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________________ १८० अस्तित्व और अहिंसा श्रावक बनना-लक्ष्य नहीं है। ये सब पड़ाव हैं, विराम हैं। लक्ष्य है आत्मा की उपलब्धि । एक मुनि भी इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, एक श्रावक भी इसे सरलता से प्राप्त कर सकता है। हम पड़ावों पर ज्यादा अटक जाते हैं किन्तु पड़ाव लक्ष्य नहीं है। श्रावक की भूमिका एक पड़ाव है। बारहवती श्रावक की भूमिका एक पड़ाव है। उससे अगला पड़ाव है मुनि की भूमिका । अप्रमत्त को भूमिका एक पड़ाव है । वीतराग की भूमिका एक पड़ाव है । छठेसातवें गुणस्थान के बीच भी कितने ही पड़ाव आ जाते हैं। एक व्यक्ति साधु बनता है, एकल विहारी बनता है, जिनकल्पी बनता है। ये सारे पड़ाव हैं, जो मंजिल की ओर ले जाते हैं। हम इन पड़ावों को पूरा करते करते आगे बढ़ते हैं और बढ़ते ही चले जाते हैं तो मंजिल उपलब्ध होती है। यदि हमारा लक्ष्य छोटा होगा तो हम महान् लक्ष्य को नहीं पा सकेंगे। दृष्टि मूल लक्ष्य पर केन्द्रित होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो लक्ष्य सदा दूर बना रहता है। उदाहरण की भाषा महान् लक्ष्य है वीतरागता। एक जैन श्रावक प्रतिदिन बोलता है-- ‘णमो अरहंताण'। इसका अर्थ है-अर्हत्, वीतराग या केवली होना हमारा लक्ष्य है। महावीर ने कहा-जिसके सामने यह प्रज्ञा नहीं होती है, वह अनात्मप्रज्ञ हो जाता है, आत्मा की प्रज्ञा को भुला देता है और वह विषाद को प्राप्त होता है। महावीर ने उदाहरण की भाषा में कहा-एक कछुआ किसी द्रह-तालाब में रहता था। उस तालाब पर काई... हरीतिमा छाई हुई थी। काई से सारा पानी ढक जाता। संयोग ऐसा बना---एक जगह से काई हट गई। कछुए ने ऊपर की ओर देखा, वह देखता ही रह गया-नीला आकाश ! तारे चमक रहे हैं । उसने यह दृश्य पहली बार देखा। उसे बड़ा सुहावना लगा, मनोरम और सुन्दर लगा। कितनी बड़ी दुनिया है, यह देखकर वह अवाक रह गया। उसके मन में एक विकल्प उठा-मैं अकेला ही इस दृश्य को देख रहा हूं। अपने परिवार को भी यह दृश्य दिखाऊं, वे आश्चर्य में डूब जाएंगे। कछुए ने तालाब में डुबकी लगाई। वह परिवार वालों को बुला लाया। वह यह देखकर स्तब्ध रह गया-पानी पर पुनः काई आ गई है, आकाश दिखना बंद हो गया है। आकाश को देखने के लिए जो विवर बना था, वह बंद हो गया। कछुआ निराश हो गया। वह परिवार वालों को क्या दिखाएं ? कैसे दिखाएं ? कछुआ पुनः आकाश नहीं देख सका। दूसरा संदर्भ हम इसे दूसरे संदर्भ में देखें। एक व्यक्ति बड़े लक्ष्य के साथ चला। कुछ आवरण हटा, एक विवर हो गया, आत्मा की कोई झलक मिल गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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