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________________ कछुआ फिर आकाश नहीं देख सका १८१ वह आगे चल पड़ा किन्तु कोई ऐसी काई छा गई, मोह या मूर्छा की गहरी काई सामने आ गई। उसे तोड़ना या भेद पाना बहुत कठिन है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति सोचता है-मैं साधु बनूं, मोह-माया को छोड़ दूं । उसके मन में यह विचार आता है और वह इस दिशा में चल पड़ता है किन्तु जब मोह की सघन परत आड़े आती है, व्यक्ति लक्ष्य से भटक जाता है । वह उस सघन परत के नीचे दबता चला जाता है। यह स्थिति इसलिए बनती है कि उसका पुरुषार्थ मंद हो जाता है। पुरुषार्थ सापेक्ष है क्षयोपशम हमारे क्षयोपशम की स्थिति पुरुषार्थ सापेक्ष है। निरन्तर पराक्रम, पुरुषार्थ और वीर्य का प्रयोग चलता रहे, हाथ निरन्तर हिलता रहे तो आदमी तैरता चला जाता है। जब तक हाथ हिलता रहेगा, क्षयोपशम काम देगा। हाथ हिलना बंद होगा, क्षयोपशम भी बंद हो जायेगा, वह उदय में बदल जाएगा, उदय सक्रिय हो जाएगा। कर्म और चेतना-ये दो तंत्र हैं। एक सक्रिय होता है तो दूसरा निष्क्रिय हो जाता है। दूसरा सक्रिय होता है तो पहला निष्क्रिय बन जाता है। कभी कर्म का प्रभाव सक्रिय हो जाता है और कभी चेतना का प्रभाव सक्रिय हो जाता है। क्षयोपशम की सक्रियता पुरुषार्थ से जुड़ी हुई है। व्यक्ति स्वयं का भाग्य विधाता है ___महावीर ने कहा--व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। व्यक्ति के भाग्य की डोर व्यक्ति के अपने हाथ में है लेकिन वह तब है जब सही अर्थ में पुरुषार्थ सक्रिय रहे। यदि पुरुषार्थ गलत हो जाए तो अपने दुर्भाग्य का विधाता भी व्यक्ति स्वयं बन जाता है। यदि व्यक्ति पुरुषार्थ न करे, आलसी बन जाए तो सब कुछ खराब हो जाता है । कर्मवाद को मानने वाला इस तथ्य को समझे---भाग्य का उदय होने वाला है किन्तु यदि उसके अनुरूप पुरुषार्थ नहीं किया गया तो भाग्य का उदय भी रुक जाएगा। यदि गलत पुरुषार्थ कर लिया तो भाग्य का उदय रुक जाएगा। हम इस बात पर ध्यान दें-- आलस्य न हो, गलत पुरुषार्थ । हो, सही पुरुषार्थ निरन्तर चलता रहे । हाथ पर हाथ रखकर बैठने से पेट नहीं भरता। रसोई तैयार है किन्तु भूख तभी मिटेगी जब हम खाने के लिए पुरुषार्थ करेंगे । जो भाग्यवादी या ईश्वरवादी हैं, वे निराश होकर बैठ सकते हैं किन्तु कर्मवादी कभी निराश होकर नहीं बैठता । उसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास होता है। सब कुछ है आत्मा मूल बात है— प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़ी हुई है या नहीं ? यदि हम आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं तो हमारा पुरुषार्थ सही दिशा में होगा। यदि हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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