, वहां मूर्खता का प्रवेश सम्भव नहीं है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २६ संकलिका (आयारो ५/२१) (आयारो ५/२३) • जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति मन्नेसि । • उठ्ठिए णो पमायए। ० अव्यवहार राशि : व्यवहार राशि ० विकास-क्रम ० प्रकाश की पहली किरण : सम्यग्दृष्टि संज्ञा ० सम्यग् दर्शन का अर्थ : अपने आपको जान लेना ० व्यक्ति सोचता है'मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं' 'मैं आत्मा हूं, आश्रव नहीं हूं' 'मैं शरीर नहीं हूं, किन्तु शरीर में लिप्त हूं' 'मैं नौका हूं पर छेद नहीं हूं 'जो छिद्र हैं, उन्हें रोका जा सकता है' 'जो आश्रव हैं, उनका संवर किया जा सकता है' ० भुलक्कड़ है आदमी • साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र शरीर के वर्तमान क्षण की प्रेक्षा ० अप्रमाद का सूत्र : शरीरप्रेक्षा ० विस्मृति : जिम्मेदार कौन ? ० महत्त्वपूर्ण है क्षण का अन्वेषण ० कितना आनन्द है शरीर के भीतर ? ० आनन्द का स्रोत खोजें । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्योढ़ी पर खड़ी किरण हमारा जीव जगत् बहुत विराट् है । वर्तमान में इस दुनिया में लगभग पांच अरब लोग हैं। यह इतनी छोटी संख्या है कि सागर की एक बूंद भी नहीं बनती। हम प्राणी जगत् को देखें। वनस्पति का जगत् सबसे विशाल प्राणी जगत् है। विराट और असीम । आज भी उस जगत् में ऐसे जीव हैं, जिन्होंने प्रकाश की किरण देखी ही नहीं। सूरज क्या होता है, इसका पता ही नहीं है । वे सघन अन्धकार में पड़े हुए हैं। वे अव्यवहार राशि के जगत् से व्यवहार राशि के जगत् में आए ही नहीं । उन्होंने प्रकाश में आने के लिए कभी उत्क्रमण ही नहीं किया। सूरज को देखने का अवसर ही उपलब्ध नहीं हुआ। उनके लिए प्रकाश का दर्शन हजारों कोस दूर है। सम्यग् दर्शन का अर्थ ___ कुछ जीव अव्यवहार राशि से बाहर निकले हैं, व्यवहार राशि में आए हैं। उन्हें आभास होता है-प्रकाश नाम का कोई तत्त्व है । वे एकेन्द्रिय से दो इन्द्रिय वाले जीव बनते हैं, तीन, चार और पांच इन्द्रिय वाले जीव बनते हैं । जब उसके बाद जीव समनस्क बनता है तब वह सोचता है.----यह दुनिया है। पांच इन्द्रिय वाले जीवों तक सोचने की जरूरत ही नहीं है । जब मन का योग मिलता है, व्यक्ति सोचना शुरू करता है, एक-दूसरे को देखना शुरू करता है, तब एक झिलमिल रोशनी का आभास शुरू होता है । मन है दीर्घकालिक संज्ञा । मन के बाद एक और संज्ञा जागती है--सम्यग् दृष्टि संज्ञा । जब यह संज्ञा जागती है तब प्रकाश की पहली किरण फूटती है । पहली किरण के फूटते ही दुनिया का सारा नक्शा बदल जाता है, दृष्टिकोण और धारणाएं बदल जाती हैं । 'शरीर मैं हूं'--यह अवधारणा बदल जाती है । वह सोचता है-यह शरीर मैं नहीं हूं, मैं कुछ और हूं।' नया प्रकाश, नई ज्योति मिली, सचाई उपलब्ध हो गई—जिस शरीर को मैं अपना मान रहा था, वह मेरा नहीं है। जो दिखाई दे रहा है, वह मैं नहीं हूं। मैं वह हूं, जो दिखाई नहीं दे रहा हूं। अस्तित्व की अनुभूति हो जाती है। सम्यग् दर्शन का अर्थ हैअपने आपको जान लेना । उठो, जागो प्रकाश आगे बढ़ता है, व्यक्ति का चिन्तन स्पष्ट होता चला जाता है । वह सोचता है—मैं शरीर नहीं हूं किन्तु शरीर में लिप्त हूं। आश्रव का Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्योढ़ी पर खड़ी किरण १४७ स्रोत बह रहा है। क्या इसे रोका जा सकता है ? व्यक्ति को यह अनुभूति होती है---मैं आत्मा हूं, आश्रव नहीं। यह भेद स्पष्ट हो गया--मैं नौका हूं पर छेद नहीं हूं। जो छिद्र बने हुए हैं, उन्हें रोका जा सकता है । जो पानी आ रहा है, उसे बंद किया जा सकता है। प्रकाश की किरण फूट गई, इसका अर्थ है--आदमी उठ गया । हम इस भाषा में सोच सकते हैं—जब आदमी निगोद में था, अव्यवहार राशि में था तब वह सोया हुआ था । जब वह उससे बाहर आया, मनुष्य बना तब वह बैठ गया। जब वह सम्यग् दृष्टि बना, व्रती बना, तब वह खड़ा हो गया । ऐसे व्यक्ति को लक्षित कर महावीर ने कहातुमने कितनी-कितनी यात्राएं की हैं, बड़ी कठिनाई से इस स्थिति में आए हो । इसलिए अब प्रमाद मत करो। उपनिषद् का प्रसिद्ध वाक्य है-उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! उठो ! जागो ! भुलक्कड़ है आदमी अज्ञान निगोद से हमारे साथ चल रहा है। हम जब कभी सघन मिथ्यात्व और सघन अन्धकार में थे, उस समय से ही अज्ञान और प्रमाद हमारे साथ-साथ चल रहा है । हम विस्मृति और अज्ञान से मुक्त नहीं हो पाए हैं । हम अनंत काल तक निगोद-सूक्ष्म वनस्पितकाय में रहे, उसके बाद द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जगत् में लम्बे समय तक रहे, अब मनुष्य जीवन में आए, सम्यग् दृष्टि बने, व्रती या महाव्रती बने । महावीर ने ऐसे व्यक्ति के लिए उपदेश दिया-तुम उठ गए हो, अब प्रमाद मत करो। जो सोता है, उसका भाग्य भी सो जाता है। जो बैठा हुआ है, उसका भाग्य भी बैठ जाता है । जो खड़ा होता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है। कोई भी मुनि कभी बैठता नहीं, वह खड़ा रहता है । महावीर ने मुनि बनने के बाद प्रायः खड़ी मुद्रा में ध्यान किया । समस्या यह है—आदमी उठ जाने पर भी भूल जाता है, विस्मृति में चला जाता हैं । आदमी स्वभाव से ही भुलक्कड़ बना हुआ है । 'मैं साधु हूं' 'मैं श्रावक हूं'—इस बात की भी निरन्तर स्मृति नहीं रहती । वह इस बात को भूल जाता है----मैं श्रमण हूं.---'समणोऽहं' । क्यों होता है प्रमाद ? प्रश्न है-—प्रमाद क्यों होता है ? व्यक्ति भूलता क्यों है ? हमारे भीतर भुलाने वाले तत्त्व बहुत बैठे हैं इसीलिए बार-बार जागरूक रहने का उपदेश दिया गया । महावीर ने गौतम से कहा--गौतम ! क्षण मात्र भी प्रमाद मत करो । सैकड़ों-हजारों बार यह उपदेश दिया जाता है किन्तु प्रमाद करने वाला प्रमाद करता चला जाता है । ऐसा क्यों होता है ? इस बिन्दु पर हमें सोचना होगा-क्या केवल उपदेश से काम चल जाएगा ? क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे प्रमाद न आए, जागरूकता बनी रहे, सतत अप्रमाद की स्थिति बन Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अस्तित्व और अहिंसा जाए ? यदि ऐसा नहीं होता है तो प्रमाद मत करो, यह बात भी विस्मृत हो जाएगी। हमें चोट उस पर करनी है, जो प्रमाद पैदा कर रहा है। जब तक उस मूल कारण पर चोट नहीं होगी, 'प्रमाद मत करो' यह बात भी याद नहीं रह पाएगी। समाधान-सूत्र महावीर ने इस समस्या का बहत सरल समाधान सुझाया---'इस शरीर का जो क्षण वर्तमान है, उसे देखो । तुम इस शरीर के इस क्षण पर ध्यान केन्द्रित करो, तुम्हारी प्रमाद की बीमारी मिट जाएगी।' वर्तमान क्षण में क्या हो रहा है, हम उसे जानें । यह उपाय है अप्रमाद और जागरूक होने का । हम अतीत और भविष्य को पकड़ते हैं, वर्तमान को नहीं देखते । प्रमाद को मिटाने के लिए वर्तमान क्षण पर ध्यान देना जरूरी है। इस क्षण में क्या हो रहा है ? किस कर्म का विपाक उदय में आ रहा है ? हम इसे जानें । चौबीस घंटे में हमारी किस समय में कौन-सी प्रकृति उदय में आ रही है ? अभी कौन-सा रसायन बन रहा है ? कौन-सा रसायन प्रभावित कर रहा है ? इसके प्रति जागरूक बनें । जो इन के प्रति जागरूक बनता है, वह विस्मृति या प्रमाद को मिटा सकता है। प्रमाद के कारण आजकल लोग ठंडा पेय बहुत पीते हैं, ठंडे पदार्थ बहत खाते हैं । यदि ज्यादा ठंडे पेय पदार्थ खाए जाएंगे तो विस्मृति ही पैदा होगी। ज्यादा ठंडा पेय पीने से कफ बढ़ता है। कफ स्मृति में मंदता लाता है, जड़ता लाता है। यदि ज्यादा गर्म पिएगा तो व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाएगा, क्रोधी बन जाएगा। विस्मृति के लिए जिम्मेदार हैं ठंडे पेय । आज की दुनिया में प्रमाद के बहुत कारण हैं। एक विस्मृति वह है, जिसमें व्यक्ति किसी बात को याद करता है और थोड़ी देर बाद ही भूल जाता है। वह विस्मृति बहुत खतरनाक नहीं है । एक विस्मृति वह है, जिसमें व्यक्ति अपने अस्तित्व को ही भूलने लग जाता है। यह बहुत गम्भीर स्थिति है । मैं मुनि हूं, मैं श्रावक हंव्यक्ति इस तथ्य को विस्मृत कर देता है । महावीर ने इस विस्मृति से बचने का महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया—शरीरप्रेक्षा, शरीर को देखना । अन्वेषण क्षण का प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में अनेक बार कहा जाता है-यदि नींद न आए तो उसकी चिन्ता मत करो । नींद नही आए तो लेट जाओ, लेटे-लेटे अन्वेषण शुरू कर दो, अनुसंधान शुरू कर दो । पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क तक पूरे शरीर में चित्त को घुमाओ, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर--पूरे शरीर की प्रेक्षा करते चले जाओ। पांच-दस मिनट बाद अनुभव होगा, जैसे पूरे शरीर में Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्योढ़ी पर खड़ी किरण १४६ नाहट हो रही है । इस स्थिति में या तो नींद आ जाएगी या नींद से जिस हल्केपन की अनुभूति होती है, वह उपलब्ध हो जाएगी। अंतर की जागरूकता इतनी बढ़ जाएगी, नींद नहीं आने का कोई कष्ट नहीं होगा । समस्या के समाधान का महत्त्वपूर्ण सूत्र है - इस शरीर के इस क्षण का अन्वेषण । जो व्यक्ति वर्तमान क्षण पर ध्यान टिका देता है, वह बहुत सारी समस्याओं का समाधान पा लेता है । शरीरप्रेक्षा: आधार-सूत्र ' इस शरीर के इस क्षण को देखो' - आचारांग सूत्र का यह वाक्य शरीरप्रेक्षा का आधार-सूत्र है । यह जो स्थूल शरीर है, औदारिक शरीर है, उसमें जो वर्तमान में घटित हो रहा है, उसे देखें । नाड़ी की गति, हृदय की धड़कन और श्वास-प्रश्वास- इन तीनों का पता चलता है किन्तु पूरे शरीर में क्या हो रहा है, क्या हम उसे जानते हैं ? पूरे शरीर में नाड़ियां चल रही हैं, हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया । जिस भाग को देखते हैं, वहां प्राण का प्रवाह ज्यादा हो जाता है। जहां प्राण का प्रवाह ज्यादा होता है, वहां रक्त संचार भी ज्यादा होगा । हमारे शरीर में कितने रसायन बन रहे हैं, अमृत टपक रहा है किन्तु हम उससे अनजान बने हुए हैं । जिसने खेचरी मुद्रा को साधा है, वह जानता है शरीर के भीतर कितना रस है, कितना आनन्द है । शरीर में कितना क्या घटित हो रहा है, यदि उसे देखने लग जाएं तो प्रमाद को मिटने में समय ही कितना लगेगा ? शरीरप्रेक्षा का रहस्य जब तक हम शरीर के आकार को ही देखते रहेंगे तब तक कुछ नहीं होगा । हमें देखने की दृष्टि को बदलना होगा । न शरीर को देखना है, न शरीर के आकार को देखना है । देखना वह है, जो हो रहा है, जो यथार्थ है । जो वर्तमान क्षण है, उसे देखना है । वर्तमान क्षण की प्रेक्षा, वर्तमान को देखना, इसका अर्थ है अप्रमाद । न प्रियता और न अप्रियता । न राग न द्वेष, केवल ज्ञेय को ज्ञाता की दृष्टि से जानना है, यह है शरीरप्रेक्षा का रहस्य । महावीर ने इस रहस्य का बोध देते हुए कहा - प्रमाद को मिटाना है तो शरीर के वर्तमान क्षण को देखो । जब तक वर्तमान क्षण को देखने की स्थिति नहीं बनेगी तब तक 'उट्ठिए णो पमायए'- - इस सूत्र की जीवन में सार्थकता नहीं होगी, प्रकाश की किरण उपलब्ध नहीं हो पाएगी । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २७/ | संकलिका • इमेण चेव जुज्झाहि किं ते जुझण बज्झओ। ० जुद्धारिहं खलु दुल्लहं। ० जहेत्थ कुसलेहि परिणा-विवेगे भासिए। (आयारो ५/४५-४७) ० लड़ाई का आह्वान : आओ लड़ें ० युद्ध का निमंत्रण क्यों ? ० अस्तित्व : संघर्ष पराक्रम, शक्ति और लड़ाई • युद्ध : महावीर की भाषा ० वर्तमान जीवनशैली ० दो महत्त्वपूर्ण अस्त्र समानता शान्तवृत्ति लड़ें किससे ? कामना से लड़ें कलह से लड़ें घृणा से लड़ें विषमता से लड़ें ० क्यों बनते हैं हरिजन ईसाई ? ० धर्म-परिवर्तन का कारण ० समानता की आस्था जागे • विजयी होने का अस्त्र शस्त्र नहीं, शान्ति है। कलह नहीं, समन्वय एवं समझौता है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ लड़ें 'आओ लड़ें'—यह निमंत्रण की भाषा है। न कुछ लाना और न कोई बात, केवल लड़ाई का आह्वान । निमंत्रण देना चाहिए—-आओ ! शान्ति करें, समझौता करें, पर निमंत्रण दिया गया—आओ लड़ें । ऐसा निमंत्रण क्यों दिया गया ? यह प्रश्न सहज उभर जाता है। कहा जाता है-जो आदत पड़ जाती है, वह छूटती नहीं। यह बात पूर्णतः असत्य नहीं है। भगवान् महावीर क्षत्रिय थे, योद्धा थे। वे मुनि बन गए पर उनकी लड़ने की आदत नहीं छूटी। महावीर ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया---जीवन में भाग्य से कभी-कभी युद्ध का अवसर आता है। प्रश्न है—लड़ें किससे? जो शत्रु हमारे भीतर बैठे हैं, उनसे लड़ें। आलस्य शरीर में बैठा हुआ महाशत्रु है। महावीर ने देखामेरे आसपास शत्रुओं का घेरा है । मैं शान्ति से कैसे जी सकता हूं? महावीर का निश्चय था—मुझे शान्तिपूर्ण जीवन जीना है। जब तक शत्रु समाप्त नहीं होते तब तक शान्ति से नहीं जिया जा सकता। उन्होंने लड़ाई की और विजयी बन गए। विकासवाद का सूत्र यह सचाई है, इस दुनिया में उसी व्यक्ति का अस्तित्व कायम रह पाता है, जिसमें पराक्रम है, शौर्य है, संघर्ष करने की शक्ति है, जो लड़ना जानता है। विकासवाद का एक सूत्र है--फिट्टेस्ट (FITTEST) । उसका अस्तित्व कायम रखता है, जो योग्यतम होता है। योग्यतम बनने के लिए निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। जीवन के लिए संघर्ष को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता । कायर व्यक्ति अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता। वे जातियां भी समाप्त हो गई, जो कायर थी। केवल वे ही बच पाए, जो शक्तिशाली थे। । भगवान् महावीर पराक्रम के उद्गाता थे। उन्होंने पराक्रम का अवदान दिया, पराक्रम पर बल दिया। कभी-कभी यह आक्षेप किया जाता है.. अहिंसक लोग कायर होते हैं । इस झूठ पर बड़ा आश्चर्य होता है। महावीर अहिंसा के सबसे प्रबल पक्षधर थे और वे सबसे बड़े पराक्रमी थे। उन्हें डराने वाला कोई सामने नहीं आ सका। देवता, मानव, राक्षस, हिंस्र पशुकोई भी उन्हें डरा नहीं सके। महावीर ने लड़ना सीखा था । अहिंसा का इतना शक्तिशाली अस्त्र उनके पास था कि जो भी सामने आया, टिक नहीं पाया। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-शैली बदले पराक्रम, शक्ति और लड़ाई-तीनों का योग है । लड़ाई के तरीके अलग-अलग हैं । लिंकन जब राष्ट्रपति बने, उनके सलाहकारों ने सलाह दी - आप अपने शत्रुओं को कारावास में डाल दें । लिंकन ने जवाब दिया- नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा । मैं अपने सद्व्यवहारों से उनका दिल जोतने का प्रयत्न करूंगा। दो तीन वर्ष बाद तुम देखोगे मेरे शत्रु मेरे अच्छे मित्र बन जाएंगे, शुभ चिन्तक बन जाएंगे । लड़ने की एक शैली वह डंडे बरसाए जाते हैं । लड़ने का तरीका हिंसक भी होता है, अहिंसक भी होता है । निषेधात्मक भावों से भी लड़ा जाता है, विधायक भावों से भी लड़ सकते हैं । जो व्यक्ति, महावीर की भाषा में लड़ना चाहे, 'आओ लड़ें', का निमंत्रण देना चाहे, उसे अपनी जीवन शैली को बदलना होगा । है, जिसमें गाली-गलौच किया जाता है, पत्थर और लड़ने की एक शैली वह है, जिसका प्रयोग समरांगण में होता है, युद्ध के मैदान में होता है । आजकल चुनावी दंगल में वाक्युद्ध चलता है । यह भी लड़ने की एक शैली है। लड़ाई की एक शैली महावीर की भाषा में उपलब्ध होती है । वह लड़ने का सबसे शक्तिशाली तरीका है, उसके सामने कोई टिक नहीं पाता । वह तरीका है जीवन की प्रणाली को बदलने का । उत्तेजना और शैली की भाषा महावीर ने कहा ---तुमसे कोई लड़ने आए तो तुम कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो जाओ । तुम्हारे भीतर इतना पराक्रम जागेगा, लड़ने वाला सामने टिक नहीं पाएगा । आज जो जीवनशैली चल रही है, उसमें महत्त्वपूर्ण तत्त्व है उत्तेजना | कोई भी परिस्थिति आती है, उत्तेजनापूर्ण वातावरण निर्मित हो जाता है । उत्तेजना का एक संस्कार बन गया है । प्रत्याक्रमण और उत्तेजना 'सारा माहौल उत्तेजनामय बन जाता है। ऐसा वातावरण शायद पहले नहीं रहा होगा । आज यह सिखाया जाता है—तुम्हें अपनी बात मनवाना है, अपना काम करवाना है तो उत्तेजनापूर्ण वातावरण बनाओ, आक्रामक रुख अख्तियार करो, तुम्हारा काम बन जाएगा । आज स्थिति यह है, जनता उत्तेजना की भाषा को समझने लगी है और सरकार गोली की भाषा को समझती है । उत्तेजना और गोली की भाषा, यह लड़ने का वह तरीका है। जिसका कहीं भी अंत नहीं होता । महावीर की भाषा है— उत्तेजना के विरोध में शांति का प्रयोग करें, अहिंसा का प्रयोग करें । उत्तेजना में कोई काम अच्छा नहीं होता । समस्या भीतर है, बाहर नहीं महावीर की भाषा में लड़ने का पहला तरीका है- समानता, दूसर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ लड़ें तरीका है शान्तिपूर्ण व्यवहार। समानता और शान्तवृत्ति-ये दो महत्त्वपूर्ण अस्त्र हैं। इनका प्रयोग करने वाला बड़े से बड़े शत्रु को समाप्त कर देता है। हमारे शरीर के भीतर भी एक उत्तेजना का शरीर बैठा है। वस्तुतः यह उत्तेजना की समस्या हमारे भीतर ही है, बाहर नहीं है। उत्तेजना का शरीर, जिसे सूक्ष्म-शरीर या कर्म-शरीर भी कह सकते हैं, वह आवेशों का शरीर है । जितने आवेग-आवेश पैदा होते हैं, वे बाहर से नहीं, सूक्ष्म शरीर से पैदा होते हैं। समस्या यह है-हम उसे देख नहीं पा रहे हैं, समझ नहीं पा रहे हैं। महावीर ने उस सूक्ष्म शरीर, कर्म-शरीर को देखा। उन्होंने कहाजो समस्या और संकट पैदा कर रहा है, वह तुम्हारे शरीर में बैठा हुआ शरीर ही पैदा कर रहा है। तुम केवल बाहरी दुनिया में आरोपण कर रहे हो---अमुक व्यक्ति मेरा शत्रु है, अमुक व्यक्ति मेरा विरोधी है, किन्तु जो शत्रुता का भाव पैदा कर रहा है, उस कर्म-शरीर की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जा रहा है । जब तक जीवनशैली नहीं बदलेगी, बंधी बंधाई धारणाओ में बदलाव नहीं आएगा तब तक व्यक्ति अपने भीतर नहीं झांक पाएगा। बंधी बंधाई धारणा से आदमी प्रबंचना में चला जाता है। इस मनोवृत्ति को बदलना जरूरी है। धारणा बदलें ___ एक धारणा बन गई—जो जैसा व्यवहार करता है, उसके साथ वैसा व्यवहार करें। 'शठे-शाठ्यं समाचरेत्'जब तक यह धारणा नहीं बदलेगी, शान्त वृत्ति का जीवन नहीं होगा। आदमी में छलना है, वह प्रवंचना करना चाहता है इसीलिए उसकी आंख खुली होते हुए भी मुंदी हुई रहती है। ____ व्यक्ति अपनी इस मनोवृत्ति के कारण बाहर ही बाहर देखता है। उसकी जीवनशैली बाहरी परिवेश से प्रभावित है। भीतर की ओर देखे बिना उसे बदला नहीं जा सकता। हम इस तथ्य को इस भाषा में समझे। धर्म और अध्यात्म को समझे बिना जीवन की वर्तमान प्रणाली को बदला नहीं जा सकता। चाहे कितनी ही राजनैतिक प्रणालियां विकसित हो जाए, साम्यवाद, समाजवाद या लोकतंत्र की प्रणाली आ आए, जीवनशैली में परिवर्तन नहीं आएगा । जीवन को बदल सकता है केवल धर्म और अध्यात्म । यह मान लेना चाहिए कि समाज की वर्तमान जीवन-प्रणाली धर्म पर आधारित नहीं है। महावीर ने कहा--जो जीवनशैली बाह्य परिवेश पर आधारित है, उससे लड़ो, उसे बदलो। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघर्ष का कारण प्रश्न है—किससे लड़ें? हम कलह से लड़ें, काम से लड़ें। अगर कलह से लड़ना है तो जीवन प्रणाली को समानता के आधार पर चलाना होगा । अभी कुछ दिन पूर्व मदुरै में संघर्ष का वातावरण बन गया। कारण था कुछ हरिजन ईसाई बन गए। इस बात को लेकर हिन्दुओं और ईसाइयों के बीच झगड़ा हो गया। क्या ईसाई बनने वाले धर्म या तत्वज्ञान के आधार पर ईसाई बने । वे ईसाई बने हैं असामानता के कारण, घृणा के कारण। एक उच्च वर्ग कहलाता है, वह दूसरे को निम्न-वर्गीय मानता है । वह उसके साथ अस्पृश्यता का व्यवहार करता है, घृणा का व्यवहार करता है। उस घृणा की प्रतिक्रिया धर्म-परिवर्तन के रूप में होती है और संघर्ष का वातावरण बन जाता है । जब से हिन्दू और मुसलमान का इतिहास चला है तब से न जाने कितने व्यक्ति घृणा से तिरस्कृत होकर धर्म-परिवर्तन के लिए बाध्य हुए हैं और वे ही सबसे ज्यादा शत्र बने हैं। समानता की आस्था जागे महावीर ने कहा-यह घणा की जो प्रणाली चल रही है, इससे लड़ो। जब तक बिषमता से लड़ने वाली जीवन प्रणाली नहीं होगी तब तक मानवीय एकता पर आधारित, समानता पर आधारित जीवन प्रणाली विकसित नहीं हो पाएगी। विषमता से उत्पन्न होती है घृणा। इन समस्याओं का अन्त पुलिस या सेना के फ्लैग मार्च से भी संभव नहीं है। इसका एक ही समाधान है और वह है--समानता की वृत्ति का विकास । हमारी इस समानता में आस्था जागे-'सब मनुष्य समान हैं", "मनुष्य जाति एक है"। यह आस्था जितनी प्रबल बनेगी, हम विषमता से लड़ पाएंगे, विषमता से पैदा होने वाली लड़ाई और संघर्ष की स्थिति से लड़ने में सफल होंगे। शान्ति और समन्वय का अस्त्र लड़ने का एक अस्त्र है---शान्तवृत्ति का विकास । हम कोई भी निर्णय लें, कार्य करें, वह उत्तेजनापूर्ण स्थिति में न करें। जीने का ऐसा अभ्यास डालें कि हम संघर्ष की किसी भी स्थिति के विरुद्ध अपनी शान्तवृत्ति न खोएं। संघर्ष को शान्ति के साथ झेलें, शांति के साथ समस्या का समाधान करें, समझौता या संधि करें। हम पहले उत्तेजना फैलाएं, लड़ें, फिर शान्ति एवं समझौते की बात करें, इससे अच्छा है—हम पहले ही शांति के अस्त्र से लड़ें। लड़ने का जो सबसे सुन्दर हथियार है, वह शान्ति का हथियार है। इसे अणुबम भी परास्त नहीं कर सकता। महावीर ने कहा-जीवन में विजयी होने का कोई अस्त्र है तो वह शस्त्र नहीं, शान्ति है। कलह नहीं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ लड़ें समन्वय एवं समझौता है । हम इस सचाई को समझें, शांति एवं समन्वय की चेतना को जगाएं। इस स्थिति में ही 'आओ लड़ें' - यह निमंत्रण सार्थक बन सकता है । जिसके हाथ में शान्ति और समन्वय - ये दो अस्त्र हैं, उसे कोई परास्त नहीं कर सकता । वह सदा अपराजेय और अजातशत्रु होता है । १५५ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २८ संकलिका • मुणिणा हु एतं पवेदितं, उब्बाहिज्जमाणे गाभधम्मेहि० अवि णिब्बलासए। ० अवि ओमोयरियं कुज्जा। ० अवि उड्ढं ठाणं ठाइज्जा । • अवि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। • अवि आहारं वोच्छिदेज्जा । ० अवि चए इत्थीसु मणं । (आयारो ५/७८-८४) • आयावयाही चय सोउमल्लं, कामे माहि कमियं खु दुक्खं । छिदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ (दशवकालिक२/४) ० काम : अकाम ० अर्थ अकाम का ० रूसी वैज्ञानिक का मत ० सबसे जरूरी : सबसे उपेक्षित ० ब्रह्मचर्य-सिद्धि : प्रयोग-क्रमनिर्बल आहार ऊनोदरी-कम खाना खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना ममत्व का विच्छेद मन की दिशा का परिवर्तन आतापना लेना सूकुमार्य का त्याग : आसन मस्तिष्क की पवित्रता Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य के प्रयोग आचारांग सूत्र ध्यान का गंभीर ग्रंथ है। उसमें साधना के रहस्यों का रहस्यपूर्ण भाषा में प्रतिपादन किया गया है। आचार केवल ऊपर का क्रियाकांड नहीं होता, वह आत्मा की अनुभूति से उपजा हुआ एक व्यवहार होता है, जिसकी पृष्ठभूमि में रहती है आत्मा की अनुभूति और बाहर से निकलता है आचरण एवं व्यवहार । आचारांग में अन्तर की अनुभूति एवं बाह्य व्यवहार का रहस्यपूर्ण प्रतिपादन है। उसमें सबसे पहले अहिंसा का प्रतिपादन हुआ है। उसके बाद अपरिग्रह और अकाम-ब्रह्मचर्य का विवेचन उपलब्ध होता है। अर्थ अकाम का ___ काम व्यक्ति को एक दिशा में ले जाता है और अकाम दूसरी दिशा में । हम ब्रह्मचर्य को एक सीमा में न बांधे। पांच इन्द्रिय और मन की चंचलता-इन सबका विषय कामना के साथ जुड़ा हुआ है । काम नाक, आंख, कान--सबको प्रेरित करता है । नाक की गंध का कामना के साथ बहुत गहरा संबंध है। हमारा एक आदिम मस्तिष्क माना जाता है, जिसे एनीमल ब्रेन (Animel brain) कहते हैं, वह यंध से बहुत प्रभावित होता है इसीलिए एक साधक के लिए सुगंधित द्रव्यों से बचना बहुत जरूरी बतलाया गया है। पांच इन्द्रियां और मन—ये सब कामना के साथ जुड़े हुए हैं। अकाम का अर्थ है-पांच इन्द्रियों का निग्रह, मन का निग्रह । कामना आत्मा के साथ जुड़ा हुआ शरीर का इतना बड़ा तत्त्व है कि उस पर नियंत्रण या निग्रह करना सामान्य बात नहीं है। कामना की तरंग न उठे, ऐसी स्थिति बन जाए तो यह बहुत सौभाग्य की बात है किन्तु ऐसा होना अत्यन्त कठिन है। अकाम-सिद्धि : प्रयोग भगवान् महावीर ने अकाम-सिद्धि का उपदेश ही नहीं दिया, उसके उपाय भी बतलाए । आचारांग सूत्र के पांचवें अध्ययन के एक आलापक में अकाम-सिद्धि के प्रयोग निर्दिष्ट हैं। अकाम-सिद्धि या ब्रह्मचर्य की सिद्धि केवल धारणा से सम्भव नहीं है। उसके लिए प्रयोग के एक क्रम से गुजरना होगा। ब्रह्मचर्य-सिद्धि या अकाम-सिद्धि का एक उपाय है—निर्बल आहार । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा शरीर में बहुत बल पैदा करने वाला आहार न करें । रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर आरोन बेल्कीन ने बतलाया - हमारे मस्तिष्क में तीन सौ 'न्यूरो पेप्टाइड' हार्मोन्स पैदा होते हैं । बेल्कीन की धारणा है - प्रत्येक विचार के साथ एक न्यूरो पेप्टाइड हार्मोन्स पैदा हो जाता है । इसका अर्थ है - जितने विचार हैं उतने ही न्यूरो पेप्टाइड हार्मोन्स बनते हैं । बेल्कीन ने यह मान लिया — जैसे अन्तःस्रावी ग्रन्थियां होती हैं वैसे ही मस्तिष्क एक बहुत बड़ी अन्त: स्रावी ग्रन्थि है, जो इतने रसायनों को पैदा करता है । वे रसायन हमें प्रभावित करते हैं । १५८ आहार और व्यवहार का संबंध आज के आहारशास्त्री बतलाते हैं— जैसा हमारा वैसा ही न्यूरो ट्रांसमीटर ( Nyaro transmetter ) वही न्यूरोट्रांसमीटर हमारे व्यवहार का निर्धारण करता है। मस्तिष्क में पैदा होने वाले रसायनों के साथ है, यह बात बहुत पुरानी है पर उसकी व्याख्याएं आज हो रही हैं । आज हर बात के साथ आहार का संबंध जोड़ा जा रहा है । यदि हमें मन की प्रसन्नता, चित्त की निर्मलता, मस्तिष्क का हल्कापन और विचारों की पवित्रता को बनाए रखना है तो सबसे पहले आहार पर ध्यान देना होगा । जो व्यक्ति इस बात पर ध्यान नहीं देता, वह शायद अपने जीवन के साथ खिलवाड़ करता है । यह मानना चाहिए - जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी और सबसे ज्यादा उपेक्षित विषय है आहार । महावीर ने ब्रह्मचर्य की साधना का पहला प्रयोग बतलाया --- निर्बल आहार करो, सुपाच्य और हल्का आहार करो, गरिष्ठ पदार्थ मत खाओ । ऊनोदरी ब्रह्मचर्य की सिद्धि का एक उपाय है ऊनोदरी करना, कम खाना, ठूंस-ठूंस कर न खाना । जो व्यक्ति ज्यादा खाएगा, अधिक मात्रा में खाएगा, उसका अपान वायु दूषित होगा, मल- क्रिया बिगड़ेगी । नाभि से लेकर नीचे तक का जो स्थान है वह अपान का स्थान है । उस स्थान से सारी गड़बड़ियां पैदा होती हैं । जिस व्यक्ति को गैस ट्रबल है, वह जानता है, गैस की बीमारी से क्या-क्या समस्याएं पैदा होती हैं ? अपान अशुद्ध रहता है, इसका अर्थ है — आमाशय, पक्वाशय, बड़ी आंत का जो पूरा भाग है, वह शुद्ध नहीं रहता । जब अपान वायु अशुद्ध होती है तब बुरे विचार, बुरे स्वप्न, हिंसा का भाव, वासना का भाव उद्दीप्त होता रहता है । मुख्य कारण है- अति भोजन । ज्यादा खाने का अर्थ ही है कब्ज होना । जितना खाया जाता है, वह पचता नहीं है, जमा होता चला जाता है, वह धीरे-धीरे सड़ान्ध पैदा करने लग जाता है, अशुद्ध बन जाता है । अपान वायु की अशुद्धि का इस स्थिति आहार होता है बनता है और आहार का संबंध Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य के प्रयोग में चित्त और मन की पवित्रता प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। ___ ब्रह्मचर्य-सिद्धि के ये दो उपाय-निर्बल आहार और अल्प आहारभोजन से संबद्ध हैं । हम आहार का विवेक करें। आहार का विवेक सम्यक होगा तो साधना सम्यक् रूप से संपादित होती चली जाएगी। कायोत्सर्ग ब्रह्मचर्य की सिद्धि का एक उपाय है-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना। ब्रह्मचर्य की साधना का यह महत्त्वपूर्ण उपाय है-पुरुष दोनों हाथों को ऊंचा कर ध्यान करे । स्त्री के लिए यह निषिद्ध है। बीदासर के एक श्रावक हुए हैं नेमीचंदजी सेखानी। वे दोनों हाथों को ऊंचा कर खड़े-खड़े सामायिक किया करते थे। खड़े-खड़े ध्यान करना साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें ऊर्जा का एक वलय बनता है। ऊर्जा एक स्थान पर ज्यादा संचित नहीं होती । हमारे शरीर की यह प्रकृति है कि ऊर्जा नीचे की ओर ज्यादा जाती है। इस ऊर्जा को ऊपर की ओर ले जाना बहुत जरूरी है। ऊर्जा को ऊपर ले जाने के लिए सीधा होना जरूरी है। चाहे लेटकर सीधे हों या खड़े-खड़े । यह एक उपाय है ऊर्जा के ऊर्वीकरण का, ब्रह्मचर्य की सिद्धि का । ममत्व का विच्छेद ___ ब्रह्मचर्य की सिद्धि का एक उपाय है---ममत्व का विच्छेद । मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह समाज के साथ जीता है इसलिए समाज के साथ लगाव का हो बहुत प्रासंगिक है। महावीर ने ब्रह्मचारी मुनि के लिए विधान किया—एक गांव में ज्यादा मत रहो। यदि मुनि एक गांव में अधिक समय तक रहे तो संभव है, लगाव हो जाए, ममत्व हो जाए। उग्र विहार की बात साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । नव-कल्प विहार का विधान साधुत्व का अनिवार्य नियम नहीं है। यह साधना की दृष्टि से संभावना के वर्जन का नियम है। बहुत सारे विधान निमित्तों से बचने के लिए किए जाते हैं। एक सूत्र दिया गया-ग्राम-अनुग्राम विहार करो, परिचय कम होगा, लगाव कम होगा, ममत्व की गांठ को घुलने का मौका कम मिलेगा। तपस्या : दिशा-परिवर्तन ___ ब्रह्मचर्य की साधना का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अममत्व य अप्रतिबद्धता । इतनी साधना के बाद भी यह लगे-ममत्व की ग़न्थि खल नहीं रही है तो आहार को एकदम छोड़ दो, तपस्या प्रारंभ करो। तपस्या रे ममत्व की ग्रन्थि पर एक आघात लगता है, वह टूटने लग जाती है। _ब्रह्मचर्य की सिद्धि का एक भावात्मक उपाय बतलाया गया-मन के साधना करो, मन का जिस ओर लगाव है, उस ओर से मन को मोड़ दो Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा संकल्प को दूसरी दिशा में प्रवाहित करो। आसन यह भी एक उपाय है। इसका अर्थ है--जो ऊर्जा बनती है, उसको संतुलित कर देना। आसन के साथ कुछ विशेष बातें जुड़ी हुई होती हैं। आसन से अंतःस्रावी गन्थियों एवं नाड़ीतंत्र का, शरीर के सारे अवयवों का संतुलन बन जाता है। सर्वांगासन केवल पैरों को ऊंचा करने वाला आसन ही नहीं है, केवल स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने वाला आसन ही नहीं है, यह अंतःस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण आसन है। कुछ आसन ऐसे हैं, जो शारीरिक स्वास्थ्य-लाभ की दृष्टि से उपयोगी होते हैं। कुछ आसन ऐसे हैं, जो सीधे नाड़ी तंत्र और ग्रन्थितंत्र को प्रभावित करते हैं। थायराइड ग्रन्थि हमारे शरीर-रचना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । वह भावना से भी जुड़ी हुई है। कहा जा सकता है जिसकी थायराइड ग्रन्थि गड़बड़ा गई, एक प्रकार से उसका सारा जीवन ही गड़बड़ा गया। सर्वांगासन से थायराइड ग़न्थि प्रभावित होती है। एक आसन है---शशांकआसन। यह केवल पेट को ही प्रभावित नहीं करता, एड्रीनल गलेन्ड को भी प्रभावित करता है। ब्रह्मचर्य की साधना में इन आसनों का महत्व स्वतः स्पष्ट है। सुकुमारता छोड़ें सुकुमारता को छोड़ना, यह भी एक उपाय है । सूकुमारता के त्याग के लिए श्रम जरूरी है । श्रम चाहे विहार का हो, गोचरी या आसन का हो । ___महावीर ने कहा--सौकुमार्य को छोड़ो। जहां ज्यादा सुकुमारता आएगी वहां काम को निमंत्रण होगा। कोमल शय्या, कोमल गद्दे और बिछौने---ये सुकुमारता के जितने चिह्न हैं, वे काम को सीधा निमंत्रण देने वाले हैं। जो व्यक्ति इस सौकुमार्य में डूबा रहेगा, उसका न ज्ञान में मन लगेगा, न ध्यान और स्वाध्याय में मन लगेगा। उसका मन उचटा-उचटा रहेगा । वह कोई काम नहीं कर पाएगा। सुकुमारता से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है हमारा मस्तिष्क । मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। उनमें से एक भी प्रकृति की तरंग उठती है तो हमारा मस्तिष्क प्रभावित हो जाता है, उसमें विकृति आ जाती है। जो व्यक्ति अपने मन को निर्मल रखना चाहता है, मस्तिष्क को पवित्र रखना चाहता है, उसे बहुत सावधान रहना पड़ेगा, जागरूक रहना होगा, बार-बार आत्म-निरीक्षण और आत्म-चिन्तन करना होगा। इतना तीन प्रयत्न करने पर ही काम से अकाम की दिशा में प्रत्थान संभव बन सकता है। हम इस दिशा में प्रयत्न न करें तो अकाम-सिद्धि या ब्रह्मचर्य-सिद्धि का स्वप्न कभी सफल नहीं बन पाएगा। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य के प्रयोग पथार्थ का धरातल हमें यथार्थ के आधार पर चलना चाहिए, केवल उपदेश या भावना के आधार पर नहीं। यह एक यथार्थ है—जितनी जागरूकता रहेगी उतनी ही पवित्रता और निर्मलता बढ़ेगी। जितनी जागरूकता में कमी आएगी उतनी ही निर्मलता और पवित्रता प्रभावित होगी। महावीर ने अकाम-सिद्धि जो प्रयोगा बतलाए हैं, वे काम में लिये जाएं तो जागरूकता की समस्या नहीं होगी । आदमी चलता है, हवा का एक झोंका आता है, बाधा खड़ी हो जाती है । यदि उसका संकल्प मजबूत होता है तो बाधा टिक नहीं पाती। जिसका संकल्प मजबूत है, जिसमें प्रयोग करने की प्रबल भावना है, वह 'काम' के द्वारा उपस्थित होने वाली बाधाओं को धीरे-धीरे पार करता चला जाएगा और एक दिन अकाम की स्थिति को पा लेगा। यदि प्रयोग नहीं चलेंगे, आत्मालोचन और आत्म-निरीक्षण का क्रम नहीं चलेगा तो मन पर मैल जमता चला जाएगा और वह इतना गाढ़ा, बन जाएगा कि उसमें बदबू आने लगेगी। कहा गयातीर्थंकरों की सांस कमल की सुगंध जैसी होती है । केवल तीर्थंकरों की ही नहीं, उन सब व्यक्तियों की सांस अच्छी होती है, जिनके विचार अच्छे और पवित्र होते हैं। गंध के आधार पर भी आदमी के चरित्र को जाना जा सकता है। ब्रह्मचर्य की सिद्धि के जो प्रयोग हैं, उन्हें काम में लें, हमारे विचार पवित्र बनते चले जाएंगे, कामनाओं, वासनाओं और निषेधात्मक भावों पर नियंत्रण सधता चला जाएगा, हम अपने इष्ट की सिद्धि को प्राप्त हो जाएंगे। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २६ | संकलिका .० तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वं ति मन्नसि। (आयारो ५/१०१) ० एगे आया (ठाणं १/२) .० जे आया से विण्णाया, जे विष्णाया से आया । ० जेण विजाणति से आया। (आयारो १/१०४) .० जैन भी अद्वैतवादी, वेदान्त भी अद्वैतवादी .0 एकात्मवाद : समतावाद .० पुद्गल और आत्मा में भेद ० भेद कम हैं, अभेद अधिक .0 संग्रह नय : व्यवहार नय • संकल्प-शक्ति : अभेद का प्रयोग ० अनंतर संबंध : परंपर संबंध • अभेद बुद्धि : अहिंसा ० एक पुस्तक से जुड़ा है पूरा ब्रह्माण्ड ० भेदरेखा का परिणाम ० क्रूरता का कारण है भेद • अहिंसा की जागृति का सूत्र Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तू ही है आचार्य तुलसी सरदारशहर में विराज रहे थे । कलकत्ता से एक बंगाली संन्यासी आया । वह वेदान्त को मानने वाला था । उसने आते ही कहा - आचार्यजी ! आप भी अद्वैतवादी हैं और हम भी अद्वैतवादी हैं । हमारे में और आपमें फर्क क्या है ? जैन भी अद्वैतवादी और वेदान्त भी अद्वैतवादी । हम मानते हैं-आत्मा एक है, ब्रह्म एक है । आप कहते हैं- एगे आया । फर्क कहां है ? अद्वैतवाद आपको भी मान्य है, हमें भी मान्य है । आचार्यश्री ने कहा इस बात को किसने अस्वीकार किया ? हम संग्रह नय को ते हैं। उसके अनुसार समूचा संसार एक है-सतोऽविशेषात् — कोई भेद ही नहीं है । अद्वैत का सिद्धान्त अद्वैतवाद का सिद्धान्त जैन दर्शन को संग्रह नय के आधार पर मान्य है | साधना के आधार पर भी यह सिद्धांत मान्य है । एक वचन है तुमंस नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति चाहता है, वह तू ही है। यह अद्वैत की बात है, भगवान महावीर का मन्नसि जिसे तू मारना एकात्मकता की बात है । अहिंसा के क्षेत्र में, साधना के क्षेत्र में, भगवान महावीर ने अद्वैत का प्रतिपादन किया । जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । अनेकान्तवाद केवल दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं, साधना के क्षेत्र में भी लागू होता है । इस तथ्य पर विचार करने से दो बाद फलित होते हैं— एकात्मवाद और समतावाद । एक है भेदक तत्त्व प्रत्येक वस्तु में सामान्य जौर विशेष -- दोनों गुण होते हैं, भेद और अभेद - दोनों होते हैं । एक ओर हमारी आत्मा है, दूसरी ओर एक पुस्तक है । दोनों में फर्क क्या है ? बहुत थोड़ा-सा अन्तर है । अन्तर डालने वाला तत्त्व एक ही है किन्तु जोड़ने वाले तत्त्व बहुत ज्यादा हैं। भट्ट अकलंक ने लिखाचेतना की दृष्टि से आत्मा आत्मा है, शेष गुणों की दृष्टि से वह अनात्मा है । प्रमेयत्वादिभिः धर्मैः अचिदात्मा चिदात्मकः । ज्ञानदर्शनतस्तस्माद्, चेतनाऽचेतनात्मकः ॥ पुस्तक में चेतना की शक्ति नहीं है और आत्मा में ज्ञान की शक्ति है, चेतना की शक्ति है । आत्मा और पुद्गल में इतना सा भेद है। पुद्गल मूर्त है और आत्मा अमूर्त है । हम आकाश की दृष्टि से देखें । आकाश भी अमूर्त Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा हैं और आत्मा भी अमूर्त है। आकाश भी वस्तु है, आत्मा भी वस्तु है । फर्क डालने वाला एक तत्त्व है, एक विशेष गुण है--चेतना। वह आत्मा में है, आकाश में नहीं है । हम भेद करने वाली एक रेखा के आधार पर शेष बातों को भुला देते हैं। समतावाद अहिंसा की चेतना को जगाने के लिए इन दोनों सूत्रों-समतावाद और एकात्मवाद ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भेद नय की दृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा—आत्मा और पुद्गल में भेद है। भेद नय की दृष्टि से यह भी कहा जाएगा–प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है। जितने व्यक्ति हैं, प्राणी हैं, उतनी ही आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा का अलग अस्तित्व मानें तो समतावाद फलित होगा। प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, इसका अर्थ है-जैसी मेरी आत्मा है वैसी ही दूसरे मनुष्य की आत्मा है, वैसी ही पशु की आत्मा है, पेड़-पौधों की आत्मा है। जैसी एक प्राणी की आत्मा है वैसी ही अन्य प्राणियों की आत्मा है। सबकी आत्मा समान है। यह है समतावाद या आत्मतुलावाद । प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझो, किसी को मत सताओ। यह अभेद प्रधान नय की दृष्टि से समानता की बात प्रस्तुत होती है। विचित्र प्रयोग । भगवान महावीर ने किसी एक नय से ही तत्त्व का प्रतिपादन नहीं किया । यदि नैगम नय की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा समान है। यदि संग्रह नय की दृष्टि से विचार करें तो फलित होगा-आत्मा एक है। यह अभेद प्रधान दृष्टि है । इसका अर्थ है-तू किसे मारना चाहता है ? जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। यह अभेद का प्रयोग भी बहुत व्यावहारिक प्रयोग है । कुछ साधकों ने संकल्पशक्ति के आधार पर अभेद के विवित्र प्रयोग किए हैं । एक पादरी ईसामसीह की मूर्ति के सामने खड़ा हो जाता है। वह यह संकल्प करता है-मैं स्वयं ईसा हूं। हाथ सूली पर चढ़ाया जा रहा है, हाथ से खून बहता जा रहा है । वह संकल्प में एकात्म हो जाता है, अभेद सध जाता है, हाथ खून से सन जाता है । सम्मोहन : अभेद सम्मोहन में भी अभेद का प्रयोग होता है। वस्तु के साथ अभेद स्थापित कर लिया जाता है। किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया गया। उसके हाथ में बर्फ का एक टुकड़ा रखा गया। प्रशिक्षक ने सम्मोहित व्यक्ति को सुझाव दिया-देखो ! तुम्हारे हाथ पर अंगारा रखा गया है। अब फफोला होने वाला है । प्रशिक्षक उस वस्तु के साथ व्यक्ति की चेतना का इतना अभेद Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तू ही है स्थापित करवा देता है कि बर्फ के टुकड़े से हाथ में फफोला उभर आता है, व्यक्ति उसकी पीड़ा को भोगने लग जाता है । प्रश्न है-ऐसा कैसे हो सकता है ? यह कोई चमत्कार नहीं है । द्रव्य के साथ अभेद होने पर ऐसी घटनाएं घट जाती हैं। हमारा प्रत्येक पदार्थ के साथ अभेद सम्बन्ध है किन्तु जब हम उसे भुला देते हैं तब ये सारे विकल्प पैदा होते हैं। यदि हम अभेद की ओर ध्यान केन्द्रित करें तो एकात्मकता की स्थिति बन सकती है। सन्दर्भ : पुस्तक हम इस सचाई को एक उदाहरण से समझे। मेरे हाथ में एक पुस्तक है । यदि पूछा जाए-क्या आप इसे जानते हैं ? आपका उत्तर होगा-हां ! हम इसे जानते हैं। यह हमें दिखाई दे रही है पर वस्तुतः हम इसे नहीं जानते । इस पुस्तक से संसार का कितना अभेद है, उसे हम कहां जान पाते हैं ? एक ओर सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड या पूरा लोक है, दूसरी ओर केवल एक पुस्तक । इस पुस्तक से सब जुड़े हुए हैं। इस पुस्तक में जितने आकाशप्रदेशों का अवगाहन है, स्पर्श है, उससे जुड़ा हुआ है दूसरा आकाश-प्रदेश, दूसरे पुद्गल । हम आगे से आगे चलते चलें, यह पुस्तक पूरे जगत् से जुड़ी हुई अनुभूत होती चली जाएगी। इस पुस्तक का अनन्तर सम्बन्ध है कुछ आकाश प्रदेशों से, पुद्गलों से और इसका परम्पर सम्बन्ध है पूरे लोक से । सारे लोक को जाने बिना इस पुस्तक को कभी जाना नहीं जा तकता । अभेदबुद्धि : अहिंसा हमारी दृष्टि स्थूल है, हमारी आंखों की शक्ति सीमित है। हम भेद को जल्दी पकड़ लेते हैं, अभेद को पकड़ नहीं पाते, इसीलिए अहंकार बहुत पनपता है । अहंकार भेद करना चाहता है, अलग करना चाहता है। अलग करने या होने की वृत्ति अहंकार से पैदा होती है। अगर हमारा अहंकार शांत हो, कषाय शांत हो तो थोड़े से भेद को छोड़कर आदमी अलगाव की बात कैसे कर सकता है ? 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है'----यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब अहंकार का विलय हो जाए । जब तक कषाय का विलय नहीं होता तब तक यह सूत्र समझ में नहीं आता। यदि यह अभेद की बात समझ में आ जाए तो हिंसा में कमी आ जाए, केवल अनिवार्य हिंसा का प्रसंग ही सामने रहे। अहिंसा में कोई भेद नहीं होता। चाहे वनस्पति का जीव है, पानी या अग्नि का जीव है, व्यक्ति को पहले यह सोचना होगा'वह मैं ही हूँ' इस अभेदबुद्धि के जागने पर ही अहिंसा की बात प्रतिष्ठित हो सकती है। हिंसा का कारण : भेदबुद्धि भेदबुद्धि के कारण अहिंसा के क्षेत्र में भी अनेक विकल्प प्रस्तुत किए Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अस्तित्व और अहिंसा गए हैं। अहिंसा के क्षेत्र में यह कहा गया- - अमुक व्यक्ति के लिए अमुक को बचाया जा सकता है । महाभारत का प्रसिद्ध सूक्त है—' न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्' - मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं है, इस धारणा के आधार पर कितनी हिंसा हो रही है। एक आदमी के लिए लाखों-लाखों मेंढक, खरगोश और बन्दर मारे जा रहे हैं, भेड़ बकरियों की कोई गिनती ही नहीं है । यह सब किसलिए ? केवल आदमी के लिए। यह मान लिया गया - ‍ - मनुष्य से उत्तम कोई प्राणी नहीं है इसलिए मनुष्य के लिये जो कुछ भी किया जाए, वह सब क्षम्य है । दवाइयों के परीक्षण के लिए लाखों चूहे, मेंढक, बन्दर आदि मार दिए जाते हैं । क्यों ? इसलिए कि मनुष्य को बचाना है । एक भेदरेखा खींच दी गई - मनुष्य ऊंचा है, शेष सब नीचे हैं । संहार की पद्धति क्या एक इस सारे सन्दर्भ में हम महावीर की इस वाणी का मूल्यांकन करें'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है' । एक मेंढक को मारते वक्त यह प्रकम्पन क्यों नहीं होता कि मैं अपने आपको ही मार रहा हूं । मनुष्य के लिए इतने निरीह प्राणियों की हत्या उचित है ? आदमी का नश्वर शरीर क्या इतना महत्त्वपूर्ण है ? मनुष्य का अपने प्रति इतना दीवानापन क्यों हैं ? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूं । इतनी हिंसा, इतना अतिक्रमण, इतने निरीह जीवों का उत्पीड़न केवल एक मनुष्य को बचाए रखने के लिए है । इसे कैसे वैध ठहराया जा सकता है ? लोग कहते हैं- आतंकवाद न बढ़े। वह क्यों नहीं बढ़ेगा ? जब मनुष्य की वृत्ति हिंसा करने की बन गई और यह एक भेदरेखा खींच दी गई तो हिंसा को बढ़ना ही है । उसे रोका नहीं जा सकता है । मैं मानता हूं थोड़ी बहुत हिंसा के बिना जीवन नहीं चल सकता । जैन धर्म का यह मंतव्य रहा - हिंसा का अल्पीकरण हो । चिकित्सा की एक पद्धति अहिंसा की दृष्टि से निकाली गई । विचार किया गया -- हिंसा कम से कम हो । वनस्पति- चिकित्सा का कार्य शुरू हुआ किन्तु जहां मांस- चिकित्सा की बात आई, सारा मामला गड़बड़ा गया । जैनाचार्यों ने इसे त्याज्य बतलाया । एक ग्रन्थ है - कल्याणकारकं । उसमें मांस- चिकित्सा पर कटु प्रहार किया गया है । आज मनुष्य को बचाने वाली चिकित्सा पद्धति लाखों-करोड़ों प्राणियों के संहार की पद्धति बन गई है । अभेद को देखें हम हिंसा से हिंसा के अल्पीकरण की ओर जाएं, अभेद को देखते चले जाएं तो अहिंसा का विकास होगा, क्रूरता कम होगी । आज स्थिति यह हैशुद्ध दवा का मिलना मुश्किल हो गया है । इस समस्या के सन्दर्भ में हम इस सूत्र को मूल्य दें, अभेद चेतना जगाएं तो समाधान का सूत्र हमारे हाथ में आ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तू ही है १६७ सकता है । जिस दिन व्यक्ति के भीतर यह चेतना जागेगी उस दिन करुणा का अथाह प्रवाह प्रवाहित होगा, सारे भेद समाप्त हो जाएंगे। हम सब आत्माओं को समान ही नहीं, एकात्मरूप में देखने लग जाएंगे । इस स्थिति में हिंसा अपने आप समाप्त हो जाएगी। अपेक्षा है—हम संग्रह नय की दृष्टि से प्रतिपादित आचारांग के इस सूक्त का मनन करें, इस सूक्त की अनुभूति करें। जिस दिन यह अनुभूति जागती है, कोई व्यक्ति किसी को सता नहीं सकता, किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता, कटु व्यवहार नहीं कर सकता । अहिंसा की चेतना को जगाने वाला यह सूत्र सामाजिक समस्याओं, पारस्परिक व्यवहारों में परिवर्तन लाने का एक अमोघ सूत्र बन सकता है । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३० | संकलिका ० सम्वे सरा नियटुंति । तक्का तत्थ न विज्जई । मई तत्थ ण गाहिया । ० ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयणे । .. से ण दोहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले। .० ण किण्हे, ण नीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुविकल्ले। .. ण सुगंधे, ण दुरभिगंधे। .. ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे। .. ण कक्खड़े, ण मउए, ण गरए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध, ण लुक्खे। .. ण काऊ । ण रहे । ण संगे। ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा । ० परिणे सणे । उवमा ण दिउजई । अरूवी सत्ता । अपयस्स पयं पत्थि । .० से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे, इच्चेताव। (आयारो ५/१२३-१४०) ० बद्धजीव : मुक्तजीव ० मूर्त : अमूर्त ० अमूर्त सत्ता और सर्वज्ञता अमूर्त तत्त्व मान्य है तो सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य है। सर्वज्ञता का सिद्धांत मान्य है तो अमूर्त तत्त्व मान्य है। ० शुद्ध आत्मा का स्वरूप ० नया प्रत्यय___ कुछ पदार्थ रूपवान् हैं, कुछ रूपवान् नहीं हैं । ० क्षायोपशमिक ज्ञान : क्षायिक ज्ञान ० आचारांग का नेतिवाद ० आत्मा के ध्यान का सूत्र Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां स्वर मौन हो जाते हैं यह जगत् बहुत बड़ा भी है और बहुत छोटा भी है । यह इतना सूक्ष्म है कि हम इस तक पहुंच ही नहीं पाते। बड़े को जाना जा सकता है पर छोटे को जानना मुश्किल होता है। स्थूल पकड़ में आ जाता है, सूक्ष्म को पकड़ना बहुत कठिन होता है । तलवार लकड़ी को काट देती है पर वह परमाणु को नहीं काट सकती । इसलिए कहा गया-स्थल पर बहुत भरोसा मत करो। स्थूल से डरने जैसी बात भी महत्वपूर्ण नहीं है । व्यक्ति सूक्ष्म से डरता है। सूक्ष्म तेजस्वी होता है, स्थूल तेजस्वी नहीं होता । सूक्ष्म को पकड़ पाना सहज संभव नहीं है। प्रश्न शुद्ध आत्मा का 'सव्वे सारा नियटॅति'-जहां से सारे स्वर लौट आते हैं, यह सूक्त सूक्ष्म सत्य को अभिव्यक्ति देने वाला है । उस सूक्ष्म तत्त्व तक न बुद्धि पहुंच पाती है, न तर्क पहुंच पाता है, न शब्द पहुंच पाते हैं। हमारे पास जानने के जो साधन हैं, उनकी सूक्ष्म तक पहुंच ही नहीं है। महावीर ने जीवों के दो प्रकार बतलाए- संसारी जीव और असंसारी जीव । बद्धजीव या मुक्तजीव । संसारी जीव स्थूल है, वह दिखाई देता है। उसके वस्त्र भी पहने हुए हैं । शुद्धात्मा या मुक्त जीव के पास कुछ भी नहीं है । उसके न शरीर है, न रूप है, न आवरण और न कोई माध्यम है, इसीलिए उसे जानना बहुत कठिन है। आचारांग में मुक्त आत्मा का जो विवेचन किया गया है, उसे हम शुद्ध आत्मा या परमात्मा कह सकते हैं। वह आत्मा का बहुत मार्मिक विवेचन है । आत्मा का इतने महत्त्वपूर्ण ढंग से वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। शब्दातीत प्रश्न हुआ, हम आत्मा को कैसे जानें ? जानने का हमारे पास एक साधन है शब्द, पर वह बहुत छोटा माध्यम है । शब्द पदार्थ तक भी नहीं पहुंच पाता। हम उसका पदार्थ के साथ जबरदस्ती संबंध जोड़ देते हैं। अंततः वह एक संकेत ही है। एक शब्द गढ़ा गया--आत्मा। यह शब्द आज बहुत प्रचलित है। पांच-दस हजार वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने क्या कहा था ? उनके पास क्या शब्द थे? क्या भाषा थी? हम इसे नहीं जानते । भगवान् ऋषभ के समय में आत्मा को क्या कहा जाता था, इसका हमें पता नही Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा है। शब्द का कार्य संकेत करना मात्र है। इसीलिए कहा गया ....शब्द आत्मा तक नहीं पहुंच पाता । शब्द के द्वारा आत्मा को बताया नहीं जा सकता। तर्कातीत दूसरी बात कही गई...कोई भी तर्क ऐसा नहीं है, जो आत्मा को समझा सके । आत्मा तर्कातीत है । यद्यपि आत्मवादी आचार्यों ने तर्क के द्वारा आत्मा को समझाने का प्रयत्न किया है, पर वास्तविकता यह है, तर्क के द्वारा आत्मा को समझाया या जाना नहीं जा सकता । वह तर्क से अगम्य है। सही अर्थ में वह अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा गम्य है। हालांकि कभी-कभी हम काम चलाने के लिए तर्क का सहारा ले लेते हैं । पर तर्क वास्तविकता तक हमारा साथ नहीं देते। बुद्धि भी भावना तक नहीं पहुंचती, वह बीच में ही अटक जाती है। बुद्धि शब्द और तर्क के सहारे काम करती है। ये दोनों साथ नहीं देते हैं तो बुद्धि पंगु बन जाती है । शब्द, तर्क और बुद्धि से आत्मा को नहीं जाना जा सकता । शब्द, तर्क और बुद्धि मूर्त तत्त्व को पकड़ सकते हैं, अमूर्त तत्त्व को नहीं। अमूर्त पदार्थ की स्वीकृति का अर्थ पदार्थ के दो वर्ग बन गए.-.-मूर्त पदार्थ और अमूर्त पदार्थ, रूपी और अरूपी । यह भेदरेखा जिस दार्शनिक ने खींची है, वह बहुत बड़ा दार्शनिक रहा है। ऐसा लगता है---मूर्त और अमूर्त का वर्गीकरण सबसे पहले भगवान् महावीर ने प्रस्तुत किया, जैन आचार्यों ने प्रस्तुत किया। भगवान् ने पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन किया, उनमें चार अरूपी हैं, अमूर्त हैं । वे दिखाई नहीं देते। एक रूपी या मूर्त है--पुद्गल । वह सबके लिए गम्य है। एक नया प्रत्यय, नया कंसेप्ट (concept) प्रस्तुत हो गया--दुनिया में कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जो रूपवान नहीं हैं, अरूपवान हैं। वे इन्द्रियों द्वारा या शब्द, तर्क और बुद्धि के द्वारा गम्य नहीं हैं । अमूर्त यदार्थ को मानने का अर्थ है----अतीन्द्रिय ज्ञान की स्वीकृति और उसके परम विकास---केवलज्ञान की स्वीकृति । अरूपी पदार्थ को जानने वाला एक ही ज्ञान है और वह है केवलज्ञान ।। कर्मशास्त्र की भाषा दार्शनिक दष्टि से विचार करें। अमूर्त सत्ता और सर्वज्ञता-इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता । सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य है तो अमूर्त तत्त्व मान्य है और अमूर्त तत्त्व मान्य है तो सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य है। यह नहीं हो सकता--अमूर्त तत्त्व को मान्य करें और सर्वज्ञता को अस्वीकार करें। इन दोनों में से किसी एक की स्वीकृति संगत नहीं ठहरती । आत्मा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां स्वर मौन हो जाते हैं की अमूर्त रूप में स्वीकृति अपने आपमें सर्वज्ञता की स्वीकृति है। कर्मशास्त्र की भाषा में दो ज्ञान प्रतिपादित हैं--क्षायोपशमिक ज्ञान और क्षायिक ज्ञान । क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा केवल मूर्त पदार्थों को जाना जा सकता है। श्रुतज्ञान से व्यक्ति मूर्त-अमूर्त---दोनों पदार्थों को जानता है पर उनका साक्षात् नहीं कर सकता। केवलज्ञान या क्षायिक ज्ञान ही ऐसा है, जिसके द्वारा व्यक्ति अमूर्त तत्त्व को साक्षात् जानता है । अमूर्त अस्तित्व का स्वीकार केवलज्ञान के द्वारा मान्य सिद्धांत का स्वीकार है । जो केवली है, जिसने अमूर्त अस्तित्व का साक्षात्कार किया है, वही अमूर्त सचाई को अभिव्यक्त कर सकता है। भिन्न हैं सूक्ष्म जगत् के नियम प्रश्न हो सकता है--जिसमें रूप नहीं है, उसका साक्षात्कार कैसे ? हम इन्द्रिय के नियम को जानते हैं इसलिए यह धारणा बन गई—जिसमें शब्द, रूप, गंध और स्पर्श नहीं है, उसे कैसे साक्षात् किया जा सकता है ? यह हमारी एक मान्यता बनी हुई है। हमने ऐसे कितने ही स्थूल नियमों को पकड़ रखा है। हम इन्द्रिय-जगत् के नियमों से इतने परिचित हो गए हैं कि अतीन्द्रिय नियम सामने आता है तो हम उसे मानने के लिए तैयार नहीं हो पाते । हम स्थूल नियमों को जानते हैं, सूक्ष्म नियमों को नहीं जानते । वस्तुतः स्थूल जगत् के नियम सूक्ष्म जगत् से भिन्न हैं इसीलिए उन्हें समझना सहज नहीं होता। कहा गया-जो बात अहेतुगम्य है, उसके लिए तर्क को बीच में लाने का प्रयास मत करो। बहुत सारी बातें ऐसी हैं, जो तर्क का विषय ही नहीं बनती। भगवान महावीर ने शुद्ध आत्मा के संदर्भ में जो कहा, वह इन्द्रितीत चेतना के स्तर पर ही कहना संभव हो सकता है। नेतिवाद उपनिषद् का नेतिवाद बहुत प्रचलित है। शुद्ध आत्मा को समझाने के लिए महावीर ने भी नेतिवाद का प्रयोग किया है। बहुत सारे तत्त्व सकारात्मक दृष्टि से नहीं समझाए जा सकते। आचारांग में शुद्ध आत्मा के संदर्भ में नेतिवाद का प्रयोग करते हुए कहा गया शुद्ध आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल है। वह न कृष्ण है, न नील है, न पीत है और न शुक्ल है । वह न सुगंध है, न दुर्गन्ध है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है । वह न कर्कश है, न मधुर है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अस्तित्व और अहिंसा वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है। वह शरीरवान् नहीं है, जन्म-धर्मा नहीं है, लेपयुक्त नहीं है। वह शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है, तर्क के द्वारा गभ्य नहीं है, मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है। उसका बोध कराने के लिए कोई उपमा नहीं है, कोई पद नहीं है। बद्ध आत्मा : मुक्त आत्मा आखिर आत्मा है क्या ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया--वह अरूपी सत्ता है । वह अकेला है, कोई साथी नहीं है । वह ज्ञानमय सत्ता है, सर्वतः चैतन्यमय है । आत्मा का एक लक्षण बन गया-रूप रहित सत्ता । अस्तित्व है पर अरू पी है। जो केवल शरीर को आत्मा मानते हैं, शरीर से भिन्न आत्मा नहीं मानते, उन्हें यह भेदरेखा बताई गई-शरीर रूपी है और आत्मा अरूपी। आकाश भी अरूपी है लेकिन वह ज्ञानमय सत्ता नहीं है। आत्मा ज्ञानमय सत्ता है। __ आत्मा का यह स्वरूप सामने आता है तब आत्मा का एक पूरा चित्र प्रस्तुत होता है, संसारी जीव का रूप बिलकुल बदल जाता है। हम शरीरधारी हैं, मुक्त आत्मा अशरीरी है । हम मूर्त हैं, मुक्त आत्मा अमूर्त । मुक्त आत्मा केवल ज्ञानमय सत्ता है। हमारी आत्मा ज्ञानमय है तो साथ-साथ अज्ञानमय भी है, आवरणयुक्त भी है । इस आधार पर आत्मा के दो भेद हो गएशुद्ध आत्मा और बंधी हुई आत्मा। आत्मा का ध्यान प्रश्न है-हम किस आत्मा का ध्यान करें ? आचारांग सूत्र के पांचवें अध्ययन में आत्मा के संदर्भ में जो सूत्र हैं, वे आत्मा के ध्यान के सूत्र हैं। यदि इस सम्पूर्ण आलापक को प्रतिदिन बीस-पचीस बार भी दोहराया जाए तो आत्मा की बात समझ में आती चली जाएगी। आत्मा के ध्यान का दूसरा प्रकार है- राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीने का अभ्यास । हम निर्विकल्प समाधि में रहने का अभ्यास करें । अभ्यास करते-करते हम एक दिन आत्मानुभूति के क्षण में चले जाएंगे। हमें केवल आत्मा को जानना नहीं है, आत्मा को उपलब्ध होना है, सब विचारों से मुक्त होकर केवल चैतन्यमय अनुभूति में चले जाना है । जब यह भूमिका प्राप्त होती है, तब आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है, आत्मा का साक्षात्कार होने लग जाता है । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन३१ संकलिका .. सच्चं लोम्मि सारभूयं । ० सार : विभिन्न मत ० सार है सत्य ० सार तत्त्व का लक्षण जो शाश्वत तृप्ति, स्वास्थ्य, चित्त की प्रसन्नता, शक्ति, शान्ति देने वाला है, जो पवित्र है, वह सार है। ० भोग का लक्षण ० सत्य को परिभाषा ० सत्यमेव जयते : वर्तमान धारणा ० असत्य सार नहीं बनता भोग और त्याग की प्रकृति भोग : पहले सरस, क्रमशः नीरस ० त्याग : पहले रूक्ष, क्रमश: सरस ० अमाप्य गहराई ० असंयम : सार में असार का आरोपन ० सार का आभास : सार ० सार है संयम और त्याग Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असार संसार में सार क्या है ? विद्याओं का, शब्द शास्त्रों का कोई पार ही नहीं है। एक आदमी एक जीवन में कितना क्या करे ? किस-किस को पढ़े ? क्या-क्या जाने ? निष्कर्ष की भाषा में उत्तर दिया गया—सबके पीछे मत दोड़ो, जो सार है, उसे पकड़ लो । जो असार है, उसे छोड़ दो। छिलकों को मत पकड़ो, उसके भीतर जो रस है, उसे पकड़ो। दुनिया में सार क्या है ? असार क्या है ? इसका निर्णय करना बहुत कठिन है।। ___ आचारांग के पांचवें अध्ययन का नाम है--लोकसार । प्रश्न प्रस्तुत हो गया-लोक में सार क्या है ? उत्तर दिया गया-लोक में सार है सत्य । पुनः प्रश्न उभरता है-भूख लगती है तो सत्य क्या करेगा ? प्यास लगती है तो सत्य क्या करेगा? यह प्रश्न बहुत जटिल रहा है। ऐसा लगता है, जब से मनुष्य सोचने लगा है तब से सार और असार का प्रश्न भी उसके सामने रहा है। क्या है सार राजा भोज की सभा में भी यही प्रश्न प्रस्तुत हुआ—इस असार संसार में सार क्या है ? एक पंडित ने समाधान दिया--इस संसार में तीन बातें सारभूत हैं--काशी में वास करना, अच्छे विद्वानों की सेवा करना और प्रभु का भजन करना काश्यां वासः सतां सेवा मुरारेः स्मरणं तथा । असारे खलु संसारे, सारमित्यभिधीयते ।। राजा ने कहा-बात पूरी नहीं हुई। दूसरा पंडित बोला-इस असार संसार में ससुराल में रहना ही सार हरः शेते हिमगिरौ, हरिः शेते पयोनिधौ । __ असारे खलु संसारे, सारं श्वसुरमंदिरम् ।। यह भी पूर्ण बात नहीं है। कालिदास बोला-इस असार संसार में स्त्री ही सार है, जिसकी कुक्षि से राजा भोज जैसा विद्वान् व्यक्ति उत्पन्न हुआ है असारे खलु संसारे, सारं सारंगलोचना । यस्याः कुक्षौ समुत्पन्नो, भोजराजो भवादृशः ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असार ससार में सार क्या है ? १७५ लक्षण सार का सार और असार की चर्चा अनेक दृष्टिकोणों से होती रही है। सार के संदर्भ में अनेक मत प्रस्तुत हुए हैं। हम किसे सच मानें ? महावीर ने कहा-सत्य लोक में सारभूत है। प्रश्न है-सत्य सार क्यों है ? सत्य सार कैसे है ? सार तत्त्व का लक्षण क्या है ? हम लक्षणों के आधार पर ही सार और असार का निर्धारण कर सकते हैं। सार तत्त्व के जो लक्षण माने जा सकते हैं, वे ये हैं तृप्तिदं स्वास्थ्यदं शश्वद्, चेतःप्रसत्तिकारकम् । शक्तिदं शांतिदं पूतं, सारमित्यभिधीयते ।। जो शाश्वत तृप्ति देने वाला है, स्वास्थ्य देने वाला है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, जो शक्ति और शान्ति देने वाला है, जो पवित्र है, वह सारभूत है। सत्य ही सार है शाश्वत तृप्ति, स्वास्थ्य, शक्ति, प्रसन्नता, शान्ति और पवित्रताजिसमें ये लक्षण एक साथ मिलते हैं, वह सार है। दुनिया में कितने तत्त्व ऐसे हैं, जिनमें ये सारे लक्षण एक साथ मिल जाएं ? भोग का एक लक्षण माना गया है तृप्ति । वह पहले तृप्ति देता है किन्तु बाद में अतृप्ति से भर देता है। उससे क्षणिक तृप्ति मिलती है, शाश्वत तृप्ति नहीं। सत्य एक ऐसा तत्त्व है, जिसमें ये सारे लक्षण मिलते हैं। सत्य केवल वाणी का ही नहीं होता, वह भाव, भाषा और मन-तीनों से जुड़ा हुआ है। कथनी और करनी की समानता भी सत्य से जुड़ी हुई है। यह सत्य की सही परिभाषा है और यही लोक में सारभूत है। हम कहीं भी जाएं, यह देखेंगे-जिसके पास जा रहे हैं, वह सच्चा है या नहीं ? ईमानदार है या नहीं ? प्रत्येक व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति को सत्य और ईमानदारी की कसौटी पर कसना चाहेगा । झूठ को कोई पसंद नहीं करता। उसकी दृष्टि में महत्त्व सत्य का होता है। सत्य : निष्पत्ति सार का लक्षण है--तृप्ति देना । जब व्यक्ति के सामने सही बात आती है, सच्ची बात आती है, व्यक्ति तृप्त हो जाता है। सार का एक लक्षण हैस्वास्थ्य देना। जहां सरलता है वहां स्वास्थ्य है। जहां-जहां कुटिलता है, वहां-वहां स्वास्थ्य की हानि है। जहां सत्य है, वहां चित्त सदा प्रसन्न रहता है। सत्य व्यक्ति को बहुत बल देता है । अनेक बार लोग कहते हैं-मैं सच्चा हूं, मुझे कोई डर नहीं है। भीतर से शक्ति देता है सत्य । मानसिक शान्ति का बहुत बड़ा सूत्र है-सत्य । जो लोग दो नंबर के खाते नहीं रखते, उनके Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा मन की शान्ति कभी भंग नहीं होती। सत्य पवित्र होता है, उसमें कोई कुटिलता या कलुषता नहीं हो सकती ।। सार की जो कसौटियां हैं, वे सत्य में उपलब्ध है । सत्य, संयम या ऋजुता के सिवाय ये कसौटियां कहीं प्राप्त नहीं होतीं इसीलिए महावीर ने कहा--सत्य लोक में सारभूत है । यह वाक्य बहुत सुन्दर लगता है। एक शब्द है-सत्यमेव जयते । यह धारणा व्यवहार में फिट नहीं बैठ रही है । वर्तमान धारणा है--सफल वह होता है जो झूठ बोलना जानता है। जहां सार का प्रश्न है वहां सत्य ही सार है, इसका कोई विकल्प नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है। सार है तो सत्य है। असत्य कभी सार नहीं बन सकता । भोग और त्याग की प्रकृति __ सत्य का मतलब है संयम । आचार्यों ने भोग और त्याग-दोनों की मीमांसा की। उनकी प्रकृति के अंतर का विश्लेषण किया । उन्होंने कहासंयम का जैसे-जैसे सेवन करोगे, सरसता बढ़ती चली जाएगी। भोगों का जैसे-जैसे सेवन करोगे, विरसता बढ़ती जाएगी। इक्षु बहुत सरस होता है । उसका सेवन करें, वह नीरस होता चला जाएगा। एक क्षण ऐसा आएगा, वह रसहीन हो जाएगा । सत्य प्रारम्भ में कम सरस लग सकता है किन्तु जैसेजैसे उस का सेवन करते हैं, आनन्द बढ़ता चला जाता है। संस्कृत का यह श्लोक इसी भावना से प्रभावित है-- इक्षवद विरसाः प्रान्तेः, सेविताः स्युः परे रसाः । सेवितस्तु रसः शान्तः, सरसः स्यात् परं परम् ॥ नौ अक्षरों की गहराई भोग की प्रकृति है-वह पहले अच्छा लगता है किन्तु बाद में नीरस लगने लग जाता है। त्याग की प्रकृति है-वह पहले रूखा लगता है किन्तु धीरे-धीरे सरस बनता चला जाता है । यह भोग और त्याग की कसौटी है। जिस व्यक्ति ने सत्य की कसौटी को नहीं आंका, वह सचाई को समझ नहीं सकता । वह अपने आपको ही नहीं, दूसरों को भी धोखा देता है। सत्य और संयम के बिना पवित्रता संभव नहीं है। 'सच्चं लोयम्मि सारभयं'-इन नौ अक्षरों में जो गहराई है, वह अमाप्य है। यदि हम इन नौ अक्षरों का विश्व के समस्त भोज्य पदार्थों के संदर्भ में मनन करते चले जाएं तो हम उस गहराई में पहुंचते हैं, जहां विश्व का एक नया नक्शा सामने आता है, यथार्थता सामने आती है। सार: सार का आभास हम इस सचाई का अनुभव करें। इस दुनिया में सत्य, संयम और Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असार संसार में सार क्या है ? त्याग के सिवाय सार है क्या ? मोह के कारण आदमी असार में सार का आरोपण कर रहा है, असार को सार मान रहा है। असंयम एक बार सार लगता है, व्यक्ति उसमें सार का आरोपण करता है, किन्तु वह सार का आभास है, सार नहीं है। जब व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति में लौटता है, उसमें यह मति जागती है---मैंने जिसको सार मान रखा था, वस्तुतः वह सारभूत नहीं निकला । यथार्थ में 'सत्य एवं संयम ही सार है। यह अनुभूति उसकी दिशा को बदलने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बनती है। महावीर की इस अमूल्य वाणी को जिस दिन हम आत्मसात् कर पाएंगे, यह सूक्त हमारे जीवन का सत्य बन जाएगा। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३२ | संकलिका ० पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे। (आयारो ६/५) • से बेमि -से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्र से णो लहइ। (आयारो ६/६) ० ऊपर की ओर चलो, लक्ष्य बड़ा बनाओ • अवसाद क्यों होता है ? .० लक्ष्य है आत्मा की उपलब्धि ० बहुत हैं पड़ाव ० सुन्दर संयोग ० कछुए की निराशा ० कठिन है मूर्छा को भेद पाना ० पुरुषार्थ सापेक्ष है क्षयोपशम ० दो तंत्र : चेतना और कर्म चेतना सक्रिय : कर्म निष्क्रिय कर्म सक्रिय : चेतना निष्क्रिय ० व्यक्ति स्वयं है अपना भाग्य विधाता ० पुरुषार्थ का दर्शन : कर्मवाद ० प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़े, शरीर से नहीं ० साधना का पहला पडाव ० महत्त्वपूर्ण कसौटी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ फिर आकाश नहीं देख सका ऊंचा लक्ष्य बनाएं __ लक्ष्य हमेशा ऊंचा बनाएं। उद्देश्य कभी छोटा नहीं होना चाहिए, योजना भी छोटी नहीं होनी चाहिए। छोटे लक्ष्य और छोटी योजना से उत्साह नहीं जागता। वे कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। बड़ी योजनाएं और बड़े लक्ष्य पूरे होते हैं क्योंकि उनके पीछे उत्साह और प्रेरणा का बल होता है । विश्व के प्रख्यात चिन्तकों ने यही कहा-ऊपर की ओर चलो, लक्ष्य को बड़ा बनाते चलो। यदि किसी श्रावक से पूछा जाए-तुम्हारा लक्ष्य क्या है ? उसका उत्तर होगा--लक्ष्य है साधु बनना, अणुव्रती से महाव्रती बनना। वस्तुत: यह लक्ष्य नहीं है, यह एक यात्रा है, पड़ाव है। यदि एक मुनि यह सोचता है—-मैं साधु बन गया, सब कुछ हो गया तो वह बड़ी भूल करता है। साधु बनना यदि लक्ष्य है तो साधु-दीक्षा के साथ ही उसकी प्राप्ति हो जाती है । साधना करने या वीतराग बनने की जरूरत ही नहीं है। चक्रवर्ती भरत ने मुनि दीक्षा भी नहीं ली, वे अपने घर में बैठे-बैठे ही वीतराग बन गए। वास्तव में साधु बनना बहुत छोटा लक्ष्य है। समस्या यह है-हम आज भी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारा लक्ष्य क्या है ? लक्ष्य एक ही है महावीर ने कहा-कुछ साधु ऐसे हैं, जो साधु होकर भी अवसाद को प्राप्त होते हैं, विषाद को प्राप्त होते हैं। एक मुनि सोचता है--कितना कठिन है साधु जीवन । विहार करना, पैदल चलना, लोच कराना, सर्दी-गर्मी को सहन करना आदि-आदि कितने कष्ट हैं । ऐसा सोचने वाला मुनि अवसाद को प्राप्त होता है। प्रश्न है-अवसाद क्यों होता है ? महावीर ने इसका कारण बतलाया--जो अनात्मप्रज्ञ हैं, जिन्होंने आत्म-प्राप्ति का लक्ष्य नहीं बनाया है, उन्हें विषाद होता है। साधु का लक्ष्य है आत्मा को पाना । प्रश्न हो सकता है-श्रावक का लक्ष्य क्या है ? श्रावक का लक्ष्य भी यही है। साधु और श्रावक-दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह है आत्मोदय । जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, विषाद की स्थितियां आती रहती हैं। पड़ाव लक्ष्य नहीं है हम इस विषय को गंभीरता से लें। साधु बनना, मुमुक्षु बनना या Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अस्तित्व और अहिंसा श्रावक बनना-लक्ष्य नहीं है। ये सब पड़ाव हैं, विराम हैं। लक्ष्य है आत्मा की उपलब्धि । एक मुनि भी इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, एक श्रावक भी इसे सरलता से प्राप्त कर सकता है। हम पड़ावों पर ज्यादा अटक जाते हैं किन्तु पड़ाव लक्ष्य नहीं है। श्रावक की भूमिका एक पड़ाव है। बारहवती श्रावक की भूमिका एक पड़ाव है। उससे अगला पड़ाव है मुनि की भूमिका । अप्रमत्त को भूमिका एक पड़ाव है । वीतराग की भूमिका एक पड़ाव है । छठेसातवें गुणस्थान के बीच भी कितने ही पड़ाव आ जाते हैं। एक व्यक्ति साधु बनता है, एकल विहारी बनता है, जिनकल्पी बनता है। ये सारे पड़ाव हैं, जो मंजिल की ओर ले जाते हैं। हम इन पड़ावों को पूरा करते करते आगे बढ़ते हैं और बढ़ते ही चले जाते हैं तो मंजिल उपलब्ध होती है। यदि हमारा लक्ष्य छोटा होगा तो हम महान् लक्ष्य को नहीं पा सकेंगे। दृष्टि मूल लक्ष्य पर केन्द्रित होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो लक्ष्य सदा दूर बना रहता है। उदाहरण की भाषा महान् लक्ष्य है वीतरागता। एक जैन श्रावक प्रतिदिन बोलता है-- ‘णमो अरहंताण'। इसका अर्थ है-अर्हत्, वीतराग या केवली होना हमारा लक्ष्य है। महावीर ने कहा-जिसके सामने यह प्रज्ञा नहीं होती है, वह अनात्मप्रज्ञ हो जाता है, आत्मा की प्रज्ञा को भुला देता है और वह विषाद को प्राप्त होता है। महावीर ने उदाहरण की भाषा में कहा-एक कछुआ किसी द्रह-तालाब में रहता था। उस तालाब पर काई... हरीतिमा छाई हुई थी। काई से सारा पानी ढक जाता। संयोग ऐसा बना---एक जगह से काई हट गई। कछुए ने ऊपर की ओर देखा, वह देखता ही रह गया-नीला आकाश ! तारे चमक रहे हैं । उसने यह दृश्य पहली बार देखा। उसे बड़ा सुहावना लगा, मनोरम और सुन्दर लगा। कितनी बड़ी दुनिया है, यह देखकर वह अवाक रह गया। उसके मन में एक विकल्प उठा-मैं अकेला ही इस दृश्य को देख रहा हूं। अपने परिवार को भी यह दृश्य दिखाऊं, वे आश्चर्य में डूब जाएंगे। कछुए ने तालाब में डुबकी लगाई। वह परिवार वालों को बुला लाया। वह यह देखकर स्तब्ध रह गया-पानी पर पुनः काई आ गई है, आकाश दिखना बंद हो गया है। आकाश को देखने के लिए जो विवर बना था, वह बंद हो गया। कछुआ निराश हो गया। वह परिवार वालों को क्या दिखाएं ? कैसे दिखाएं ? कछुआ पुनः आकाश नहीं देख सका। दूसरा संदर्भ हम इसे दूसरे संदर्भ में देखें। एक व्यक्ति बड़े लक्ष्य के साथ चला। कुछ आवरण हटा, एक विवर हो गया, आत्मा की कोई झलक मिल गई। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ फिर आकाश नहीं देख सका १८१ वह आगे चल पड़ा किन्तु कोई ऐसी काई छा गई, मोह या मूर्छा की गहरी काई सामने आ गई। उसे तोड़ना या भेद पाना बहुत कठिन है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति सोचता है-मैं साधु बनूं, मोह-माया को छोड़ दूं । उसके मन में यह विचार आता है और वह इस दिशा में चल पड़ता है किन्तु जब मोह की सघन परत आड़े आती है, व्यक्ति लक्ष्य से भटक जाता है । वह उस सघन परत के नीचे दबता चला जाता है। यह स्थिति इसलिए बनती है कि उसका पुरुषार्थ मंद हो जाता है। पुरुषार्थ सापेक्ष है क्षयोपशम हमारे क्षयोपशम की स्थिति पुरुषार्थ सापेक्ष है। निरन्तर पराक्रम, पुरुषार्थ और वीर्य का प्रयोग चलता रहे, हाथ निरन्तर हिलता रहे तो आदमी तैरता चला जाता है। जब तक हाथ हिलता रहेगा, क्षयोपशम काम देगा। हाथ हिलना बंद होगा, क्षयोपशम भी बंद हो जायेगा, वह उदय में बदल जाएगा, उदय सक्रिय हो जाएगा। कर्म और चेतना-ये दो तंत्र हैं। एक सक्रिय होता है तो दूसरा निष्क्रिय हो जाता है। दूसरा सक्रिय होता है तो पहला निष्क्रिय बन जाता है। कभी कर्म का प्रभाव सक्रिय हो जाता है और कभी चेतना का प्रभाव सक्रिय हो जाता है। क्षयोपशम की सक्रियता पुरुषार्थ से जुड़ी हुई है। व्यक्ति स्वयं का भाग्य विधाता है ___महावीर ने कहा--व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। व्यक्ति के भाग्य की डोर व्यक्ति के अपने हाथ में है लेकिन वह तब है जब सही अर्थ में पुरुषार्थ सक्रिय रहे। यदि पुरुषार्थ गलत हो जाए तो अपने दुर्भाग्य का विधाता भी व्यक्ति स्वयं बन जाता है। यदि व्यक्ति पुरुषार्थ न करे, आलसी बन जाए तो सब कुछ खराब हो जाता है । कर्मवाद को मानने वाला इस तथ्य को समझे---भाग्य का उदय होने वाला है किन्तु यदि उसके अनुरूप पुरुषार्थ नहीं किया गया तो भाग्य का उदय भी रुक जाएगा। यदि गलत पुरुषार्थ कर लिया तो भाग्य का उदय रुक जाएगा। हम इस बात पर ध्यान दें-- आलस्य न हो, गलत पुरुषार्थ । हो, सही पुरुषार्थ निरन्तर चलता रहे । हाथ पर हाथ रखकर बैठने से पेट नहीं भरता। रसोई तैयार है किन्तु भूख तभी मिटेगी जब हम खाने के लिए पुरुषार्थ करेंगे । जो भाग्यवादी या ईश्वरवादी हैं, वे निराश होकर बैठ सकते हैं किन्तु कर्मवादी कभी निराश होकर नहीं बैठता । उसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास होता है। सब कुछ है आत्मा मूल बात है— प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़ी हुई है या नहीं ? यदि हम आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं तो हमारा पुरुषार्थ सही दिशा में होगा। यदि हम Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा आत्मा के साथ नहीं किन्तु शरीर के साथ जुड़े हुए हैं तो पुरुषार्थ की दिशा सही नहीं रह पाएगी। साधु जीवन हो या श्रावक जीवन, पुरुषार्थ का सही दिशा में नियोजन नहीं है तो हम अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पाएंगे। हम शरीर के साथ जुड़े हुए हैं, इसका अर्थ है, हम नितान्त भौतिकवादी बन गए, नास्तिक बन गए। हम शरीर को पालते हैं किन्तु उसे सब कुछ मानकर नहीं चलते । जिस क्षण सम्यग् दर्शन का पहला प्रकाश फूटता है, इस सचाई का वोध होता है---शरीर सब कुछ नहीं है, वह यात्रा चलाने का साधन-मात्र है । सब कुछ है आत्मा । इस दृष्टिकोण का आत्मसात् होना ही सम्यग् दर्शन है। साधना का पहला पड़ाव है-सम्यग दर्शन । इस स्थिति में ही आत्मप्रज्ञा जागती है, व्यक्ति विषाद से मुक्ति पा लेता है । जितना विषाद होता है, वह अनात्म-प्रज्ञा में होता है । जिसकी प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़ जाती है, उसे कोई दुःखी नहीं बना सकता। आत्मप्रज्ञ बो हम एक कसौटी को सामने रखें। हम कुछ भी करें तो यह सोचें ... मेरे इस कार्य से आत्मा का कुछ बिगड़ा या नहीं ? हमारे कार्य को कोई देखता है या नहीं देखता, हमें कोई कुछ कहता है या नहीं कहता, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना महत्त्वपूर्ण है-इस कसौटी का सामने बने रहना। जो इस कसौटी को सामने रखता है, उसे कोई दुःखी नहीं बना सकता । महावीर ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया-आत्म-प्रज्ञ बनो। जब तक आत्म-प्रज्ञ नहीं बनेंगे, विषाद से मुक्ति नहीं मिलेगी। धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने वाला सबसे पहले आत्मा को जाने । जो आत्मवादी हैं, परलोक को मानते हैं, कर्म एवं कर्म फल को मानते हैं, उनके लिए आत्मा के साथ जुड़े रहने का दर्शन सहज प्राप्त है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३३ । संकलिका • आणाए मामगं धम्म (आयारो ६/४१) • पंचठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं हिताए सुभाए खमाए णिस्सेस्साए अणुगामियत्ताए भवंति तं जहासद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । (ठाणं ५/१३) ० आज्ञा : अर्थ-मीमांसा ० आज्ञा : आगम आज्ञायन्ते अतीन्द्रियाः पदार्थ येन स आज्ञा । ० आज्ञा : विधि-निषेधात्मक निर्देश हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशः आज्ञा । ० आज्ञा : नियंत्रण उल्लंघने क्रोधादिभयजनितेच्छा आज्ञा । इदं कुरूं, इदं मा कुरू इति अनुशासनात्मिका भाषा आज्ञा । ० आगम है प्रकाश दीप ० तीन बातें जरूरी हैं अतीन्द्रिय ज्ञान, मार्गदर्शन और नियंत्रण ० आज्ञा : निदर्शन ० आज्ञा : परंपरागत अर्थ ० धर्म : मूल आधार • मामकं का प्रयोग क्यों? • आज्ञा : मूल अर्थ ० नवतत्त्व : षड् द्रव्य ० आईस्टीन का कथन ० कर्त्तव्य चेतना का जागरण : आज्ञा का जागरण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाए मामगं धम्म अच्छा जीवन जीने के लिए तीन बातें जरूरी हैं-अतीन्द्रिय ज्ञान, मार्ग दर्शन और नियंत्रण । मनुष्य में अज्ञान है इसलिए आगम की जरूरत है। आगम है अतीन्द्रिय ज्ञान । जरूरी है अतीन्द्रिय ज्ञान, जिससे अज्ञानता मिटे, रास्ता प्रकाशित हो जाए, स्थिति स्पष्ट हो जाए। जरूरत है मार्ग दर्शन की। मनुष्य में अविवेक है इसलिए वह यह समझ नहीं पाता कि किस कार्य में मेरा हित है, किस कार्य में मेरा अहित है । हित की प्राप्ति और अहित के परिहार का विवेक जागे, इसके लिए मार्गदर्शन की जरूरत है। तीसरी जरूरत है नियंत्रण की। आदमी में वृत्तियों का आवेग है। व्यक्ति अपने आवेग को रोक सके, इसके लिए नियंत्रण की जरूरत है। आज्ञा : आगम महावीर ने कहा- "आणाए मामगं धम्म" मेरा धर्म आज्ञा में है। आज्ञा का एक अर्थ है-आगम । जिसके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं, 'परोक्ष वस्तुएं जानी जाती हैं वह आज्ञा है, आगम है। हमारा जीवन प्रत्यक्ष में कम, परोक्ष में ज्यादा उलझा हुआ है । जीवन की हजार गांठों में से दो चार गांठें ही प्रत्यक्ष हैं, शेष सारी गांठे परोक्ष हैं। उन सब गांठों, ग्रन्थियों को समझने के लिए कितना प्रकाश चाहिए ! आगम एक प्रकाश दीप है। ऐसा प्रकाश दीप है, जो आकाश में जलता है, जीवन के अतीत, वर्तमान और भविष्य–तीनों को आलोकित करता है, जिसकी ज्योति में पूरा जीवन पढ़ा और समझा जा सकता है। असीम है अज्ञात ___आगम के द्वारा कर्म के सन्दर्भ में जो प्रकाश मिला है, यदि वह नहीं मिलता तो आदमी बहुत उलझा रहता। आज विज्ञान के द्वारा जीन का जो सिद्धान्त मिला है, उससे सारे जीव की व्याख्या हो जाती है । प्रयोगशाला में बैठा हुआ वैज्ञानिक जीन को देखकर बहुत कुछ जान लेता है। इस जीन वाला व्यक्ति जीवन में क्या-क्या आचरण करेगा ? कैसा होगा ? वह बात एक वैज्ञानिक जीन को देखकर बता देगा। एक कर्मशास्त्री कर्म के आधार पर जीवन की सारी व्याख्या कर देगा । यह है आज्ञा । कहा गया---आज्ञा को सामने रखो, अतीन्द्रियज्ञान को समझो, जो हमारे सामने प्रत्यक्ष नही है, उसका साक्षात् करना सीखो। हमारे सामने Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाए मामगं धम्म प्रत्यक्ष बहुत कम है। अज्ञात के महासमुद्र में एक छोटा-सा टापू है प्रत्यक्ष । अज्ञात अनन्त है । उसे जानने के लिए आज्ञा-आगम की जरूरत है। आदमी बहुत पढ़ा लिखा हो जाए, विद्वान् बन जाए तो भी उसका ज्ञान बहुत अल्प होता है। अनन्त अतीत, अनन्त भविष्य और वर्तमान का सारा परिपाक उससे अज्ञात ही होता है। जो ज्ञात है, वह बहुत स्वल्प है। जो अज्ञात है, वह असीम है । अज्ञात को जानने का माध्यम है-आगम-अतीन्द्रिय अनुभव। विधि निषेध : आज्ञा प्रत्येक व्यक्ति वह कार्य करना चाहता है, जिससे उसका हित साधन हो, अहित न हो । हित-सिद्धि और अहित से बचने का सूत्र है आज्ञा । आज्ञा का एक अर्थ है--विधि-निषेधों को जानो। धर्म के सन्दर्भ में कहा गयाप्रमाद मत करो। प्रमाद करने से हित टूटता है, अहित घटित होता है। यह निर्देश आज्ञा है। चिकित्सा शास्त्र कहता है-हित भोजन करो, अहित भोजन मत करो। मित भोजन करो, बहुत मत खाओ। यह आयुर्वेद की आज्ञा नियंत्रण : आज्ञा आज्ञा का एक अर्थ है—नियंत्रण। न शास्त्र, न अतीन्द्रिय अनुभव किन्तु नियंता का आदेश- यह मत करो, यह करो। यह अनुशासनात्मक भाषा आज्ञा है । परिभाषा की गई-क्रोधादिभयजनितेच्छा आज्ञा । क्रोध और भय पैदा करने वाली इच्छा का नाम है आज्ञा । भय बिनु प्रीति न होय यह अनुभव-शून्य बात नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति विवेक और ज्ञान सम्पन्न नहीं होता । मनुष्य की अनेक कोटियां हैं। ऐसे लोग भी हैं, जिनका मस्तिष्क विकसित नहीं है । उनके विवेक को जगाने के लिए भय की जरूरत होती है। अनुशासनात्मक भाषा व्यक्ति में एक भय पैदा करती है और वह भय व्यक्ति को बुरे मार्ग से बचाने में उपयोगी बनता है। धर्म का मूल आधार __ आज्ञा के ये तीन अर्थ-अतीन्द्रिय ज्ञान, मार्गदर्शन और नियंत्रण, आणाए मामगं धम्म-इस सूक्त को नया सन्दर्भ देते हैं। इस सूक्त का परंपरागत अर्थ है—मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है। तुम मेरे धर्म को जानकर मेरी आज्ञा का पालन करो। जब तक जानोगे नहीं, मेरे धर्म का पालन कैसे करोगे ? महावीर का सारा धर्म ज्ञान पर टिका हुआ है, अन्ध-विश्वास पर टिका हुआ नही है। महावीर ने आत्मा को देखा, तब कहा--धर्म जरूरी है। अगर आत्मा को नहीं देखते तो धर्म की जरूरत नहीं होती। उन्होंने आत्मा और कर्म को देखने के बाद यह उपदेश दिया-'धर्म जरूरी है, यदि धर्म Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अस्तित्व और अहिंसा नहीं करोगे तो बन्धते चले जाओगे, गांठें घुलती चली जाएंगी, तुम गांठमय बन जाओगे ।' धर्म का यह प्रतिपादन अतीन्द्रिय चेतना के आधार पर हुआ है । धर्म का मूल आधार है -अतीन्द्रिय चेतना | जब तक व्यक्ति इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीता है, उसे धर्म की जरूरत ही महसूस नहीं होती, धर्म का जीवन में कोई विशेष अर्थ नहीं होता । जैसे ही इन्द्रियों से परे जाने की बात समझ में आती है, धर्म की बात समझ में आने लग जाती है । शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श --इनसे ऊपर उठने का नाम है धर्म । इन सबमें आसक्त होने का नाम है अधर्म । धर्म को अनिन्द्रिय स्तर पर ही जाना जा सकता है । मेरा धर्म इस कथन में भी एक रहस्य का आणाए मामगं धम्मं- - इस सूक्त में एक शब्द है - मामगं । यह शब्द उलझाने वाला है । प्रश्न हो सकता है - 'मेरा धर्म' यह अधिकार कहां से आया ? हवा, पानी, सूर्य, चन्द्रमा आदि पर किसी का भी अधिकार नहीं होता । महावीर ने 'मेरा धर्म' कैसे कहा ? छिपा है । हम समझें - धर्म क्या है ? धर्म विधि-विधान, जो निश्चित किया गया है । सार्वभौम है पर उस सत्य को पाने के लिए की गई हैं । महावीर ने 'मामक' शब्द का आत्मा को पाने के लिए मैंने जो मार्ग, जो पद्धति निश्चित की है वह मेरी खोज है । इसका तात्पर्य है आत्मा को पाने का जो जागतिक नियम मैंने खोजा है, उसे समझो । महावीर ने अपनी साधना से, अपने श्रम से जो नियम खोजे हैं, वे महावीर के अपने अवदान हैं । अर्थ है - एक कानून, एक सत्य व्यापक है, अनन्त और अपनी-अपनी पद्धतियां निर्धारित प्रयोग किया है, उसका अर्थ है 1 आज्ञा : मूल अर्थ हम आज्ञा को अधिकांशतः नियामक भाषा में ही समझते हैं । वस्तुतः आज्ञा का मूल अर्थ है जानना । आज्ञा की परिभाषा की गई—आ समन्तात् ज्ञायन्ते अतीन्द्रियाः पदार्थाः येन सा आज्ञा जिससे अतीन्द्रिय पदार्थ को जाना जाता है, उसका नाम है आज्ञा । भगवान महावीर श्रद्धा के नहीं, ज्ञान के महान् समर्थक थे । श्रद्धा का मतलब है घनीभूत इच्छा । ज्ञान के बिना श्रद्धा कहां से आएगी ? पहले ज्ञान, फिर श्रद्धा । हम वस्तु को यथार्थ रूप में जानें । जानने के बाद आचरण का प्रश्न प्रस्तुत होता है, अनुशीलन और अनुपालन का प्रश्न प्रस्तुत होता है । महावीर ने कहा – पहले जानो - कर्म को जानो, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष को जानो, नव पदार्थों को जानो । नव पदार्थ को जाने बिना धर्म की बात को नहीं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाए मामगं धम्मं १८७ समझा जा सकता। हम षड्द्रव्य को जानेंगे तो सम्यग् दर्शन हो जाएगा किन्तु सम्यग् आचरण की बात समझ में नहीं आएगी। धर्म को जानना है तो नव-पदार्थ को जानना ही होगा । अस्तित्ववाद : उपयोगितावाद नव-पदार्थ साधना का मार्ग है, षड्-द्रव्य अस्तित्व का मार्ग है | दर्शन के ये दो अंग होते हैं---अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद । अस्तित्ववाद को जानने का अर्थ है-जीव है, अजीव है, आकाश और पुद्गल है, यह जान लेना । जो उपयोगितावादी है, उसे जानना होगा— कौन-सा द्रव्य, कौन-सा तत्त्व मेरे लाभ का है ? उससे कैसे लाभ प्राप्त कर सकता हूं ? यह हिताहित विवेक की प्रक्रिया, अनुशीलन और आसेवन की प्रक्रिया उपयोगितावादी दृष्टिकोण से फलित होती है । अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा- -'मैं रोज सौ बार अपने आपको इस भावना से भावित करता हूं-तू देख ! तेरा जीवन कितने लोगों के श्रम से NET है | इसलिए तू श्रम कर, निकम्मा मत बैठ । अगर तूने श्रम नहीं किया तो तू उन सबके प्रति कृतघ्न बन जाएगा ।' हम भी जानें- कितने ज्ञात और अज्ञात तत्त्वों के श्रम से हमारा जीवन बना है । उनके श्रम के प्रति कृतघ्न न बनें । धर्म है संवर इस सचाई को जानें - यह जीवन क्या है ? अपने जीवन की परिभाषा को समझना एक गहन दर्शन है । हम स्वयं को जानें, अपने जीवन को जानें, जीवन की परिभाषा को जानें, जीवन के धर्म को जानें। इस सबको जानकर जो धर्म-दर्शन प्रस्तुत किया, उसे एक महावीर ने शब्द में कहें तो वह है संवर संयम । आत्मा का संवर करो, संयम करो, यही धर्म है । इस यही हमारा कर्त्तव्य है, क्योंकि धर्म को समझकर हम आज्ञा का पालन करें । कर्तव्य आज्ञा के बिना फलित नहीं होता । जब कर्तव्य चेतना जागती है, गुरु का आदेश हित-अहित की बात समझ में आ जाती है । कर्तव्य की चेतना को जगाने का सूत्र है-आज्ञा का जागरण । आज्ञा जागृत होगी तो धर्म समझ में आएगा, संयम और संवर की सार्थकता समझ में आएगी, 'आणाए मामगं धम्मं' इस सूक्त का रहस्य उपलब्ध हो जाएगा । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३४ | संकलिका • एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। ० लाघवं आगममाणे • तवे से अभिसमण्णागए भवति (आयारो ६/६२-६४) .. आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति पयणुए मांससोणिए। (आयारो ६/६७) ० लघुता का उपदेश ० बाहरी प्रभुता : प्रतिक्रिया ० आंतरिक प्रभुता : प्रसन्नता ० साक्षी है इतिहास ० मुटापा भीतरी तत्त्व है--ममत्व-चेतना बाहरी तत्त्व है--- पदार्थ-चेतना .0 लाघव : दो प्रयोग शरीर लाघव उपकरण लाघव ० प्रज्ञावान् मुनि का चिह्न ० महावीर : लाघव की साधना ० वर्तमान समस्या ० जितनी सविधा: उतना तनाव जितना कष्ट : उतना आनन्द • संदर्भ योग का--- बाहर सुख--भीतर दुःख भीतर सुख-बाहर दुःख • सचाई का अनुशीलन करें । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुता से प्रभुता मिले बीमारी है मुटापा वर्तमान युग की एक बड़ी बीमारी है मुटापा । आज स्थान-स्थान पर मुटापा घटाने के लिए क्लिनिक बने हुए हैं। मुटापा घटाने के लिए यौगिक उपचार भी चल रहे हैं। प्रत्येक डॉक्टर कहता है-चर्बी घटाओ । चर्बी का बढ़ते जाना अनेक बड़ी बीमारियों को न्यौता देना है। हार्ट की बीमारी, सूगर और ब्लड प्रेशर की बीमारी का मुख्य कारण बनता है मुटापा । डॉक्टर परामर्श देते हैं-वजन घटाओ, बढ़ाओ मत । भगवान् महावीर ने ढाई हजार वर्ष पहले लघता का उपदेश दिया। महावीर ने कहा--लाघवं आगममाणे लघुता करो, मुटापा घटाओ, हल्के बनो। जितने हल्के बनोगे, उतनी ही प्रभुता तुम्हारे पास आएगी। जितने भारी बनोगे, प्रभुता दूर होती चली जाएगी। जहां लघुता होती है वहां प्रभुता आ जाती है। जहां प्रभुता मानी जाती है, वहां उसके साथ प्रतिक्रिया भी आती है । प्रभुता : प्रतिक्रिया हम आज तक के इतिहास को देखें । उन लोगों के सामने सम्राट् जैसे व्यक्तियों का सिर झुका है, जो हल्के थे, अकिंचन और त्यागी थे। सम्राटों के पास सब कुछ था किन्तु उन्हें मारने और गद्दी से उतारने के अनेक पड़यंत्र रचे गए। लोग उनके सामने प्रशंसा करते थे किन्तु पीछे से गालियां देते थे। जहां प्रभुता है, धन की चर्बी है, बड़प्पन का नशा है वहां प्रतिक्रिया का होना सहज सम्भव है। जहां हल्कापन है, ममत्व का भाव नहीं है, वहां बहुत सारी समस्याएं होती ही नहीं हैं। वास्तव में जितनी प्रतिक्रिया है, जितनी हिंसा है, उसका कारण मुटापा है। कुछ लोग अपने लिए भारी-भरकम परिग्रह जुटा लेते हैं, इससे दूसरों के मन में प्रतिक्रिया पैदा होती है। वे उसे पछाड़ने की कोशिश में लग जाते हैं। ___इतिहास साक्षी है--राजा और सम्राट् एक दूसरे को पछाड़ने, हराने, अपने अधीनस्थ बनाने का प्रयत्न करते रहे हैं। किसी राजा के मंत्री ने षड्यंत्र रचा । किसी राजा के पुत्र और भाई ने गद्दी हड़पने का प्रयास किया । ये सारी घटनाएं इसलिए घटीं कि वे लोग दूसरों को सहन नहीं कर पाए । सब चाहते हैं---सब समान बने रहें, हल्के बने रहें। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० शरीर लाघव टापा दो कारणों से होता है। बाहरी वस्तुएं व्यक्ति को मोटा बनाती हैं, भीतरी तत्त्व भी उसे मोटा बनाते हैं । हमारे भीतर की चेतना है ममत्व चेतना | जितना ममत्व का भार होता है, व्यक्ति उतना ही नीचे दबता चला जाता है । महावीर ने हलके बनने के कुछ प्रयोग निर्दिष्ट किए हैं। पहला प्रयोग है— शरीर की लघुता का । महावीर ने कहा- जो प्रज्ञावान बन चुका है, उसकी भुजाएं कृश होंगी, उसका मांस - शोणित प्रतनु होगा । शरीर का कृश होना प्रज्ञावान पुरुष का एक चिह्न है । एक साधक व्यक्ति, जो ममत्व को कम कर रहा है, मोह को कम कर रहा है, उसमें मांस और शोणित का अतिशय उपचय नहीं होना चाहिए। यह माना गया -- मांस और शोणित का अतिरिक्त उपचय मोह-मूर्च्छा को बढ़ाने वाला होता है । यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है -- ज्यादा मांस और ज्यादा रक्त का होना ध्यान और स्वास्थ्य – दोनों के लिए अहितकर है । प्रज्ञावान पुरुष में शरीर लाघव होता है । भुजाओं का सुदृढ़ बनना एक मल्ल के लिए आवश्यक हो सकता है पर वह एक साधक के लिए अच्छा नहीं है । जो सुख और शान्ति का जीवन चाहता है, उसके लिए शरीर लाघव का सूत्र महत्त्वपूर्ण है । अस्तित्व और अहिंसा 'उपकरण लाघव दूसरातत्त्व है - उपकरण लाघव । पदार्थं लाघव की बात वर्तमान संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । आज सामाजिक विग्रह और सामाजिक संघर्ष का कारण बन रहा है पदार्थ का मुटापा । पदार्थ के संग्रह से आदमी अपना मुटापा बहुत बढ़ा लेता है । पदार्थ का काम है मोह पैदा करना । तथ्य तो यह है — एक अणुमात्र पुद्गल भी हमारे भीतर मोह पैदा करता है । कभी कभी पदार्थ इतना भयंकर अनर्थ पैदा करता है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । ममत्व की चेतना और पदार्थ की चेतना -- इन दोनों का भार शरीर और मन को मोटा बना रहा है, व्यक्ति के लिए यह मुटापा खतरनाक बनता चला जा रहा है । लघुता : प्रभुता महावीर ने लघुता के अनुभव पर बल दिया । जिस दिन लघुता का अनुभव होता है, उस दिन व्यक्ति के भीतर से अपने आप प्रभुता फूटती है । बाहरी प्रभुता प्रतिक्रिया पैदा करती है किन्तु भीतरी प्रभुता प्रतिक्रिया नहीं, प्रसन्नता को जन्म देती है । वह अपने लिए भी आनन्ददायी होती है और दूसरों के लिए भी आनन्ददायी होती है । एक मुनि के लिए विधान किया गया- वह तीन पछेवड़ी से ज्यादा उपकरण न रखे । महावीर ने कहा- तुम लघुता का प्रयोग करो, तुम्हारा तप-तेज बढ़ता चला जाएगा। हम समाज Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुता से प्रभुता मिले १६१ की दृष्टि से विचार करें तो अचेल रहना समाज को मान्य नहीं है किन्तु उससे होने वाली लघुता को नकारा नहीं जा सकता । महत्त्वपूर्ण सचाई 1 महावीर ने स्वयं लाघव का प्रयोग किया । न वस्त्र का प्रयोग और न पात्र का उपयोग । जो कुछ मिलता, हाथ में ही खा लेते । न सर्दी की चिन्ता, न गर्मी की चिन्ता, न भूख की चिन्ता, न प्यास को चिन्ता, न वस्त्र की चिंता, न पात्र की चिन्ता । कोई चिन्ता नहीं, कोई भार नहीं । महावीर भीतर से भी हल्के थे, बाहर से भी हल्के थे । बहुत कठिन है इतना हल्का होना । महावीर ने जितने कष्टों को भेला उतना ही भीतर से आनंद का स्रोत बह चला । यह विचित्र दुनिया है । आदमी जितना सुविधा में जीता है उतना ही बता चला जाता है, मानसिक तनाव से भरता जाता है और जितना कष्टों का जीवन जीता है, उतना ही भीतरी आनंद प्रस्फुटित होता जाता है । यह एक महत्त्वपूर्ण सचाई है । बढ़ रही है भीतरी दरिद्रता हम आज की समस्या को देखें । जापान, अमेरिका जैसे संपन्न देश धन की दृष्टि से बढ़ते जा रहे हैं, पदार्थ और वैभव की दृष्टि से बढ़ते जा रहे हैं । वे कृत्रिम संसाधनों के निर्माण में नए-नए प्रयोग कर रहे हैं । आज ही समाचार पत्र में पढ़ा- एक ऐसे मानव का निर्माण होगा, जिसका आधा शरीर जन्म का होगा और आधा यांत्रिक । केवल नाड़ी तंत्र और मस्तिष्क मूल रहेगा, शेष सारा शरीर कृत्रिम होगा । बाहर के लिए इतना कुछ किया जा रहा है किन्तु भीतरी दृष्टि से व्यक्ति दरिद्र बन रहा है । वह दुःखी बनता जा रहा है, अशान्ति और तनाव का जीवन जी रहा है । इसका कारण यही है - व्यक्ति बाहर में सुविधाओं का अंबार लगा रहा है और यही भीतरी पागलपन या अशान्ति को बढ़ा रहा है । यदि वह बाहरी कठिनाइयों को सहना सीख जाए, झेलना सीख जाए तो आनंद का सूत्र हस्तगत हो जाए । भीतर : बाहर योग के संदर्भ में कहा गया- जब योग की साधना प्रारम्भ होती है तब अंतर में दुःख होता है, बाहर में सुख होता है । जब योग-साधना सिद्ध हो जाती है तब अंतर में सुख ही सुख होता है, बाहर कष्ट दिखाई देता है । कुछ ऐसा ही है - जैसे-जैसे पदार्थों का अम्बार लगता है, सुविधाएं बढ़ती चली जाती हैं वैसे-वैसे बाहर में सुख ही सुख दिखता है किन्तु भीतर में दुःखों की पंक्तियां जुड़ती चली जाती हैं । जैसे-जैसे यह मुटापा, यह गुरुता कम होती चली जाती है वैसे वैसे भीतर का सुख बढ़ता चला जाता है, बाहर में कठिनाई महसूस होती है । अगर महावीर को भीतर में कष्ट होता तो वे बारह वर्ष Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अस्तित्व और अहिंसा साधना का कठोर जीवन कभी नहीं जी पाते । जब भीतरी आनंद का रहस्य उपलब्ध हो जाता है तब कष्ट की अनुभूति क्षीण हो जाती है । लोगों को लगता है -- कितना कष्ट है ! व्यक्ति सोचता है --कितना आनंद है हलके बनो हम इस रहस्य को समझें । यह पदार्थ और धन का मुटापा, सत्ता और शरीर का मुटापा जब तक रहेगा, अशान्ति और तनाव से मुक्ति नहीं मिल पाएगी । एक साधु भी इस समस्या से बच नहीं पाएगा । पदार्थ की प्रकृति ही ऐसी है कि वह संघर्ष का कारण बन जाता है । यदि पदार्थ के साथ ममत्व जुड़ जाता है तो वह अधिक खतरनाक बन जाता है । हम इस सचाई का अनुशीलन करें— पदार्थ ने किस व्यक्ति को मूर्च्छा में नहीं धकेला है । वही व्यक्ति मूर्च्छा से बच सकता है, जो लघु बनता चला जाता है । इसीलिए महावीर ने कहा - हलके बनो, मोटे मत बनो। यह जीवन के कल्याण का महत्त्वपूर्ण सूत्र है । जिस व्यक्ति ने हल्केपन का अनुभव किया है, लघुता की दिशा में प्रस्थान किया है, सचमुच वह दुःखों से तरा है, उसने कष्टों से मुक्ति का वरण किया है । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३५ • पुट्ठा वेगे नियति जीवियस्सेव कारणा । क्विंतं पितेस दुन्निक्वंतं भवति । । (आयारो ६ / ८४, ८५ ) • जीवियं नाभिकंखेज्जा, मरणं णो वि पत्थए । दुहतो वि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ॥ (आयारो ८ / ८ / ४ ) संकलिका • जाए सद्धाए णिक्खतो, तमेव अणुपालिया । विजहित्तु विसोत्तियं ॥ ● जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालेज्जा गुणे आयरियसम्मए ॥ • निष्क्रमण : सफलता के सूत्र - श्रद्धा का सातत्य धृति अप्रमाद जिजीविषा एवं मृत्यु-भय का परित्याग • महावीर का संबोध - मूत्र ० तर्कशास्त्र का सूत्र • आचार्य भिक्षु का पराक्रम • निष्क्रमण का लक्ष्य • भरत और ब्रह्मदत्त : इतना अन्तर क्यों ? (आयारो १ / ३६ ) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है प्रश्न है श्रद्धा का जीवन एक प्रवाह है । उसकी धारा सदा एकरूप नहीं बहती। जीवन आदि से अंत तक एकरूप बना रहे, धार अविरल बहती रहे, यह बहुत कठिन है। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, सघनता-विरलता आती रहती है। व्यक्ति किसी कार्य को प्रारंभ करता है। कोई अवरोध आता है तो कार्य रुक जाता है। मन का वेग प्रबल बनता है, व्यक्ति किसी कार्य को प्रारंभ कर देता है। मन का वेग शिथिल होता है, कार्य रुक जाता है। जिस श्रद्धा से कार्य प्रारंभ होता है क्या उसी श्रद्धा से उसका निर्वाह होता है ? एक व्यक्ति मुनि बनता है, श्रावक बनता है। एक व्यक्ति त्याग-प्रत्याख्यान लेता है, जप और ध्यान का प्रयोग शुरू करता है । व्यक्ति जिस संकल्प और श्रद्धा के साथ कार्य प्रारंभ करता है, उसी संकल्प और श्रद्धा के साथ कार्य को संपादित करता है तो वह सफल हो जाता है। यदि वह श्रद्धा और संकल्प एकरूप नहीं रहता है तो सफलता संदिग्ध बन जाती है। बहुत कठिन है श्रद्धा का सातत्य । हम जीवन के हर कार्य की मीमांसा करें तो पता चलेगा कि जिस श्रद्धा के साथ कार्य का प्रारंभ होता है, उसमें क्षीणता आने लग जाती है, शिथिलता आ जाती है। जरूरी है श्रद्धा का सातत्य सफलता के लिए श्रद्धा का सातत्य जरूरी है । समस्या यह है कि जिस भावना से काम शुरू करते हैं, पांच दिन बाद उस भावना में कमी आ जाती है । दस दिन या महीना बीत जाए तो वह भावना बहुत कमजोर रह जाती है। कार्य की सफलता में यह बड़ी बाधा है। सफलता का सूत्र है-जिस श्रद्धा के साथ कार्य शुरू किया है, उसमें श्लथता न आए, श्रद्धा का वेग निरंतर एक जैसा बना रहे । महावीर ने मुनि को संबोध देते हुए कहा--तुमने जो अभिनिष्क्रमण किया है, घर छोड़कर मुनित्व को स्वीकार किया है यदि श्रद्धा कमजोर हो गई तो तुम्हारा निष्क्रमण दुःनिष्क्रमण बन जाएगा। यदि श्रद्धा में शिथिलता आ गई तो मुनि बनने का कोई सार नहीं मिल पाएगा। हम दशवकालिक सूत्र को देखें, आचारांग को देखें, मुनि को बार-बार यह संबोध दिया गया है कि जिस श्रद्धा से तुमने अभिनिष्क्रमण किया है, संयम-पथ को स्वीकार किया है तुम उसी श्रद्धा से आधार की सम्यक् अनुपालना करो। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है १६५ संकल्प, लक्ष्य और श्रद्धा सफलता का सूत्र है श्रद्धा की निरन्तरता । जो व्यक्ति श्रद्धा को निरंतर बढ़ाता रहता है, वह अपने लक्ष्य में अवश्य सफल हो जाता है। श्रद्धा की निरन्तरता में बहुत बड़ी बाधा है मन की चंचलता। श्रद्धा की सघनता बनी रहे, जिस विषय को पकड़ें, उसे निरन्तर तन्मयता के साथ पकड़े रहें, छोड़ें नहीं । सफलता शीघ्र मिल जाएगी। व्यक्ति ने ध्यान का आज एक प्रयोग किया, कल दूसरा प्रयोग किया, कुछ दिन बाद तीसरा प्रयोग शुरू कर दिया। इस प्रकार पचास प्रयोग करने वाला व्यक्ति किसी भी प्रयोग में सफल नहीं हो पाएगा। यदि एक व्यक्ति एक ही प्रयोग करे, दीर्घश्वास प्रेक्षा का प्रयोग करे और उसे साधता चला जाए तो यह एक प्रयोग उसे लक्ष्य तक पहुंचा सकता है, पचास प्रयोग नहीं पहुंचा सकते। श्रद्धा का नियोजन, एकाग्रता और एक लक्ष्य बना रहे, यह आवश्यक है। लक्ष्य में भटकाव न हो, मनुष्य उस पर टिका रहे तो वह जीवन में सफल हो सकता है। एक व्यक्ति यात्रा के लिए प्रस्थान करता है किन्तु वह तभी अपने गंतव्य पर पहुंच पायेगा जब वह निरन्तर चलता रहे, सही दिशा में चलता रहे। संकल्प, लक्ष्य और श्रद्धा बदलती रहे तो आदमी कहीं नहीं पहुंच पाएगा। जीवन की लगाम सफलता का दूसरा सूत्र है-धृति । धृति प्रबल होनी चाहिए। धृति में दुर्बलता आती है तो पैर अटक जाते हैं। उस व्यक्ति का निष्क्रमण अच्छा नहीं होता, जिसकी धृति कमजोर हो जाती है। चाणक्य अनेक युद्ध हार गया, सेना बिखर गई, अनेक गांव-नगर उसके हाथ से निकल गए पर वह निराश नहीं हुआ । सब कुछ चले जाने पर भी उसमें धृति बनी रही । उसका परिणाम था---एक दिन ऐसा आया, चाणक्य ने नन्द के महान् साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया। सफलता की शक्ति है धृति । यदि संकल्पशक्ति को काम में लेने वाला यह भावना करें-मेरी धृति मेरे पास बनी रहे तो वह जीवन में कभी असफल नहीं होगा। एक धृति बनी रहती है तो सारी बाधाएं पार हो जाती हैं, नियमन करने की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। अपनी आत्मा की लगाम जिसके हाथ में रहती है, वह कभी धोखा नहीं खा सकता। जिसके हाथ में धृति है, उसके हाथ में जीवन की लगाम है। उसके सहारे आदमी अपने जीवन को ठीक चला सकता है। निष्क्रमण भी उसी व्यक्ति का सफल होता है, जिसके हाथ में धृति होती है । अप्रमाद सफलता का तीसरा सूत्र है-अप्रमाद । आलस्य और प्रमाद ने न Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अस्तित्व और अहिंसा जाने कितने व्यक्तियों की जीवन नौका को डुबोया है। महावीर निरन्तर चलते रहे, चलते रहे। उनका पुरुषार्थ कभी सोया नहीं, इसीलिए उनका निष्क्रमण सफल हो गया। पराक्रम की लौ इतना प्रकाश देती है कि व्यक्ति कभी बुझता नहीं है । जहां सुस्ती आती है, शिथिलता आती है, वहां बनने वाला काम भी नहीं बन पाता। पुरुषार्थ के बिना कुछ भी सधता नहीं है । हम इतिहास को देखें। जिन व्यक्तियों ने पुरुषार्थ और पराक्रम का जीवन जिया है, वे अपने जीवन में बहुत सफल बने हैं। हम महावीर को पढ़ें, आचार्य भिक्षु को पढ़ें, आचार्य तुलसी को देखें। इन सबकी सफलता का रहस्य है पुरुषार्थ । आचार्य भिक्षु के बारे में जो साहित्य लिखा गया, उसमें यह बात बहुत मुख्यता से प्रस्तुत की गई-आचार्य भिक्षु अतुल पराक्रमी थे। कहा जाता है-सितत्तर वर्ष की अवस्था तक निरन्तर पुरुषार्थ चलता रहा। आचार्य भिक्षु का अंतिम चातुर्मास सिरियारी में था। जीवन के सांध्यकाल में भी वे पंचमी दूर जाते थे, गोचरी भी करते थे, प्रतिक्रमण भी खड़े-खड़े किया करते थे। उनका यह पुरुषार्थ तेरापंथ के विकास का आधार बन गया। अप्रमाद : वीतरागता पुरुषार्थ जागता है तो अंतरात्मा जाग उठती है। पुरुषार्थ सोता है तो अंतरात्मा मो जाती है। यह सोना, आराम करना बड़ा खतरनाक होता है। इस अवस्था में सातवां गुणस्थान-अप्रमत्त गुणस्थान आना कठिन हो जाता है। निष्क्रमण का लक्ष्य है.-वीतराग होना। क्या अप्रमाद वीतरागता नहीं है ? अप्रमाद और वीतरागता में क्या अन्तर है ? सातवें गुणस्थान को पाना एक मुनि के हाथ में है। वह जब चाहे सातवें गुणस्थान में जा सकता है । व्यक्ति की आंख कमजोर है। चश्मा लगाया और पढ़ने की स्थिति बन गई। यही बात अप्रमाद की है। अप्रमाद की उपलब्धि व्यक्ति के हाथ में है। बाधा है जिजीविषा ___ कुछ लोग आगे बढ़ जाते हैं किन्तु थोड़ा-सा कष्ट का स्पर्श होता है, पुनः लौट आते हैं। शायद यह जीवन का मोह, जिजीविषा साधना में सबसे बड़ी बाधा है। आदमी में जीवन का इतना प्रबल मोह है कि वह मरने की बात सोच नहीं सकता। सत्य यह है—जो व्यक्ति मरने की तैयारी को अपने सामने नहीं रखता, उसका निष्क्रमण अच्छा नहीं होता। सफल धार्मिक और सफल मुनि वही हो सकता है, जो सदा मरने की तैयारी रखता है। जो मौत से नहीं डरता, उसका संकल्प ही दृढ़ रह सकता है । मौत से डरने वाले व्यक्ति का संकल्प डगमगा जाता है। यह जीवन की आकांक्षा सबने बड़ी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है १६७ बाधा है । व्यक्ति सोचता रहता है - यह सुख सुविधामय जीवन चलता रहे, कभी दुःख न आ जाए, मौत न आ जाए । 'आदमी मरणधर्मा है' वह इस सचाई को जानते हुए भी नहीं जानता, अनजान बना रहता है । दो ग्रंथियां जो जन्म लेता है, वह मरता है, किन्तु जितना डर मरने का है, उतना डर किसी का नहीं है । मृत्यु के अविचल नियम को सब जानते हैं किन्तु जितना मोह जीवन का है और जितना भय मौत का है उतना किसी दूसरी चीज का है या नहीं, यह एक प्रश्न है । जीवन की आशंसा की ग्रन्थि और मृत्यु के भय की ग्रन्थि - ये दोनों भयंकर ग्रंथियां हैं, जो हमारे पीछे लगी हुई हैं । ये दोनों ग्रन्थियां व्यक्ति को सताती रहती हैं किन्तु आदमी इन्हें छोड़ना नहीं चाहता। जीवन का छूटना मनुष्य की विवशता है, इच्छा नहीं । यदि दोनों ग्रन्थियों से मुक्ति हो जाए तो जीवन में सफलता ही सफलता प्राप्त होती है, व्यक्ति को अपने लक्ष्य से कोई च्युत नहीं कर सकता । समाधान है अनुप्रेक्षा प्रश्न है - इन सब स्थितियों से कैसे निपटा जाए इन सबका एक समाधान है अनुप्रेक्षा । श्रद्धा को निरन्तर एक जैसा बनाए रखने के लिए, धृति को कायम रखने के लिए, पराक्रम को जागृत रखने के लिए, जिजीविषा और मृत्यु-भय से छुटकारा पाने के लिए जरूरत है अनुप्रेक्षा की । राजा भरत भी चक्रवर्ती था और राजा ब्रह्मदत्त भी चक्रवर्ती था। जैन साहित्य को पढ़ने वाला व्यक्ति जानता है—भरत का जीवन कैसा रहा और ब्रह्मदत्त का जीवन कैसा रहा ? भरत और ब्रह्मदत्त के जीवन में जो अंतर रहा है, उसका एक कारण है-अनुप्रेक्षा । यह राजपरंपरा रही है - जब राजा जागृत होते, तब मंगल पाठक मंगल ध्वनि करते । जब शंख बजाया जाता, तब राजा जागृत होते । चक्रवर्ती भरत ने मंगल पाठकों को यह निर्देश दिया था -- जब मंगल ध्वनि की जाए तब इस सूत्र का उच्चारण किया जाएवर्धते भयम् भय बढ़ रहा है । भरत चक्रवर्ती इस प्रयोग से अभय बन गए, अनासक्त बन गए । वे विशाल साम्राज्य के अधिनायक थे किन्तु भीतर में अनासक्ति प्रबल थी और वह अनासक्ति इतनी बढ़ी कि वे महल में बैठे-बैठे केवली हो गए । अमोघ सूत्र यह अनुप्रेक्षा का प्रयोग जीवन को बदलने का शक्तिशाली प्रयोग है । यदि जीवन में यह प्रयोग आ जाए तो विचलन की भावना उत्पन्न ही नहीं Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अस्तित्व और अहिसा हो सकती। अनुप्रेक्षा का प्रयोग नहीं करने वाला मुनि जीवन में विचलित हो जाता है। महावीर का यह वचन महत्त्वपूर्ण है---जो मुनि श्रद्धा, धृति और पराक्रम को बनाए रखने का प्रयोग नहीं करता, उसका घर छोड़ना न छोड़ने जैसा बन जाता है। जीवन की सफलता के लिये निरन्तर चलते रहना, प्रयोग की आंच में अपने आपको पकाते रहना बहुत ही श्रेयस्कर है और यही सफलता का अमोघ सूत्र सिद्ध हो सकता है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● से किट्टेति तसि समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं । (आयारो ६ / ३ ) ० एवं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खाय धम्मे विभूतकप्पे णिज्भोसइत्ता | (आयारो ( ६ / ५६ ) • पणया वीरा महावीहि । • आयाण भो ! सुस्सूस भो ! • विस्सेनि कट्टु परिष्णाए । O प्रवचन ३६ ० महत्त्वपूर्ण शब्द बौद्धतंत्र -- ललना, रसना और अवधूति शैवतंत्र - - इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना • सवार्थ सिद्ध के देवता और एक वर्ष का दीक्षित मुनि • महापथ : महावीथि ● अवधूत से बना है औघड़ शब्द अवधूत की परिभाषा ● अवधूत दर्शन का हृदय ● अवधूत बनने की प्रक्रिया संकलिका ० (आयारो १ / ३७ ) धूयवादं पवेदइस्सामि । प्रेक्षाध्यान के प्रयोग : अवधूत दर्शन • धुतवाद के प्रयोग : कुंडलिनी शक्ति का जागरण ● अवधूत दर्शन का निष्कर्ष (आयारो ६ / २४ ) (आयारो ६ / ६८ ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधूत दर्शन अवधूतों की दुनिया एक नई दुनिया, जिससे हम परिचित नहीं हैं, वह है अवधूतों को दुनिया । लोग भूतों से परिचित हैं पर अवधूतों से परिचित नहीं हैं। अवधूत विचित्र मनुष्य होते हैं। आचारांग में कहा गया-खणं जाणाहि पंडिए क्षण को जानो। इस वाक्य को हम जानते हैं किन्तु इसके पीछे जो साधना की एक पूरी पद्धति रही है, उसे हम नहीं जानते। ऐसा लगता है-शब्दों के साथ जो गुरु-परम्परा जुड़ी हुई थी, वह छुट गई। क्षण शब्द सामान्य नहीं है। बौद्ध तंत्रों में इसका बहुत बड़ा वर्णन मिलता है। क्षण, विचित्रविमर्श, विमर्श आदि-आदि पद्धतियों के द्वारा उसका विश्लेषण किया गया है। आज यह स्थिति है-नैष्कर्म्य की पद्धति छूट गई यानी अवधूत की साधना विस्मृत हो गई। कापालिकों में औषड़ संप्रदाय चलता है। यह औघड़ शब्द अवधूत से बना है। औघड़ वह होता है, जिसकी प्रज्ञा जाग जाती है। केवल प्रज्ञा का ही नहीं, समता का पूरा दर्शन अवधूत शब्द में समाया हुआ प्रश्ग सुख का बौद्धतंत्र में तीन शब्द आते हैं ललना, रसना और अवधति । शैव तंत्र में तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना । इस हृदय को सबने पकड़ा-जब तक चेतना ऊपर की ओर नहीं जाएगी चेतना का ऊर्ध्वारोहण नहीं होगा तब तक सुख का अनुभव नहीं होगा। चेतना के नीचे जाने का अर्थ है सुख के दरवाजे का बंद होना । जैन आगम में कहा गयाएक वर्ष का दीक्षित मुनि सर्वार्थसिद्ध के देवताओं के सुखों को लांघ जाता है। एक वर्ष के दीक्षित मुनि को जितना सुख प्राप्त होता है, उतना सुख सर्वार्थसिद्ध के देवताओं को भी उपलब्ध नहीं होता । सर्वार्थसिद्ध के देवताओं को विराट् सुख उपलब्ध हैं। एक मनुष्य को उसका करोड़वां हिस्सा भी प्राप्त नहीं है । उस सुख से भी अधिक सुख मिलता है एक वर्ष के दीक्षित मुनि को। महापथ : महावीथी प्रश्न होता है-यह सुख कहां से आया ? देवताओं को बहुत सारी सिद्धियां प्राप्त हैं, विशाल वैभव और समृद्धि प्राप्त है पर एक मुनि के पास Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधूत दर्शन २०१ क्या है ? उसके पास न मकान है, न कपड़े हैं, न खाने की व्यवस्था है, न रहने की व्यवस्था है फिर इतना सुख कहां से आता है ? अपने भीतर इतना सुख है, जो देवताओं को भी नहीं है। हम इस आगम की बात को, जो अनुभव की बात है, काल्पनिक नहीं मान सकते। इसका वर्णन महावीथी में भी मिलता है। शैव तंत्र का शब्द है महापथ और आचारांग का शब्द हैमहावीथी। यह महावीथी क्या है ? इसका रहस्य क्या है ? अवधूत, महावीथी आदि शब्दों के पीछे जो रहस्य था, वह छूट गया। कोरे शब्द रह गए, अर्थ की भावना विस्मृत हो गई। अवधूत थे आचार्य भिक्षु अवधूत का दर्शन समता का दर्शन है, कुंडलिनी शक्ति के जागरण का दर्शन है, सुषुम्ना के उद्घाटन का दर्शन है, चेतना के ऊर्वारोहण का दर्शन है। जब चेतना ऊपर चली जाती है, सारी स्थितियां बदल जाती हैं। इस दुनियां में अनेक विलक्षण संत हुए हैं। प्रश्न है-संतो में विलक्षणता कैसे आती है ? विलक्षणता का रहस्य क्या है ? वह विलक्षणता आती है-क्षण-दर्शन से, अवधूत बनने से। संतों का जीवन उल्टा होता है । हम आचार्य भिक्षु का जीवन पढ़ें, एकनाथ या नामदेव का जीवन पढ़ें, कबीर का जीवन पढ़ें। उनके जीवन की बातें असामान्य ही मिलती हैं। एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा-आपका मुंह देखने वाला नरक में जाता है। आचार्य भिक्षु यह सुनकर भी शांत बने रहे। उन्होंने पूछा-तुम्हारा मुंह देखने वाला कहां जाता है ? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया--स्वर्ग में। आचार्य भिक्षु बोले- यह मेरे लिए बहुत अच्छा रहा। यह बात वही व्यक्ति कह सकता है, जिसका जीवन अवधूत बन गया है। अवधूत हैं आचार्य तुलसी कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो साधना करके आते हैं, और कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो वर्तमान में साधना कर अवधूत बनते हैं। अवधूतों का दर्शन अपने आप में बड़ा विचित्र होता है। भिवानी में कुछ व्यक्ति आचार्य श्री के पास आए। उन्होंने कहाआचार्य जी ! हम आपसे शास्त्रार्थ करना चाहते हैं। ___आचार्य श्री ने कहा-यह शास्त्रार्थ का जमाना नहीं है। आप शास्त्रार्थ क्यों करना चाहते हैं ? हमारा विशेष प्रयोजन है। आचार्य श्री ने पूछा-आप चाहते क्या हैं ? वे व्यक्ति आर्यसमाज से संबंद्ध थे, भले आदमी थे। उन्होंने सचाई प्रकट करते हुए कहा-आचार्यजी ! हम आपको हराना चाहते हैं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा आचार्य श्री ने कहा --- इतनी-सी बात के लिए शास्त्रार्थ करना चाहते हैं | आप यह मान लीजिए— मैं हारा और आप जीत गए। आप बाजार में जाकर मेरी ओर से कह सकते हैं – आचार्य तुलसी हार गए, हम जीत गए । आचार्यश्री का यह उत्तर मुनकर वे स्तब्ध रह गए। "मैं हार गया" यह बात कोई अवधूत व्यक्ति ही कह सकता है, सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकता । नया द्वार उद्घाटित हो २०२ हमारी सामान्य दुनिया से अलग है अवधूतों की दुनिया । अवधूत कां मतलब है - शरीर को इस प्रकार प्रकंपित करना, जिससे जमा हुआ मल निकल जाए, कुछ नए द्वार उद्घाटित हो जाए । प्रेक्षाध्यान का एक प्रयोग है अन्तर्यात्रा | यह चेतना के ऊर्ध्वारोहण का प्रयोग है । चेतना को ऊपर कैसे ले जाया जाए ? इस बात को जानना जरूरी है। जब तक चेतना के ऊर्ध्वारोहण के मार्ग का ज्ञान नहीं होता, ऊर्ध्वारोहण का प्रयत्न सफल नहीं होता । जब तक इड़ा और पिंगला में चेतना का प्रवाह होता है तब तक ग्राह्य और ग्राहक का भाव बना रहता है । जब चेतना का प्रवाह सुषुम्ना में होता है, ग्राह्य-ग्राहक भाव समाप्त हो जाता है, एक नया दरवाजा खुलता है । उस अवस्था में समता की चेतना जागती है, मध्यस्थता की चेतना जागती है । अवधूत बनने की प्रक्रिया आचारांग में कहा गया— जो निर्जरापेक्षी है, उसे मध्यस्थ होना होगा । यदि दाएं या बाएं चेतना का प्रवाह रहेगा तो हम कभी इधर झुक जाएंगे, कभी उधर झुक जाएंगे । जो मध्यस्थ है, उसकी चेतना का प्रवाह सुषुम्ना में होगा । यह मेरूदंड का स्थान, रीढ़ की हड्डी का स्थान, केवल स्वास्थ्य के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु चेतना को ऊपर ले जाने का, अंतर्मुखी बनने का सबसे सुन्दर साधन है । यह अंतर्यात्रा का प्रयोग अवधूत बनने की प्रक्रिया है । जब व्यक्ति इस भूमिका पर आरोहण करता है, अवधूत बनता है तब उसके भीतर समता की चेतना जाग जाती है । प्रज्ञा : समता आचारांग सूत्र में अवधूत के लिए दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं—समाहियाणं पण्णाणमंताणं - अवधूत वह है, जो समाहित है, प्रज्ञावान है । जो बुद्धिमान नहीं किन्तु प्रज्ञावान् है । बुद्धि के साथ तर्क जुड़ा हुआ है । हमने तर्कों का जाल - सा बिछा रखा है। ऐसा लगता है—हम प्रज्ञा का दरवाजा खोलना ही नहीं चाहते । प्रज्ञावान वह है, जो समाहित है, बुद्धि से परे की चेतना में जीता है । प्रज्ञा और समता - दोनों अलग-अलग नहीं है । प्रज्ञा और समाधि भी अलग-अलग नहीं है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधूत दर्शन २०३ समता : आत्म-दर्शन बौद्धतंत्र में ललना को प्रज्ञा-स्वभावा माना गया है। इसका अर्थ है--इड़ा प्रज्ञा स्वभाववाली है। जब प्रज्ञा जागती है तब समता की चेतना का जागरण होता है । हम सामायिक और समता की बात बहुत करते हैं किंतु जब तक हमें अवधूत दृष्टि नहीं मिलती, संस्कारों को प्रकंपित करने वाली निर्जरा की दृष्टि नहीं मिलती तब तक समता की चेतना नहीं जागती, विषमता के जो गहरे संस्कार जमे हुए हैं, वे छूटते नहीं है। ईगो और अहं व्यक्ति को सताता रहता है । फ्रायड ईगो तक पहुंचे । यूंग ईगो से परे गए, आत्मा के निकट पहुंए गए । आत्मा के निकट पहुंचे बिना समता की बात आती नहीं । वह आत्म-दर्शन के साथ ही आती है। धुतवाद : अनेक प्रयोग यह अवधूत का दर्शन एक नया जीवन-दर्शन है, प्रज्ञा और समता के जागरण का दर्शन है। जीवन में जब अवधूत का दर्शन घटित होता है तभी सही अर्थ में धुत होता है । वस्त्र का धुत, परिवार का धुत, सर्दी-गमीं का धुत-ये कुंडलिनी शक्ति को जगाने के बड़े प्रयोग हैं। वस्त्र रखना या न रखना-यह एक अलग बात है किन्तु इस बात पर ध्यान दें-वस्त्र रखने से प्रकृति के साथ सम्पर्क में जो एक बाधा आती है, वस्त्र न रखने से वह बाधा हट जाती है। अचेल अवस्था में प्रकृति के साथ जो सीधा सम्पर्क होता है, चेतना के जागरण का जो अवसर उपलब्ध होता है, वह सवस्त्र अवस्था में नहीं मिलता । श्मशान का भी धुत होता है । श्मशान में जाकर ध्यान करना साधना का एक विशिष्ट प्रयोग है । जैन आगम साहित्य में श्मशान-प्रतिमा का उल्लेख है। एक रात्रिकी श्मशान प्रतिमा को सहन करना मुश्किल है। वह भयंकर साधना है। यह अनिवार्य है कि श्मशान प्रतिमा में कोई न कोई विध्न अवश्य आएगा। जो व्यक्ति उसे सहन कर लेता है, उसे विशेष सिद्धि मिलती है और जो विचलित हो जाता है, वह पागल बन जाता है। अवधूत दर्शन : निष्कर्ष अवधूत का दर्शन है-चेतना का ऊर्धारोहण हो, प्रज्ञा और समाधि जागे, समता की चेतना जागे। अवधूत दर्शन का निष्कर्ष है-आत्मा तक पहुंचना है तो चेतना को ऊपर ले जाना होगा। हमारी चेतना नाभि से जितनी ऊपर-ऊपर रहेगी उतना ही सहज सुख, सहज आनन्द और सहज शक्ति का जागरण होगा। हमारी चेतना नाभि के आस-पास या उससे नीचे केन्द्रित रहेगी तो स्वाभाविक सुख और आनन्द समाप्त हो जाएगा। जिन लोगों ने आनन्दकेन्द्र, दर्शनकेन्द्र या ज्योतिकेन्द्र पर लम्बे समय तक ध्यान का प्रयोग किया है, वे जानते हैं--भीतर कितना सुख है ! उस सुख को पाने Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अस्तित्व और अहिंसा के लिए जरूरत है-चेतना के ऊर्ध्वारोहण की, अवधूत की प्रक्रिया को जीने की। आचारांग में अवधूत दर्शन का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। यदि हम उसका सम्यक् मनन करें, अनुशीलन करें तो एक नया अनुभव होगा, एक नई दुनियां का साक्षात्कार होगा। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३७ | संकलिका , गामे वा अदुवा रण ? व गामे व रणे धम्ममायाणह-पवेदितं माहणेण मईमया । • जामा तिणि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया । (आयारो ८/१४, १५) ० अनेकान्त की उपयोगिता ० महत्त्वपूर्ण प्रश्नसाधना कहां करें ? गांव में या जंगल में ? ० दो अभिमत साधना गुफा या एकांत स्थान में ही संभव है। एकान्त साधना साधना नहीं, पलायन है । ० जहां आत्मदर्शन है, वहां साधना है । जहां आत्मदर्शन नहीं है, वहां साधना नहीं है । ० आत्मदर्शी व्यक्ति का चिन्तन • साधना का रहस्य : अकेलेपन की अनुभूति • • साधना की पवित्र भूमिका ० देश और काल का प्रश्न • मुख्य प्रश्न : गौण प्रश्न Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना कब और कहां? हमारे सामने जितने पदार्थ हैं, जितने व्यक्ति और जितनी घटनाएं हैं, जितनी समस्याएं और जितनी परिस्थितियां हैं, यदि उन सबकी व्याख्या करें तो दो स्थितियां प्रस्तुत होंगी--या हम बिलकुल असत्य में चले जाएंगे या सत्य के निकट पहुंच जाएंगे, सत्य की भूमिका तक पहुंच जाएंगे। यदि हमने निरपेक्ष एकान्तवाद का सहारा लिया तो हम निश्चित ही असत्य की भूमिका में चले जाएंगे। यदि हमने थोड़ी-सी अनाग्रहदृष्टि से समझने का प्रयास किया तो हम सत्य की परिधि में चले जाएंगे। यदि हमने सापेक्षदृष्टि का प्रयोग किया तो हम सत्य के भीतर प्रवेश पा जाएंगे। सापेक्षवाद भगवान महावीर ने सापेक्षवाद का सूत्र प्रस्तुत किया, अनेकान्तवाद, विभज्यवाद या स्याद्वाद का दर्शन दिया। महावीर ने कहा-यदि हम सापेक्षवाद का प्रयोग नहीं करेंगे, केवल निरपेक्षदृष्टि से चलेंगे तो सत्य के मंदिर में हमारा प्रवेश नहीं होगा। हम प्रत्येक बात में सापेक्षदृष्टि का प्रयोग करें। चाहे वह साधना या आराधना का प्रश्न है, दुकान या ऑफिस का प्रश्न है। रसोई घर में भी अनेकांत का प्रयोग जरूरी है, दुकान और ऑफिस में भी अनेकान्त का प्रयोग जरूरी है, एक मिल या फैक्ट्री को चलाने के लिए भी अनेकान्त का प्रयोग आवश्यक है। यदि अनेकांत का प्रयोग होगा सो समन्वय सधेगा, मैत्री सधेगी, परस्परता सधेगी। यदि एकांत का प्रयोग होगा तो संघर्ष बढ़ेगा, लड़ाइयां बढ़ेगी। अनेकांत दृष्टि एक ऐसा तत्त्व है, जिसके सहारे हम व्यवहार की समस्याओं को भी सुलझा सकते हैं, पारमार्थिक समस्याओं का समाधान भी पा सकते हैं। साधना कहां करें ? ___ एक प्रश्न है—साधना कब करें ? कहां करें ? यह परमार्थ का एक प्रश्न है, जो बहुत उलझा हुआ है। कुछ लोग कहते हैं-हिमालय की गुफाओं में ही साधना अच्छी हो सकती है, एकांत एवं निर्जन स्थानों में धर्म की आराधना सम्यक् हो सकती है। इस दुनिया के कोलाहल के बीच रहते हुए साधना कैसे संभव बन सकती है ? जहां प्रदूषण है, वातावरण शुद्ध नहीं है, हवा भी शुद्ध नहीं है वहां कैसी साधना होगी? यह मत उन व्यक्तियों का है, जो एकांत साधना का आग्रह करते हैं, हिमालय की गुफाओं में साधना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना कब और कहां ? २०७ का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों का अभिमत रहा—यह साधना नहीं, पलायन है। हिमालय में चले जाना पलायन करना है। पलायन करने से क्या होगा ? यह पलायनवादी मनोवृत्ति अच्छी नहीं है। एक साधक को दुनिया से पलायन नहीं करना चाहिए किन्तु जनता के बीच रहकर साधना करनी चाहिए। साधना है आत्मदर्शन भगवान महावीर के सामने भी यही प्रश्न आया-साधना कहां हो सकती है ? धर्म की आराधना कहां करें ? साधना गांव में करें या वन में ? पहाड़ों में करें या गुफाओं में ? साधना के लिए कौन-सा स्थान उपयुक्त है ? महावीर ने विचित्र उत्तर दिया-साधना न गांव में हो सकती है, न वन में हो सकती है। वस्तुतः यह प्रश्न उन लोगों के मन में उठता है, जो अनात्मदर्शी हैं, जिन्होंने आत्मा को देखा नहीं है, जाना नहीं है। अनात्मदर्शी व्यक्ति ही यह बात करेगा–साधना जंगल में अच्छी होती है, गुफा में अच्छी होती है। जिस व्यक्ति ने अपने आपको देखा है, अपनी आत्मा का साक्षात्कार किया है, उसके सामने गांव या जंगल का प्रश्न ही प्रस्तुत नहीं होता। उसके सामने केवल साधना का ही प्रश्न रहता है । जहां आत्म-दर्शन है, वहीं साधना है। आत्म-दर्शन करने वाला व्यक्ति दस हजार की भीड़ में बैठा है या कोलाहल के बीच बैठा है, चाहे वह एकांत में हिमालय की गुफा में बैठा है, उसकी शान्ति और साधना में कोई अन्तर नहीं आता। अनात्मदर्शी व्यक्ति की मनःस्थिति एक अनात्मदर्शी व्यक्ति को कुछ लिखना है तो वह पहले एकांत स्थान की खोज करेगा। यदि एकान्त स्थान होता है तो वह कुछ लिख लेता है। थोडा-सा भी कोलाहल होता है, उसका ध्यान बंट जाता है, मन उदविग्न हो जाता है । वह सोचता है-वातावरण ठीक नहीं है, विचार ही नहीं आ रहा है, डिस्टर्बेन्स बहुत हैं । उसका ध्यान लेखन से हट जाता है। वह चाहते हुए भी लिख नहीं पाता । यदि इस प्रकार ध्यान भंग होता रहे तो इस दुनियां में एकांत मिलेगा कहां? यह बात समझ में आ सकती है-जो व्यक्ति नया नया है, उसके लिए निमित्तों पर ध्यान देना जरूरी है किन्तु सदा एकांत ही एकांत का प्रश्न आता रहे तो साधना की निष्पत्ति क्या हुई ? जो व्यक्ति यही सोचता रहता है ---मुझे एकांत में बैठना है, एकांत में ध्यान करना है, उसने शायद महावीर की साधना के मर्म को समझा नहीं है। साधना-दर्शन ___ महावीर का साधना-दर्शन यह है—व्यक्ति अधिक अधिक से अपने भीतर जाने का अभ्यास करे, अपनी आत्मा को देखने का अभ्यास करे । जो Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अस्तित्व और अहिंसा व्यक्ति आत्मा को देखने का प्रयास करता है, उसके सामने गांव और जंगल का प्रश्न गौण हो जाता है। जिस व्यक्ति के सामने आत्मा को देखने का प्रश्न नहीं है, उस व्यक्ति के सामने यह गांव और जंगल का प्रश्न एक जन्म तक ही नहीं, अनेक जन्मों तक प्रस्तुत रहेगा। हम आत्मा को देखने की दिशा में प्रस्थान करें। अकेली आत्मा को देखें, एकांत आत्मा को देखें । जिसने एकत्व अनुप्रेक्षा को ठीक से समझा है, एकत्व अनुप्रेक्षा को जीने का अभ्यास किया है, अपने अकेलेपन की अनुभूति की है, उसने साधना के रहस्य को समझा है । गंतव्य है एकत्व की अनुभूति भेद-विज्ञान, एकत्व-अनुप्रेक्षा, अन्यत्व अनुप्रेक्षा साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है। श्वास प्रेक्षा शरीर प्रेक्षा आदि आदि साधन हैं किन्तु गंतव्य है एकत्व की अनुभूति । 'मैं अकेला हूं' इस अनुभूति तक पहुंचे विना लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। चाहे हम हजार बार श्वास-प्रेक्षा कर लें, शरीर प्रेक्षा या चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा कर लें, जब तक एकत्व की अनुभूति नहीं होगी, भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं होगी तब तक समाधान नहीं होगा। एकत्व की अनुभूति ही समाधान दे सकती है । जब व्यक्ति अकेलेपन की अनुभूति में चला जाता है तब सारी स्थिति बदल जाती है।। संबंध चेतना : संबंधातीत चेतना व्यवहार का जगत् संबंधों का जगत् है। व्यवहार में रहने वाले व्यक्ति को उसे भी निभाना होता है। अकेलेपन की अनुभूति से सम्बन्ध चेतना के साथ-साथ संबंधातीत चेतना का विकास होता है। संबंधातीत चेतना का विकास करने वाला व्यवहार जगत् में रहते हुए, संबंधों का जीवन जीते हुए भी अपने भीतर रहता है, अपने आपमें रहता है। इस स्थिति का निर्माण करना साधना की पवित्रतम भूमिका है। व्यवहार में श्वास लेना और अपने आप में रहना । बाहर में जीना और भीतर में रहना, इस स्थिति का निर्माण साधना से ही सम्भव है। केवल इस बात की जरूरत है कि हम एकत्व की अनुभूति के प्रति जागरूक बने रहें । स्वर्णकार-वृत्ति साधना के क्षेत्र में स्वर्णकार-वृत्ति होनी चाहिए । एक संस्कृत श्लोक में स्वर्णकार-वृत्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है नित्यं जुहोति द्रव्याणि, चौर्यकारी दिने दिने । शत्रु मित्रं न जानाति, तस्याऽहं कुलबालिका ॥ संस्कृत विद्वान् ने एक कन्या से पूछ।---तुम कौन हो ? किन कुल की बालिका हो ? Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना कब और कहां ? २०६. वह स्वर्णकार की कन्या थी । उसने रूपक की भाषा में जबाब दिया--जो रोज होम करता है और रोज चोरी करता है । किसी का भेद नहीं करता, शत्रु और मित्र - दोनों जिसके लिए एक समान हैं, मैं उसकी या हूं | स्वर्णकार एक ऐसा व्यक्ति है, जो प्रतिदिन होम करता है और प्रतिदिन सोने की चोरी करता है । चाहे राजा का काम है, मित्र या भाई का काम है, स्वर्णकार थोड़ा बहुत सोना चुरा ही लेता है । साधक सुनार जैसा बने ध्यान करने वाला, साधना करने वाला साधक भी सुनार जैसा बने । जो साधक है, वह रोज अपनी वृत्तियों का होम करे । जो भी बात ग्रहण करने योग्य है, उसे ग्रहण करता चला जाए। चाहे वह कौन बता रहा है ? शत्रु बता रहा है या मित्र ? इसमें उलझे बिना, ग्रहणीय तत्त्व को प्रतिदिन ग्रहण करता चला जाए । यह वृत्ति जिसमें जाग जाती है, वह साधक साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ जाता है । यदि साधक एकत्व की अनुभूति के सूत्र को पकड़ लेता है, प्रतिदिन उसकी अनुभूति के लिए स्वयं को समर्पित कर देता है तो उसके सामने - साधना कहां करनी चाहिए - यह प्रश्न गौण हो जाता है । हम आत्मदर्शी बनें। जिसे आत्मदर्शन की थोड़ी-सी झलक मिल जाती है जिसके कदम आत्मदर्शन की दिशा में बढ़ जाते हैं, वह एक दिन गांव और जंगल के प्रश्न को समाप्त कर देता है । जब तक आत्म-दर्शन की झलक नहीं मिलती है तब तक देश और काल के प्रश्न पर भी विचार करना होता है । इस स्थिति में एकांत में बैठना भी जरूरी है, जंगल में साधना करना भी आवश्यक हो सकता है। जब तक साधना परिपक्व नहीं होती है तब तक देशकाल के प्रश्न पर भी चिंतन करना होता है | महत्त्वपूर्ण है साधना का संकल्प प्रातःकाल चार बजे से लेकर सूर्योदय तक का जो समय है, वह साधना के लिए उत्तम होता है । यदि उस समय दर्शन केन्द्र पर ध्यान किया जाए या किसी अन्य केन्द्र पर एकाग्र बनें तो हमें उसका अनुभव होने लग जाएगा । यह एक ऐसी अनुभूत सचाई है, जिसका कोई भी व्यक्ति अनुभव कर सकता है । हम साधना करने का संकल्प लें। कब और कहां करें, यह प्रश्न गौण हो जाए । यहां और अभी करें, यह संकल्प मुख्य बन जाए । क्षेत्र और काल की उपयोगिता हो सकती है किन्तु उससे भी महत्त्वपूर्ण है साधना का संकल्प | जिस दिन यह दृष्टिकोण जागेगा, साधना को व्यापक आयाम मिलेगा, गां और अरण्य का प्रश्न साधना में बाधक नहीं बन पाएगा । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० • अदुवा गुती वओगोयरस्स (आयारो ८ / २७ ) सव्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्र्व्वासि जीवाणं सव्र्व्वेस सत्ताणं अणुवीई भिक्खू धम्मम इक्खेज्जा । agats भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे - णो अत्ताणं आसाएज्जा णो परं आसाज्जा णो अण्णाई पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई आसाएज्जा । (आयारो ६ / १०३-१०४ ) ० • अवि य हणे अणादियमाणे । एत्थंपि जाण सेयंति णत्थि । O ० प्रवचन ३८ केयं पुरिसे ? कंच गए ? संकलिका ० 0 तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । ० सच्चा वि सा न वक्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥ (आयारो २ / १७५-१७७ ) ० प्रश्न है विवेक का o मुनि का लक्ष्य ० भाषा विवेक : अहिंसा और सत्य का संदर्भ अनाग्रहवृत्ति का विकास • कलह-मुक्त वातावरण: खेचरी मुद्रा ० शान्त सहवास का रहस्य सूत्र • कब करें मौन का प्रयोग ? • मौन : समय - सापेक्ष या प्रसंग-सापेक्ष ? ( दसवेलियं ७ /११ ) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मौन हो जाएं प्रवृत्ति और निवृत्ति का एक द्वन्द्व है । केवल प्रवृत्ति करना खतरनाक है । केवल निवृत्ति संभव नहीं है । इसलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों का यथावकाश एवं यथासमय उपयोग करना हमारी विवेक चेतना का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । कब चलें और कब विश्राम करें ? कब सोएं और कब जागें ? Maa बोलें और कब मौन रहें ? इन सबका विवेक होना चाहिए । निरन्तर बोलना अच्छा नहीं है और निरन्तर मौन रहना भी संभव नहीं है । उचित समय पर बोलना और ठीक समय पर मौन हो जाना ही श्रेष्ठ माना जाता है । विवेक को कसौटी महत्त्वपूर्ण प्रश्न है - मौन कहां करें ? जहां कोई सुनने वाला नहीं है, वहां मौन बहुत मीठी लगती है । मौन बहुत आवश्यक भी है । यदि आदमी समय पर मौन करना न जाने तो विग्रह का प्रसंग प्रस्तुत होता चला जाए । मौन कहां किया जाए, यह प्रश्न मनुष्य के विवेक की कसौटी कहा जाता है । भगवान् महावीर ने कहा - मुनि लोगों को समझाइए बातचीत करे, उपदेश दे और उसे यह अनुभव हो - अभी समझाने का अवसर नहीं है, जिसे समझा रहा हूं, वह समझ जाए, ऐसा नहीं है, या मेरी समझाने की शक्ति नहीं है तो वह मौन हो जाए। मुनि स्वयं की शक्ति और सामने वाले व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर वाणी के प्रयोग या अप्रयोग का विवेक करे । एक मुनि के सामने ऐसी परिषद् है, जो आग्रह से भरी हुई है, आवेश से भरी हुई है । उस स्थिति में उपदेश दिया जाए तो शायद वह सांप को दूध पिलाने वाली बात बन सकती है । उस समय सबसे अच्छा उपाय है मौन | यदि इस स्थिति में आदमी सुनता चला जाए, केवल सुनता चला जाए तो विष अपने आप धुल जाता है, सारी स्थिति सम्यक् बन जाती है । शान्ति का कारण है मौन वह व्यक्ति महान् होता है, जो आवेश के वातावरण में भी मौन रहना सीख लेता है । इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं, जिनसे यह सचाई स्पष्ट होती है । तेरापंथ के इतिहास में भी ऐसी अनेक घटनाएं उपलब्ध Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और अहिंसा होती हैं । जब व्यक्ति आवेश से भरा हुआ होता, आचार्य मौन रहते। जब उसके मन का गुब्बार निकल जाता, उसके भीतर जमा आक्रोश बह जाता तब आचार्य उसे संबोध देकर सही मार्ग पर अवस्थित कर देते। आचार्य तुलसी के जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं। मैंने देखा-आचार्यश्री अनेक उत्तेजनापूर्ण स्थितियों में मौन रहे हैं । यदि वे मौन नहीं रहते तो स्थिति संभलने के बजाय बिगड़ जाती। मौन विग्रह की स्थितियों में शांति का कारण बन जाता है । अनाग्रह का दृष्टिकोण भगवान् महावीर ने जो विवेक दिया, उसका तात्पर्य है—मुनि बोले या मौन करे किन्तु उसका लक्ष्य होना चाहिए-सत्य की सुरक्षा। महावीर ने ऐसे सत्य वचन का भी निषेध किया, जो प्राणी को उपघात पहुंचाने वाला हो । उन्होंने अहिंसा और सत्य के संदर्भ में भाषा-विवेक का दर्शन दिया । न्यायदर्शन का सिद्धान्त था-चाहे जैसा वाणी का प्रयोग करें, छल या कपट करें पर वादी को जीत लें। भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त को मान्य नहीं किया। महावीर ने कहा--तुम्हारे सामने कोई प्रश्न आए, तुम्हें उसका उत्तर ज्ञात हो, या तुम उस प्रश्न का उत्तर दे सकते हो तो दो, अन्यथा मौन हो जाओ। अथवा यह कह दो—-मैं नहीं जानता, आप मेरे आचार्य से इस प्रश्न का समाधान प्राप्त कर लें। किन्तु जैसे-तैसे जीतने या समाधान देने की बात ठीक नहीं है। महत्त्वपूर्ण सूत्र महावीर ने अनाग्रह-वृत्ति के साथ यह बात बतलाई। यह कितना अनाग्रह का दृष्टिकोण है-मैं इस विषय में नहीं जानता, आप किसी दूसरे से परामर्श करें । हम किसी विषय को लेकर विवाद न करें, अपनी बात का आग्रह न करें, अपनी बात को दूसरों पर थोपने का प्रयत्न न करें। हम सामने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति को देखें, विवाद और विग्रह की स्थिति लगे तब मौन हो जाएं, यह कलह से बचने का बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है । वस्तुतः चर्चा करना, प्रश्नोत्तर करना, शास्त्रार्थ करना कोई सामान्य बात नहीं है । इसके लिए पूरी तैयारी चाहिए। यह एक शुद्धनीति की बात हैजिस विषय की पूरी तैयारी हो, समग्र जानकारी हो, हम उसी विषय पर साधिकार चर्चा करें। जिस विषय की जानकारी नहीं है, जिस विषय में हम चर्चा करने में सक्षम नहीं हैं, उस विषय को लेकर हमें किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहिए, चर्चा-परिचर्चा में नहीं उलझना चाहिए। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मौन हो जाएं २१३ कलह-मुक्ति का प्रयोग भगवान् महावीर ने इस सारे संदर्भ में कहा---जिसमें समझाने की क्षमता हो, जो समझा सके, जिसे समझाया जा रहा है, उसमें समझने की योग्यता हो, समझने का वातावरण हो-ये सारी बातें हों तब मुनि अपनी बात समझाए, अन्यथा मौन हो जाए। महावीर ने कहा—तुम यह देखो, जिसे मैं समझा रहा हूं, वह पुरुष कौन है, किस दर्शन का अनुयायी है । तुम यह जानो और फिर धर्म-कथा करो। किसी अन्य धर्म के सिद्धान्त या इष्ट व्यक्ति का अनादर करने पर कोई व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है, कलह की स्थिति उत्पन्न कर सकता है । बहुत जगह मौन करना अच्छा होता है। जहां मौन का प्रसंग आए वहां मौन कर लें तो सारी विग्रह की संभावना ही समाप्त हो जाती है। कलह का निवारण किससे होता है ? कलह-निवारण का सर्वोत्तम उपाय है मौन । मैंने पचासों व्यक्तियों को यह सलाह दी---जब कलह का प्रसंग आए, तुम मौन हो जाओ। यह प्रयोग बहुत सफल प्रमाणित हुआ। यह प्रयोग भी बहुत सार्थक हो सकता है---जब कभी कलह का प्रसंग आए, घर में कलह की स्थिति बने तो पांच-दस मिनट खेचरी-मुद्रा के साथ दीर्घ श्वास प्रेक्षा का प्रयोग करें। व्यक्ति खेचरी-मुद्रा करेगा तो बोल नहीं पाएगा । पांच मिनट न बोलने का परिणाम होगा कलह की समाप्ति । पांच मिनट का मौन कलह के अवसर को ही मिटा देता है। मौन : विभिन्न संदर्भ हम अपने सारे जीवन का अवलोकन करें, हमें लगेगा हमारे जीवन में मौन के बहुत संदर्भ हैं, बहुत प्रसंग और बहुत परिप्रेक्ष्य हैं। संस्कृत साहित्य में मौन के अनेक संदर्भ उपलब्ध होते हैं । कहा गया--'मौनं सर्वार्थसाधनम्'---मौन प्रयोजन की सिद्धि करने वाला है। किसी व्यक्ति की बात सुनकर हम मौन हो जाते हैं तो उसे स्वीकृति सूचक माना जाता है—'मौनं सम्मतिलक्षणम्'--मौन का अर्थ है--सहमत होना। मौन कहां करना चाहिए, इस संदर्भ में संस्कृत विद्वान् ने कहा है-'दर्दुराः यत्र वक्तारः तत्र मौनं हि शोभनम्'---यह रूपक की भाषा है—जहां मेंढक बोलने वाले हों, वहां मौन ही शोभास्पद हो सकता है। इसका तात्पर्य है—जहां मूर्ख लोग बोलने वाले हों, वहां मौन हो जाएं । जहां ज्ञानी लोगों की परिषद् होती है वहां अज्ञानी लोगों का Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अस्तित्व और अहिसा मौत होना अच्छा है। जहां अज्ञानी लोग होते हैं वहां ज्ञानी लोग मौन हो जाते हैं। ज्ञानिनां पर्षदि प्रायो, मौनमज्ञानिनो वरम् ।। अज्ञानिनां समक्षे तु, ज्ञानी भवति मौनभाक् ॥ जहां व्यक्ति का अपना अज्ञान होता है, वहां उसके लिए मौन ही श्रेयस्कर है। जहां विवाद बढ़ता हो, वहां मौन अत्यन्त शोभित होता है। अज्ञा स्वस्य यत्रास्ति, तत्र मौनं हि शोभनम् । विवादो वर्धते यत्र, मौनं तत्रातिशोभनम् ॥ संकल्प की दिशा कहां बोले और कहां मौन करें ? इसका विवेक होना जरूरी है । महावीर ने स्वर्ण सूत्र दिया--सब जगह बोलने का प्रयत्न मत करो, मौन रहो, मौन रहना सीखो। आजकल कुछ लोग ऐसा मौन भी करते हैं, जिसकी कोई विशेष सार्थकता नहीं लगती। अनेक ब्यक्ति यह संकल्प करते हैं ---मैं एक घंटा मौन करूंगा। किन्तु वे इस संकल्प को तब पूरा करते हैं जब उन्हें सोना होता है। व्यक्ति सोते समय मौन का संकल्प करता है, मौन भी हो जाता है और नींद भी ले ली जाती है। यह बुरी बात नहीं है, एक स्वाभाविक वात है किन्तु इससे संकल्प की सार्थकता प्रमाणित नहीं होती । वस्तुतः वहां मौन की सार्थकता है जहां विग्रह का प्रसंग है, कलह बढ़ने का प्रसंग है, लड़ाई-झगड़े का प्रसंग है, क्रोध, आवेश या उत्तेजना का प्रसंग है। ऐसे अवसरों पर मौन करने से ही मौन का अभिप्राय सिद्ध होता है। महावीर ने मौन का जो सूत्र दिया, उसका संदर्भ यही है। यदि हम उत्तेजनात्मक प्रसंगों में मौन रहना सीख जाएं तो वातावरण शान्त होगा, उसमें मिठास होगा, स्निग्धता और सरसता होगी। प्रश्न मौत की सार्थकता का 'तब मौन हो जाएं'- हम इस महावीर वाणी के हृदय को पकड़ें। हम मौन तब करें, जब आवेश की स्थिति हो। हम मौन को समय के साथ नहीं, प्रसंग के साथ जोड़ें। यदि हम इस तथ्य पर ध्यान दें तो मौन की सार्थकता स्वतः प्रमाणित हो जाए। हम यह सोचें-कलह का प्रसंग कब आता है ? भोजन का समय इसका एक उदाहरण बन सकता है । भोजन का समय प्रायः कलह का समय होता है। यदि भोजन में थोड़ा सा अन्तर रह जाता है, उसके स्वाद में फर्क आ जाता है, भोजन थोड़ा कच्चा रह जाता है Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मौन हो जाएं २१५ या थोड़ा जल जाता है तो आदमी आवेश से भर जाता है। ऐसे प्रसंग पर मौन किया जाता है तो आवेश को अभिव्यक्त होने का अवकाश नहीं मिलता, वातावरण में उत्तेजना नहीं आती, आपसी कलह की संभावना क्षीण हो जाती है। ऐसे अनेक प्रसंग हमारे जीवन में आते रहते हैं। यदि हम उन अवसरों में मौन होने का संकल्प लें, मौन हो जाएं तो शान्तिपूर्ण जीवन जीने का सूत्र हमारे हाथ में आ सकता है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३९ संकलिका ० अद्वैत का कर्तव्यभरा ग्रंथ ० अद्वैतवाद : अहिंसा का प्रयोग ० वर्तमान समस्या ० दर्शन प्रायोगिक बने .0 अद्वैत : स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान ० विज्ञान की भाषा ० विश्व का मूल कारण ० जड़-अद्वैतवाद-विश्व जड़ में से उपजा है .. चैतन्य-अद्वैतवाद-विश्व का कारण है चैतन्य .. द्वैत और अद्वैत का मूल अर्थ-कारण की खोज ० प्रमाण चतुष्टयी प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण, प्रमिति • योग-चतुष्टयी ध्याता, ध्येय, ध्यान, ध्यान-फल .. आयारो : अध्यात्म परक ग्रन्थ ० आयार चूला : मर्यादा परक ग्रन्थ .० अद्वैत : द्रव्य और पर्याय .. अध्यात्म का हृदय Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग का समग्र अनुशीलन अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है आचारांग। इंगलैण्ड के एक भाई ने लिखा-'मैंने आयारो पढ़ा और पढ़ने के बाद मेरा दृष्टिकोण बदल गया।' पत्र की भाषा को पढ़ने से लगा-वह भाई दिगम्बर जैन परंपरा से संबद्ध है। उसने लिखा- 'श्वेताम्बर परंपरा में इतने महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं, इसका मुझे अब तक पता नहीं था। मैं जैन विश्व भारती में तीन माह तक रहकर जैन दर्शन का अध्ययन करना चाहता हूं।' आयारो के अंग्रेजी अनुवाद को अनेक विदेशी विद्वानों ने पढ़ा है। इसके संदर्भ में उनकी प्रतिक्रियाएं भी बहुत महत्त्वपूर्ण रही हैं। अहिंसा का महान् प्रयोग आचारांग अद्वैत का कर्तव्यभरा ग्रन्थ है। आचारांग में केवल इतना ही नहीं बतलाया गया—किसी जीव को मत मारो किन्तु यह निर्देश भी दिया गया कि प्रत्येक प्राणी के साथ अद्वैत स्थापित करो। प्रत्येक प्राणी के साथ अद्वैत की अनुभूति अहिंसा का महान् प्रयोग है। जब तक यह अनुभूति नहीं जागती तब तक कोई अहिंसक बन नहीं सकता। जब तक प्रत्येक प्राणी के साथ एकात्मकता की अनुभूति नहीं जागती तब तक हिंसा का संस्कार टूटता नहीं है। वर्तमान समस्या यह है-आज हमारे दर्शन के विद्वान् अद्वैत की चर्चाओं में उलझे हुए हैं और उसका जीवन से कोई विशेष लेना नहीं है। चर्चा से परे हटकर जब तक दर्शन प्रायोगिक नहीं बनता तब तक दर्शन का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। अद्वत ही अद्वैत __आचार्य श्री का जोधपुर में चातुर्मास था। मैं 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' पुस्तक लिख रहा था । लेखन के दौरान जब अद्वैत का अध्याय लिखना शुरू किया तब मुझे ऐसा लगा कि मैं बिल्कुल अद्वैतवादी बन गया हूं। मैं अद्वैत की अनुभूति में चला गया और यह अनुभूति होने लगी, कहीं मेरा दृष्टिकोण तो नहीं बदल रहा है । वास्तव में जब हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाएंगे तो हमारे सामने अद्वैत ही अद्वैत आएगा। अद्वैत का मतलब कोरा संग्रह करने से नहीं है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अस्तित्व और अहिंसा यह स्थूल बात है। जैसे-जैसे स्थूल से सूक्ष्म की ओर हमारा प्रयाण होगा वैसे-वैसे द्वैत समाप्त होता चला जाएगा, अद्वैत सामने आता चला जाएगा। आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने एटम पर जो प्रयोग किए हैं, जिस सूक्ष्मता में आज के वैज्ञानिक गए हैं, उससे ऐसा लगता है सब जगह चेतना ही चेतना है । वे इस भाषा में बोलते हैं कि अद्वैत बड़ा सत्य है। सब जगह आत्मा ही आत्मा है। अद्वैत की मूल खोज इसलिए हुई थी कि विश्व का, सृष्टि का मूल कारण क्या है ? इसी मूल कारण की खोज का नाम है अद्वैतवाद । सृष्टि : मूल कारण कुछ दार्शनिकों का निष्कर्ष रहा—स ष्टि का मूल कारण है चैतन्य । चैतन्य के कारण सारा विश्व पैदा हुआ है। यह चैतन्य-अद्वैतवाद है। विश्व के मूल कारण के संदर्भ में और भी अनेक खोजें हुई। कुछ दार्शनिकों का निष्कर्ष था---सारा विश्व जड़ में से निकला है। यह जड़ अद्वैतवाद है। __ अद्वैत और द्वैत का मूल अर्थ है--कारण की खोज । संसार का कारण क्या है ? विश्व का यह सारा जो विस्तार हुआ है, उसका मूल कारण क्या है ? आचार्य हेमचंद्र ने महावीर की स्तुति में लिखा-- अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् । आदेशभेदोदितसप्तभंगमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ जब हम वस्तु की अभेद रूप से मीमांसा करते हैं तब द्रव्य बन जाती है, पर्याय नहीं रहती। जब हम उसके भेदात्मक स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तब उसके पर्याय ही सामने आते हैं, मूल द्रव्य नहीं। सप्तभंगी के द्वारा वस्तु की विवक्षा के जो दृष्टिकोण बतलाए हैं, वे विद्वानों के लिए भी ज्ञातव्य हैं। अद्वैत कोरा दर्शन नहीं है ___ अद्वैत कोरा दर्शन नहीं है, साधना का बहुत बड़ा प्रयोग है। प्रमाणशास्त्र की एक चतुष्टयी है-प्रमाता, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाण । योग साधना में ध्यान शास्त्र की भी एक चतुष्टयी है-ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान-फल । एक होता है ध्याता-ध्यान करने वाला । एक है ध्यान । एक है ध्येय और एक है ध्यान का फल । जब तक यह भेद बना रहता है, तब तक व्यक्ति अच्छा ध्यानी नहीं बन पाता। जब अद्वैत सधता है, ध्याता और ध्येय--एक बन जाते हैं। जब यह अद्वैत सध जाता है तभी समाधि की अवस्था प्राप्त होती है, अद्वैत को साधे बिना ध्याता और ध्येय की दूरी बनी रहेगी, कभी मिट नहीं पाएगी। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग का समग्र अनुशीलन शब्द और तर्क जाल में उलझा है दर्शन कठिनाई यह हुई - मध्यकाल में हजार-पंद्रह सौ वर्षों का समय ऐसा ताकि प्रायोगिक दर्शन, ध्यान-साधना की बात छूट गई, दर्शन कोरा शब्दों में उलझकर रह गया । दार्शनिक शब्द और तर्क में उलझ गए, मूल बात को छोड़ दिया गया । आज जरूरत है --दर्शन के साथ प्रायोगिक दर्शन को जोड़ा जाए। अभी एक नई सोसायटी बनाई गई है— इन्टरनेशनल सोसायटी फॉर इण्डियन फिलोसॉफी । उससे अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के बड़े-बड़े विद्वान् जुड़े हैं । हमने सुझाव दिया है— दर्शन केवल चर्चा के स्तर पर रहा तो वह बहुत लाभप्रद बन पाएगा, ऐसा नहीं लगता । दर्शन के साथ जीवन की समस्याओं को कैसे प्रायोगिक ढंग से जोड़ा जाए ? यदि इस क्षेत्र में कुछ काम किया तो दर्शन का नया रूप प्रस्तुत हो सकता है, वह जनता का दर्शन बन सकता है । दर्शन की चर्चा मात्र से किसी लाभ की संभावना नहीं की जा सकती । शाब्दिक चर्चा का परिणाम कभी बहुत सार्थक नहीं होता । मार्मिक प्रसंग गांव में एक मुनि आए । जनता ने मुनि का प्रवचन सुना । मुनि ने अद्वैतवाद की व्याख्या की। लोग प्रभावित हुए। मुनि से एक भाई ने माला फेरने का संकल्प लिया। मुनि ने कहा- सोऽहं सोऽहं का जप किया करो । भाई ने सोsहं का जप करना शुरू कर दिया । कुछ दिन बीते । दूसरी संप्रदाय के मुनि आए । वे भक्ति-संप्रदाय के साधु थे। उस भाई ने मुनि से धर्मचर्चा की। मुनि ने पूछा --- माला फेरते हो ? हां, सोऽहं का जप करता हूं । मुनि ने कहा- यह गलत बात है । तुम इसके पीछे एक 'दा' लगा दो । अब से दासोsहं, दासोऽहं का जप किया करो । भाई ने मुनि की बात को स्वीकार कर लिया। वह 'दासोऽहं' का जप करने लगा । कुछ मास बीते । वे अद्वैतवादी संत पुनः उसी गांव में आए। वह भाई मुनि के दर्शनार्थ आया । मुनि ने पूछा – जप चल रहा है ? भाई ने कहा- हां। महाराज ! चल तो रहा है, पर एक संन्यासी ने उसमें सुधार कर दिया। पहले सोऽह सोऽहं का जप करता था । अब मैं दासोsहं, दासोऽहं का जप करता हूं । अरे ! तुमने अनर्थ कर दिया। हम किसके दास हैं ? हम तो स्वयं प्रभु हैं। खैर ! अब तुम इस गलती को सुधार लो । उस संत की बात भी २१६. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अस्तित्व और अहिंसा रख देते हैं । अब तुम इसके पीछे एक 'स' और लगा दो। 'सदा सोऽहं' 'सदा सोऽहं' का जप करो। भाई ने मुनि का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बीते होंगे। भक्ति-संप्रदाय का वही साधु फिर उस गांव में आया। उस भाई से मुनि ने पुनः जप के बारे में पूछा। भाई से 'सदासोऽहं' की जाप करने की बात सुनकर मुनि ने कहा-तुम फिर गलत जप कर रहे हो। इसे सही करने के लिए एक दा' और जोड़ दो- 'दासदासोऽहं', 'दासदासोऽहं' का जप करो। वह भाई यह सुनकर दंग रह गया। उसने सोचा--- मैं किस चक्कर में फंस गया । यह झंझट है। और उसने जप करना ही छोड़ दिया। दर्शन के क्षेत्र में द्वैतवाद और अद्वैतवाद के नाम पर ऐसी खींचातानी चल पड़ी। जीवन का रस चुक गया, कोरा शब्दों का झंझट शेष रह गया । अद्वैत की सार्थकता हम अद्वैतवाद को समझे। द्वैतवाद के साथ अद्वैतवाद को समझना भी बहुत जरूरी है, किन्तु अद्वैत को समझने के लिए स्थूल से सूक्ष्म की दिशा की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना होगा। स्थूल जगत् में जीने वाला कभी अद्वैत की बात नहीं समझ पाएगा। हमारे सामने दो जगत् हैं—द्रव्य का जगत् और पर्याय का जगत् । जब हम पर्याय के जगत् में जिएंगे तब हमारे लिए अद्वैत का कोई महत्त्व नहीं होगा और जब हम द्रव्य के जगत् में जिएंगे तब हमारे लिए द्वैत का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाएं, सूक्ष्म के साथ जीवन को जोड़ेंगे तो हमारे लिए अद्वैतवाद बहुत सार्थक होगा । मैं मानता हूं, इस दृष्टि से आचारांग का समग्र अनुशीलन किया जाए तो दृष्टि ही बदल जाए। आयारो : आयारचूला आचारांग को समझने के लिए बहुत व्याख्याएं लिखी गई हैं, आचारांग का भाष्य भी लिखा गया है किन्तु आज भी ऐसा लगता है, आयारो की गंभीरता का पूरा स्पर्श अभी तक नहीं हो पाया है। इस गंभीर सूत्र के संदर्भ में जब आचा रांग के दूसरे भाग---'आयार-चूला' को देखते हैं तो यह धारणा बनती है---महावीर की आचार-व्यवस्था अध्यात्म-परक थी और उत्तरकालीन आचार्यों द्वारा कृत आचार-व्यवस्था मर्यादा-परक हो गई। महावीर ने ध्यान दिया अध्यात्म के स्तर पर और उत्तरकाल में ध्यान केन्द्रित रहा नियम के स्तर पर। अध्यात्म से अनुप्राणित आचार का ग्रन्थ है---आयारो और Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग का समग्र अनुशीलन २२१ नियम से व्यवस्थित आचार का ग्रन्थ है---आयारचूला। यदि हम आयारो और आयारचूला को सूक्ष्मता से पढ़ेंगे तो यह अंतर स्पष्ट होता चला जाएगा। आचारांग का हृदय हम आचारांग का गहराई से अनुशीलन करें, उसमें जो अध्यात्म-सूत्र गुंथे हुए हैं, उन्हें प्रयोग के स्तर पर अपनाएं । ऐसा करके ही हम आचारांग की गहराई में पहुंच सकते हैं, अध्यात्म की गहराई तक पहुंच सकते हैं। जो आयारो की गहराई में पहुंचने में सफल हो जाता है, वह अध्यात्म की गहराई में पहुंचने में सफल हो जाता है। अध्यात्म की गहराई में जाने के लिए आचारांग का समग्र अनुशीलन आवश्यक है। इस आवश्यकता की अनुभूति करने वाला आचारांग के हृदय को पकड़ लेता है, अध्यात्म के हृदय को पकड़ लेता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ की महत्वपूर्ण रचनाएं १. तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो। २. मैं : मेरा मन : मेरी शांति (हिन्दी, अग्रेजो) ३. चेतना ऊवारोहण (हिन्दी, गुजराती, बंगला) ४. महावीर की साधना का रहस्य। ५. मन के जीते जीत (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगला) ६. किसने कहा मन चंचल है (हिन्दी, अंग्रेजी. गुजराती) ७. जैन योग। ८. एसो पंच णमोक्कारो (हिन्दी, गुजराती)। ९. आभामण्डल (हिन्दी, गुजराती, बंगला)। १०. अप्पाणं शरणं गच्छामि। ११. अनेकान्त है तीसरा नेत्र (हिन्दी, गुजराती)। १२. एकला चलो रे। १३. मन का कायाकल्प। १४. संबोधि (हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी)। १५. मैं कुछ होना चाहता हूँ। १६. जीवन विज्ञान (शिक्षा का नया आयाम) (हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला)। १७. जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प। १८. कैसे सोचें? १९. आहार और अध्यात्म। २०. प्रेक्षाध्यान: आधार और स्वरूप (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगला)। २१. प्रेक्षाध्यानः श्वास प्रेक्षा (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती)। २२. प्रेक्षाध्यानः शरीर प्रेक्षा (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती)। २३. श्रमण महावीर (हिन्दी, अंग्रेजी)। २४. घर-घट दीप जले। २५. मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि। २६. मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता। २७. अवचेतन मन से सम्पर्क। २८. उत्तरदायी कौन? २९. जीवन की पोथी। ३०. सोया मन जग जाये। ३१. प्रस्तुति। ३२. महाप्रज्ञ से साक्षात्कार। ३३. प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग (अंग्रेजी, तमिल, गुजराती)। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________