SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कछुआ फिर आकाश नहीं देख सका ऊंचा लक्ष्य बनाएं __ लक्ष्य हमेशा ऊंचा बनाएं। उद्देश्य कभी छोटा नहीं होना चाहिए, योजना भी छोटी नहीं होनी चाहिए। छोटे लक्ष्य और छोटी योजना से उत्साह नहीं जागता। वे कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। बड़ी योजनाएं और बड़े लक्ष्य पूरे होते हैं क्योंकि उनके पीछे उत्साह और प्रेरणा का बल होता है । विश्व के प्रख्यात चिन्तकों ने यही कहा-ऊपर की ओर चलो, लक्ष्य को बड़ा बनाते चलो। यदि किसी श्रावक से पूछा जाए-तुम्हारा लक्ष्य क्या है ? उसका उत्तर होगा--लक्ष्य है साधु बनना, अणुव्रती से महाव्रती बनना। वस्तुत: यह लक्ष्य नहीं है, यह एक यात्रा है, पड़ाव है। यदि एक मुनि यह सोचता है—-मैं साधु बन गया, सब कुछ हो गया तो वह बड़ी भूल करता है। साधु बनना यदि लक्ष्य है तो साधु-दीक्षा के साथ ही उसकी प्राप्ति हो जाती है । साधना करने या वीतराग बनने की जरूरत ही नहीं है। चक्रवर्ती भरत ने मुनि दीक्षा भी नहीं ली, वे अपने घर में बैठे-बैठे ही वीतराग बन गए। वास्तव में साधु बनना बहुत छोटा लक्ष्य है। समस्या यह है-हम आज भी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारा लक्ष्य क्या है ? लक्ष्य एक ही है महावीर ने कहा-कुछ साधु ऐसे हैं, जो साधु होकर भी अवसाद को प्राप्त होते हैं, विषाद को प्राप्त होते हैं। एक मुनि सोचता है--कितना कठिन है साधु जीवन । विहार करना, पैदल चलना, लोच कराना, सर्दी-गर्मी को सहन करना आदि-आदि कितने कष्ट हैं । ऐसा सोचने वाला मुनि अवसाद को प्राप्त होता है। प्रश्न है-अवसाद क्यों होता है ? महावीर ने इसका कारण बतलाया--जो अनात्मप्रज्ञ हैं, जिन्होंने आत्म-प्राप्ति का लक्ष्य नहीं बनाया है, उन्हें विषाद होता है। साधु का लक्ष्य है आत्मा को पाना । प्रश्न हो सकता है-श्रावक का लक्ष्य क्या है ? श्रावक का लक्ष्य भी यही है। साधु और श्रावक-दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह है आत्मोदय । जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, विषाद की स्थितियां आती रहती हैं। पड़ाव लक्ष्य नहीं है हम इस विषय को गंभीरता से लें। साधु बनना, मुमुक्षु बनना या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy