________________
१२८
मस्थित्व और अहिंसा
कठिनाई यह है हम उसमें रह नहीं पाते । समाधितंत्र कहा गया
जानन्नप्यात्मनस्तत्वं, विविक्तं भावयन्नपि ।
पूर्वविभ्रमसंस्कारात, भ्रान्ति भूयोपि गच्छति ॥
हम इस बात को जानते हैं—शरीर अलग है और आत्मा अलग है। हम ऐसी भावना भी करते हैं-शरीर और आत्मा के भेदज्ञान की अनुभूति हो, किन्तु पुराने संस्कार बहुत जटिल होते हैं। उनके दबाव से व्यक्ति भ्रम में पड़ जाता है । आत्म-समाधि में जाने के लिए इस भ्रान्ति को मिटाना जरूरी है। साइकोलोजी का अर्थ
प्रश्न है जो पुराने संस्कार हैं, पुरानी आदते हैं, उन्हें कैसे बदला जाए ? मनोवैज्ञानिकों ने मानस-चिकित्सा का क्रम शुरू किया, मन की बीमारियों की चिकित्सा करना शुरू कर दिया । मन की बीमारी का इलाज मनोविज्ञान के पास है किन्तु इस प्रश्न का समाधान मनोविज्ञान के पास नहीं है--क्या मौलिक मनोवृत्तियों-भूख, संघर्ष, काम (Sex) आदि का परिष्कार किया जा सकता है ? आत्म-विज्ञान की भूमिका पर रहने वाले लोगों ने इनके परिष्कार का मार्ग खोजा । वे मन की सीमा में बन्धे हुए नहीं थे। उन्होंने मन से परे बुद्धि को समझने का प्रयत्न किया, चित्त को समझने का प्रयत्न किया । वे माइण्ड तक ही नहीं अटके रहे, साइक तक पहुंच गये । वास्तव में साइकोलोजी का अर्थ आत्म-विज्ञान ही होता है । इसमें दो शब्द प्रयुक्त हैं—साइक और लोगस । साइक यानी आत्मा-चित्त । लोगस यानी विज्ञान । हालांकि मनोवैज्ञानिक मन से आगे नहीं बढ़ पाए किन्तु जो आत्मवादी हैं, उन्हें मन से आगे जाना चाहिए। पदार्थ-निरपेक्ष सुख
आत्मा तक पहुंचने के लिए आवश्यक है-प्रतिदिन कुछ क्षण निर्विचार अवस्था में बीते । एक सुख ऐसा होता है, जो पदार्थ-निरपेक्ष होता है, भीतर से टपकता है । निविचारता का जीवन जीने वाला व्यक्ति इस सुख को सहज प्राप्त कर लेता है । जब तक हम निर्विचार क्षण को नहीं जिएंगे तब तक पदार्थ-निरपेक्ष सुख का अर्थ समझ में नहीं आएगा, आत्म-समाधि की बात समझ में नहीं आएगी । निविचारता की अनुभूति ऐसी अनुभूति है, जो दुनिया की सारी अनुभूतियों से परे है, कोई पदार्थजन्य अनुभूति उस तक पहुंच नहीं सकती । जिस दिन हम इस भूमिका पर पहुंचेंगे, वह दिन हमारे लिए सबसे बड़ा सौभाग्य का दिन होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org