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सुख-दःख अपना-अपना
व्यक्ति और समाज-ये जीवन के दो आयाम हैं। कुछ धागे ऐ हैं जो व्यक्ति-व्यक्ति को जोड़ते चले जाते हैं और एक समाज बन जाता है। कुछ सूत्र ऐसे हैं जो व्यक्ति को बचाए रखते हैं, व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं। उसकी पृथक् सत्ता बनी रहती है।
जीवन के दो पक्ष हैं—वैयक्तिक और सामाजिक । प्रश्न है-- वैयक्तिक गुण क्या हैं, जो व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं ? आचारांग सूत्र में उनका निर्देश किया गया है। हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें। जिन्हें मूल कर्म कहा जाता है, जो चार घात्यकर्म हैं, वे व्यक्ति को व्यक्ति बनाए रखते हैं। ज्ञान, इन्द्रिय-संवेदन, सुख-दुःख, आनंद, शक्ति और वेदनीय कर्म-ये व्यक्ति को वैयक्तिकता प्रदान करते हैं। ज्ञान अपनाअपना होता है। इन्द्रिय संवेदन अपना-अपना होता है। सुख-दुःख का संवेदन अपना-अपना होता है। आनंद भी अपना-अपना होता है और शक्ति भी अपनी अपनी-होती है। अधूरा सच : पूरा सच
__ प्रश्न है समाज का । व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । जैसे मछली पानी के बिना जी नहीं सकती वैसे ही व्यक्ति समाज के बिना जी नहीं सकता, इसलिए समाज ही सर्वोपरि है । यह समाजवाद या सामाजिकता का दृष्टिकोण है । इसमें सचाई भी है। समाज के बिना साहित्य और सभ्यता का, आनंद और सुख-दुःख का, कभी विकास नहीं हो सकता। इन सबका विकास समाज के संदर्भ में हुआ है।
समाज और सामाजिकता—दोनों व्यक्ति के लिए जरूरी हैं, किन्तु यह अधूरा सच है । केवल इसी को सब कुछ मानने से समस्याएं उलझती हैं। पूरे सत्य को पकड़ने के लिए सामाजिकता के साथ वैयक्तिकता को समझना जरूरी है । अध्यात्म और धर्मशास्त्र में वैयक्तिकता पर बल दिवा गया । व्यक्तिगत जीवन को देखे बिना सामाजिक जीवन अच्छा नहीं हो सकता । वैयक्तिक है सुख और दुःख
अध्यात्म का महत्वपूर्ण सूत्र है---पत्तेयं सायं पत्तेयं वेयणा-सुख भी अपना है और दुःख भी अपना है। यह एकदम वैयक्तिक बात है ! व्यक्ति
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