SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि का मूल्य १२७ चाहिए उतना तेज नहीं आ पाता । मानसिक विचार की भूमिका में बहुत कुछ प्राप्त होता है, पर बहुत सारी बातें छूट जाती हैं । इस अवस्था में कुछ उपलब्ध होता है किन्तु मूल बात प्राप्त नहीं होती । मानसिक विचार की अवस्था में निर्मूल नाश की स्थिति प्राप्त नहीं होती । निर्विचार अवस्था में ही संस्कारों का जड़ से उन्मूलन होता है, कोई आदत बच नहीं पाती, वृत्तियों का सफाया हो जाता है। आत्म-समाधि आजकल समाधि के प्रयोग चलते हैं । योगी कहलाने वाले कुछ लोग समाधि लेते हैं, भूमि-समाधि, जल-समाधि आदि का संकल्प करते हैं। यह एक प्रदर्शन जैसा बन गया है । यद्यपि इसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है, नाड़ी और हृदय पर भी नियंत्रण किया जाना है। डॉक्टरों के लिये यह आश्चर्य की बात है-स्वतःचालित नाड़ी-संस्थान पर किस प्रकार नियंत्रण किया जा सकता है किन्तु योग के द्वारा वैसी समाधि का प्रयोग किया जाता रहा है। महावीर ने जिस आत्म-समाधि की चर्चा की है, वह एक अलग समाधि है । वह इन सबसे आगे की भूमिका है। आत्म-समाधि में व्यक्ति आत्मस्थ हो जाता है, जो चेतना बाहर खेलती है, उसे बाहर से हटाकर, उसका प्रत्याहार कर उसे बिलकुल भीतर में ले जाता है। वह चेतना को भीतर ही केन्द्रित किए रहता है, बाहर नहीं जाने देता। यह साधना की उच्च भूमिका की एक अवस्था है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर संस्कारों का जलना शुरू हो जाता है, आग को उद्दीप्त बनाने वाले इंधन समाप्त हो जाते हैं । शुक्लध्यान : क्षमता का निदर्शन शुक्लध्यान की अवस्था में कर्मों को नष्ट करने की शक्ति कितनी बढ़ जाती है, इसका उल्लेख जैन आगम साहित्य में उपलब्ध है। धर्मध्यान में कर्मों का नाश होता है पर वह शुक्लध्यान के सामने कुछ भी नहीं है। जैसे आग सूखे काठ को जलाती है वैसे ही शुक्लध्यान में पहुंचा हुमा व्यक्ति कर्मों को जला डालता है, आदतों को धुन डालता है। शुक्लध्यान की आंच इतनी तीव्र होती है कि उसको सहने के लिए फायर प्रूफ भट्टियां भी काम नहीं करतीं। आचार्य उमास्वाति ने लिखा-शुक्लध्यान में चढ़ा हुआ व्यक्ति इतना शक्तिशाली बन जाता है कि यदि वह चाहे तो संसार के समस्त प्राणियों के कर्मों को अकेला खपा सकता है। ऐसा होता नहीं है, क्योंकि कोई किसी के कर्म को क्षीण नहीं कर सकता किन्तु यह उसकी क्षमता का निदर्शन है। संस्कारों का दबाव __ भगवान महावीर ने मुनि को प्रेरणा दी- तुम आत्म-समाधि में जाओ, आत्मा में रहो। हम जानते हैं-चैतन्यमय पदार्थ का नाम है आत्मा किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy