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अस्तित्व और अहिंसा
सुख-दुःख से समाज का कोई लेना-देना नहीं होता । एक आदमी दूसरे आदमी को न सुख दे सकता है और न दुःख दे सकता है, इसलिए दूसरों पर अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए । चाहे समाज है. परिवार है, मित्र हैं, सगे-संबंधी हैं, उन पर एक सीमा तक ही भरोसा किया जा सकता है, उससे अधिक नहीं। वे सुख और दुःख से त्राण देने में समर्थ नहीं हैं। महावीर ने कहा"सगे-सबन्धी, मित्र, स्वजन आदि तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं और तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। तुम अपनी इस असमर्थता का अनुभव करो।' यह मूर्छा को तोड़ने वाला सूत्र है, एक बड़ी सचाई है। इसमें जहां समाज का अनुभव है वहां उसके साथ अपने अस्तित्व का अनुभव भी है । सामान्यतः कुछ लोग केवल अपनी ही अनुभूति में चले जाते हैं और समाज को अस्वीकार कर देते हैं। कुछ लोग अपने आपको समाज में लीन कर देते हैं और अपने अस्तित्व को भुला देते हैं। भगवान् महावीर ने निश्चय और व्यवहार-दो नयों का प्रतिपादन किया। उन्होंने समाज को अस्वीकार नहीं किया, किन्तु उसका व्यवहार की एक सीमा तक मूल्यांकन करने की बात कही। उन्होंने-वास्तविक मूल्य व्यक्ति को दिया, व्यक्ति के मूल्यांकन को दिया । इसे व्यक्ति और समाज --दोनों का समायोजन कह सकते हैं। आत्मरक्षा : आत्मतृप्ति मनुष्य में बहुत सारी इच्छाएं होती हैं । उनमें दो इच्छाएं मुख्य हैं
आत्मरक्षा चात्मतृप्तिः, मुख्यमिच्छाद्वयं भवेत् ।
इच्छाकुले जगत्यस्मिन्, तदर्थं यतते जनः । व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है- यह है आत्मरक्षा की इच्छा।
___ व्यक्ति अधिकतम सुख पाने की इच्छा रखता है--यह है आत्मतृप्ति की इच्छा ।
इसी आधार पर नीतिशास्त्र में सुखवाद का सिद्धांत चला। हर आदमी सुख चाहता है, क्योंकि वह अपना है । व्यक्ति कोई भी काम करता है, सुख-प्राप्ति के लिए करता है। सुख और लाभ को पाना व्यक्ति का प्रयोजन है। अध्यात्मशास्त्र में भी इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। आदमी के 'प्रत्येक कार्य का आधार यही मिलेगा-सुख मिले, दुःख न आए। यह एक
आध्यात्मिक सत्य है। सुखवाद के साथ जुड़ा है स्वार्थवाद । सुख और स्वार्थ ...--दोनों जुड़े हुए हैं । इन दोनों को अलग-अलग करना बड़ा कठिन है। यह मान लेना चाहिए—व्यक्ति प्रकृति से ही स्वार्थी है। वह अपने आपको सुख देना चाहता है, उसे और किसी की चिन्ता नहीं होती। इस सिद्धांत का एक उदात्तीकरण धर्मशास्त्र ने किया—संयम पालो, साधना करो। पूछा गया--
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