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भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास हो । प्रत्येक चीज की सीमा होनी चाहिए, अंकुश होना चाहिए, नियन्त्रण होना चाहिए । जहां कहीं अति होती है शायद खराबी पैदा हो जाती है । कुछ लोग तर्क देते हैं--त्याग की भी अति नहीं होनी चाहिए। प्रश्न है---अति कहां होती है ? इन्द्रियों का भोग कौन नहीं करता? क्या एक मुनि इन्द्रियों का भोग नहीं करता ? एक मुनि खाता भी है, देखता भी है, सुनता भी है, सूंघता भी है, छूता भी है । इन्द्रियों का भोग होता है किन्तु उसके पीछे दो बातें जुड़ी हुई हैं-एक है अनासक्ति का भाव और दूसरी है मात्रा का विवेक । यदि भोग के साथ में ये दो बातें जुड़ जाएं तो भोग खतरनाक नहीं बनेगा । वह अपनी प्रकृति से चलेगा, व्यक्ति के लिए खतरा पैदा नहीं करेगा। त्याग करना भी सीखें
आज भोगवाद की कोई सीमा-रेखा नहीं है इसीलिए इस युग को भोगवादी युग कहा जा रहा है। आज यह धारणा मिट गई कि भोग के साथ त्याग की भावना होनी चाहिए। पांच इन्द्रियों के विषय का सेवन करें तो साथ में उनका त्याग करना भी सीखें । भोग की अति न हो। भोग का संयम करें। भोग के साथ भोगातीत चेतना का अनुभव करें, यह आवश्यक है । हमारी जो चेतना है, वह स्वभाव से भोगातीत है, हम उसका अनुभव करें, उसे देखें । यदि हम भोग-चेतना और भोगातीत चेतना-इन दोनों का संतुलन बना पाए तो जीवन की स्थिति लय-बद्ध बन जाएगी, जीवन की लय टूट नहीं पाएगी। इस सन्तुलन से जीवन की सरसता भी समाप्त नहीं होगी, जीवन स्वस्थ बना रहेगा। इस पूरे दृष्टिकोण को समग्रता से समझा जाए, भोगनियन्त्रण एवं भोग-संयम की आवश्यकता का अनुभव किया जाए तो स्वस्थ समाज की रचना का सपना सच बन जाए ।
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