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क्या अरति ? क्या आनन्द ?
ग्रहण से जुड़ी है समस्या
।
मानसिक तनाव से मुक्त रहने का महत्त्वपूर्ण उपाय है—अग्रहण की आदत डालना, अग्रहण का अभ्यास करना यह अध्यात्म की बहुत ऊंची बात है किन्तु इससे व्यवहार नहीं चल पाता । व्यवहार में ग्रहण करना होता है । व्यक्ति सोचता है जो सामने आए और उसे ग्रहण न करें, यह कैसे सम्भव है, किन्तु वह यह कभी नहीं देखता कि ग्रहण करने में कितनी समस्याएं हैं । आदमी आंख से देखता है और सामने वाले पदार्थ को पकड़ लेता है । दुनिया में कितने लोग हैं, स्त्रियां हैं, पदार्थ हैं । यदि आदमी उन्हें देखता चला जाए, पकड़ता चला जाए तो आंख की क्या स्थिति होगी ? मन की क्या स्थिति होगी ? क्या आदमी देखते-देखते पागल नहीं हो जाएगा ? वह देखतेदेखते भीतर से दुःखी बन जाता है। एक-दो से बन्धने वाला भी दुःख भोगता है तो हजारों-हजारों से बन्धने वाला क्या तनाव से नहीं भरेगा ? वह इतना तनावयुक्त जीवन जिएगा कि जीवन में कुछ भी नहीं कर पाएगा ।
रेचन करना सीखें
ग्रहण मत करो -- यह महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है किन्तु यह सबके लिए सम्भव नहीं बन पाता । ग्रहण की सीमा करो - यह सबके लिए सम्भव बन सकता है | हम अग्रहण की बात तक एक साथ नहीं पहुंच सकते । उसके लिए क्रमशः अभ्यास करना होता है। हम ग्रहण करने की आदत को कमजोर बनाएं, कमजोर बनाते चले जाएं, एक दिन हम अग्रहण की स्थिति में पहुंच जाएंगे । अभ्यास का पहला सूत्र है— छोड़ने की आदत डालें, रेचन करना सीखें । ग्रहण करें और निकाल दें । श्वास की प्रक्रिया इसका एक उदाहरण है | श्वास केवल लिया ही लिया जाता, छोड़ा नहीं जाता तो आदमी जी नहीं पाता । निश्चित नियम है- श्वास लेने के साथ छोड़ना जरूरी है । यही नियम भोजन का है । व्यक्ति भोजन करता ही चला जाए, उत्सर्ग न करे तो कब तक जी पाएगा । अर्जन के साथ विसर्जन का सम्बन्ध है । व्यक्ति अर्जन करता चला जाए, विसर्जन न करे, संग्रह की सीमा न करें तो तनाव से भर
जाएगा ।
हमारे सामने ये तीन नियम हैं श्वास और निःश्वास का, आहार और नीहार का, अर्जन और विसर्जन का । ठीक उसी प्रकार एक नियम है ग्रहण और रेचन का ।
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हमारे भीतर यह शक्ति जागनी चाहिए - दुःख आए, ग्रहण करें और उसका रेचन कर दें । सुख आए, ग्रहण करें और उसका रेचन कर दें । हम किसी चीज को पकड़ कर न रखें। यह छोड़ने की प्रक्रिया भगवान महावीर के अग्रहण सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण सूत्र बन सकती है ।
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