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वह जानता-देखता है
सूरज का प्रकाश, चन्द्रमा का प्रकाश, दीपक और बिजली का प्रकाश, रत्नों का प्रकाश और कुछ वनस्पतियों का प्रकाश । प्रकाश करने वाले द्रव्य बहुत हैं पर सबसे बड़ा प्रकाश है चेतना का प्रकाश, ज्ञान का प्रकाश । वह प्रकाश है तो सारे प्रकाश हैं और वह नहीं है तो कुछ भी नहीं है । चेतना का आलोक होता है तो दूसरे आलोक भी काम देते हैं। यदि आंख ठीक है तो सूर्य का प्रकाश तथा अन्यान्य प्रकाश उपयोगी बनते हैं। यदि आंख न हो तो ? न सूर्य का प्रकाश काम आएगा, न अन्य पदार्थों का प्रकाश काम आएगा, न किसी वस्तु का दर्शन सम्भव बन पाएगा । संस्कृत भाषा का सूक्त हैलोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति आंख नहीं है तो दर्पण क्या करेगा ? सकर्मा : अकर्मा
भगवान महावीर ने मनुष्य को दो भागों में बांट दिया-सकर्मा और अकर्मा । सकर्मा यानी प्रवृत्ति करने वाला। जो शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति करने वाला है, वह सकर्मा है । अकर्मा वह है, जो शरीर, वाणी और मन–तीनों को शांत रखता है । प्रश्न है--आदमी अकर्मा कब हो सकता है ? बहुत गहरे में उतरकर अध्यात्म ने इस तथ्य को प्रस्तुत किया-लोभ आदर्म को चलाता है। जितना लोभ, उतनी ही प्रवत्ति । जब तक लोभ है तब तक व्यक्ति अकर्मा नहीं बन सकता, ज्ञाता-द्रष्टा नहीं बन सकता, जानने वाला देखने वाला नहीं बन सकता । प्रश्न होता है—देखता कौन है ? इस संदर्भ में ज्ञान को भी समझना होगा। एक है बौद्धिक ज्ञान । उसे जानना-देखना मान ही नहीं गया । जानना-देखना वह होता है, जिसमें कोई पढ़ाई नहीं होती व्यक्ति सीधा देख लेता है।
तत्त्वार्थ भाष्य की वृत्ति में कहा गया-ज्ञेय एक है और ज्ञान अनेक उदाहरण की भाषा में समझे । हमें एक ज्ञेय को—मनुष्य को जानना है मतिज्ञानी उसे जानेगा इन्द्रियज्ञान के द्वारा। वह जान लेगा कि यह मनुष पर्याय है। श्रुतज्ञानी उसे इन्द्रियों से नहीं जानेगा। वह शब्द के सहा जानेगा । वह सम्बन्ध जोड़ेगा-यह मनुष्य शब्द है और यह मनुष्य नाम वस्तु है । यह इसका वाचक है और यह इसका वाच्य है। जिसमें मनन कर की शक्ति होती है, वह मनुष्य होता है। अवधिज्ञानी अतीन्द्रिय शक्ति से जान
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