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साधना की भूमिकाएं
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चाहिए, संघ और शासन की सेवा में लग जाना चाहिए। इसका तात्पर्य हैवह छोटे परिवार से संन्यास ले ले, अपने परिवार को बड़ा बना ले । यह एक अलग प्रकार का जीवन है । गृहस्थ : तीन भूमिकाएं।
यदि हम इस दृष्टि से सोचें तो सहज ही एक गृहस्थ की तीन भूमिकाएं निर्मित हो जाती हैं—विद्यार्थी जीवन की भूमिका, गृहस्थ जीवन की भूमिका, गृह-त्याग की भूमिका । तीसरी भूमिका का अर्थ है.---स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या, शासन-सेवा---इनमें व्यक्ति अपने शेष जीवन का नियोजन करे । जीवन का ऐसा नियोजन ही उत्तम हो सकता है। जो जीवन को इस रूप में नियोजित नहीं करता, उसकी गति अच्छी नहीं होती। शास्त्रकार कहते हैंमरते समय तक जिसका मन घर में अटका रह जाता है, मोह-माया में अटका रह जाता है, वह भूत बनता है, प्रेत बनता है, अथवा सांप, मेंढक आ दे बनता है । मोह में न रहना, लोभ, वासना और परिग्रह में न रहना गृहत्याग की भूमिका के बिना सम्भव नहीं बनता।
आजकल गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोग भी हॉस्पिटल में पड़े रहते हैं, उनके सूई-इन्जेक्शन लगे रहते हैं । इस अवस्था में मरना क्या मरना है ? जैसे जीवन जीना एक कला है, वैसे ही मरना भी एक बड़ी कला है । इसे समझने वाला गृहस्थ तीसरी भूमिका पर आरोहण की बात सोच सकता है । आज भी हमारे सामने यह प्रश्न है-गृहस्थ और मुनि की इन भूमिकाओं का कैसे विकास हो ? कैसे जीवन जीने की कलापूर्ण पद्धति विकसित हो ? इस दिशा में हमारा संकल्प और गति तीव्र बने तो एक नई जीवन पद्धति का दर्शन इस युग में सम्भव बन जाए।
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