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प्रवचन २४ ।
संकलिका
• पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि (आयारो ४/११) • आरंभ दुक्खमिणं ति नच्चा एवमाह सम्मत्तदंसिणो (आयारो ४/२६) • दिठेहि निग्वेयं गच्छेज्जा (आयारो ४/६) • तम्हा तिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि (आयारो ४/३६) • तं आइइत्तु ण णिहे ण णिक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा।
(आयारो ४/५) ० सम्यक्त्व : समत्व ० मूल्यांकन की दृष्टि ० दुःख संचय का कारण : आरंभ • अदृष्ट है आत्मा, दृष्ट है जगत् ० वैराग्य की उपलब्धि : तीन प्रकार
दुःखगर्भ-दुःख आने पर मोहगर्भ-प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग होने पर
ज्ञानगर्भ—आन्तरिक ज्ञान प्रस्फुटित होने पर • भीतर वह है
जो अप्रमत्त है, अवंचक है, दृष्ट में अनासक्त है, उपशान्त है, जो दुःख
को आरंभ मूलक मानता है। ० बाहर वह है--
नो प्रमत्त है, वंचक है, दृष्ट में आसक्त है, प्रज्वलित कषाय वाला है, दुःख को परकृत मानता है ।
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