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________________ साधना की भूमिका मनुष्य का जीवन अमूल्य है, दुर्लभ है और जीवन जीना एक कला है। प्रश्न है—जो अमूल्य है, उसका उपयोग कैसे करें ? जो दुर्लभ है, उसका मूल्य कैसे चुकाएं ? जो कला है, उसे कैसे जिएं ? इस प्रश्न पर बहुत पहले सोचा गया, जीवन जीने के लिए अनेक व्यवस्थाएं दी गई । वैदिक धर्म में व्यक्ति को शतायु मानकर जीवन को चार भागों में बांट दिया गया । पचीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पचीस वर्ष गृहस्थ आश्रम, पचीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम और पचीस वर्ष संन्यास आश्रम । मुनि जीवन : तीन भूमिकाएं जैनधर्म में भी व्यवस्था दी गई, यद्यपि श्रावक समाज में यह क्रम नहीं चला । मुनि के लिए भी व्यवस्थाओं का निर्देश किया गया । मुनि जीवन को तीन भूमिकाओं में बांट दिया गया० आपीड़न ० प्रपीड़न • निष्पीड़न __ अड़चास वर्ष का मुनि जीवन मानकर इन भूमिकाओं का निर्माण किया गया। पहली भूमिका की अवधि चौबीस वर्ष है, दूसरी भूमिका की अवधि बारह वर्ष है, तीसरी भूमिका की अवधि भी बारह वर्ष है। प्रश्न है-ये भूमिकाएं क्यों? इनका निर्माण किसलिए किया गया ? कहा गया-~-शरीर को साधना है, कर्म शरीर का पीड़न करना है। स्थूल शरीर का पीड़न और कर्म शरीर का प्रकम्पन । इसीलिए आपीड़न शब्द क चुनाव किया गया । आपीड़न है अल्प पीड़न । यदि पहले ही कड़ी साधन बता दी जाए तो वह सम्भव नहीं बन पाती। आदमी सहते-सहते साधना के भूमिका पर आगे बढ़ता है। पहले वह सहन करना शुरू करता है और एक दिन सहिष्णुता के चरम बिन्दु पर पहुंच जाता है । साधना का पहला चरण आपीड़न साधना का पहला चरण है। तेरापंथ की परम्परा हैनया व्यक्ति साधु बनता है, उसे सोने का स्थान पहले मिलता है, आहा पहले मिलता है, और भी काफी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं । ताकि वह सह करना सीख जाए, साधु जीवन में आने वाले कष्टों को सहने की भूमिका बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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