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________________ १३२ अस्तित्व और अहिंसा आपीड़न----श्रुत का अध्ययन ज्यादा, तप कम । प्रपीड़न-कष्ट सहन, प्रचार आदि ज्यादा, तप स्वल्प । निष्पीड़न-तपस्या-प्रधान, साधना-प्रधाम । अध्ययन, अध्यापन और श्रृत गौण । ___ यह कला-पूर्ण मुनि जीवन जीने की पद्धति है। साधु-संस्था में लम्बे समय तक यह परम्परा चलती रही । कालान्तर में यह व्यवस्था विच्छिन्न हो गई । एक सुन्दर क्रम प्रस्तुत किया गया-पहले ज्ञान की साधना करें, फिर संघ की सेवा करें, संघ की परम्परा का विच्छेद न होने दें, उसे आगे बढ़ाएं। पहले अपना करें, फिर संघ का करें और फिर भगवान् का करें, परमार्थ में लग जाएं, साधना में लग जाएं। जिसके लिए मुनिव्रत स्वीकार किया, उसके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएं। इसका तात्पर्य है--एकान्तवास, मौन, केवल तपस्या, संघ की चिन्ता से भी एक प्रकार से मुक्त हो जाता । सुन्दर व्यवस्था यह एक बहुत सुन्दर व्यवस्था है। इसमें किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सोचना पड़ता-मैंने क्या किया ? इसी व्यवस्था के कारण ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रही है। आजकल पुस्तकें छप जाती हैं। यह एक माध्यम बन गया है ज्ञान को अविच्छिन्न बनाए रखने का। किन्तु हजारों वर्षों तक बिना पुस्तकों के ज्ञान का प्रवाह निरन्तर चलता रहा है। उसका कारण यह व्यवस्था ही रही है। आज बड़ा खतरा पैदा हो गया है। पूस्तकें छपने लगी हैं किन्तु छपी हुई पुस्तकों को संभालना मुश्किल हो गया है, छपा हुई पुस्तकों का मिलना मुश्किल हो गया है। ऐसा लगता है बहुत सारे ग्रन्थ समाप्त हो जाएगे । आज सौ वर्ष पहले छपी हुई पुस्तक का मिलना दुर्लभ है जबकि पांच सौ वर्ष पूर्व लिखी गई हस्तलिखित प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं । ज्ञान की जो परम्परा रही है, वह कंठस्थ ज्ञान के आधार पर चली है । व्यक्ति को ही कम्प्यूटर मान लिया गया। प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क कम्प्यूटर है, इस धारणा से ज्ञान की परम्परा अव्युच्छिन्न बनी रही। सहज प्रश्न यह मुनि जीवन की भूमिका का विश्लेषण है। इससे एक प्रश्न सहज उभरता है--क्या गृहस्थ जीवन के लिए ऐसी भूमिकाओं का निर्माण जरूरी नहीं है ? आचार्यश्री ने धवल समारोह के प्रसंग पर कहा था---एक श्रावक को लाठ वर्ष पूरे होने पर धंधा-व्यवसाय छोड़कर गृहकार्य से मुक्त हो जाना चाहिए । आज एक व्यक्ति २०-२५ वर्ष तक पढ़ता है और उसके बाद पैतीस वर्ष तक गृहस्थ के दायित्व को निभाता है। साठ वर्ष के बाद घर से मुक्त होकर उसे स्वार्थ को छोड़कर परार्थ या परमार्थ की भूमिका में जीना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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