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________________ वनस्पति जगत् और हम __ मनुष्य और वनस्पति—दोनों हम-साथी हैं । वनस्पति के बिना मनुष्य का जीवन सम्भव नहीं है किन्तु मनुष्य के बिना वनस्पति का जीवन सम्भव हो सकता है। हम आदिम युग को देखें, यौगलिक युग को देखें । उस समय जीवन की सारी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष पर निर्भर थीं। वह प्रत्येक कल्पना को पूरा करने वाला वृक्ष था। यौगलिक जीवों की अपेक्षाएं-भोजन, वस्त्र आदि कल्पवृक्ष से पूरी होतीं। मकान, आभूषण, मनोरंजन के साधन, शृंगार, साज-सज्जा, रहन-सहन, सब कुछ कल्पवृक्ष पर आश्रित था। कल्पवृक्ष के बिना यौगलिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यौगलिक युग के बाद मनुष्य ने साथ रहना सीखा, गांव बसाना सीखा, मकान बनाना सीखा, खेती करना सीखा । पहले कल्पवृक्ष ही उनका मकान था। यौगलिक युग के अन्तिम समय में पहला मकान बना । मकान का नाम था अगार। पहला मकान लकड़ी से बना। अग-वृक्ष से बना इसलिए मकान का नाम अगार हो गया। उस समय न ईटें थीं, न पत्थर थे। पूरा मकान लकड़ी से निर्मित हुआ। जीवन का नया दौर जीवन की आवश्यकताएं बढ़ीं । मनुष्य ने कपड़ा बनाना शुरू किया। पहला कपड़ा रुई से बना । उसका प्रणयन भी वनस्पति जगत् पर आधृत था। खाने की पूर्ति का स्रोत भी वनस्पति जगत् था। उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य ने कृषि-खेती करना प्रारम्भ कर दिया। एक अन्तर आ गया-केवल कल्पवृक्ष पर जो निर्भरता थी, वह उससे हटकर वनस्पति जगत् पर निर्भर बन गई । प्रवृत्ति का विस्तार होता चला गया। मकान और वस्त्र बनने लगे, फसलें उगने लगीं। जीवन का एक नया दौर शुरू हो गया, किन्तु सब कुछ वनस्पति जगत् पर निर्भर बना रहा। हम समाज के इतिहास को देखें। मनुष्य जगत् और वनस्पति जगत्दोनों साथ-साथ जीते रहे हैं। मनुष्य पहले जंगलों में वृक्षों के बीच रहता था। आजकल अधिकांश लोग शहरों में रहना पसन्द करते हैं। हमने देखाशहरों में बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हुई हैं, किन्तु उनके चारों ओर छोटे-छोटे उद्यान लगे हुए हैं। प्रश्न हो सकता है-कोठी के सामने बगीचा क्यों ? ऐसा लगता है—आदमी ने जंगल को छोड़ा, गांव बसाया। उसका गांव में मन नहीं लगा इसलिए उसे गांव में पुनः जंगल बनाना पड़ा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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