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अस्तित्व और अहिंसा
है। शब्द का कार्य संकेत करना मात्र है। इसीलिए कहा गया ....शब्द आत्मा तक नहीं पहुंच पाता । शब्द के द्वारा आत्मा को बताया नहीं जा सकता। तर्कातीत
दूसरी बात कही गई...कोई भी तर्क ऐसा नहीं है, जो आत्मा को समझा सके । आत्मा तर्कातीत है । यद्यपि आत्मवादी आचार्यों ने तर्क के द्वारा आत्मा को समझाने का प्रयत्न किया है, पर वास्तविकता यह है, तर्क के द्वारा आत्मा को समझाया या जाना नहीं जा सकता । वह तर्क से अगम्य है। सही अर्थ में वह अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा गम्य है। हालांकि कभी-कभी हम काम चलाने के लिए तर्क का सहारा ले लेते हैं । पर तर्क वास्तविकता तक हमारा साथ नहीं देते।
बुद्धि भी भावना तक नहीं पहुंचती, वह बीच में ही अटक जाती है। बुद्धि शब्द और तर्क के सहारे काम करती है। ये दोनों साथ नहीं देते हैं तो बुद्धि पंगु बन जाती है । शब्द, तर्क और बुद्धि से आत्मा को नहीं जाना जा सकता । शब्द, तर्क और बुद्धि मूर्त तत्त्व को पकड़ सकते हैं, अमूर्त तत्त्व को नहीं। अमूर्त पदार्थ की स्वीकृति का अर्थ
पदार्थ के दो वर्ग बन गए.-.-मूर्त पदार्थ और अमूर्त पदार्थ, रूपी और अरूपी । यह भेदरेखा जिस दार्शनिक ने खींची है, वह बहुत बड़ा दार्शनिक रहा है। ऐसा लगता है---मूर्त और अमूर्त का वर्गीकरण सबसे पहले भगवान् महावीर ने प्रस्तुत किया, जैन आचार्यों ने प्रस्तुत किया। भगवान् ने पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन किया, उनमें चार अरूपी हैं, अमूर्त हैं । वे दिखाई नहीं देते। एक रूपी या मूर्त है--पुद्गल । वह सबके लिए गम्य है। एक नया प्रत्यय, नया कंसेप्ट (concept) प्रस्तुत हो गया--दुनिया में कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जो रूपवान नहीं हैं, अरूपवान हैं। वे इन्द्रियों द्वारा या शब्द, तर्क और बुद्धि के द्वारा गम्य नहीं हैं । अमूर्त यदार्थ को मानने का अर्थ है----अतीन्द्रिय ज्ञान की स्वीकृति और उसके परम विकास---केवलज्ञान की स्वीकृति । अरूपी पदार्थ को जानने वाला एक ही ज्ञान है और वह है केवलज्ञान ।। कर्मशास्त्र की भाषा
दार्शनिक दष्टि से विचार करें। अमूर्त सत्ता और सर्वज्ञता-इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता । सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य है तो अमूर्त तत्त्व मान्य है और अमूर्त तत्त्व मान्य है तो सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य है। यह नहीं हो सकता--अमूर्त तत्त्व को मान्य करें और सर्वज्ञता को अस्वीकार करें। इन दोनों में से किसी एक की स्वीकृति संगत नहीं ठहरती । आत्मा
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