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अस्तित्व और अहिंसा
नहीं कर पा रहे हैं । रोग-निरोधक शक्ति इतनी तेज है कि वह सारे कीटाणुओं को समाप्त कर देती है। भोग और रोग
बन्धन किसके होता है ? जो बंधा हुआ है, उसके बन्धन होता है। जो मुक्त हो गया, उसके बन्धन नहीं होता। रोग उसी के पास जाते हैं, जो रोगी होता है । जो अरोगी है, उसे रोग नहीं होता ।
बद्ध कर्माणि बध्नति, रोगो गच्छति रोगिणाम् ।
अबद्धो न भवेद् बद्धः, विरागो नामयास्पदम ॥
रोग पैदा होते हैं क्योंकि भोग का रोग भीतर बैठा है। अगर भोग का रोग नहीं है तो रोग नहीं होगा। यदि व्यक्ति भोगी है तो वह रोगी है। अगर व्यक्ति भोगी नहीं है तो वह रोगी नहीं है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि जहां भी रोग है वहां निश्चित रूप से किंचित् मात्रा में भोग भी योग दे रहा है, अपना काम कर रहा है। अगर भोग नहीं होता तो रोग होता ही नहीं । रोगी ही बार-बार रोगी होता है लेकिन जो रोगी नहीं है, उसे रोगी बनाया ही नहीं जा सकता । प्रलय का सूत्र
हमारा भोगवाद के प्रति दृष्टिकोण बदले । हमारे लिए भोग अनिवार्य है, ओवश्यक है, हम खुले दिल से भोग करें, यह धारणा जिस दिन बन जाती है, रोग को निमंत्रण मिल जाता है। आज भोगातीत चेतना के विकास की जरूरत है और वह इसलिए है कि आदमी अच्छा जीवन जीना चाहता है । मैं यह नहीं मानता कि दुनिया में भोग मिट जाएगा, भोग नहीं चलेगा किन्तु भोग के साथ भोगातीत चेतना का विकास भी चले, यह अपेक्षित है। यानी त्याग की चेतना, भोग-संयम की चेतना का विकास भी होना चाहिए । यदि कोरा भोग चलता रहा तो खतरा बढ़ जाएगा। अणुबम से ज्यादा प्रलयंकारी बन जाएगा यह उच्छृखल भोगवाद । अणुबम न जाने कब प्रलय करेगा किन्तु यह भोगवाद अपने आप प्रलय का सूत्र बन जाएगा। आवश्यक है अंकुश
हम वर्तमान स्थिति को देखें। आज हिन्दुस्तान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। विदेशों की स्थिति इससे भी ज्यादा खराब है। इतनी समस्याएं, इतनी जटिलताएं और इतना मानसिक संताप बढ़ रहा है कि व्यक्ति को कहीं कुछ सूझ नहीं रहा है, उसे कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है। इसका कारण है भोगवाद को सब कुछ मान लेना। ऐसा लगता है संयम करने की बात जैसे सिखाई ही नहीं गई है। इस संदर्भ में हम महावीर वाणी का मूल्यांकन करें। समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है—भोग की अति न
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