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________________ साधना की भूमिका १३१ जाए। आपीड़न की भूमिका को साधने के दो उपाय हैं--श्रुत और तप । जो मुनि बनता है, वह बारह वर्ष श्रुत का अध्ययन करता हैं। ज्ञान कंठस्थ करना, स्वाध्याय करना आदि कार्यों में वह अपनी शक्ति का नियोजन करता है । उसके बाद बारह वर्ष तक उसे अर्थ का ज्ञान करवाया जाता है। अध्ययन के साथ-साथ उसके अनुरूप तपस्या का क्रम भी चलता है । अध्ययन के लिए जितनी तपस्या आवश्यक है, उतनी तपस्या करता रहे । तपस्या से अध्ययन में बाधा न आए, इसका ध्यान अवश्य रहना चाहिए । प्रपीड़न की भूमिका चौबीस वर्ष की पहली भूमिका में साधक निष्पन्न हो जाता है, परिपक्व बन जाता है । बारह वर्ष की दूसरी भूमिका के कार्य हैं-देशाटन और देश भ्रमण करना, धर्म प्रचार करना, शिष्यों को दीक्षित करना, अध्यापन करना. तपस्या का आचरण करना आदि । प्रश्न हो सकता है-यह सब क्यों? किसलिए? संघ की परम्परा का विच्छेद न हो, संघ की परम्परा बराबर चले इसलिए बारह वर्ष संघ की सेवा करने का निर्देश दिया गया। बारह वर्ष का समय संघ को सेवा देने का समय होता है। यह ऋण-मोक्ष का समय होता है। प्रत्येक साधु-साध्वी पर संघ का ऋण होता है, यदि वह ऋण नहीं चुकाए तो कर्जदार रह जाए। जैसे मातृऋण, पितृऋण, और गुरुऋण होता है वैसे ही संघ का ऋण होता है। अध्यापन कार्य, लोगों को समझाना, प्रचार करना-इनके लिए बारह वर्ष का मुक्त समय निश्चित किया गया । निष्पीड़न की भूमिका छत्तीस वर्ष के साधनाकाल में मुनि दो भूमिकाओं---आपीड़न की भूमिका और प्रपीड़न की भूमिका को पार कर लेता है। तीसरी भूमिका है निष्पीड़न की। निशीथ-चणि में इस भूमिका के सन्दर्भ में स्पष्ट संकेत मिलते हैं । कहा गया—यदि मुनि को लगे कि आयु दीर्घ है तो वह विशिष्ट साधना का कोई विकल्प स्वीकार कर ले। जिन कल्प की साधना करे, एकल-विहारी बने, यथालंदक की साधना, प्रतिमा की धारणा अथवा परिहार-विशुद्धि चारित्र को स्वीकार करे। इनमें से किसी एक विशिष्ट साधना को स्वीकार कर उसकी अनुपालना में समर्पित हो जाए। यदि मुनि को लगे, आयुष्य ज्यादा नहीं हैं, शरीर कमजोर हो गया है तो वह संलेखनापूर्वक मरण के वरण की तैयारी करे । संलेखना का काल बारह वर्ष का होता है। कलापूर्ण जीवन की पद्धति मुनि जीवन की इन तीन भूमिकाओं को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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