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चाहता है सुख, जाता है दुःख की दिशा में
मनुष्य जो चाहे वह मिल जाए, यह संवादिता है, यथार्थ है । चाहे कुछ और मिले कुछ, यह विसंवादिता है, विपर्यास है। प्रत्येक प्राणी सुखार्थी है, वह केवल सुख चाहता है । सुख चाहे और सुख मिल जाए, यह संवादिता है। जैसी चाह वैसी प्राप्ति । सुख चाहे और दुःख मिल जाए, यह विसंवादिता है, विपर्यास है किन्तु ऐसा होता है । प्रश्न है—ऐसा क्यों होता है ? सुख और दुःख का प्रश्न
शिष्य ने यही प्रश्न आचार्य से पूछा
सुखं वांछति सर्वोऽपि, दुःखं कोऽपि न वांछति ।
सुखार्थ यतते लोको, दुःखं तथाऽपि जायते ।।
सब प्राणी सुख चाहते है, दु:ख कोई नहीं चाहता। व्यक्ति सुख के लिए प्रयत्न करता है फिर भी उसे दुःख मिल जाता है। इसका कारण क्या
आचार्य ने कहादुःखं मूर्छा मनुष्याणां, अमूर्छा वर्तते सुखम् ।
मूढो दुःखमवाप्नोति, अमूढः सुखमेधते ॥
मूर्छा दुःख है । सुख है अमूर्छ । मूढ व्यक्ति दुःख को प्राप्त करता है । जो मूढ नहीं है, वह सुख को प्राप्त करता है। सुख : अभावात्मक परिभाषा
सुख और दुःख की एक परिभाषा है—मूळ दुःख है, अमूर्छा सुख है। सुख-दुःख की अनेक परिभाषाएं गढी गई। पश्चिम के नीति शास्त्रियों और भारत के अध्यात्मवेत्ताओं ने सुख-दुःख के सन्दर्भ में अनेक परिभाषाएं दी । एपीक्यूरस की एक परिभाषा है-दुःख का अभाव ही सुख है। यह अभावात्मक परिभाषा है । व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक पीड़ा नहीं है, वह कहता है-मैं मजे में हूं, बड़ा सुख है। यह दुःख के अभाव से उत्पन्न स्थिति है । किसी प्रकार का दुःख नहीं है इसलिए आदमी उसे सुख मानता है। वस्तुतः यह सुख की एक अपूर्ण परिभाषा है। क्या सुख अभावात्मक ही है ? क्या दुःख का न होना ही सुख है ? किसी व्यक्ति ने बगीचे में सुन्दर फूल देखा, उसका मन उल्लास से भर गया। वहां क्या दुःख का अभाव ही है ? वहां विधायक है सुख । अच्छा संगीत सुना, सुख मिला। यह क्या है ? क्या यह
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