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ज्ञानी रात को जागता है
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से ही पैदा होती है । जैन दर्शन में यही बात कही गई---जब तक यह अनुभूति नहीं होती—यह संसार दुःख बहुल है, मैं जिसे सुख मान रहा हूं वह वस्तुतः दुःख है-तब तक आदमी जागता नहीं है। शायद इसीलिए कहा गया---सुख सापेक्षवाद नहीं है। जिन लोगों में जागने की चाह प्रबल बनी, उन्होंने दुःख को निमंत्रण दिया। जागने के लिए दु:ख जरूरी है । अगर कष्ट नहीं होता तो दुनिया इतनी अन्धी हो जाती कि वह किसी की चिन्ता नहीं करती । आज भी जो धनी व्यक्ति हैं, सत्ताधीश हैं, यदि उन्हें दुःख नहीं होता तो वे किसी की परवाह नहीं करते पर प्रकृति के इस सार्वभौम नियम का कोई अपवाद नहीं है—प्रत्येक दु:ख के साथ सुख जुड़ा हुआ है और प्रत्येक सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ है। सम्भवतः यह इसलिए है कि सन्तुलन बना
जागरण का सूत्र
सुख और दुःख का एक द्वन्द्व है और वह एक नियम के साथ बराबर चलता है । निरन्तर जागृत रहने के लिए, ज्ञानी और जागरूक बनने के लिए दुःख का उत्पन्न होना, उसकी अनुभूति होना जरूरी है । जागरण का एक सूत्र है—जो भी वेदना हो रही है, उसका अनुभव करते रहना । जागरण का दूसरा सूत्र है-चिन्ता। अध्यात्म की दिशा में भी ऐसी कोई चिन्ता होनी चाहिए, जो नींद न आने दे । अध्यात्म के पास नींद को उड़ाने का जो सूत्र है, वह है चिन्तन--विचय-ध्यान । जो कभी विचय नहीं करता, सोचता नहीं, वह जाग नहीं पाता । जो जागना चाहता है, उसे चिन्तन का सहारा लेना होगा। नींद और जागरण की चर्चा में एक प्रश्न उभरता है-हम जागरूक क्यों बनें ? महावीर ने कहा-लोयंसि जाण अहियाय दुःखं यह जो नींद है, अज्ञान है, वह अहित के लिए है। यदि हमें हित पाना है तो जागना होगा, जागने का प्रयत्न करना होगा। अपना हित और जागरूकता--दोनों जुड़े हुए हैं, इस सचाई को जानकर ही हम जागृति का जीवन जी सकते हैं ।
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