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अस्तित्व और अहिंसा
आत्मा के साथ नहीं किन्तु शरीर के साथ जुड़े हुए हैं तो पुरुषार्थ की दिशा सही नहीं रह पाएगी। साधु जीवन हो या श्रावक जीवन, पुरुषार्थ का सही दिशा में नियोजन नहीं है तो हम अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पाएंगे। हम शरीर के साथ जुड़े हुए हैं, इसका अर्थ है, हम नितान्त भौतिकवादी बन गए, नास्तिक बन गए। हम शरीर को पालते हैं किन्तु उसे सब कुछ मानकर नहीं चलते । जिस क्षण सम्यग् दर्शन का पहला प्रकाश फूटता है, इस सचाई का वोध होता है---शरीर सब कुछ नहीं है, वह यात्रा चलाने का साधन-मात्र है । सब कुछ है आत्मा । इस दृष्टिकोण का आत्मसात् होना ही सम्यग् दर्शन है। साधना का पहला पड़ाव है-सम्यग दर्शन । इस स्थिति में ही आत्मप्रज्ञा जागती है, व्यक्ति विषाद से मुक्ति पा लेता है । जितना विषाद होता है, वह अनात्म-प्रज्ञा में होता है । जिसकी प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़ जाती है, उसे कोई दुःखी नहीं बना सकता। आत्मप्रज्ञ बो
हम एक कसौटी को सामने रखें। हम कुछ भी करें तो यह सोचें ... मेरे इस कार्य से आत्मा का कुछ बिगड़ा या नहीं ? हमारे कार्य को कोई देखता है या नहीं देखता, हमें कोई कुछ कहता है या नहीं कहता, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना महत्त्वपूर्ण है-इस कसौटी का सामने बने रहना। जो इस कसौटी को सामने रखता है, उसे कोई दुःखी नहीं बना सकता । महावीर ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया-आत्म-प्रज्ञ बनो। जब तक आत्म-प्रज्ञ नहीं बनेंगे, विषाद से मुक्ति नहीं मिलेगी। धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने वाला सबसे पहले आत्मा को जाने । जो आत्मवादी हैं, परलोक को मानते हैं, कर्म एवं कर्म फल को मानते हैं, उनके लिए आत्मा के साथ जुड़े रहने का दर्शन सहज प्राप्त है।
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