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आस्तत्व आर आहता
मुझे पकड़ लिया । संन्यासी हंस पड़ा। वह बोला-महाराज ! आप आत्मज्ञानी हैं । यह कैसा आत्मज्ञान ? क्या खम्भा कभी पकड़ता है ? आपने स्वयं खंभे को पकड़ रखा है। जनक बोले- मुझ पर ही हंसते हो या अपने पर भी हंसना जानते हो ? वासना ने तुम्हें पकड़ा है या तुमने वासना को पकड़ा है ? संन्यासी को बोध-पाठ मिल गया।
__यह सचाई हमारी आंखों के सामने है पर ऐसा सघन कुहासा छाया हुआ है कि हम उसे देख नहीं पा रहे हैं। यदि अग्रहण की बात समझ में
आए, पकड़ को मजबूत न बनाएं तो सुख का रहस्य उपलब्ध हो जाए। जितना मानसिक तनाव है, वह पकड़ के कारण है । मानसिक तनाव आज की बीमारी नहीं है। पकड़ने की आदत प्राचीनकाल से ही चल रही है। यदि पकड़ न हो तो ग्रन्थि न बने । कोई बात होती है, व्यक्ति उसे पकड़ लेता है, बार बार उसी बात पर चिन्तन चलता है, वह ग्रन्थि बन जाती है। वह सोचता है-अमुक व्यक्ति ने मुझे दुष्ट और बेवकफ कहा है, मैं इसका बदला लेकर रहूंगा। मन में एक गहरी गांठ बन जाती है। वह खुलती नहीं, घुलती चली जाती है। दुष्ट और बेवकूफ कहने वाला मर जाए तो भी बात मन से निकलती नहीं है । यह पकड़ की समस्या है । अग्रही बनो
महावीर ने कहा-अग्रही बनो । ग्रहणशील होना भी अच्छा है किन्तु सब जगह ग्रहणशील होना अच्छा नहीं है। मनुष्य सोचता है--दुःख का अग्रहण करें पर सुख का अग्रहण क्यों करें ? यदि सुख का ग्रहण न करें तो संसार में जीने का मतलब ही क्या है ? वह यह नहीं सोचता--यदि सुख को पकड़ने की आदत मजबूत बन गई तो क्या वह एक ही जगह काम आएगी ? जो औजार ऑपरेशन करने के काम आता है क्या वह दूसरे कार्य में काम नहीं आ सकता?
बौद्ध भिक्षु बबूल के बड़े-बड़े दतौन रखते थे। एक दिन दो भिक्षुओं में झगड़ा हो गया । उन्होंने एक दूसरे पर दतौन का प्रयोग कर लिया। यह बात बुद्ध तक पहुंची । बुद्ध को एक नया विधान बनाना पड़ा-कोई भी भिक्षु एक बिस्ता से बड़ा दातुन नहीं रखेगा।
दतौन का नियम बनाया जा सकता है पर हथेली को उठाने का नियम नहीं बनाया जा सकता। वह सबके पास है, उसे नियम के घेरे में कैसे बांधा जा सकता है ? जब हमारी आदत ग्रहण करने की बन जाती है तब किसी भी चीज का उपयोग हो सकता है। हम अच्छी बात को ग्रहण करेंगे तो बुरी बात को भी रोक नहीं पाएंगे । सुख को ग्रहण करने की आदत है तो दुःख को ग्रहण करने की आदत भी बन जाएगी।
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